श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1266 रागु मलार महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ किआ तू सोचहि किआ तू चितवहि किआ तूं करहि उपाए ॥ ता कउ कहहु परवाह काहू की जिह गोपाल सहाए ॥१॥ बरसै मेघु सखी घरि पाहुन आए ॥ मोहि दीन क्रिपा निधि ठाकुर नव निधि नामि समाए ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक प्रकार भोजन बहु कीए बहु बिंजन मिसटाए ॥ करी पाकसाल सोच पवित्रा हुणि लावहु भोगु हरि राए ॥२॥ दुसट बिदारे साजन रहसे इहि मंदिर घर अपनाए ॥ जउ ग्रिहि लालु रंगीओ आइआ तउ मै सभि सुख पाए ॥३॥ संत सभा ओट गुर पूरे धुरि मसतकि लेखु लिखाए ॥ जन नानक कंतु रंगीला पाइआ फिरि दूखु न लागै आए ॥४॥१॥ {पन्ना 1266} पद्अर्थ: उपाऐ = अनेकों उपाय (बहुवचन)। कउ = को। ता कउ = उस (मनुष्य) को। सहाऐ = सहाई।1। मेघु = बादल। सखी = हे सखी! हे सहेली! घरि = (मेरे हृदय) घर में। पाहुन = (आदर वास्ते बहुवचन) मेहमान, नींगर, दूल्हा, प्रभू पति। मोहि दीन = मुझ गरीब को। क्रिपा निधि = हे कृपा के खजाने! ठाकुर = हे मालिक! नवनिधि नामि = नाम में जो (मानो) नौ ही खजाने हैं। समाऐ = लीन कर।1। रहाउ। अनिक प्रकार = कई किस्मों के। कीऐ = तैयार किए। मिसट = मीठे। बिंजन मिसटाऐ = मीठे स्वादिष्ट भोजन। कीऐ = (स्त्री ने) तैयार किए। करी = तैयार की। पाकसाल = रसोई, (हृदय-) रसोई। सोच = सुच (से)। लावहु भोग = खाओ, पहले आप खाओ, प्रवान करो। हरि राइ = हे प्रभू पातशाह!।2। बिदारे = नाश कर दिए। रहसे = खुश हुए। अपनाऐ = अपने बना लिए, अपनत्व दिखाया। ग्रिहि = (हृदय-) घर में। रंगीओ = रंगीला, सुंदर। सभि = सारे। इहि = ('इह' का बहुवचन)।3। अर्थ: हे सहेली! (मेरे हृदय-) घर में प्रभू-पति जी टिके हैं (मेरे अंदर से तपष मिट गई है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मेरे अंदर उसकी मेहर के) बादल बरस रहे हैं। हे कृपा के खजाने प्रभू! हे मालिक प्रभू! मुझ कंगाल को अपने नाम में लीन करे रख (यह नाम ही मेरे वास्ते) नौ खजाने है।1। रहाउ। हे भाई! (परमात्मा की शरण छोड़ के) तू और क्या सोचें सोचता है? तू और कौन से उपाय चितवता है? तू और कौन से तरीके अपनाता है? (देख,) जिस (मनुष्य) का सहाई परमात्मा खुद बनता है उसको, बता, किसकी परवाह रह जाती है?।1। जैसे कोई स्त्री अपने पति के लिए अनेकों किसमों के स्वादिष्ट खाने तैयार करती है, बड़ी स्वच्छता से रसोई साफ-सुथरी बनाती है, हे प्रभू पातशाह! (तेरे प्यार में मैंने अपने हृदय की रसोई को तैयार किया है, मेहर कर, और इसको) अब परवान कर।2। हे सखी! इन (शरीर रूपी) घर-मंदिरों को (जब प्रभू-पति) अपनाता है (इनमें अपना प्रकाश करता है, तब इनमें से कामादिक) दुष्ट नाश हो जाते हैं (और देवी गुण) सज्जन प्रफुल्लित हो जाते हैं। हे सखी! जब से मेरे हृदय-घर में सुंदर-लाल (प्रभू) आ बसा है, तब से मैंने सारे सुख हासिल कर लिए हैं।3। हे दास नानक! धुर-दरगाह से जिस जीव के माथे पर साध-संगति में पूरे गुरू की ओट का लेख लिखा होता है, उसको सोहाना प्रभू-पति मिल जाता है, उसको फिर कोई दुख पोह नहीं सकता।4।1। मलार महला ५ ॥ खीर अधारि बारिकु जब होता बिनु खीरै रहनु न जाई ॥ सारि सम्हालि माता मुखि नीरै तब ओहु त्रिपति अघाई ॥१॥ हम बारिक पिता प्रभु दाता ॥ भूलहि बारिक अनिक लख बरीआ अन ठउर नाही जह जाता ॥१॥ रहाउ ॥ चंचल मति बारिक बपुरे की सरप अगनि कर मेलै ॥ माता पिता कंठि लाइ राखै अनद सहजि तब खेलै ॥२॥ जिस का पिता तू है मेरे सुआमी तिसु बारिक भूख कैसी ॥ नव निधि नामु निधानु ग्रिहि तेरै मनि बांछै सो लैसी ॥३॥ पिता क्रिपालि आगिआ इह दीनी बारिकु मुखि मांगै सो देना ॥ नानक बारिकु दरसु प्रभ चाहै मोहि ह्रिदै बसहि नित चरना ॥४॥२॥ {पन्ना 1266} पद्अर्थ: खीर = दूध। खीर अधारि = दूध के आसरे से। होता = रहता है। बिनु खीरै = दूध के बिना। सारि = सार ले के। समालि = संभाल के। मुखि = (बच्चे के) मुँह में। नीरै = परोसती है, थन देती है। त्रिपति अघाई = अच्छी तरह तृप्त हो जाता है।1। भूलहि = भूलते हैं (बहुवचन)। बारिकु = (एक वचन)। बारिक = (बहुवचन)। बरीआ = बारी। अन = अन्य, और। ठउर = जगह। जह = जहाँ।1। रहाउ। चंचल = चुलबुली, एक जगह ना टिक के रहने वाली। बपुरो की = बिचारे की। सरप = साँप। कर = हाथ। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। सहजि = अडोलता से, बेफिक्री से।2। जिस का: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है। सुआमी = हे स्वामी! ग्रिहि तेरै = तेरे घर में। मनि = मन में। बांछै = मांगता है, चाहता है। लैसी = ले जाएगा।3। क्रिपालि = कृपालु ने। आगिआ = आज्ञा, हुकम। मुखि = मुँह से। दरसु प्रभ = प्रभू का दर्शन। मोहि हृदै = मेरे हृदय में। बसहि = बसते रहें।4। अर्थ: हे भाई! दातार प्रभू (हमारा) पिता है, हम (जीव उस के) बच्चे हैं। बच्चे अनेकों बार लाखों बार भूलें करते हैं (पिता-प्रभू के बिना उनकी कोई) और जगह नहीं, जहाँ वे जा सकें।1। रहाउ। हे भाई! जब (कोई) बच्चा दूध के आसरे होता है (तब वह) दूध के बिना नहीं रह सकता। (जब उसकी) माँ (उसकी) सार ले के (उसकी) संभाल कर के (उसके) मुँह में अपना थन डालती है, तब वह (दूध से) अच्छी तरह तृप्त हो जाता है।1। हे भाई! बेचारे बच्चे की अकल होछी होती है, वह (जब माता-पिता से परे होता है तब) साँप को हाथ से पकड़ना चाहता है, आग में हाथ डालता है (और, दुखी होता है)। (पर, जब उसको) माँ गले से लगा के रखती है पिता गले से लगा के रखता है (भाव, जब उसके माता-पिता उसका ध्यान रखते हैं) तब वह आनंद से निश्चंत हो के खेलता है।2। हे मेरे मालिक प्रभू! जिस (बच्चे) का तू पिता (की तरह रखवाला) है, उस बच्चे को कोई (मायावी) भूख नहीं रह जाती। तेरे घर में तेरा नाम-खजाना है (यही है) नौ खजाने! वह जो कुछ अपने मन में (तुझसे) माँगता है, वह कुछ हासिल कर लेता है।3। हे भाई! कृपालु पिता-प्रभू ने यह हुकम रखा है, कि बालक जो कुछ माँगता है वह उसको दे देता है। हे प्रभू! तेरा बच्चा नानक तेरे दर्शन चाहता है (और, कहता है- हे प्रभू!) तेरे चरण मेरे हृदय में बसे रहें।4। मलार महला ५ ॥ सगल बिधी जुरि आहरु करिआ तजिओ सगल अंदेसा ॥ कारजु सगल अर्मभिओ घर का ठाकुर का भारोसा ॥१॥ सुनीऐ बाजै बाज सुहावी ॥ भोरु भइआ मै प्रिअ मुख पेखे ग्रिहि मंगल सुहलावी ॥१॥ रहाउ ॥ मनूआ लाइ सवारे थानां पूछउ संता जाए ॥ खोजत खोजत मै पाहुन मिलिओ भगति करउ निवि पाए ॥२॥ जब प्रिअ आइ बसे ग्रिहि आसनि तब हम मंगलु गाइआ ॥ मीत साजन मेरे भए सुहेले प्रभु पूरा गुरू मिलाइआ ॥३॥ सखी सहेली भए अनंदा गुरि कारज हमरे पूरे ॥ कहु नानक वरु मिलिआ सुखदाता छोडि न जाई दूरे ॥४॥३॥ {पन्ना 1266-1267} पद्अर्थ: सगल बिधी = सारे तरीकों से। जुरि = जुड़ के। आहरु = उद्यम। अंदेसा = चिंता फिकर। कारजु घर का = हृदय घर का काम, आत्मिक जीवन को अच्छा बनाने का काम। भारोसा = सहारा।1। सुनीअै = सुनी जा रही है। बाजै बाज = बाजे की आवाज़। सुहावी = (कानों को) सुंदर लगने वाली। भोरु = दिन, रौशनी। ग्रिह = हृदय घर। मंगल = आनंद, खुशियां। सुहलावी = सुखी।1। रहाउ। मनूआ लाइ = मन लगा के, पूरे ध्यान से। सवारे = सवार लिए हैं, अच्छे बना लिए हैं। थानां = सारी जगहें, सारी इन्द्रियां। पूछउ = मैं पूछती हूं। जाइ = जा के। मै = मुझे। पाहुन = प्राहुना, दूल्हा, नींगर, प्रभू पति। करउ = करूँ, मैं करती हूँ। निवि = झुक के। पाऐ = चरणों में।2। प्रिअ = प्यारे प्रभू जी। ग्रिहि = हृदय घर में। आसनि = आसन पर। हम = मैं। मीत साजन = सज्जन मित्र, ज्ञान इन्द्रियां। सुहेले = सुखी।3। सखी सहेली = सहेलियां, इन्द्रियां। गुरि = गुरू ने। पूरे = सफल कर दिए। वरु = पति। छोडि = छोड़ के।4। अर्थ: हे सखी! जब मैंने प्यारे प्रभू जी का मुँह देख लिया (दर्शन कर लिए), मेरे हृदय-घर में आनंद ही आनंद बन गया, मेरे अंदर शांति पैदा हो गई, मेरे अंदर (आत्मिक जीवन की सूझ का) दिन चढ़ गया, (मेरे अंदर इस तरह का आनंद बन गया, जैसे कि अंदर) कानों को सुंदर लगने वाली (किसी) बाजे कीआवाज़ सुनी जा रही है।1। रहाउ। हे सखी! अब मैंने आत्मिक जीवन को सुंदर बनाने का सारा काम शुरू कर दिया है, मुझे अब मालिक प्रभू का (हर वक्त) सहारा है। मैंने अब सारे चिंता-फिक्र खत्म कर दिए हैं, (अब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सफलता के) सारे ढंगों ने मिल के (मेरी हरेक सफलता के लिए) उद्यम किया हुआ है।1। हे सखी! पूरे ध्यान से मैंने अपनी सारी इन्द्रियों को खबसूरत बना लिया है। मैं संतों के पास जा के (प्रभू-पति के मिलाप की बातें) पूछती रहती हूँ। तलाश करते-करते मुझे प्रभू-पति मिल गया है। अब मैं उसके चरणों पर गिर कर उसकी भगती करती रहती हूँ।2। हे सखी! जब से प्यारे-प्रभू जी मेरे हृदय-घर में आ बसे हैं, मेरे हृदय-तख़्त पर आ बिराजे हैं, तब से मैं उसकी सिफत-सालाह के गीत गाती हूँ। गुरू ने मुझे पूर्ण प्रभू से मिला दिया है, (अब) मेरी सारी इन्द्रियों सुखद (शांत) हो गई हैं।3। हे नानक! कह- (हे सखी!) गुरू ने मेरे सारे काम सँवार दिए हैं, मेरी सारी इन्द्रियों को आनंद प्राप्त हो गया है। सारे सुख देने वाला प्रभू-पति मुझे मिल गया है। अब वह मुझे छोड़ के कहीं दूर नहीं जाता।4।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |