श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला ३ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इहु मनु गिरही कि इहु मनु उदासी ॥ कि इहु मनु अवरनु सदा अविनासी ॥ कि इहु मनु चंचलु कि इहु मनु बैरागी ॥ इसु मन कउ ममता किथहु लागी ॥१॥ पंडित इसु मन का करहु बीचारु ॥ अवरु कि बहुता पड़हि उठावहि भारु ॥१॥ रहाउ ॥ माइआ ममता करतै लाई ॥ एहु हुकमु करि स्रिसटि उपाई ॥ गुर परसादी बूझहु भाई ॥ सदा रहहु हरि की सरणाई ॥२॥ सो पंडितु जो तिहां गुणा की पंड उतारै ॥ अनदिनु एको नामु वखाणै ॥ सतिगुर की ओहु दीखिआ लेइ ॥ सतिगुर आगै सीसु धरेइ ॥ सदा अलगु रहै निरबाणु ॥ सो पंडितु दरगह परवाणु ॥३॥ सभनां महि एको एकु वखाणै ॥ जां एको वेखै तां एको जाणै ॥ जा कउ बखसे मेले सोइ ॥ ऐथै ओथै सदा सुखु होइ ॥४॥ कहत नानकु कवन बिधि करे किआ कोइ ॥ सोई मुकति जा कउ किरपा होइ ॥ अनदिनु हरि गुण गावै सोइ ॥ सासत्र बेद की फिरि कूक न होइ ॥५॥१॥१०॥ {पन्ना 1261}

पद्अर्थ: गिरही = गृहस्ती, घर के जंजालों में फसा हुआ। उदासी = उपराम, निर्लिप। अवरनु = अ+वरनु। चार वर्णों वाले भेद भाव से रहत। अविनासी = नाश रहित, आत्मिक मौत से बचा हुआ। चंचलु = माया की दौड़ भाग में काबू आया हुआ, जिसका मन और तन माया के प्रभाव में आकर दौड़ भाग में फसा हुआ है। ममता = अपनत्व।1।

पंडित = हे पण्डित! कि पढ़हि = क्या पढ़ता है? उठावहि = उठाता है।1। रहाउं

करतै = करतार ने। करि = कर के, चला के। परसादी = कृपा से। भाई = हे भाई!।2।

सो = वे मनुष्य। पंड = भार। उतारै = (अपने सिर पर से) उतार देता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। वखाणै = उचारता है, जपता है। ओहु = वह (पण्डित)। दीखिआ = शिक्षा। लेइ = लेता है (एक वचन)। सीसु = सिर। धरेइ = धरता है। अलगु = अलग। निरबानु = निर्वाण, वासना रहत।3।

वखाणै = कहता है, उपदेश देता है। जां = जब। जा कउ = जिस मनुष्य को। अैथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में।4।

कवन बिधि = कौन सी जुगती? कोइ = कोई मनुष्य। कूक = शोर, (मर्यादा चलाने का) शोर, हू हल्ला।5।

अर्थ: हे पण्डित! (वेद-शास्त्र आदि की मर्यादा पर जोर देने की जगह) अपने इस मन के बारे में विचार किया कर। (अपने मन की पड़ताल छोड़ के) और बहुत सारा जो कुछ तू पढ़ता है, वह (अपने सिर पर अहंकार का) भार ही उठाता है।1। रहाउ।

हे पण्डित! (वेद-शास्त्रों की मर्यादा आदि की चर्चा की जगह ये विचार किया कर कि तेरा) यह मन घर के जंजालों में फंसा रहता है अथवा निर्लिप रहता है? हे पण्डित! (ये सोचा कर कि तेरा) यह मन (ब्राहमण खत्री आदि) वर्ण-भेद से ऊपर है और सदा आत्मिक मौत से बचा रहता है? क्या (तेरा) यह मन माया की दौड़-भाग के शिकंजे में फसा हुआ है अथवा इससे आजाद है (इससे उपराम है) ? हे पण्डित! (ये विचार भी किया कर कि) इस मन को ममता कहाँ से आ चिपकती है।1।

हे पण्डित! (देख,) करतार ने (खुद इस मन को) माया की ममता चिपकाई हुई है। (करतार ने माया की ममता का) ये हुकम दे के ही जगत पैदा किया हुआ है। हे भाई! गुरू की कृपा से (इस बात को) समझ, और सदा परमात्मा की शरण पड़ा रह (ताकि माया की ममता तेरे ऊपर अपना प्रभाव ना डाल सके)।2।

हे पण्डित! वह (मनुष्य असल) पण्डित है जो (अपने ऊपर से) माया के तीनों गुणों का भार उतार देता है, और हर वक्त हरी-नाम ही जपता रहता है। ऐसा पंडित गुरू की शिक्षा ग्रहण करता है, गुरू के आगे अपना सिर रखे रखता है (सदा गुरू के हुकम में चलता है)। वह सदा निर्लिप रहता है, माया के मोह से बचा रहता है। ऐसा पण्डित प्रभू की हजूरी में आदर प्राप्त करता है।3।

हे पण्डित! (जो पण्डित वेद-शास्त्र आदि की चर्चा की जगह अपने मन को पड़तालता है स्वै अवलोकन करता है स्वै-विश्लेषण करता है, वह) यही उपदेश करता है कि सब जीवों में एक ही परमात्मा बसता है (किसी भी तरह के भेद-भाव को नहीं गिनता)। जब वह पण्डित (सब जीवों में) एक प्रभू को ही देखता है, तबवह उस एक प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल लेता है। पर, हे पण्डित! जिस मनुष्य पर करतार बख्शिश करता है, उसी को वह (अपने चरणों में) जोड़ता है, उस मनुष्य को इस लोक और परलोक में आत्मिक आनंद सदा मिला रहता है।4।

हे पण्डित! नानक कहता है- (माया के बँधनों से निजात हासिल करने के लिए आजादी पाने के लिए अपनी बुद्धि के आसरे) कोई भी मनुष्य कोई जुगति नहीं बरत सकता। जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर करता है वही बँधनों से मुक्ति पाता है। वह मनुष्य हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रहता है, वह फिर (अपने ऊँचे वर्ण आदि को साबित करने के लिए) वेद-शास्त्रों आदि की मर्यादा का शोर नहीं मचाता फिरता।5।1।10।

मलार महला ३ ॥ भ्रमि भ्रमि जोनि मनमुख भरमाई ॥ जमकालु मारे नित पति गवाई ॥ सतिगुर सेवा जम की काणि चुकाई ॥ हरि प्रभु मिलिआ महलु घरु पाई ॥१॥ प्राणी गुरमुखि नामु धिआइ ॥ जनमु पदारथु दुबिधा खोइआ कउडी बदलै जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा गुरमुखि लगै पिआरु ॥ अंतरि भगति हरि हरि उरि धारु ॥ भवजलु सबदि लंघावणहारु ॥ दरि साचै दिसै सचिआरु ॥२॥ बहु करम करे सतिगुरु नही पाइआ ॥ बिनु गुर भरमि भूले बहु माइआ ॥ हउमै ममता बहु मोहु वधाइआ ॥ दूजै भाइ मनमुखि दुखु पाइआ ॥३॥ आपे करता अगम अथाहा ॥ गुर सबदी जपीऐ सचु लाहा ॥ हाजरु हजूरि हरि वेपरवाहा ॥ नानक गुरमुखि नामि समाहा ॥४॥२॥११॥ {पन्ना 1261}

पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। भ्रमि भ्रमि भरमाई = सदा ही भटकता फिरता है। नित = सदा। पति = इज्जत। काणि = मुथाजी। पाई = ढूँढ लिया।1।

प्राणी = हे प्राणी! गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। जनमु पदारथु = कीमती मनुष्य जनम। दुबिधा = दो चिक्तापन, मेर तेर। बदलै = बदले में।1। रहाउ।

करि = कर के। करि किरपा = मेहर करके, (प्रभू की) मेहर से। उरि = हृदय में। भवजलु = संसार समुंद्र। सबदि = शबद से। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। सचिआरु = सच्चे, सुर्खरू।2।

करम = (तीर्थ यात्रा आदि मिथे हुए धार्मिक) कर्म। भूले = गलत रास्ते पर पड़े रहे। दूजै भाइ = माया के मोह, (प्रभू के बिना किसी) और के प्यार में।3।

अगम = अपहुँच। सबदि = शबद से। सचु लाहा = सदा टिके रहने वाला लाभ। नामि = नाम में।4।

अर्थ: हे प्राणी! गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम सिमरा कर। (जिस मनुष्य ने अपना) कीमती (मनुष्य-) जनम माया की भटकना में गवा लिया, उसका यह जनम कौड़ियों के भाव ही चला जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा भटकता ही रहता है, उसको (आत्मिक) मौत मार लेती है, वह सदा अपनी इज्जत गवाता रहता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह जमों की मुथाजी खत्म कर लेता है (वह जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ता), उसको हरी-प्रभू मिल जाता है, वह मनुष्य परमात्मा का महल परमात्मा का घर पा लेता है।1।

हे भाई! प्रभू की मेहर से गुरू के द्वारा (जिस मनुष्य के हृदय में) प्रभू के प्रति प्यार पनप उठता है, उसके अंदर प्रभू की भक्ति पैदा होती है, वह मनुष्य प्रभू को अपने हृदय में बसा लेता है। प्रभू उसको गुरू-शबद के माध्यम से संसार-समुंद्र से पार लंघाता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के दर पर सुर्खरू दिखता है।2।

हे भाई! (जो मनुष्य तीर्थ-यात्रा आदि मिथे हुए धर्म के नाम पर किए जाने वाले) कर्म करता फिरता है, पर गुरू की शरण नहीं पड़ता, वह मनुष्य गुरू के बिना माया की भटकना में पड़ कर गलत रासते पर पड़ा रहता है। वह मनुष्य अपने अंदर अहंकार ममता और मोह को बढ़ाता जाता है। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के प्यार में (फस के सदा) दुख ही सहता है।3।

पर, हे भाई! अपहुँच और अथाह करतार स्वयं ही (ये सारी खेल खेल रहा है)। गुरू के शबद द्वारा (उसका नाम) जपना चाहिए - यही है सदा कायम रहने वाला लाभ। हे भाई! वह करतार हर जगह हाजर-नाजर है और उसको किसी की मुथाजी नहीं है। हे नानक! गुरू के माध्यम से ही उसके नाम में लीन हुआ जा सकता है।4।2।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh