श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला १ ॥ मरण मुकति गति सार न जानै ॥ कंठे बैठी गुर सबदि पछानै ॥१॥ तू कैसे आड़ि फाथी जालि ॥ अलखु न जाचहि रिदै सम्हालि ॥१॥ रहाउ ॥ एक जीअ कै जीआ खाही ॥ जलि तरती बूडी जल माही ॥२॥ सरब जीअ कीए प्रतपानी ॥ जब पकड़ी तब ही पछुतानी ॥३॥ जब गलि फास पड़ी अति भारी ॥ ऊडि न साकै पंख पसारी ॥४॥ रसि चूगहि मनमुखि गावारि ॥ फाथी छूटहि गुण गिआन बीचारि ॥५॥ सतिगुरु सेवि तूटै जमकालु ॥ हिरदै साचा सबदु सम्हालु ॥६॥ गुरमति साची सबदु है सारु ॥ हरि का नामु रखै उरि धारि ॥७॥ से दुख आगै जि भोग बिलासे ॥ नानक मुकति नही बिनु नावै साचे ॥८॥२॥५॥ {पन्ना 1275}

पद्अर्थ: मरण मुकति = आत्मिक मौत से खलासी। गति सार = ऊँची आत्मिक अवस्था की कद्र। कंठे = लांभे, किनारे पर, अलग रहती। पछाणै = पहचानती है, पहचानने का यतन करती है।1।

आड़ि = (आटि) बगले की किस्म का एक पंछी। जालि = जाल में। अलखु = अदृश्य प्रभू। समालि = संभाल के।1। रहाउ।

जीअ कै = जिंद की खातिर। खाही = तू खाती है। तरती = तैरती हुई। बूडी = डूब गई।2।

प्रतपानी = (प्र+तपानी) अच्छी तरह दुखी।3।

गलि = गले में। पसारी = पसारि, बिखेर के। पंख = पंख (पक्षी के)।4।

रसि = आनंद से। गावारि = हे गवार! हे ढीठ! मनमुखि = मन के पीछे चल के।5।

जमकालु = मौत (का सहम), आत्मिक मौत (का जाल)। साचा = सदा स्थिर रहने वाला।6।

सारु = श्रेष्ठ। उरि = हृदय में। धारि = टिका के।7।

से दुख = वे (भोग जो भोगे) दुख (बन के)। मुकति = मुक्ति।8।

अर्थ: हे आड़ि! (आड़ि पक्षी की तरह दूसरों पर ज्यादती करने वाली हे जिंदे!) तू (माया के मोह के) जाल में कैसे फस गई? तू अपने हृदय में अदृश्य प्रभू का नाम संभाल के उससे (आत्मिक जीवन की दाति) क्यों नहीं माँगती?।1। रहाउ।

अंजान जिंद ऊँची आत्मिक अवस्था की कद्र नहीं समझती, आत्मिक मौत से बचने (का उपाय) नहीं जानती। गुरू के शबद द्वारा समझने का यतन तो करती है पर (गुरू-शबद से) अलग ही बैठी हुई (गुरू-शबद में जुड़ती नहीं, लीन नहीं होती)।1।

हे आड़ि! तू अपनी एक जिंद की खातिर (पानी में से चुग-चुग के) अनेकों जीव खाती है (हे जिंदे! तू अपने शरीर की पालना के लिए अनेकों के साथ ठॅगी-ठोरी करती है)। तू (जल-जंतु पकड़ने के लिए) पानी में तैरती-तैरती पानी में ही डूब जाती है (हे जिंदे! माया-जाल में दौड़-भाग करती आखिर इसी माया-जाल में ही आत्मिक मौत मर जाती है)।2।

(अपने स्वार्थ की खातिर) तूने सारे जीवों को बहुत दुखी किया हुआ है, जब तू (मौत के जाल में) पकड़ी जाती है तब पछताती है।3।

जब आड़ि के गले में (किसी शिकारी का) बहुत भारी फंदा पड़ता है, तब वह पंख पसार के उड़ नहीं सकती (जब जिंद माया के मोह के जाल में फस जाती है तब यह आत्मिक उड़ान भरने के योग्य नहीं रहती, इसकी सुरति ऊँची हो के प्रभू-चरणों में नहीं पहुँच सकती)।4।

अपने मन के पीछे चलने वाली हे गवार जिंदे! तू बड़ी मौज से (माया का चोगा) चुगती है (और माया के जाल में फसती जाती है)। परमात्मा की सिफतसालाह को अपने सोच-मण्डल में टिका, प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल, तब ही तू (माया के मोह के जाल और आत्मिक मौत से) बच सकेगी।5।

(हे जिंदे!) सतिगुरू की शरण पड़, अपने हृदय में प्रभू की सिफत-सालाह वाला गुर-शबद संभाल, तब ही आत्मिक मौत वाला जाल टूट सकेगा।6।

(हे जिंदे!) गुरू की मति ही सदा कायम रहने वाली मति है, गुरू का शबद ही श्रेष्ठ पदार्थ है (इस शबद का आसरा ले के ही जीव) परमात्मा का नाम अपने हृदय में संभाल के रख सकता है।7।

दुनियावी पदार्थों के जो भोग-बिलास (बड़े चाव से) किए जाते हैं वे जीवन-यात्रा में दुख बन-बन के आ घटित होते हैं। हे नानक! (इन दुखों से) परमात्मा के नाम के बिना खलासी नहीं हो सकती।8।2।5।

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