श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1274

मलार महला १ ॥ चात्रिक मीन जल ही ते सुखु पावहि सारिंग सबदि सुहाई ॥१॥ रैनि बबीहा बोलिओ मेरी माई ॥१॥ रहाउ ॥ प्रिअ सिउ प्रीति न उलटै कबहू जो तै भावै साई ॥२॥ नीद गई हउमै तनि थाकी सच मति रिदै समाई ॥३॥ रूखीं बिरखीं ऊडउ भूखा पीवा नामु सुभाई ॥४॥ लोचन तार ललता बिललाती दरसन पिआस रजाई ॥५॥ प्रिअ बिनु सीगारु करी तेता तनु तापै कापरु अंगि न सुहाई ॥६॥ अपने पिआरे बिनु इकु खिनु रहि न सकंउ बिन मिले नींद न पाई ॥७॥ पिरु नजीकि न बूझै बपुड़ी सतिगुरि दीआ दिखाई ॥८॥ सहजि मिलिआ तब ही सुखु पाइआ त्रिसना सबदि बुझाई ॥९॥ कहु नानक तुझ ते मनु मानिआ कीमति कहनु न जाई ॥१०॥३॥ {पन्ना 1274}

पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। मीन = मछली। ते = से। सारिंग = हिरन। सबदि = घंडे हेड़े के नाद में। सुहाई = सुख लेता है।1।

रैनि = रात (के वक्त)। माई = हे माँ!।1। रहाउ।

सिउ = साथ। तै = तुझे। साई = वही (प्रीति)।2।

तनि = तन में (से)। नीद = माया के मोह की नींद। सच मति = सदा स्थिर नाम सिमरन वाली मति।3।

उडउ = मैं उड़ता हूँ। पीवा = मैं पीता हूँ। सुभाई = प्रेम से।4।

लोचन तार = आँखों की टिक टिकी। ललता = जीभ। रजाई = रज़ा का मालिक।5।

तेता = उतना ही। तापै = तपता है। कापरु = कपड़ा। अंगि = शरीर पर।6।

न पाई = नहीं पड़ती।7।

नजीकि = नजदीक (शब्द 'नजीकि' संबंधक है पर इसका संबंध 'पिरु' से नहीं है। देखिए, 'भिसतु नजीकि राखु रहमाना' = कबीर जी)। बपुड़ी = भाग्यहीन। सतिगुरि = गुरू ने।8।

सहजि = आत्मिक अडोलता में। सबदि = शबद से।9।

ते = से। तुझ ते = तुझसे, तेरी मदद से।10।

अर्थ: हे मेरी माँ! (स्वाति बूँद की चाहत में) रात को पपीहा (बड़े वैराग में) बोला (उसकी व्याकुलता भरे बोल सुन के मेरे अंदर भी कसक उठी)।1। रहाउ।

(हे माँ! पपीहे की पुकार सुन के मुझे पता चला कि) पपीहा और मछली पानी से सुख पाते हैं, हिरन भी (घंडे हेड़े के) शब्द से सुख लेता है (तो फिर, पति-प्रभू से विछुड़ी हुई मैं कैसे सुखी होने की आस कर सकती हूँ?)।1।

(हे माँ! पपीहे, मछली, हिरन आदि की) प्रीति (अपने-अपने) प्यारे से कभी भी हटती नहीं। (यह मनुष्य ही है जिसकी प्रीति प्रभू-चरणों से हट के दुनिया की के साथ बन जाती है। हे माँ! मैंने अरदास की कि हे प्रभू!) जो तुझे भाता है वही बात होती है (मुझे अपने चरणों की प्रीति दे)।2।

(हे माँ! मेरी विनती सुन के प्रभू ने मुझ पर मेहर की) मेरे हृदय में उस सदा-स्थिर प्रीतम का नाम सिमरने वाली मति आ टिकी, अब मेरी माया के मोह वाली नींद खत्म हो गई है, मेरे शरीर के अंदर का अहंकार भी दूर हो गया है।3।

(हे माँ! पपीहे की व्याकुलता में से मुझे प्रतीत हुआ कि जैसे वह तरले ले रहा है-) मैं पेड़-पौधों पर उड़-उड़ के जाता हूँ पर (स्वाति की बूँद के बिना) भूखा (प्यासा) ही हूँ। (पपीहे के विरलाप से प्रेरित हो के अब) मैं बड़े प्यार से परमात्मा-पति का नाम-अमृत पी रही हूँ।4।

(हे माँ!) रज़ा के मालिक प्रभू के दीदार की (मेरे अंदर) बड़ी तमन्ना है, मेरी जीभ (उसके दर्शनों के लिए) तरले ले रही है, (इन्तजार में) मेरी आँखों की टिक-टिकी लगी हुई है।5।

(हे माँ! अब मैं महसूस करती हूँ कि) प्यारे प्रभू-पति के बिना मैं जितना भी श्रृंगार करती हूँ उतना ही (ज्यादा) मेरा शरीर (सुखी होने की बजाय) तपता है। (बढ़िया से बढ़िया) कपड़ा (भी मुझे अपने) शरीर पर सुखद नहीं होता।6।

(हे माँ!) अपने प्यारे के बिना मैं (एक) पल भर भी (शांत-चिक्त) नहीं रह सकती, प्रभू-पति को मिले बिना मुझे नींद नहीं आती (शांति नहीं मिलती)।7।

(हे माँ!) प्रभू-पति तो (हरेक जीव-स्त्री के) नजदीक (बसता) है; पर भाग्यहीन को यह समझ नहीं आती। (सुहागिन) को (उसने अंदर ही परमात्मा) दिखा दिया है।8।

(गुरू की कृपा से जो जीव-स्त्री) आत्मिक अडोलता में (टिक गई उसको प्रभू-पति) मिल गया (उसके दीदार होने से उसको) उस वक्त आत्मिक आनंद प्राप्त हो गया, गुरू के शबद ने उसकी तृष्णा (की आग) बुझा दी।9।

हे नानक! (प्रभू चरणों में अरदास करके कह- हे प्रभू!) तेरी मेहर से मेरा मन (तेरी याद में) रम गया है (और मेरे अंदर ऐसा आत्मिक आनंद बन गया है जिसका) मूल्य नहीं आँका जा सकता।10।3।

मलार महला १ असटपदीआ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अखली ऊंडी जलु भर नालि ॥ डूगरु ऊचउ गड़ु पातालि ॥ सागरु सीतलु गुर सबद वीचारि ॥ मारगु मुकता हउमै मारि ॥१॥ मै अंधुले नावै की जोति ॥ नाम अधारि चला गुर कै भै भेति ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुर सबदी पाधरु जाणि ॥ गुर कै तकीऐ साचै ताणि ॥ नामु सम्हालसि रूड़्ही बाणि ॥ थैं भावै दरु लहसि पिराणि ॥२॥ ऊडां बैसा एक लिव तार ॥ गुर कै सबदि नाम आधार ॥ ना जलु डूंगरु न ऊची धार ॥ निज घरि वासा तह मगु न चालणहार ॥३॥ जितु घरि वसहि तूहै बिधि जाणहि बीजउ महलु न जापै ॥ सतिगुर बाझहु समझ न होवी सभु जगु दबिआ छापै ॥ करण पलाव करै बिललातउ बिनु गुर नामु न जापै ॥ पल पंकज महि नामु छडाए जे गुर सबदु सिञापै ॥४॥ इकि मूरख अंधे मुगध गवार ॥ इकि सतिगुर कै भै नाम अधार ॥ साची बाणी मीठी अम्रित धार ॥ जिनि पीती तिसु मोख दुआर ॥५॥ नामु भै भाइ रिदै वसाही गुर करणी सचु बाणी ॥ इंदु वरसै धरति सुहावी घटि घटि जोति समाणी ॥ कालरि बीजसि दुरमति ऐसी निगुरे की नीसाणी ॥ सतिगुर बाझहु घोर अंधारा डूबि मुए बिनु पाणी ॥६॥ जो किछु कीनो सु प्रभू रजाइ ॥ जो धुरि लिखिआ सु मेटणा न जाइ ॥ हुकमे बाधा कार कमाइ ॥ एक सबदि राचै सचि समाइ ॥७॥ चहु दिसि हुकमु वरतै प्रभ तेरा चहु दिसि नाम पतालं ॥ सभ महि सबदु वरतै प्रभ साचा करमि मिलै बैआलं ॥ जांमणु मरणा दीसै सिरि ऊभौ खुधिआ निद्रा कालं ॥ नानक नामु मिलै मनि भावै साची नदरि रसालं ॥८॥१॥४॥ {पन्ना 1274-1275}

पद्अर्थ: अखली = लम ढींग, बहुत लंबा शरीर। ऊंडी = ऊँचे (आकाश में उड़ती है)। भर नालि = (भरणालय = a receptacle of nutriment) समुंद्र, समुंद्र में।

सतिजुगि सति, त्रेतै जगी, दुआपरि पूजा बाहली घाला॥ कलिजुगि गुरमुखि नाउ लै, पारि पवै भवजल भरनाला॥८॥२६॥ ..... भाई गुरदास जी।

डूगरु = पहाड़। पातालि = पाताल में। सागरु = समुंद्र। वीचारि = विचार से। मुकता = खुला। मारि = मार के।1।

जोति = रोशनी। अधारि = आसरे से। चला = मैं (जीवन-राह पर) चलता हूँ। भै = डर में, अदब में। भेति = भेद से।1। रहाउ।

पाधरु = (सीधा) रास्ता। तकीअै = आसरे से। ताणि = ताकत से। समालसि = संभालता है। रूढ़ी = सुंदर। थैं = तुझे। पिराणि लहसि = पहचान लेता है।2।

ऊडां = (अगर) मैं उड़ू। बैसा = (अगर) मैं बैठूँ। निज घरि = अपने घर में। तह = उस अवस्था में (टिकने से)। मगु = रास्ता।3।

जितु घरि = जिस हृदय घर में। बिधि = हालत, अवस्था। बीजउ = दूसरा। न जापै = नहीं सूझता। दुबिधा = प्रभू के बिना और आसरे की झाक। छापै = छाप में, असर तले। करण पलाव = (करुणाप्रलाप) तरस भरे कीरने, तरले। पंकज = कमल, कमल के फूल जैसी आँख। पंकज महि = आँख के फोर में।4।

इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन) अनेकों। जिनि = जिस ने।5।

भै = अदब में। भाइ = प्रेम में। इंद्रु = इंद्र देवता, बादल, गुरू बादल। धरति = हृदय धरती। कालरि = कॅलर में। घोर = बहुत।6।

ऐक सबदि = एक प्रभू की सिफत सालाह के शबद में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।7।

दिसि = दिशाएं। प्रभ = हे प्रभू! पतालं = पाताल में भी। करमि = मेहर से। बैआलं = (अव्यय आलय) जिसका घर नाश रहत है, परमात्मा अविनाशी। जांमणु = पैदा होना। सिरि = ऊपर। ऊभौ = खड़ा हुआ, तैयार। खुधिआ = भूख। मनि = मन में। भावै = प्यारा लगता है। रसालं = रसों का घर परमात्मा।8।

अर्थ: मुझे माया के मोह में अंधे होए हुए को परमात्मा के नाम की रौशनी मिल गई है। अब मैं (जीवन-राह में) प्रभू के नाम के आसरे चलता हूँ, गुरू के डर-अदब में रह के चलता हूँ, (जीवन की मुश्किलों के बारे में) गुरू के (द्वारा) समझाए हुए भेद की सहायता से चलता हूँ।1। रहाउ।

अगर लंबा (सा ऊँची उड़ान वाला पक्षी आदि) ऊँचे आकाश में उड़ रहा है (तो वहाँ उड़ते को पानी नहीं मिल सकता क्योंकि) पानी समुंद्र में है (आत्मिक शांति व शीतलता विनम्रता में है। ये उस मनुष्य को प्राप्त नहीं हो सकती जिसका दिमाग़ माया आदि के अहंकार में आसमान छू रहा हो)। किला पाताल में है, पर पहाड़ (का रास्ता) ऊँचा है (अगर कोई मनुष्य कामादिक वैरियों से बचने के लिए कोई सत्संग आदि का आसरा तलाशता है, पर चढ़ता जा रहा है अहम् व अहंकार के पर्वत पर, तो उस राह पर पड़ कर वह वैरियों की चोट से नहीं बच सकता)।

गुरू के शबद की विचार करने से संसार-समुंद्र (जो विकारों की आग से तप रहा है) ठंढा-ठार हो जाता है। (गुरू के शबद की सहायता से) अहंकार को मारने से जीवन का रास्ता खुला होता है (विकारों की रुकावट नहीं रह जाती)।1।

जो मनुष्य सतिगुरू के शबद की बरकति से जिंदगी का सपाट रास्ता समझ लेता है, वह (इस जीवन-यात्रा में) गुरू के आसरे चलता है सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम के सहारे चलता है, वह सतिगुरू की सुंदर बाणी के द्वारा परमात्मा का नाम (हृदय में) बसाता है।

हे प्रभू! जब तेरी मेहर होती है तब वह तेरा दर पहचान के पा लेता है।2।

ज्यों-ज्यों मैं (जीव-पंछी) गुरू के शबद में जुड़ के प्रभू-नाम का आसरा ले के जीवन-राह में एक परमात्मा के चरणों में एक-रस सुरति जोड़ के उड़ानें लगाता हूँ और लगन का सहारा लेता हूँ, मेरे जीवन-रास्ते में ना संसार-समुंद्र का (विकार-) जल आता है ना (अहम्-अहंकार का) पहाड़ खड़ा होता है, ना ही विकारों का कोई ऊँचा-लंबा सिलसिला आ खड़ा होता है। स्वै-स्वरूप में (अपने अंदर ही प्रभू चरणों में) मेरा निवास हो जाता है। उस आत्मिक अवस्था में ना (जनम-मरण के चक्करों वाला) रास्ता पकड़ना पड़ता है, और ना ही उस रास्ते पर चलने वाला ही कोई होता है।3।

हे प्रभू! जिस मनुष्य के हृदय-घर में तू प्रकट हो जाता है उसकी आत्मिक अवस्था तू ही जानता है कि उसको तेरे बिना और कोई आसरा सूझता ही नहीं।

सारा जगत प्रभू के बिना अन्य आसरों की झाक के दबाव तले दबा हुआ है। गुरू के बिना समझ नहीं आ सकती। (प्रभू के नाम का आसरा छोड़ के जगत) तरले लेता है बिलकता है। गुरू की शरण पड़े बिना नाम जप नहीं सकता। पर अगर जीव गुरू के शबद को पहचान ले तो प्रभू का नाम इसको आँख झपकने के एक छण में (माया के दबाव से) छुड़वा लेता है।4।

(जगत में) अनेकों ही मूर्ख ऐसे हैं जो माया के मोह में अंधे होए हुए हैं। पर अनेकों ही ऐसे भी हैं जो गुरू के डर-अदब में चल के प्रभू-नाम का आसरा लेते हैं, वे सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की मीठी वाणी के द्वारा नाम-अमृत की धार का रस (का आनंद) लेते हैं।

जिस मनुष्य ने नाम-अमृत की धार पी है उसको माया के मोह से निजात कराने वाला दरवाजा मिल जाता है।5।

जो मनुष्य परमात्मा के डर-अदब में और प्यार में टिक के परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाते हैं, गुरू के द्वारा बताई हुई कार करते हैं, (भाव,) सिफतसालाह की बाणी के द्वारा सदा-स्थिर प्रभू का नाम जपते हैं उनके ऊपर गुरू-बादल (प्रभू के रहमत की) बरखा करता है जिसके कारण उनके हृदय की धरती सुहावनी बन जाती है, उनको हरेक शरीर में परमात्मा की ज्योति व्यापक दिखाई देती है।

पर, गुरू से बेमुख की निशानी यह है कि वह बुरी मति के पीछे लग के (जैसे) कलॅर में बीज बीजता रहता है। जो मनुष्य गुरू से वंचित रहते हैं, वे अज्ञानता के घोर अंधेरे में (हाथ-पैर मारते हैं), नाम-जल के बिना वे विकारों के समुंद्र में गोते खाते रहते हैं।6।

जो भी खेल रची है प्रभू ने अपनी रज़ा में रची हुई है। (जीवों के किए कर्मों के अनुसार) धुर से ही लिखा जाता है वह (किसी भी तरफ से) मिटाया नहीं जा सकता। हरेक जीव प्रभू के हुकम में बँधा हुआ अपने पूर्बले कए हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार ही काम करता है। (यह प्रभू की मेहर है कि कोई भाग्यशाली जीव) एक परमात्मा की सिफत-सालाह के शबद में जुड़ता है, सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू के नाम में लीन रहता है।7।

हे प्रभू! सारी सृष्टि में तेरा ही हुकम चल रहा है, सारी सृष्टि में छोटी से छोटी जगहों में भी तेरा ही नाम बज रहा है।

सभ जीवों में सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू की ही जीवन-रौंअ रुमक रही है (जिस किसी को मिलता है) वह अविनाशी प्रभू अपनी मेहर से ही मिलता है।

(नाम से वंचित लोगों के) सिर पर जनम-मरण का चक्कर खड़ा दिखाई देता है, माया की भूख, माया के मोह की नींद और आत्मिक मौत खड़े हुए दिखते हैं।

हे नानक! सब रसों के श्रोत प्रभू की सदा-स्थिर मेहर भरी निगाह जिस व्यक्ति पर पड़ती है उसको प्रभू का नाम प्राप्त हो जाता है उसके मन को प्रभू प्यारा लगने लग जाता है।8।1।4।

नोट: यह अष्टपदी 'घरु २' की है। कुल जोड़ 4 है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh