श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1268 मलार महला ५ ॥ प्रीतम साचा नामु धिआइ ॥ दूख दरद बिनसै भव सागरु गुर की मूरति रिदै बसाइ ॥१॥ रहाउ ॥ दुसमन हते दोखी सभि विआपे हरि सरणाई आइआ ॥ राखनहारै हाथ दे राखिओ नामु पदारथु पाइआ ॥१॥ करि किरपा किलविख सभि काटे नामु निरमलु मनि दीआ ॥ गुण निधानु नानक मनि वसिआ बाहुड़ि दूख न थीआ ॥२॥४॥८॥ {पन्ना 1268} पद्अर्थ: प्रीतम नामु = प्यारे (प्रभू) का नाम। साचा नामु = सदा कायम रहने वाला नाम। धिआइ = सिमरा कर। बिनसै = नाश हो जाता है, समाप्त हो जाता है। भव सागरु = संसार समुंद्र। गुर की मूरति = (गुर मूरति गुर सबदु है = भाई गुरदास) गुरू का स्वरूप, गुरू का शबद। रिदै = हृदय में। बसाइ = बसाए रख।1। रहाउ। हते = धिक्कारे जाते हें, जगत से तिरस्कार पाते हैं। दोखी = ईष्या करने वाले। सभि = सारे। विआपे = फसे रहते हैं। राखणहारै = रक्षा कर सकने वाले प्रभू ने। दे = देकर। नामु पदारथु = कीमती हरी नाम।1। करि = कर के। किलबिख = पाप। मनि = मन में। दीआ = टिका दिया। गुण निधानु = गुणों का खजाना। बाहुड़ि = दोबारा। न थीआ = नहीं होते।2। अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभू का सदा नाम सिमरा कर। हे भाई! गुरू का शबद (अपने) हृदय में बसाए रख। (जो मनुष्य यह उद्यम करता है, उसके लिए) दुखों-कलेशों से भरा हुआ संसार-समुंद्र समाप्त हो जाता है।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की शरण आ पड़ता है, (उससे) वैर करने वाले जगत में धिक्कारे जाते हैं, उससे ईष्या करने वाले (भी) सारे (ईष्या और जलन में ही) फसे रहते हैं (भाव, दोखी, स्वयं ही दुखी होते हैं, उसका कुछ नहीं बिगाड़ते) रक्षा करने में समर्थ प्रभू ने सदा उसकी रक्षा की है, उसने प्रभू का कीमती नाम प्राप्त कर लिया होता है।1। हे नानक! जिस मनुष्य के मन में (परमात्मा ने अपना) पवित्र नाम टिका दिया, मेहर करके उसके सारे पाप उसने काट दिए। हे भाई! जिस मनुष्य के मन में सारे गुणों का खजाना प्रभू आ बसा, उसको कोई दुख पोह नहीं सकते।2।4।8। मलार महला ५ ॥ प्रभ मेरे प्रीतम प्रान पिआरे ॥ प्रेम भगति अपनो नामु दीजै दइआल अनुग्रहु धारे ॥१॥ रहाउ ॥ सिमरउ चरन तुहारे प्रीतम रिदै तुहारी आसा ॥ संत जना पहि करउ बेनती मनि दरसन की पिआसा ॥१॥ बिछुरत मरनु जीवनु हरि मिलते जन कउ दरसनु दीजै ॥ नाम अधारु जीवन धनु नानक प्रभ मेरे किरपा कीजै ॥२॥५॥९॥ {पन्ना 1268} पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! दीजै = दे। दइआल = दयालु, हे दया के घर प्रभू! अनुग्रहु = कृपा। धारे = धार कर।1। रहाउ। सिमरउ = मैं सिमरता हूं। प्रीतम = हे प्रीतम! रिदै = हृदय में। पहि = पास। करउ = मैं करता हूं। मनि = मन में।1। मरन = मौत, आत्मिक मौत। अधारु = आसरा। जीवन धनु = आत्मिक जीवन का सरमाया। प्रभ = हे प्रभू!।2। अर्थ: हे मेरे प्रभू! हे मेरे प्रीतम! हे मेरी जिंद से प्यारे! हे दया के श्रोत प्रभू! (मेरे ऊपर) मेहर कर। मुझे अपना प्यार बख्श, मुझे अपनी भगती दे, मुझे अपना नाम दे।1। रहाउ। हे प्रीतम! मैं तेरे चरणों का ध्यान धरता रहूँ, मेरे हृदय में तेरी आस टिकी रही। मैं संत जनों के पास बिनती करता हूँ (कि मुझे तेरे दर्शन करवा दें, मेरे) मन में (तेरे) दर्शनों की बड़ी तमन्ना है।1। हे प्रीतम प्रभू! तुमसे बिछुड़ने पर आत्मिक मौत हो जाती है, तुझे मिलने से आत्मिक जीवन मिलता है। हे प्रभू! अपने सेवक को दर्शन दे। हे नानक! (कह-) हे प्रभू मेहर कर, तेरे नाम का आसरा (मुझे मिला रहे, यही है मेरी) जिंदगी का सरमाया।2।5।9। मलार महला ५ ॥ अब अपने प्रीतम सिउ बनि आई ॥ राजा रामु रमत सुखु पाइओ बरसु मेघ सुखदाई ॥१॥ रहाउ ॥ इकु पलु बिसरत नही सुख सागरु नामु नवै निधि पाई ॥ उदौतु भइओ पूरन भावी को भेटे संत सहाई ॥१॥ सुख उपजे दुख सगल बिनासे पारब्रहम लिव लाई ॥ तरिओ संसारु कठिन भै सागरु हरि नानक चरन धिआई ॥२॥६॥१०॥ {पन्ना 1268} पद्अर्थ: अब = अब (गुरू की कृपा से)। सिउ = साथ। बनि आई = प्यार बन गया है। रमत = सिमरते हुए। बरसु = (नाम की बरखा) करता रह। मेघ = हे बादल! हे नाम-जल से भरपूर सतिगुरू!।1। रहाउ। बिसरत नहीं = नहीं भूलता। सुख सागरु = सुखों का समुंद्र प्रभू। नवै निधि = (जगत के सारे) नौ ही खजाने। उदौतु = प्रकाश। भावी = जो बात जरूर घटित होनी है, रजा। को = का। भेटे = मिल गए। सहाई = सहायता करने वाले।1। सगल = सारे। लिव लाई = लिव लगा के। भै = ('भउ' का बहुवचन)। भै सागरु = सारे डरों से भरपूर समुंद्र। धिआई = ध्यान धर के।2। अर्थ: अब मुझे प्यारे प्रभु से प्रेम हो गया है। हे नाम-जल से भरपूर गुरू! हे सुख देने वाले गुरू! (नाम की) बरखा करता रह।1। रहाउ। (तेरी मेहर से) प्रभू-पातशाह का नाम सिमरते हुए मैंने आत्मिक आनंद हासिल कर लिया है (जो मेरे लिए दुनिया के) नौ ही खजाने हें। अब वह सुखों का समुंद्र प्रभू एक पल के लिए भी नहीं भूलता।1। हे नानक! (कह- हे भाई! गुरू-उपदेश बरसात की बरकति से) मैंने परमात्मा में सुरति जोड़ ली है, मेरे अंदर सुख पैदा हो गए हैं, और, सारे दुख नाश हो गए हैं। हरी के चरणों का ध्यान धर के मैं संसार-समुंद्र से पार लांघ गया हूँ जिसको तैरना मुश्किल है, और, जो अनेकों डरों से भरा हुआ है।2।6।10। मलार महला ५ ॥ घनिहर बरसि सगल जगु छाइआ ॥ भए क्रिपाल प्रीतम प्रभ मेरे अनद मंगल सुख पाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ मिटे कलेस त्रिसन सभ बूझी पारब्रहमु मनि धिआइआ ॥ साधसंगि जनम मरन निवारे बहुरि न कतहू धाइआ ॥१॥ मनु तनु नामि निरंजनि रातउ चरन कमल लिव लाइआ ॥ अंगीकारु कीओ प्रभि अपनै नानक दास सरणाइआ ॥२॥७॥११॥ {पन्ना 1268} पद्अर्थ: घनिहर = बादल, नाम जल से भरपूर गुरू। बरसि = (नाम की) बरखा कर के। जगु छाइआ = जगत पर प्रभाव डाल रहा है।1। रहाउ। त्रिसन = (माया की) प्यास। मनि = मन में। साध संगि = साध-संगति में। बहुरि = दोबारा। कत हू = किसी भी और तरफ। धाइआ = भटकता।1। नमि = नाम में। निरंजनि = निरंजन में। रातउ = रंगा हुआ। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। प्रभि = प्रभू ने।2। अर्थ: हे भाई! (वैसे तो) नाम-जल से भरपूर सतिगुरू (नाम की) बरखा कर के सारे जगत पर प्रभाव डाल रहा है। (पर जिस मनुष्य पर) मेरे प्रीतम प्रभू दयावान होते हैं, वह (उस नाम-बरखा में से) आनंद-खुशियाँ-आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।1। रहाउ। हे भाई! गुरू की संगति में रह के जो मनुष्य परमात्मा को अपने मन में सिमरता है, उसके सारे दुख-कलेश मिट जाते हैं; उसकी मायावी प्यास बुझ जाती है, उसके जनम-मरण के चक्कर दूर हो जाते हैं, वह दोबारा किसी भी और तरफ नहीं भटकता।1। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू के दासों की शरण आ पड़ा, प्रभू ने उसकी सहायता की, उसका मन उसका तन निर्लिप प्रभू के नाम (-रंग में) रंगा गया, उसने प्रभू के सुंदर चरणों में सुरति जोड़ ली।2।7।11। मलार महला ५ ॥ बिछुरत किउ जीवे ओइ जीवन ॥ चितहि उलास आस मिलबे की चरन कमल रस पीवन ॥१॥ रहाउ ॥ जिन कउ पिआस तुमारी प्रीतम तिन कउ अंतरु नाही ॥ जिन कउ बिसरै मेरो रामु पिआरा से मूए मरि जांहीं ॥१॥ मनि तनि रवि रहिआ जगदीसुर पेखत सदा हजूरे ॥ नानक रवि रहिओ सभ अंतरि सरब रहिआ भरपूरे ॥२॥८॥१२॥ {पन्ना 1268} पद्अर्थ: ओइ = (शब्द 'ओह' का बहुवचन) वे लोग। चितहि = (जिन के) चिक्त में। उलास = उल्लास, चाव, तमन्ना। मिलबे की = मिलने की। चरन कमल रस पीवन = प्रभू के सुंदर चरणों का रस पीने (की चाहत)।1। रहाउ। प्रीतम = हे प्रीतम! अंतरु = दूरी (संज्ञा, एकवचन। शब्द 'अंतरु' और 'अंतरि' में फर्क स्मरणीय है)। मूऐ = आत्मिक मौत मरे हुए। मरि जांहीं = आत्मिक मौत मर जाते हैं।1। मनि = मन में। तनि = तन में। जगदीसुर = (जगत+ईसरु) जगत का मालिक प्रभू। हजूरे = हाजर नाजर, अंग संग। रवि रहिओ = मौजूद है। सरब = सबमें।2। अर्थ: हे भाई! (जिन मनुष्यों के) चिक्त में परमात्मा को मिलने की और उसके सुंदर चरण-कमलों का रस पीने की आशा है और चाहत है, वे मनुष्य उससे वियोग का जीवन कभी नहीं जी सकते।1। रहाउ। हे प्रीतम प्रभू! जिन मनुष्यों के अंदर तेरे दर्शन की तांघ है, उनकी तेरे से कोई दूरी नहीं रहती। पर, हे भाई! जिन मनुष्यों को प्यारा प्रभू भूल जाता है, वे आत्मिक मौत मरे रहते हैं, वे आत्मिक मौत ही मर जाते हैं।1। हे नानक! (कह- हे भाई!) जगत का मालिक प्रभू जिन मनुष्यों के मन में हृदय में सदा बसा रहता है, वह उसको सदा अपने अंग-संग बसता देखते हैं। (उनको ऐसा प्रतीत होता है कि) परमात्मा सब जीवों भीतर मौजूद है, सब जगह भरपूर बसता है।2।8।12। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |