श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला ५ ॥ राज ते कीट कीट ते सुरपति करि दोख जठर कउ भरते ॥ क्रिपा निधि छोडि आन कउ पूजहि आतम घाती हरते ॥१॥ हरि बिसरत ते दुखि दुखि मरते ॥ अनिक बार भ्रमहि बहु जोनी टेक न काहू धरते ॥१॥ रहाउ ॥ तिआगि सुआमी आन कउ चितवत मूड़ मुगध खल खर ते ॥ कागर नाव लंघहि कत सागरु ब्रिथा कथत हम तरते ॥२॥ सिव बिरंचि असुर सुर जेते काल अगनि महि जरते ॥ नानक सरनि चरन कमलन की तुम्ह न डारहु प्रभ करते ॥३॥४॥ {पन्ना 1267}

पद्अर्थ: ते = से। कीट = कीड़े। सुरपति = देवताओं के पति, इन्द्र देवता। करि = कर के। दोख = ऐब, पाप, विकार। जठर = पेट। जठर कउ भरते = गर्भ जूनि में पड़ते हैं। क्रिपा निधि = कृपा का खजाना प्रभू। आन = और। कउ = को। हरते = चोर।1।

बिसरत = भुलाते। ते = वे लोग (बहुवचन)। दुखि दुखि = दुखी हो हो के। भ्रमहि = भटकते हैं। टेक = आसरा, टिकाव। काहू टेक = किसी का भी सहारा।1।

तिआगि = त्याग के। कउ = को। मूढ़ मुगध = मूर्ख। खर = गधे। ते = वे (बहुवचन)। कागर = कागज़। नाव = बेड़ी। कत = कहाँ! ब्रिथा = व्यर्थ।2।

बिरंचि = ब्रहमा। असुर = दैत्य। सुर = देवते। जेते = जितने भी हैं। जरते = जल रहे हैं। न डारहु = परे ना हटाओ। करते = हे करतार! ।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को भुलाते हैं वे दुखी हो-हो के आत्मिक मौत सहेड़ते रहते हैं। वे मनुष्य अनेकों वार कई जूनियों में भटकते फिरते हैं, (इस चक्कर में से बचने के लिए) वे किसी का भी आसरा प्राप्त नहीं कर सकते।1। रहाउ।

हे भाई! राजाओं से लेकर कीड़ियों तक, कीड़ियों से ले के इन्द्र देवता तक (कोई भी हो) पाप कर के (सभी) गर्भ जोनि में पड़ते हैं (किसी का लिहाज नहीं हो सकता)। हे भाई! जो भी प्राणी दया-के-समुंद्र प्रभू को छोड़ कर और-और को पूजते हैं, वे ईश्वर के चोर हैं वे अपनी आत्मा के साथ घात करते हैं।1।

हे भाई! मालिक प्रभू को छोड़ के जो किसी और को मन में बसाते हैं वे मूर्ख हैं वे गधे हैं। (प्रभू के बिना किसी अन्य की पूजा कागज़ की बेड़ी में चढ़ के समुंद्र से पार लांघने के समान है) कागज़ की बेड़ी पर (चढ़ के) कैसे संसार-समुंद्र से पार लांघ सकते हैं? वे बेकार में ही कहते हैं कि हम पार लांघ रहे हैं।2।

हे नानक! शिव, ब्रहमा, दैत्य, देवतागण- ये जितने भी हैं (परमात्मा का नाम भुला के सब) आत्मिक मौत की आग में जलते हैं (किसी का भी लिहाज़ नहीं होता)। हे भाई! प्रभू-दर पर अरदास करते रहो- हे प्रभू! अपने कमल-फूल जैसे सुंदर चरणों की शरण से (हमें) ना हटाओ।3।4।

रागु मलार महला ५ दुपदे घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ प्रभ मेरे ओइ बैरागी तिआगी ॥ हउ इकु खिनु तिसु बिनु रहि न सकउ प्रीति हमारी लागी ॥१॥ रहाउ ॥ उन कै संगि मोहि प्रभु चिति आवै संत प्रसादि मोहि जागी ॥ सुनि उपदेसु भए मन निरमल गुन गाए रंगि रांगी ॥१॥ इहु मनु देइ कीए संत मीता क्रिपाल भए बडभागीं ॥ महा सुखु पाइआ बरनि न साकउ रेनु नानक जन पागी ॥२॥१॥५॥ {पन्ना 1267}

पद्अर्थ: बैरागी = वैरागवान, प्रेमी। ओइ = ('ओह' का बहुवचन)। तिआगी = विरक्त, माया के मोह से बचे हुए। हउ = मैं (भी)। तिसु बिनु = उस (प्रभू) के बिना। सकउ = सकूँ।1। रहाउ।

उन कै संगि = उन (वैरागियों त्यागियों) की संगति में। मोहि चिति = मेरे चिक्त में। संत प्रसादि = संत जनों की कृपा से। मोहि = मुझे। जागी = जाग। सुनि = सुन के। रंगि = रंग में, प्रेम रंग में। रांगी = रंग के।1।

देइ = दे के, भेटा करके। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। रेनु = धूल। रेनु पागी = चरणों की धूल। रेन जन पागी = संत जनों के चरणों की धूल।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य मेरे प्रभू के प्रीतिवान होते हैं वे माया के मोह से बचे रहते हैं। हे भाई! (उनकी कृपा से) मैं (भी) उस प्रभू (की याद) के बिना एक छिन भर भी नहीं रह सकता। मेरी (भी उसके साथ) प्रीति लगी हुई है।1। रहाउ।

हे भाई! (प्रभू के प्रीतवान) उन (संतजनों) की संगति में (रह के) मेरे चिक्त में परमात्मा आ बसता है। संत जनों की किरपा से मुझे (माया के मोह की नींद में से) जाग आ गई है। (उनका) उपदेश सुन के मन पवित्र हो जाते हैं (प्रभू के प्रेम-) रंग में रंगीज के (मनुष्य प्रभू के) गुण गाने लग जाते हैं।1।

हे भाई! (अपना) यह मन हवाले करके संत जनों को मित्र बनाया जा सकता है, (संत जन) बड़े भाग्य वालों पर दयावान हो जाते हैं। हे नानक! (कह-) मैं संत जनों के चरणों की धूड़ (सदा माँगता हूँ। संत जनों की कृपा से) मैंने इतना महान आनंद प्राप्त किया है कि मैं उसको बयान नहीं कर सकता।2।1।5।

मलार महला ५ ॥ माई मोहि प्रीतमु देहु मिलाई ॥ सगल सहेली सुख भरि सूती जिह घरि लालु बसाई ॥१॥ रहाउ ॥ मोहि अवगन प्रभु सदा दइआला मोहि निरगुनि किआ चतुराई ॥ करउ बराबरि जो प्रिअ संगि रातीं इह हउमै की ढीठाई ॥१॥ भई निमाणी सरनि इक ताकी गुर सतिगुर पुरख सुखदाई ॥ एक निमख महि मेरा सभु दुखु काटिआ नानक सुखि रैनि बिहाई ॥२॥२॥६॥ {पन्ना 1267}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! मोहि = मुझे। देहु मिलाई = मिला दे। सगल सहेली = सारी (संत जन) सखियाँ। सुख भर सूती = पूर्ण सुख में लीन रहती हैं। जिह घरि = जिनके हृदय घर में। लालु = सोहना प्रभू। बसाई = बसता है।1। रहाउ।

मोहि = मेरे अंदर। मोहि निरगुनि = मैं गुण हीन में। किआ चतुराई = कौन सी समझदारी? करउ = मैं करती हूँ। बराबरि = बराबरी। जो रातीं = जो रति होई हुई हैं। संगि = साथ। ढीठाई = ढीठता।1।

भई निमाणी = मैंने माण छोड़ दिया है। ताकी = देखी है। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। सुखि = सुख में। रैनि = (जिंदगी की) रात। बिहाई = बीत रही है।2।

अर्थ: हे माँ! मुझे (भी) प्रीतम प्रभू मिला दे। जिन (संत-जन-सहेलियों) के (हृदय) घर में सुंदर प्रभू आ बसता है वे सारी सखियाँ आत्मिक आनंद में मगन रहती हें।1। रहाउ।

हे माँ! मेरे में निरे अवगुण हैं (फिर भी वह) प्रभू सदा दयावान (रहता) है। मैं गुण-हीन में कोई ऐसी समझदारी नहीं (कि उस प्रभू को मिल सकूँ, पर ज़बानी हवा में बातें करके) मैं उनकी बराबरी करती हूँ, जो प्यारे (प्रभू) के साथ रति होई हुई हैं- यह तो मेरे अहम् की ढीठता है।1।

हे नानक! (कह- हे माँ! अब) मैंने मान त्याग दिया है, मैंने सिर्फ सुखदाते गुरू सतिगुरू पुरख की शरण ताक ली है। (उस गुरू ने) आँख झपकने जितने समय में ही मेरा सारा दुख काट दिया है, (अब) मेरी (जिंदगी की) रात आनंद में बीत रही है।2।2।6।

मलार महला ५ ॥ बरसु मेघ जी तिलु बिलमु न लाउ ॥ बरसु पिआरे मनहि सधारे होइ अनदु सदा मनि चाउ ॥१॥ रहाउ ॥ हम तेरी धर सुआमीआ मेरे तू किउ मनहु बिसारे ॥ इसत्री रूप चेरी की निआई सोभ नही बिनु भरतारे ॥१॥ बिनउ सुनिओ जब ठाकुर मेरै बेगि आइओ किरपा धारे ॥ कहु नानक मेरो बनिओ सुहागो पति सोभा भले अचारे ॥२॥३॥७॥ {पन्ना 1267-1268}

पद्अर्थ: बरसु = (नाम की) बरखा कर। मेघ जी = हे मेघ जी! हे बादल जी! हे नाम जल के भण्डार सतिगुरू जी! तिलु = रक्ती भर भी। बिलमु = (विलम्ब) देर, ढील। मनहि सधारे = हे (मेरे) मन को आसरा देने वाले! मनि = मन में। होइ = होता है।1। रहाउ।

हम = हमें, मुझे। धर = आसरा। मनहु = (अपने) मन से। किउ बिसारे = क्यों बिसारता है? ना बिसार। इसत्री रूप = स्त्री रूप, (मैं तो) स्त्री की तरह हूँ। चेरी = दासी। की निआई = की तरह। भरतारे = भतार, खसम, पति।1।

बिनउ = विनय, विनती। ठाकुर मेरै = मेरे ठाकुर ने। बेगि = जल्दी। धारे = धार के, कर के। सुहागो = सौभाग्यता। पति = इज्जत। अचारे = काम।2।

अर्थ: हे नाम-जल के भण्डार सतिगुरू जी! (मेरे हृदय में नाम-जल की) बरखा कर। रक्ती भर भी ढील ना कर। हे प्यारे गुरू! हे मेरे मन को सहारा देने वाले गुरू! (नाम-जल की) बरखा कर। (इस बरखा से) मेरे मन में सदा खुशी होती है सदा आनंद पैदा होता है।1। रहाउ।

हे मेरे स्वामी प्रभू! मुझे तेरा ही आसरा है, तू मुझे अपने मन से ना बिसार। मैं तो स्त्री की तरह (निर्बल) हूँ, दासी की तरह (कमजोर) हूँ। (स्त्री) पति के बिना शोभा नहीं पाती, (दासी) मालिक के बगैर शोभा नहीं पाती।1।

हे नानक! कह- (हे सखी!) जब से मेरे मालिक-प्रभू ने (मेरी यह) विनती सुनी, तो मेहर करके वह जल्दी (मेरे हृदय में) आ बसा। अब मेरी सौभाग्यता बन गई है, मुझे इज्जत मिल गई है, मुझे शोभा मिल गई है, मेरी करणी भली हो गई।2।3।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh