श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1265 मलार महला ४ ॥ गुर परसादी अम्रितु नही पीआ त्रिसना भूख न जाई ॥ मनमुख मूड़्ह जलत अहंकारी हउमै विचि दुखु पाई ॥ आवत जात बिरथा जनमु गवाइआ दुखि लागै पछुताई ॥ जिस ते उपजे तिसहि न चेतहि ध्रिगु जीवणु ध्रिगु खाई ॥१॥ प्राणी गुरमुखि नामु धिआई ॥ हरि हरि क्रिपा करे गुरु मेले हरि हरि नामि समाई ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुख जनमु भइआ है बिरथा आवत जात लजाई ॥ कामि क्रोधि डूबे अभिमानी हउमै विचि जलि जाई ॥ तिन सिधि न बुधि भई मति मधिम लोभ लहरि दुखु पाई ॥ गुर बिहून महा दुखु पाइआ जम पकरे बिललाई ॥२॥ {पन्ना 1265} पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। न जाई = दूर नहीं होते। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अहंकारी = अहंकार में। आवत जात = आते जाते हुए, जनम मरण के चक्करों में पड़ा। जिस ते = जिस (परमात्मा) से ('जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'ते' के कारण हटा दी गई है)। चेतहि = याद करते (बहुवचन)। ध्रिगु = धिक्कार योग्य।1। प्राणी = हे प्राणी! गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। नामि = नाम में।1। रहाउ। बिरथा = व्यर्थ, निश्फल। लजाई = शर्मिन्दे। कामि = काम में। जलि जाई = जल जाता है। सिधि = सफलता। मधिम = कम, निम्न। बिललाई = बिलकता है।2। अर्थ: हे प्राणी! गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम सिमरा कर। हे भाई! जिस मनुष्य पर हरी कृपा करता है, उसको वह गुरू मिलाता है, और, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहता है।1। रहाउ। हे भाई! (जिस मनुष्य ने) गुरू की मेहर से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (कभी) नहीं पीया, उसकी (माया वाली) भूख-प्यास दूर नहीं होती। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य अहंकार में जलता रहता है, अहमं् में फसा हुआ दुख सहता रहता है। जनम-मरण के चक्करों में पड़ा वह मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ गवाता है, दुखी होता है और हाथ मलता है। (ऐसे मनुष्य) जिस (प्रभू) से पैदा हुए हैं उसको (कभी) याद नहीं करते, उनकी जिंदगी धिक्कार-योग्य रहती है, उनका खाया-पीया भी उनके लिए तिरस्कार ही कमाता है।1। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों का जीवन व्यर्थ जाता है, जनम-मरण के चक्करों में फसे हुए ही वे शर्म-सार हुए रहते हैं। वे मनुष्य काम-क्रोध-अहंकार में ही डूबे रहते हैं। अहंकार में फंसे हुओं का आत्मिक जीवन जल (के राख हो) जाता है। (अपने मन के पीछे चलने वाले) उन मनुष्यों को (जीवन में) सफलता हासिल नहीं होती, (सफलता वाली) बुद्धि उनको प्राप्त नहीं होती, उनकी मति नीच ही रहती है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य लोभ की लहरों में (फसा हुआ) दुख पाता है। गुरू की शरण आए बिना मनमुख मनुष्य बहुत दुख पाता है, जब उसको जम आ पकड़ते हैं तब वह बिलकता है।2। हरि का नामु अगोचरु पाइआ गुरमुखि सहजि सुभाई ॥ नामु निधानु वसिआ घट अंतरि रसना हरि गुण गाई ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती एक सबदि लिव लाई ॥ नामु पदारथु सहजे पाइआ इह सतिगुर की वडिआई ॥३॥ सतिगुर ते हरि हरि मनि वसिआ सतिगुर कउ सद बलि जाई ॥ मनु तनु अरपि रखउ सभु आगै गुर चरणी चितु लाई ॥ अपणी क्रिपा करहु गुर पूरे आपे लैहु मिलाई ॥ हम लोह गुर नाव बोहिथा नानक पारि लंघाई ॥४॥७॥ {पन्ना 1265} पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में (टिक के)। निधानु = खजाना। घट अंतरि = हृदय में। रसना = जीभ से। गाई = गाता है। अनंदि = आनंद में। सबदि = शबद में। लिव लाई = सुरति जोड़ के। नामु पदारथु = कीमती नाम। वडिआई = बड़प्पन, बरकति।3। ते = से, द्वारा। मनि = मन मे। कउ = को। सद = सदा। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। अरपि = भेटा कर के। रखउ = मैं रखता हूँ। लाई = मैं लगाता हूं। गुर = हे गुरू! आपे = आप ही। लोह = लोहा। नाव = बेड़ी। बोहिथा = जहाज।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह आत्मिक अडोलता में (टिक के) प्रेम में (लीन हो के) उस परमात्मा का नाम (-खजाना) हासिल कर लेता है जिस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। उस मनुष्य के हृदय में नाम-खजाना आ बसता है, वह मनुष्य (अपनी) जीभ से परमात्मा के गुण गाता रहता है। एक परमात्मा की सिफत-सालाह के शबद में सुरति जोड़ के वह मनुष्य दिन-रात सदा आनंद में रहता है। आत्मिक अडोलता से वह मनुष्य कीमती हरि-नाम प्राप्त कर लेता है। हे भाई! यह सारी गुरू की ही बरकति है।3। हे भाई! मैं गुरू से सदा बलिहार जाता हूँ, गुरू के द्वारा ही परमात्मा (का नाम मेरे) मन में आ बसा है। मैं अपना मन अपना तन सब कुछ गुरू के आगे भेट रखता हूँ, मैं गुरू के चरणों में अपना चिक्त जोड़ता हूँ। हे नानक! (कह-) हे पूरे गुरू! (मेरे पर) अपनी मेहर करो, मुझे खुद ही (अपने चरणों में) मिलाए रखो। हे भाई! हम जीव (विकारों से भरे हो चुके) लोहा हैं, गुरू बेड़ी है गुरू जहाज़ है जो (संसार-समुंद्र से) पार लंघाता है।4।7। मलार महला ४ पड़ताल घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि जन बोलत स्रीराम नामा मिलि साधसंगति हरि तोर ॥१॥ रहाउ ॥ हरि धनु बनजहु हरि धनु संचहु जिसु लागत है नही चोर ॥१॥ चात्रिक मोर बोलत दिनु राती सुनि घनिहर की घोर ॥२॥ जो बोलत है म्रिग मीन पंखेरू सु बिनु हरि जापत है नही होर ॥३॥ नानक जन हरि कीरति गाई छूटि गइओ जम का सभ सोर ॥४॥१॥८॥ {पन्ना 1265} पद्अर्थ: हरि जन = हे हरी! तेरे भगत। मिलि = मिल के। तोर = तेरी।1। रहाउ। बनजहु = वणज करो, खरीदो। संचहु = संचित करो।1। चात्रिक = पपीहा। सुनि = सुन के। घनिहर = बादल। घोर = घनघोर, गरज, शोर।2। म्रिग = पशु। मीन = मछली। पंखेरू = पक्षी।3। कीरति = सिफतसालाह। सोर = शोर।4। अर्थ: हे हरी! तेरे भगत तेरी साध-संगति में मिल के तेरा नाम जपते हैं।1। रहाउ। हे भाई! (तुम भी साध-संगति में) परमात्मा का नाम-धन खरीदो, प्रभू का नाम-धन संचित करो, (यह धन ऐसा है) कि इसको चोर चुरा नहीं सकते।1। हे भाई! (जैसे) पपीहे और मोर बादलों की गर्जना सुन के दिन-रात बोलते हैं, (वैसे ही तुम भी साध-संगति में मिल के हरी का नाम जपा करो)।2। हे भाई! (वह परमात्मा ऐसा है कि) पशु-पक्षी-मछलियां आदि (धरती पर चलने वाले, पानी में रहने वाले, आकाश में उड़ने वाले सारे ही) जो बोलते हैं, परमात्मा (की दी हुई सक्ता) के बिना (किसी) और (की सक्ता से) नहीं बोलते।3। हे नानक! जिन भी हरी-सेवकों ने परमात्मा की सिफत-सालाह का गीत गाना शुरू कर दिया, (उनके लिए) जमदूतों का सारा शोर समाप्त हो गया (उनको जमदूतों का कोई डर नहीं रह गया)।4।1।8। नोट: पड़ताल- वह शबद जिनको गाने के वक्त लय-ताल पलटने पड़ते हैं। मलार महला ४ ॥ राम राम बोलि बोलि खोजते बडभागी ॥ हरि का पंथु कोऊ बतावै हउ ता कै पाइ लागी ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हमारो मीतु सखाई हम हरि सिउ प्रीति लागी ॥ हरि हम गावहि हरि हम बोलहि अउरु दुतीआ प्रीति हम तिआगी ॥१॥ मनमोहन मोरो प्रीतम रामु हरि परमानंदु बैरागी ॥ हरि देखे जीवत है नानकु इक निमख पलो मुखि लागी ॥२॥२॥९॥९॥१३॥९॥३१॥ {पन्ना 1265-1266} पद्अर्थ: बडभागी = बड़े भाग्यों वाले मनुष्य। पंथु = रास्ता। हउ = मैं। ता कै पाइ = उसके पैरों पर। लागी = मैं लगता हूं।1। रहाउ। सखाई = साथी, मददगार। सिउ = साथ। हम गावहि = हम गाते हैं (मैं गाता हॅूँ)। हम बोलहि = हम उचारते हैं (मैं जपता हूँ)। हम = हम, मैं। दुतीआ = दूसरी।1। परमानंदु = परम आनंद का मालिक। बैरागी = माया के प्रभाव से परे रहने वाला। जीवत है = जीता है, आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। मुखि लागी = मुँह लगता है, दिखता है, दर्शन देता है।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा उचारा कर। बड़े भाग्यों वाले हैं वे मनुष्य जो (परमात्मा के दर्शन करने के लिए) तलाश करते हैं। हे भाई! मैं (तो) उस मनुष्य के चरणों में लगता हूँ जो मुझे परमात्मा का रास्ता बता दे।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा ही मेरा मित्र है मेरा मददगार है, परमात्मा के साथ (ही) मेरा प्यार बना हुआ है। मैं परमात्मा के सिफत-सालाह के ही गीत गाता हूँ, मैं परमात्मा का नाम ही जपता हूँ। प्रभू के बिना किसी और के प्रति प्यार मैंने छोड़ दिया है।1। हे भाई! सबके मन को मोह लेने वाला परमात्मा ही मेरा प्रीतम है। वह परमात्मा सबसे ऊँचे आनंद का मालिक है, माया के प्रभाव से ऊँचा रहने वाला है। हे भाई! अगर उस परमात्मा के दर्शन आँख झपकने जितने समय के लिए भी हो जाए, एक पल भर के लिए हो जाए, तो नानक उसके दर्शन करके आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।2।2।9।9।13।9।31। शबदों का वेरवा: |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |