श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1277 बिनु सतिगुर किनै न पाइओ मनि वेखहु को पतीआइ ॥ हरि किरपा ते सतिगुरु पाईऐ भेटै सहजि सुभाइ ॥ मनमुख भरमि भुलाइआ बिनु भागा हरि धनु न पाइ ॥५॥ त्रै गुण सभा धातु है पड़ि पड़ि करहि वीचारु ॥ मुकति कदे न होवई नहु पाइन्हि मोख दुआरु ॥ बिनु सतिगुर बंधन न तुटही नामि न लगै पिआरु ॥६॥ पड़ि पड़ि पंडित मोनी थके बेदां का अभिआसु ॥ हरि नामु चिति न आवई नह निज घरि होवै वासु ॥ जमकालु सिरहु न उतरै अंतरि कपट विणासु ॥७॥ हरि नावै नो सभु को परतापदा विणु भागां पाइआ न जाइ ॥ नदरि करे गुरु भेटीऐ हरि नामु वसै मनि आइ ॥ नानक नामे ही पति ऊपजै हरि सिउ रहां समाइ ॥८॥२॥ {पन्ना 1277} पद्अर्थ: किनै = किसी ने भी। मनि = मन में। को = कोई पक्ष। पतिआइ = निर्णय करके। ते = से। पाईअै = मिलता है। भेटै = मिलता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। भरमि = भटकना के कारण। भुलाइआ = गलत राह पर डाला होता है।5। सभा = सारी। धातु = माया। पढ़ि = पढ़ के। करहि = करते हैं (बहुवचन)। मुकति = माया के मोह से खलासी। नहु = नहीं। नहु पाइनि् = नहीं प्राप्त करते। मोख दुआरु = माया के मोह से मुक्ति का रास्ता। तुटही = तुटहि, टूटते (बहुवचन)। नामि = नाम में।6। पंडित = (बहुवचन। पंडितु = एक वचन)। मोनी = समाधियां लगाने वाले, मुनि लोग। चिति = चिक्त में। निज घरि = अपने असल घर में। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत, जनम मरण का चक्कर। सिरहु = सिर से। कपट = खोट। विणासु = (आत्मिक) मौत।7। नावै नो = नाम के लिए। सभु को = हरेक प्राणी। परतापदा = तमन्ना रखता है। नदरि = मेहर की निगाह। भेटीअै = मिला जा सकता है। मनि = मन में। नामे = नाम से ही। पति = इज्जत। रहां = मैं रहता हूँ।8। अर्थ: हे भाई! बेशक कई पक्ष मन में निर्णय करके देख लें, गुरू (की शरण) के बिना किसी ने भी (परमात्मा का नाम-धन) हासिल नहीं किया। गुरू (भी) मिलता है परमात्मा की मेहर से, आत्मिक अडोलता में मिलता है प्यार में मिलता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को भटकना ने गलत राह पर डाला हुआ होता है। किस्मत के बिना परमात्मा का नाम-धन नहीं मिल सकता।5। हे भाई! (पंडित लोग वेद आदि धर्म-पुस्तकों को) पढ़-पढ़ के (तीनों गुणों में रखने वाले कर्म-काण्ड का ही) विचार करते हैं, और, यह तीन गुणों की विचार निरी माया ही है। (इस उद्यम से) कभी भी माया के मोह से खलासी नहीं हो सकती, (वे लोग) माया से निज़ात पाने का रास्ता नहीं तलाश सकते। हे भाई! गुरू (की शरण) के बिना (माया के मोह के) फंदे नहीं टूटते, परमात्मा के नाम में प्यार नहीं बन सकता।6। हे भाई! पंडित लोग, मुनि जन (शास्त्रों को) पढ़-पढ़ के थक जाते हैं (कर्म-काण्ड के चक्करों में डाले रखने वाले) वेद (आदि धर्म-पुस्तकों का ही) अभ्यास करते रहते हैं, (पर, इस तरह) परमात्मा का नाम चिक्त में नहीं बसता, प्रभू चरणों में निवास नहीं होता, सिर से जनम-मरण का चक्कर समाप्त नहीं होता, मन में (माया की खातिर) ठॅगी (टिकी रहने के कारण) आत्मिक मौत बनी रहती है।7। हे भाई! (वैसे तो) हरेक प्राणी परमात्मा का नाम प्राप्त करने की तमन्ना रखता है, पर बढ़िया किस्मत के बग़ैर मिलता नहीं है। जब प्रभू मेहर की निगाह करता है तो गुरू मिलता है (और, गुरू के द्वारा) परमात्मा का नाम मन में आ बसता है। हे नानक (कह-) परमात्मा के नाम से (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है (मैं गुरू की कृपा से) परमात्मा के नाम के साथ सदा जुड़ा रहता हूँ।8।2। मलार महला ३ असटपदी घरु २ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि हरि क्रिपा करे गुर की कारै लाए ॥ दुखु पल्हरि हरि नामु वसाए ॥ साची गति साचै चितु लाए ॥ गुर की बाणी सबदि सुणाए ॥१॥ मन मेरे हरि हरि सेवि निधानु ॥ गुर किरपा ते हरि धनु पाईऐ अनदिनु लागै सहजि धिआनु ॥१॥ रहाउ ॥ बिनु पिर कामणि करे सींगारु ॥ दुहचारणी कहीऐ नित होइ खुआरु ॥ मनमुख का इहु बादि आचारु ॥ बहु करम द्रिड़ावहि नामु विसारि ॥२॥ गुरमुखि कामणि बणिआ सीगारु ॥ सबदे पिरु राखिआ उर धारि ॥ एकु पछाणै हउमै मारि ॥ सोभावंती कहीऐ नारि ॥३॥ बिनु गुर दाते किनै न पाइआ ॥ मनमुख लोभि दूजै लोभाइआ ॥ ऐसे गिआनी बूझहु कोइ ॥ बिनु गुर भेटे मुकति न होइ ॥४॥ {पन्ना 1277} पद्अर्थ: कारै = कार (करने) में। लाऐ = लगाता है। पल्रि = दूर कर के। साची = सदा कायम रहने वाली। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। साचै = सदा स्थिर हरी नाम में। सबदि = शबद से। सुणाऐ = (अपनी सिफत सालाह) सुनाता है।1। मन = हे मन! सेवि = सेवा कर, शरण पड़ा रह। निधानु = खजाना। ते = से। अनदिनु = हर रोज। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ। पिर = पति। कामणि = स्त्री। दुहचारणी = दुराचारिणी, बुरे आचरण वाली। कहीअै = कही जाती है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। बादि = व्यर्थ। आचारु = रवईया। करम = (दिखावे के धार्मिक) कर्म। द्रिढ़ावहि = करने की ताकीद करते हैं। विसारि = भुला के।2। गुरमुखि कामणि = गुरू के सन्मुख रहने वाली जीव स्त्री। पिरु = प्रभू पति। उर = हृदय। धारि = टिका के। मारि = मार के।3। किनै = किसी ने भी। लोभि = माया के लोभ के कारण। दूजै = (प्रभू की याद के बिना) और में। लोभाइआ = मगन रहता है। गिआनी = हे ज्ञानवान! भेटे बिनु = मिले बिना। मुकति = माया के मोह से खलासी।4। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा की भगती करता रह (यही है असल खजाना) हरी नाम का यह धन गुरू की कृपा से मिलता है, और हर वक्त आत्मिक अडोलता की सुरति जुड़ी रहती है।1। रहाउ। हे भाई! (जिस मनुष्य पर) परमात्मा मेहर करता है, उसको गुरू की सेवा में लगाता है, (जो गुरू) उसका दुख दूर करके उसके अंदर परमात्मा का नाम बसाता है। हे भाई! (जिस पर परमात्मा कृपा करता है उसको) गुरू की बाणी के द्वारा गुरू के शबद से (अपना नाम) सुनाता है वह मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम में अपना चिक्त जोड़ता है और सदा कायम रहने वाली ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल करता है।2। हे भाई! (जैसे जो) स्त्री पति के बिना (शारीरिक) श्रंृगार करती है वह बुरे आचरण वाली कही जाती है और सदा दुखी होती है (वैसे ही) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों का यह रवईया व्यर्थ जाता है कि वे परमात्मा का नाम भुला के और बहुत सारे दिखावे के धार्मिक कर्मों की ताकीद करते हैं।2। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाली जीव-स्त्री को यह आत्मिक सुहज फबता है कि वह गुरू के शबद के द्वारा प्रभू-पति को अपने हृदय में बसाए रखती है, वह अपने अंदर से अहंकार को दूर कर के सिर्फ परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालती है। उस जीव-स्त्री को शोभामयी कहा जाता है।3। हे भाई! (नाम की दाति) देने वाले गुरू के बिना किसी ने भी (परमात्मा का मिलाप) हासिल नहीं किया। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के लोभ के कारण (प्रभू की याद के बिना) और (के प्यार) में मगन रहता है। हे भाई! अगर किसी को आत्मिक जीवन की सूझ हुई है तो ये समझ लो कि गुरू को मिले बिना (माया के मोह से) मुक्ति नहीं मिलती।4। कहि कहि कहणु कहै सभु कोइ ॥ बिनु मन मूए भगति न होइ ॥ गिआन मती कमल परगासु ॥ तितु घटि नामै नामि निवासु ॥५॥ हउमै भगति करे सभु कोइ ॥ ना मनु भीजै ना सुखु होइ ॥ कहि कहि कहणु आपु जाणाए ॥ बिरथी भगति सभु जनमु गवाए ॥६॥ से भगत सतिगुर मनि भाए ॥ अनदिनु नामि रहे लिव लाए ॥ सद ही नामु वेखहि हजूरि ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरि ॥७॥ आपे बखसे देइ पिआरु ॥ हउमै रोगु वडा संसारि ॥ गुर किरपा ते एहु रोगु जाइ ॥ नानक साचे साचि समाइ ॥८॥१॥३॥५॥८॥ {पन्ना 1277} पद्अर्थ: कहि कहि कहै = कह कह के कहता है, सदा डींगें मारता है। सभु कोइ = हरेक प्राणी (बहुवचन)। गिआन = आत्मिक जीवन की समझ। गिआन मती = आत्मिक जीवन की मति से। परगासु = खिलाव। तितु = उसमें। तितु घटि = उस हृदय में। नामै निवासु = नाम का निवास। नामि = नाम से।5। सभु कोइ = हरेक जीव। भीजै = भीगता, नाम जल से भीगता। कहणु = ये डींग कि मैं भगती करता हूं। कहि = कह के। आपु जाणाऐ = अपने आप को जतलाता है।6। से = वे (बहुवचन)। मनि = मन में। भाऐ = प्यारे लगे। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लिव लाऐ = सुरति जोड़ के। सद = सदा। वेखहि = देखते हैं (बहुवचन)। हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। सबदि = शबद से। भरपूरि = सब जगह व्यापक।7। आपे = आप ही। बखसे = बख्शिश करता है। देइ = देता है। संसारि = संसार में। ते = के द्वारा, से। जाइ = दूर होता है। साचे साचि = साचि ही साचि, सदा स्थिर प्रभू में।8। अर्थ: हे भाई! (यह) डींग (कि मैं भगती करता हूँ) हर कोई हर वक्त मार सकता है, पर मन वश में आए बिना भक्ति हो ही नहीं सकती। हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ वाली मति से जिस हृदय-कमल में खिड़ाव हो जाता है, नाम (जपने) से उस हृदय में (सदा के लिए) नाम का निवास हो जाता है।5। हे भाई! (गुरू की शरण आए बिना अपने) अहंकार के आसरे हर कोई भगती करता है पर इस तरह मनुष्य का मन नाम-जल से तर नहीं होता, ना ही उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है। यह डींग (कि मैं भगती करता हूँ) मार-मार के मनुष्य अपने आप को (भगत) जाहर करता है, (पर, इस तरह की) भगती व्यर्थ जाती है, (मनुष्य अपना सारा) जनम गवा लेता है।6। हे भाई! (दरअसल) भगत वे हैं जो गुरू के मन को भा जाते हैं, हर वक्त हरी-नाम में सुरति जोड़ के रखते हैं। वे मनुष्य हरी-नाम को सदा ही अपने अंग-संग देखते हैं, गुरू के शबद के द्वारा उनको हर जगह व्यापक दिखाई देता है।7। हे भाई! (जिस मनुष्य पर प्रभू) स्वयं कृपा करता है, (उसको अपने) प्यार (की दाति) देता है। (वैसे तो) जगत में अहंकार का बहुत बड़ा रोग है। हे नानक! गुरू की कृपा से (जिस मनुष्य के अंदर से) ये रोग दूर होता है वे हर वक्त सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।8।1।3।5।8। वेरवा: |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |