श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला ५ ॥ हरि कै भजनि कउन कउन न तारे ॥ खग तन मीन तन म्रिग तन बराह तन साधू संगि उधारे ॥१॥ रहाउ ॥ देव कुल दैत कुल जख्य किंनर नर सागर उतरे पारे ॥ जो जो भजनु करै साधू संगि ता के दूख बिदारे ॥१॥ काम करोध महा बिखिआ रस इन ते भए निरारे ॥ दीन दइआल जपहि करुणा मै नानक सद बलिहारे ॥२॥९॥१३॥ {पन्ना 1269}

पद्अर्थ: कै भजनि = के भजन से। कउन कउन = किन किन को। न तारे = (गुरू ने) पार नहीं लंघाए। खग = पंछी। मीन = मछली। म्रिग = पशू, हिरन। बराह = सूअर। तन = शरीर। साधू संगि = गुरू की संगति में। उधारे = पार लंघाऐ।1। रहाउ।

कुल = खानदान। जख्ह = देवताओं की एक किस्म। किंनर = देवताओं की एक कुल जिनका आधा शरीर घोड़े काऔर आधा मनुष्य का माना जाता है। सागर = (संसार-) समुंद्र। करै = करता है (एकवचन)। ता के = उनके। बिदारे = नाश कर दिए हैं।1।

बिखिआ रस = माया के चस्के। इनते = इनसे। निरारे = निराले, अलग, निर्लिप। जपहि = (जो) जपते हैं। करुणामै = तरस स्वरूप प्रभू को (करुणा = तरस)। सद = सदा।

अर्थ: हे भाई! (जिन-जिन ने भी हरी का भजन किया) उन सभी को (गुरू ने) परमात्मा के भजन से (संसार-समुंद्र से) पार लंघा दिया। पंछियों के शरीर वाले, मछलियों के से शरीर धारण करने वाले? पशुओं का सा शरीर धारण करने वाले, सूअरों का शरीर धारण करने वाले- यह सब गुरू की संगति में पार लंघा दिए गए हैं।1। रहाउ।

हे भाई! (साध-संगति में सिमरन की बरकति से) देवताओं की कुलें, दैत्यों की कुलें, जख, किंन्नर, मनुष्य- ये सारे संसार समुंद्र से पार निकल गए। गुरू की संगति में रहके जो-जो प्राणी परमात्मा का भजन करता है, उन सबके सारे दुख नाश हो जाते हैं।

हे नानक! (कह- हे भाई!) दीनों पर दया करने वाले तरस-स्वरूप परमात्मा का नाम जो-जो मनुष्य जपते हैं, मैं उन पर से सदा कुर्बान जाता हँ। वे मनषुय काम, क्रोध, माया के चस्के- इन सबसे निर्लिप रहते हैं।2।9।13।

मलार महला ५ ॥ आजु मै बैसिओ हरि हाट ॥ नामु रासि साझी करि जन सिउ जांउ न जम कै घाट ॥१॥ रहाउ ॥ धारि अनुग्रहु पारब्रहमि राखे भ्रम के खुल्हे कपाट ॥ बेसुमार साहु प्रभु पाइआ लाहा चरन निधि खाट ॥१॥ सरनि गही अचुत अबिनासी किलबिख काढे है छांटि ॥ कलि कलेस मिटे दास नानक बहुरि न जोनी माट ॥२॥१०॥१४॥ {पन्ना 1269}

पद्अर्थ: आजु = अब। बैसिओ = बैठा हूँ। हाट = दुकान। हरि हाट = वह हाट जहाँ हरी नाम मिलता है, साध-संगति। रासि = पूँजी, सरमाया। साझी = सांझ, भाईवाली। करि = कर के। जन सिउ = संत जनों के साथ। जांउ न = मैं नहीं जाता। घाट = पक्तन। जम कै घाट = जमदूतों के घाट पर।1। रहाउ।

धारि = धार के, कर के। अनुग्रहु = कृपा। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। राखे = रक्षा की। कपाट = किवाड़, दरवाजे। साहु = शाह, नाम धन का मालिक। लाहा = लाभ। निधि = खजाना, सारे सुखों का खजाना। खाट = कमाया।1।

गही = पकड़ी। अचुत सरनि = अचुत्य की शरण। अचुत = (अ+चुत। चुत्य = गिरा हुआ, नाशवान) जिस का कभी नाश नहीं होता। किलबिख = पाप। छांटि = चुन के। कलि = झगड़े। बहुरि = दोबारा। माट = मिटते, पड़ते।2।

अर्थ: हे भाई! अब मैं उस हाट (साध-संगति) में आ बैठा हूँ जहाँ हरी-नाम मिलता है। वहाँ मैंने संत-जनों के साथ सांझ डाल के हरी-नाम का सरमाया (इकट्ठा किया है, जिसकी बरकति से) मैं जमदूतों के घाटों पर नहीं जाता (भाव, मैं वह कर्म ही नहीं करता, जिनके कारण जमों के वश में पड़ना पड़े)।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा ने मेहर करके जिनकी रक्षा की (साध-संगति की बरकति से उनके) भरम-भटकना के भिक्त खुल गए। उन्होंने बेअंत नाम-राशि के मालिक प्रभू को पा लिया। उन्होंने परमात्मा के चरणों (में टिके रहने) की कमाई कमा ली, जो सारे सुखों का खजाना है।1।

हे नानक! (कह- हे भाई! जिन सेवकों ने) अटल अविनाशी परमात्मा का आसरा ले लिया, उन्होंने (अपने अंदर से सारे) पाप चुन-चुन के निकाल दिए, उन दासों के अंदर से सारे झगड़े कलेश समाप्त हो गए, वे फिर जूनियों में नहीं पड़ते।2।10।14।

मलार महला ५ ॥ बहु बिधि माइआ मोह हिरानो ॥ कोटि मधे कोऊ बिरला सेवकु पूरन भगतु चिरानो ॥१॥ रहाउ ॥ इत उत डोलि डोलि स्रमु पाइओ तनु धनु होत बिरानो ॥ लोग दुराइ करत ठगिआई होतौ संगि न जानो ॥१॥ म्रिग पंखी मीन दीन नीच इह संकट फिरि आनो ॥ कहु नानक पाहन प्रभ तारहु साधसंगति सुख मानो ॥२॥११॥१५॥ {पन्ना 1269}

पद्अर्थ: बहु बिधि = कई तरीकों से। हिराने = ठगे जाते हैं (जीव)। कोटि मधे = करोड़ों में से। चिरानो = चिरों की, आदि कदीमों का।1। रहाउ।

इत उत = इधर उधर। डोलि = डोल के, भटक के। स्रमु = थकावट। बिरानो = बेगाना। दुराइ = छुपा के। ठगिआई = ठॅगी। संगि = साथ। होतौ संगि = (जो हरी सदा) साथ रहने वाला है। जानो = जानता।1।

म्रिग = मृग, हिरन, पशु। पंखी = पक्षी। मीन = मछली। इह संकट = इन कष्टों में। फिरि आनो = भटकता फिरता है। नानक = हे नानक! पाहन = पत्थर, पत्थर चिक्त जीवों को। मानो = मान सको।2।

अर्थ: हे भाई! (जीव) कई तरीकों से माया के मोह में ठॅगे जाते हैं। करोड़ों में से कोई विरला ही (ऐसा) सेवक होता है जो आदि-कदीम से ही पूरा भगत होता है (और माया के हाथों ठॅगा नहीं जाता)।1। रहाउ।

हे भाई! (माया का ठॅगा मनुष्य) हर तरफ भटक-भटक के थकता फिरता है (जिस शरीर और धन की खातिर भटकता है, वह) शरीर और धन (आखिर) बेगाना हो जाता है। (माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य) लोगों से छुपा-छुपा के ठॅगी करता रहता है (जो परमात्मा सदा) साथ रहता है उसके साथ सांझ नहीं डालता।1।

हे भाई! (माया के मोह में फसे रहने के कारण आखिर) पशु, पक्षी, मछली - इन निम्न जूनियों के चक्करों के दुख में ही भटकता फिरता है। हे नानक! कह- हे प्रभू! हम पत्थरों को (पत्थर-दिल जीवों को) पार लंघा ले, हम साध-संगति में (तेरी भगती का) आनंद लेते रहते हैं।2।11।15।

मलार महला ५ ॥ दुसट मुए बिखु खाई री माई ॥ जिस के जीअ तिन ही रखि लीने मेरे प्रभ कउ किरपा आई ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरजामी सभ महि वरतै तां भउ कैसा भाई ॥ संगि सहाई छोडि न जाई प्रभु दीसै सभनी ठाईं ॥१॥ अनाथा नाथु दीन दुख भंजन आपि लीए लड़ि लाई ॥ हरि की ओट जीवहि दास तेरे नानक प्रभ सरणाई ॥२॥१२॥१६॥ {पन्ना 1269}

पद्अर्थ: दुसट = (कामादिक) चंदरे वैरी। मुऐ = मर गए। बिखु = जहर। खाई = खा के। जीअ = ('जीउ' का बहुवचन)। तिन ही = ('तिनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। किरपा = कृपा, दया, तरस।1। रहाउ।

जिस के: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'के' के कारण हटा दी गई है।

अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। वरतै = मौजूद है। भाई = हे भाई! कैसा = किस तरह का? संगि = साथ। सहाई = साथी। दीसै = दिखता है।1।

नाथु = पति। दीन = गरीब, कमजोर, निमाणे। भंजन = नाश करने वाला। लड़ि = पल्ले से। जीवहि = जीते हैं।2।

अर्थ: हे माँ! (मेरे प्रभू को मेरे ऊपर तरस आया है, अब कामादिक) चंदरे वैरी (इस तरह) खत्म हो गए हें (जैसे) जहर खा के। हे माँ! मेरे प्रभू को (जब) तरस आता है, उसके अपने ही हैं सब जीव, वह स्वयं ही इनकी (कामादिक वैरियों से) रक्षा करता ह।1। रहाउ।

हे भाई! हरेक के दिल की जानने वाला प्रभू सब जीवों में मौजूद है (जब यह निश्चय हो जाए) तो कोई डर नहीं पोह सकता। हे भाई! वह प्रभू हरेक का साथी है, वह छोड़ के नहीं जाता, वह सब जगह बसता दिखाई देता है।1।

हे भाई! परमात्मा निखसमों का खसम है, गरीबों का दुख नाश करने वाला है, वह (जीवों को) खुद अपने लड़ लगाता है। हे नानक (कह-) हे हरी! हे प्रभू! तेरे दास तेरे आसरे जीते हैं, मैं भी तेरी ही शरण पड़ा हूँ।2।12।16।

मलार महला ५ ॥ मन मेरे हरि के चरन रवीजै ॥ दरस पिआस मेरो मनु मोहिओ हरि पंख लगाइ मिलीजै ॥१॥ रहाउ ॥ खोजत खोजत मारगु पाइओ साधू सेव करीजै ॥ धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे नामु महा रसु पीजै ॥१॥ त्राहि त्राहि करि सरनी आए जलतउ किरपा कीजै ॥ करु गहि लेहु दास अपुने कउ नानक अपुनो कीजै ॥२॥१३॥१७॥ {पन्ना 1269}

पद्अर्थ: मन = हे मन! रवीजै = सिमरा कर। पिआस = तमन्ना। मोहिओ = मगन रहते हैं। पंख = पंख। पंख लगाइ = पंख लगा के, उड़ के, जल्दी। मिलीजै = मिल जाएं।1। रहाउ।

खोजत = तलाश करते हुए। मारगु = रास्ता। साधू = गुरू। करीजै = करनी चाहिए। धारि = धारण कर के। अनुग्रहु = दया, मेहर। सुआमी = हे स्वामी! महा रसु = बहुत स्वादिष्ट। पीजै = पीया जा सके।1।

त्राहि = बचा ले, रक्षा कर ले। करि = कर के, कह के। जलतउ = जलते के ऊपर। करु = हाथ (एकवचन)। गहि लेहु = पकड़ ले। अपुनो कीजै = अपना सेवक बना ले।2।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के चरण सिमरने चाहिए (गरीबी स्वभाव में टिक के प्रभू का सिमरन करना चाहिए)। हे भाई! मेरा मन प्रभू के दीदार की तमन्ना में मगन रहता है। (जी ऐसे करता है कि उस को) उड़ के जा कर मिल लें।1। रहाउ।

हे भाई! तलाश करते-करते (गुरू से उस प्रभू के मिलाप का मैंने) रास्ता पा लिया है। हे भाई! गुरू की शरण पड़े रहना चाहिए। हे मेरे मालिक प्रभू! (मेरे ऊपर) मेहर कर, तेरा बहुत ही स्वादिष्ट नाम-जल पीया जा सके।1।

हे प्रभू! विकारों से 'बचा ले' 'बचा ले' - यह कह के (जीव) तेरी शरण आते हैं। हे प्रभू! (विकारों की आग में) जलते हुए पर (तू खुद) मेहर कर। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) दास का हाथ पकड़ ले, मुझे अपना दास बना ले।2।13।17।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh