श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु मलार छंत महला ५ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ प्रीतम प्रेम भगति के दाते ॥ अपने जन संगि राते ॥ जन संगि राते दिनसु राते इक निमख मनहु न वीसरै ॥ गोपाल गुण निधि सदा संगे सरब गुण जगदीसरै ॥ मनु मोहि लीना चरन संगे नाम रसि जन माते ॥ नानक प्रीतम क्रिपाल सदहूं किनै कोटि मधे जाते ॥१॥ {पन्ना 1278}

पद्अर्थ: प्रेम के दाते = प्यार की दाति देने वाले। भगति के दाते = भगती की दाति देने वाले। संगि = साथ। राते = रति हुए। दिनसु राते = दिन रात। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। मनहु = (सेवकों के) मन से। वीसरै = भूलता। गुणनिधि = (सारे) गुणों का खजाना। जगदीसरै = जगत के मालिक में (जगत+ईसरै)। मोहि लीना = मोह लिया है, मस्त कर लिया है। नाम रसि = नाम के स्वाद में। माते = मस्त। सद हूँ = सदा ही। किनै = किसी विरले ने। कोटि मधे = करोड़ों में से। जाते = जाना है, सांझ डाली है।1।

अर्थ: हे भाई! प्रीतम प्रभू जी (अपने भक्तों को) प्यार की दाति देने वाले हैं, भगती की दाति देने वाले हैं। प्रभू जी अपने सेवकों के साथ रति रहते हैं, दिन-रात अपनें सेवकों के साथ रति रहते हैं।

हे भाई! प्रभू (अपने सेवकों के) मन से आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं भूलता। जगत का पालनहार प्रभू सारे गुणों का खजाना है, सदा (सब जीवों के) साथ है, जगत के मालिक प्रभू में सारे ही गुण हैं।

हे भाई! प्रभू अपने जनों का मन अपने चरणों में मस्त करे रखता है। (उसके) सेवक (उसके) नाम के स्वाद में मगन रहते हैं। हे नानक! प्रीतम प्रभू सदा ही दया का घर है। करोड़ों में से किसी विरले ने (उसके साथ) गहरी सांझ बनाई है।1।

प्रीतम तेरी गति अगम अपारे ॥ महा पतित तुम्ह तारे ॥ पतित पावन भगति वछल क्रिपा सिंधु सुआमीआ ॥ संतसंगे भजु निसंगे रंउ सदा अंतरजामीआ ॥ कोटि जनम भ्रमंत जोनी ते नाम सिमरत तारे ॥ नानक दरस पिआस हरि जीउ आपि लेहु सम्हारे ॥२॥ {पन्ना 1278}

पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! (संबोधन)। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। अगम = अपहुँच। अपारे = अ+पार, बेअंत। पतित = विकारों में गिरे हुए जीव। तारे = पार लंघाए हैं। पतित पावन = हे पापियों को पवित्र करने वाले! सिंधु = समुंद्र। सुआमीआ = हे स्वामी! संगे = संगति में। भजु = भजन किया कर। निसंगे = शर्म उतार के। रंउ = सिमरता रह। ते = वे लोग (बहुवचन)। नानक = हे नानक! हरि जीउ = हे प्रभू जी! लेहु समारे = संभाल लो, अपना बना लो।2।

अर्थ: हे प्रीतम प्रभू! तेरी ऊँची आत्मिक अवस्था अपहुँच है बेअंत है। बड़े-बड़े पापियों को तू (संसार-समुंद्र से) पार लंघाता आ रहा है। हे पापियों को पवित्र करने वाले! हे भगती के साथ प्यार करने वाले स्वामी! तू दया का समुंद्र है।

(हे मन!) साध-संगति में (टिक के) शर्म उतार के, उस अंतरजामी प्रभू का सदा भजन किया कर, सिमरन किया कर। हे भाई! जो जीव करोड़ों जनमों से जूनियों में भटकते फिरते थे, वे प्रभू का नाम सिमर के (जूनियों के चक्करों में से) पार लांघ गए।

हे नानक! (कह-) हे प्रभू जी! (मुझे) तेरे दर्शनों की तमन्ना है, मुझे अपना बना लो।2।

हरि चरन कमल मनु लीना ॥ प्रभ जल जन तेरे मीना ॥ जल मीन प्रभ जीउ एक तूहै भिंन आन न जानीऐ ॥ गहि भुजा लेवहु नामु देवहु तउ प्रसादी मानीऐ ॥ भजु साधसंगे एक रंगे क्रिपाल गोबिद दीना ॥ अनाथ नीच सरणाइ नानक करि मइआ अपुना कीना ॥३॥ {पन्ना 1278}

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! मीना = मछलियां। ऐकु तू है = तू स्वयं ही है। भिंन = (तुझसे) अलग। आन = (कोई) और (अन्य)। जानीअै = जाना जा सकता। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। गहि लेवहु = पकड़ लो। तउ प्रसादी = तेरी मेहर से ही। मानीअै = आदर मिलता है। संगे = संगति में। रंगे = रंगि, प्यार में। दीना क्रिपाल गोबिंद = दीनों पर दया करने वाला प्रभू। करि = कर के। मइआ = दया।3।

अर्थ: हे हरी! (मेहर कर, मेरा) मन तेरे सुंदर चरणों में लीन रहे। हे प्रभू! तू पानी है, तेरे सेवक (पानियों की) मछलियाँ है (तुझसे विछुड़ कर जी नहीं सकते)। हे प्रभू जी! पानी और मछलियाँ तू खुद ही है, (तुझसे) अलग कोई और नहीं जाना जा सकता। हे प्रभू! (मेरी) बाँह पकड़ ले (मुझे अपना) नाम दे। तेरी मेहर से ही (तेरे दर पर) आदर पाया जा सकता है। हे भाई! साध-संगति में (टिक के) दीनों पर दया करने वाले प्रभू के प्रेम में जुड़ के (उसका) भजन किया कर। हे नानक! शरण आए निखसमों और नीचों को भी मेहर कर के प्रभू अपना बना लेता है।3।

आपस कउ आपु मिलाइआ ॥ भ्रम भंजन हरि राइआ ॥ आचरज सुआमी अंतरजामी मिले गुण निधि पिआरिआ ॥ महा मंगल सूख उपजे गोबिंद गुण नित सारिआ ॥ मिलि संगि सोहे देखि मोहे पुरबि लिखिआ पाइआ ॥ बिनवंति नानक सरनि तिन की जिन्ही हरि हरि धिआइआ ॥४॥१॥ {पन्ना 1278}

पद्अर्थ: आपस कउ = अपने आप को। आपु = अपना आप। भ्रम भंजन = (जीवों की) भटकना दूर करने वाला। हरि राइआ = प्रभू पातशाह। गुण निधि = गुणों का खजाना। मंगल = खुशियां। सारिआ = संभाले, हृदय में बसाए। मिलि = मिल के। संगि = (प्रभू के) साथ। सोहे = शोभनीक हो गए, सुंदर जीवन वाले बन गए। देखि = देख के। मोहे = मस्त हो गए। पुरबि = पूर्बले जनम में। बिनवंति = विनती करता है।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभू-पातशाह (जीवों की) भटकना दूर करने वाला है (और जीवों को अपने साथ मिलाने वाला है। पर जीवों में भी वह स्वयं ही स्वयं है। सो, जीवों को अपने साथ मिला के वह) अपने आप को अपना आप (ही) मिलाता है।

हे भाई! मालिक-प्रभू आश्चर्य-रूप है सबके दिल की जानने वाला है। वह गुणों का खजाना प्रभू जिन अपने प्यारों से मिल जाता है, वे सदा उस गोबिंद के गुण अपने हृदय में बसाते हैं, उनके अंदर महान खुशियां और महान सुख पैदा हो जाते हैं।

पर, हे भाई! पूर्बले जन्म में (प्राप्ति का लेख) लिखा हुआ (जिनके माथे के ऊपर) उघड़ आया, वे प्रभू के साथ मिल के सुंदर जीवन वाले बन गए, वे उसका दर्शन करके उसमें मगन हो गए।

नानक विनती करता है- जिन्होने सदा परमात्मा का ध्यान धरा है, मैं उनकी शरण पड़ता हूँ।4।1।

वार मलार की महला १ राणे कैलास तथा मालदे की धुनि ॥

पउड़ी वार भाव

क.

परमात्मा ने अपना आप प्रकट करने के लिए ये दुनिया रची है; यह, मानो, उसका दरबार आया है, जिसमें वह स्वयं तख्त पर बैठा हुआ है।

सारी कुदरति में मौजूद है, पर है गुप्त; कोई उसका 'स्वरूप' नहीं बयान कर सका।

जगत को उसने धंधों में लगा रखा है और खुद छुपा बैठा है; जो बड़े-बड़े भी आए वे भी धंधों में ही रहे।

यह जगत, मानो, पहलवानों का अखाड़ा है; भलाई और बुराई का यहाँ दंगल हो रहा है; ये खेल प्रभू खुद ही करवा रहा है।

भलाई और बुराई- ये दोनों धड़े उसने स्वयं बनाए हैं; झगड़ा पैदा करने वाला भी स्वयं ही है और 'धर्म' राज बन के झगड़े मिटाने वाला वकील भी स्वयं ही है।

सो, जिस करतार ने यह बहुरंगी दुनिया बनाई है उसको सिमरो ता कि बुराई जोर ना डाल सके; और कोई साथी नहीं बन सकता।

जगत के दिखाई देते अघिकार और अत्याचार में केवल वही लोग सुखी हैं जो जगत के रचनहार के चरणों में जुड़े हुए हैं।

ख.

जगत-अखाड़े की इस खेल की दुनिया को समझ नहीं आई; अपनी समझ के पीछे लगने वाले जीव बुराई के वश हो के इस दंगल में हार रहे हैं।

जो बड़े-बड़े भी कहलवा गए, उन्होंने भी ना समझा कि ये तृष्णा की आग और वाद-विवाद प्रभू ने खुद पैदा किए हैं। जो मनुष्य गुरू-दर पर आ के उपदेश कमाते हैं वे अस्लियत को समझ के इस तृष्णा के असर से बचे रहते हैं।

सब कुछ प्रभू खुद करता कराता है, जीवों के कर्मों का लेखा भी स्वयं ही माँगता है; तृष्णा की आग से बचाता भी स्वयं ही है। गुरू-दर पर आने से उस प्रभू में जुड़ा जाता है।

मनमुख अहंकार के कारण दुखी होता है; अगर गुरू-शरण आ के प्रभू को ध्याए तो तृष्णा की आग बुझती है और शांति की प्राप्ति होती है।

राज, हकूमत, धन आदि का मान करने वाले आखिर में दुखी होते हैं, क्योंकि झूठ सामने आ जाता है।

जो मनुष्य माया के अधीन हो के अवगुण कमाते हैं, वे, मानो, जूए में मानस-जनम हार जाते हैं, जगत में उनका आना बेअर्थ हो जाता है।

नाम बिसार के मनमुख बे-वजह जीवन बिताते हैं; अंदर से काले, देखने में मनुष्य, दरअसल वे पशू-समान हैं।

ग.

पर जंगल में जा के समाधि लगाना, नंगे शरीर पर पाला शीत लहर को सहना, तन पर राख मलनी, जटाएं बढ़ा लेनी, धूणियाँ तपानीं, ये भी जीवन का सही रास्ता नहीं।

सरेवड़े सिर के बाल उखड़वाते हैं, दिन-रात गंदे रहते हैं, झूठा खाते हैं- ये भी मनुष्य का सही चलन नहीं है।

कोई राग गाते हैं, कोई रास डालते हें, कई अन्न खाना छोड़ देते हैं; पर ऐसे हठ कर्म चाहे जितने बढ़ाए चलो, प्रभू हठ-कर्मों से प्रसन्न नहीं होता।

परमात्मा गुरू के द्वारा ही मिलता है; जिसने गुरू के शबद के द्वारा अंदर बसते प्रभू-तीर्थ पर मन को स्नान करवाया है वह सच्चा व्यापारी है, उसका जनम मुबारक है।

प्रभू भगती पर रीझता है, भगती प्रेम के आसरे हो सकती है। इस प्रेम-मार्ग पर सतिगुरू ही चलाता है।

गुरू के बिना जगत कमला हुआ फिरता है; गुरू से मनुष्य प्रभू की रज़ा में चलने की जाच सीखता है और अपनी मर्जी पर चलना छोड़ देता है।

जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के रॅब की बँदिश (रज़ा) में चलता है वह संसार-समुंद्र से लांघ के दरगाह में आदर पाता है।

जब तक दुनिया का सहम है मन भटकता है; भटकना के कारण अडोल अवस्था नहीं बनती और प्रभू-चरणों में जुड़ा नहीं जा सकता। एक प्रभू का डर दुनिया के डर खत्म कर देता है और यह प्रभू-डर गुरू से ही प्राप्त होता है।

घ.

जीवन-राह में विद्वता भी सहायता नहीं करती, नाम के बिना ये भी झूठ का व्यापार ही है, विकारों से बचाव नहीं हो सकता। प्रभू-दर पर प्रवान केवल 'नाम' ही है और यह 'नाम' गुरू से ही मिलता है।

और बुद्धिमक्ता सब झूठी हैं; बल्कि, अहंकार पैदा करती हैं, जलते पर (दुबिधा का) तेल डालती हैं, प्रभू का 'नाम' ही सच्चा व्यापार है।

भगवा वेश कर के देश-देशांतरों में भटकते रहना जीवन-रास्ता नहीं है; ईश्वर तो अंदर बसता है और यह दीदार होता है गुरू-शबद से।

तृष्णा की धाधकती आग में जगत जल रहा है, इसमें जीव-पंछी चोग चुग रहा है; जिसको प्रभू के हुकम में गुरू-जहाज़ मिल जाता है वह बच जाता है।

महला ५। गुरू के शबद की बरकति से सारे विकार उतर जाते हैं; गुरमुखों की संगति में मनुष्य विकारों से बच जाता है; पर यह सब कुछ उसकी मेहर के सदका है।

प्रभू हर जगह मौजूद है, पर मनुष्य के अंदर अज्ञान और भटकना है, दीदार नहीं होता। जिस पर मेहर करे वह 'नाम' सिमर के प्रभू में जुड़ता है।

सारे भाव का संक्षेप:

अ. (1 से 7) परमात्मा ने जगत एक अखाड़ा रचा है जहाँ भलाई और बुराई के दंगल का खेल हो रहा है। तृष्णा की आग और वाद-विवाद उसने स्वयं ही रचे हैं, इसके असर तले राज और हकूमत का मान करने वाले आखिर दुखी होते हैं और जन्म व्यर्थ गवा जाते हैं।

आ. (8 से 14) पर, जंगल में जोगियों वाला बसेरा, जीव-हिंसा के बारे में सरेवड़ों वाला वहम, अन्न का त्याग, अथवा, रासें डालनी - इन कामों से यह तृष्णा नहीं खत्म हो सकती।

इ. (15 से 22) प्रभू भगती से रीझता है, भगती प्रेम के आसरे होती है; सो, गुरू की शरण पड़ कर प्रेम-मार्ग पर चलना है, मन को अंतरात्मा के तीर्थ पर स्नान करवाना है, प्रभू की रज़ा में बँदिश में चलने की जाच सीखनी है और प्रभू के डर में रह के दुनिया के सहम गवाने हैं।

ई. (23 से 28) तृष्णा के शोलों से बचने में विद्वता भी सहायता नहीं करती, बौधित्व के और प्रयास बल्कि जलती पर तेल ही डालते हैं; भगवा वेश, देश-रटन भी दुखी ही करते हैं, एक गुरू-शबद की बरकति से ही सारे विकार मिटते हैं, अज्ञान और भटकना दूर होती है। पर, प्रभू, गुरू मिलाता है उसको, जिस पर वह खुद मेहर करे।

प्रश्न: 'मलार की वार' गुरू नानक देव जी ने लिखी कब?

उक्तर: इस प्रश्न पर विचार करते समय पहले ये प्रश्न उठता है कि 'वार' ही लिखने का विचार कब और क्यों गुरू नानक देव जी को आया।

हमारे देश में योद्धाओं की शूरवीरता के प्रसंग गा के सुनाने का रिवाज था, इस सारे प्रसंग का नाम 'वार' होता था। सो, 'वार' आम-तौर पर जंगों-युद्धों के बारे में हुआ करती थी। जब संन् 1521 में बाबर ने हिन्दोस्तान पर हमला करके ऐमनाबाद को आग लगाई और शहर में बड़े पैमाने पर अत्याचार के साथ-साथ कत्लेआम भी किया, तब गुरू नानक देव जी ने 'वार' का नक्शा लोगों पर हकीकत में बीतता आँखों से देखा। और ढाढी तो ऐसे समय अपने किसी साथी किसी सूरमे मनुष्य के किसी महत्वपूर्ण जंगी-कारनामे को कविता में लिखते थे, जैसे एक कवि ने 'नादर की वार' लिखी है, पर गुरू नानक साहिब को एक ऐसा महान योद्धा नज़र आ रहा था जिसके इशारे पर जगत के सारे जीव कामादिक वैरियों के साथ एक महान जंग में लगे हुए हैं। ऐमनाबाद की जंग को देख के, गुरू नानक देव जी ने एक जंगी कारनामे पर ही 'वार' लिखी, पर उनका 'मुख्य पात्र' (Hero) अकाल-पुरख स्वयं था।

गुरू नानक साहिब ने तीन वारें लिखीं- मलार की वार, माझ की वार और आसा दी वार; भाव, एक वार 'मलार' राग में है, दूसरी 'माझ' राग में और तीसरी 'आसा' राग में है। इनमें से 'मलार की वार' ऐसी है जिसमें रण-भूमि का और उसमें लड़ने वाले सूरमों का वर्णन है: जैसे;

'आपे छिंझ पवाइ मलाखाड़ा रचिआ॥
लथे भड़थु पाइ.......॥
.........मारे पछाड़ि.....॥
आपि भिड़ै मारै..........॥4॥

इस विचार से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरू नानक देव जी की सबसे पहली 'वार' मलार की वार है; ऐमनाबाद का युद्ध देख के उन्होंने महाबली योद्धे अकाल-पुरख के उस जंग का हाल लिखा जो सारे जगत-रूप रणभूमि में हो रहा है। ऐमनाबाद के कत्लेआम की घटना 1521 में तब हुई जब गुरू नानक देव जी आखिरी तीसरी 'उदासी' से वापस ऐमनाबाद आए। इस तरह, यह 'वार' 1521 में करतारपुर में लिखी गई।

इस 'वार' की 28 पौड़ियाँ हैं, पर पौड़ी नंबर 27 गुरू अरजन साहिब की है, गुरू नानक साहिब की लिखी हुई 27 पउड़ियां हैं, और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुके हैं। अब इस 'वार' को मिलाईए 'माझ की वार' के साथ; उसमें भी 27 पउड़ियां हैं और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुके हैं। विषय-वस्तु भी दोनों वारों की एक जैसी ही है- 'तृष्णा की आग'। 'मलार की वार' में लिखा है, 'अगनि भखै भड़हाड़ ु अनदिनु भखसी'- 26; और 'अगनि उपाई वादु भुख तिहाइआ'-9। 'माझ की वार' में भी 'तृष्णा की आग' का ही वर्णन है- 'त्रिसना अंदरि अगनि है नाह तिपतै भुखा तिहाइआ'-2। 'मलार की वार' में लिखा है कि इस तृष्णा की आग से जंगल बसेरा, सरेवड़ों वाली कुचिलता, अन्न का त्याग, विद्वता और भगवा वेश आदि बचा नहीं सकते, देखें पउड़ी नं: 15,16,17,23 और 25। माझ की वार में भी यही जिकर है, देखें पउड़ी नं: 5 और 6।

इन दोनों वारों के इस अध्ययन से ये अंदाजा लगता है कि 'मलार की वार' लिखने के थोड़े ही समय बाद सतिगुरू जी ने यह दूसरी 'माझ की वार' लिखी संन् 1521 में करतार पुर में । तीनों उदासियाँ समाप्त करके अभी करतारपुर आ के टिके ही थे; उदासियों के समय जोगियों सन्यासियों सरेवड़ों व विद्वान पण्डितों आदि को मिले, वे ख्याल अभी दिल में ताजा थे जो इन दोनों 'वारों' में प्रकट किए हैं जैसे कि ऊपर बताया गया है।

पर, 'आसा दी वार' इन 'वारों' से अलग किस्म की है। इस वार में 24 पउड़ियां हैं, हरेक पउड़ी में तुकें भी साढ़े चार-चार हैं। विषय वस्तु भी अलग तरह का है। सारी 'वार' में कहीं भी जोगियों सन्यासियों सरेवड़ों व विद्वान पण्डितों की तरफ इशारा नहीं जिनको उदासियों के समय मिले थे। एक ऐसे 'जीवन' की तस्वीर यहाँ दी गई है जिसकी हरेक को आवश्यक्ता है, जिसको याद रखना हरेक इन्सान को हर रोज करना जरूरी प्रतीत होता है; शायद, इसी वास्ते इस 'वार' का कीर्तन नित्य करना सिख मर्यादा में बताया गया है। 'आसा की वार' क्या है? एक ऊँचे दर्जे का जीवन फलसफा। ऐमनाबाद का कत्लेआम, सरेवड़ों की कुचिलता, पंडितों की विद्या-अहंकार- इससे दूर पीछे रह गए हें। सो, यह रचना गुरू नानक साहिब के जीवन-सफर के आखिरी हिस्से की प्रतीत होती है, रावी दरिया के तट पर किसी निरोल रॅबी-एकांत में बैठे हुए।

'वार' की संरचना:

पउड़ियां:

इस 'वार' में 28 पउड़ियां हैं। हरेक पउड़ी में आठ-आठ तुके हैं। पउड़ी नंबर 27 गुरू अरजन यसाहिब की है। यह 'वार' गुरू नानक साहिब की लिखी हुई है, ये वार पहले 27 पौड़ियों की थी।

सलोक

इस 'वार' की 28 पउड़ियों के साथ कुल 58 शलोक हैं। पउडत्री नं: 21 के साथ 4 सलोक, बाकी 27 पउड़ियों में हरेक के साथ दो-दो शलोक हैं। गुर-व्यक्तियों अनुसार इन शलोकों का

वेरवा इस प्रकार है;
महला १---------------24
महला २---------------05
महला ३---------------27
महला ५---------------02
जोड़-------------------58

सलोक महला १-

निम्नलिखित 8 पौड़ियों के साथ गुरू नानक देव जी के दो–दो शलोक है:
2, 19, 20, 23, 24, 25, 27, 28 --------------------------------16
पौड़ी नंबर 21 के साथ -----------------------------------------------04
निम्नलिखित 4 पौड़ियों के साथ एक–एक–1,3,23,26--------------04
जोड़.---------------------------------------------------------------------24

सलोक महला २-

पौड़ी नंबर 4 के साथ दोनों--------------------------------------------02
पौड़ी नं: 3, 22, 26 के साथ एक–एक-------------------------------03
जोड़----------------------------------------------------------------------05

सलोक महला ३-

पउड़ी नं: 5 से 13 (9 पौड़ियों) के साथ दो–दो --------------------18
पउड़ी नं: 15 से 18 (4 पौड़ियों) के साथ दो–दो--------------------08
पउड़ी नं: 1 साथ एक-------------------------------------------------01
जोड़-------------------------------------------------------------------- 27

सलोक महला ५-

पौड़ी नंबर 14 के साथ दो -----------------------------------------02
कुल जोड़.-------------------------------------------------------------58

सारे सलोक गुरू अरजन साहिब ने दर्ज किए:

यह 'वार' गुरू नानक देव जी की है। जब लिखी गई थी तब इसकी 27 पउड़ियाँ थीं। पउड़ियों के साथ दर्ज शलोक सबसे ज्यादा गुरू अमरदास जी के ही हैं (27)। गुरू नानक देव जी के 24 हैं और गुरू अंगद साहिब जी के 5 हैं।

हरेक पउड़ी की आठ-आठ तुकें हैं। काव्य के दृष्टिकोण से सारी 'वार' में एक-सारता है। यह नहीं हो सकता कि गुरू नानक देव जी बीच-बीच में सिर्फ 9 पौड़ियों के साथ पूरे शलोक दर्ज करते, 4 पौड़ियों के साथ एक-एक शलोक दर्ज करते, और बाकी की 14 पौड़ियाँ बिलकुल खाली रहने देते।

यह मिथ भी बिल्कुल मन-घड़ंत होगी कि इन सारी 27 पउड़ियों के साथ गुरू अमरदास जी ने अपने, गुरू अंगद देव जी और गुरू नानक देव जी के शलोक दर्ज किए। उन्होंने पौड़ी नंबर 14 खाली क्यों छोड़नी थी? इस पौड़ी के साथ के दोनों श्लोक गुरू अरजन साहिब जी के हैं।

सो पक्के तौर पर इस नतीजे पर पहुँचना पड़ेगा कि इस 'वार' की सारी ही पौड़ियों के साथ शलोक गुरू अरजन साहिब ने दर्ज किए थे।

पद्चिन्ह गुरू नानक जी ने डाले:

यह निर्णय पक्का हो गया कि गुरू नानक देव जी ने यह 'वार' सिर्फ पउड़ियों का संग्रह बनाया था। 'वारों' में से यह 'वार' उनकी पहली रचना थी। सो, ये पद्चिन्ह गुरू नानक देव जी ने ही डाले कि पहले 'वारें' सिर्फ पौड़ियों का संग्रह ही हुआ करती थीं। सभी 'वारों' के साथ शलोक गुरू अरजन देव जी ने दर्ज किए। कहाँ से लिए? हरेक गुरू व्यक्ति के संग्रह में से लिए। जो शलोक इस चयन से ज्यादा हो गए, वे गुरू अरजन साहिब जी ने गुरू ग्रंथ साहिब के आखिर के शीर्षक 'सलोक वारां ते वधीक' तहत दर्ज कर दिए।

वार मलार की महला १ राणे कैलास तथा मालदे की धुनि॥

कैलाश देव और माल देव दो सगे भाई थे, जम्मू कश्मीर के राजा व जहाँगीर का हाला भरते थे। इनको कमजोर करने के लिए जहाँगीर ने किसी भेदिए को बीच में डाल के इनको आपस में लड़वा दिया; खासा युद्ध मचा, माल देव जीत गया, कैलाश देव पकड़ा गया। पर फिर दोनों भाई सुलह करके प्यार से मिल बैठे, आधा-आधा राज बाँट लिया। ढाढियों ने इस युद्ध की 'वार' लिखी। इस 'वार' में से बतौर नमूना ये पौड़ी;

धरत घोड़ा, परबत पलाण, सिर टॅटर अंबर॥
नौ सौ नदी नड़िंनवै राणा जल कंबर॥
ढुका राइ अमीर देव करि मेघ अडंबर॥
आणित खंडा राणिआं कैलाशै अंदर॥
बिजली जिउं चमकाणिआं तेगां विच अंबर॥
मालदेउ कैलाश नूँ बॅधा करि संबर॥
फिर अॅधा धन मालदेउ छडिआ गढ़ अंदर॥
मालदेउ जसु खटिआ वांग शाह सिकंदर॥

जिस सुर में लोग मालदेव की ये वार गाते थे, उसी सुर में गुरू नानक देव जी की ये वार गाने की हिदायत है।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक महला ३ ॥ गुरि मिलिऐ मनु रहसीऐ जिउ वुठै धरणि सीगारु ॥ सभ दिसै हरीआवली सर भरे सुभर ताल ॥ अंदरु रचै सच रंगि जिउ मंजीठै लालु ॥ कमलु विगसै सचु मनि गुर कै सबदि निहालु ॥ मनमुख दूजी तरफ है वेखहु नदरि निहालि ॥ फाही फाथे मिरग जिउ सिरि दीसै जमकालु ॥ खुधिआ त्रिसना निंदा बुरी कामु क्रोधु विकरालु ॥ एनी अखी नदरि न आवई जिचरु सबदि न करे बीचारु ॥ तुधु भावै संतोखीआं चूकै आल जंजालु ॥ मूलु रहै गुरु सेविऐ गुर पउड़ी बोहिथु ॥ नानक लगी ततु लै तूं सचा मनि सचु ॥१॥ {पन्ना 1278-1279}

पद्अर्थ: गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। रहसीअै = खिल उठता है। वुठै = (पानी) बरसा। धरति = धरती। सर = सरोवर। सुभर = स+भर, नाको नाक भरा हुआ। ताल = तालाब। अंदरु = अंदरूनी मन। विगसै = खिल उठता है। निहालु = प्रसन्न। तरफ = की ओर, के पक्ष में। नदरि निहालि = ध्यान से देख के। खुधिआ = भूख। बुरी = खराब, चंदरी। विकरालु = डरावना। आल जंजालु = घर का जंजाल। मूलु रहे = राशि (मूल) बची रहती है। बोहिथु = जहाज़। सचा = सदा कायम रहने वाला। मनि = मन में।

अर्थ: अगर गुरू मिल जाए तो मन खिल उठता है जैसे बरसात होने पर धरती सज जाती है, सारी (धरती) हरी ही हरी दिखाई देती है सरोवर और तालाब नाको नाक पानी से भर जाते हैं (इसी तरह जिसको गुरू मिलता है उसका) मन सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू के प्यार में रच जाता है और मजीठ की तरह लाल (पक्के प्यार-रंग वाला) हो जाता है, उसका हृदय-कमल खिल उठता है, सच्चा प्रभू (उसके) मन में (आ बसता है) गुरू के शबद की बरकति से वह सदा प्रसन्न रहता है।

पर, ध्यान से देखो, मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का दूसरा पक्ष ही होता है (भाव, उसकी हालत इसके उलट होती है) जाल में फसे हिरन की तरह जमकाल (भाव, मौत का डर) सदा उसके सिर पर (खड़ा) दिखाई देता है; (आत्मिक मौत उस पर अपना जोर डाले रखती है)। (माया की) चंदरी भूख-प्यास और निंदा, काम और डरावना क्रोध (उसको सदा सताते हैं, पर ये हालत उसको) इन आँखों से (तब तक) नहीं दिखती जब तक वह गुरू-शबद में विचार नहीं करता। (हे प्रभू!) जब तुझे अच्छा लगे तब (ये आँखें) संतोष में आती है (भाव, भूख-तृष्णा खत्म होती है) और घर के जंजाल समाप्त होते हैं।

गुरू की सेवा करने से (भाव, गुरू के हुकम में चलने से) जीव की नाम-रूपी राशि बनी रहती है, गुरू की पौ़ड़ी (भाव, सिमरन) के द्वारा (नाम-रूपी) जहाज़ प्राप्त हो जाता है। हे नानक! जो जीव-स्त्री (इस सिमरन-रूप गुरू पउड़ी को) संभालती है वो अस्लियत पा लेती है। हे प्रभू! तू सदा कायम रहने वाला उसके मन में सदा के लिए आ बसता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh