श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1279 महला १ ॥ हेको पाधरु हेकु दरु गुर पउड़ी निज थानु ॥ रूड़उ ठाकुरु नानका सभि सुख साचउ नामु ॥२॥ {पन्ना 1279} पद्अर्थ: पाधरु = पधरा राह, सपाट रास्ता। हेको = एक ही। गुर पउड़ी = गुरू के द्वारा बताई हुई सीढ़ी (भाव, सिमरन)। निज = निरोल अपना। रूढ़उ = सुंदर। सभि = सारे। ठाकुरु = पालनहार। अर्थ: हे नानक! (एक प्रभू ही) सुंदर पालनहार पति है (उस प्रभू का ही) एक दर (जीव का) निरोल अपनी जगह है (जहाँ कभी किसी ने दुत्कारना नहीं, इस 'दर' तक पहुंचने के लिए) गुरू की सीढ़ी (पौड़ी) (भाव, सिमरन ही) एक सीधा रास्ता है, (प्रभू का) सच्चा नाम (सिमरना) ही सारे सुखों (का मूल) है।2। पउड़ी ॥ आपीन्है आपु साजि आपु पछाणिआ ॥ अ्मबरु धरति विछोड़ि चंदोआ ताणिआ ॥ विणु थम्हा गगनु रहाइ सबदु नीसाणिआ ॥ सूरजु चंदु उपाइ जोति समाणिआ ॥ कीए राति दिनंतु चोज विडाणिआ ॥ तीरथ धरम वीचार नावण पुरबाणिआ ॥ तुधु सरि अवरु न कोइ कि आखि वखाणिआ ॥ सचै तखति निवासु होर आवण जाणिआ ॥१॥ {पन्ना 1279} पद्अर्थ: आपीनै = (आपीन्है, आपि ही नै) भाव, (प्रभू) ने स्वयं ही। शब्द 'ही' का 'ह' यहां से हट के 'नै' के साथ मिल के 'आपि ई नै' से इकट्ठा 'आपीनै' बन गया है; देखें, 'आसा दी वार' पउड़ी १। आपु = अपने आप को। अंबारु = आकाश। रहाइ = टिका के। निसाणिआ = 'निसाण' बनाया है, नगारा बनाया है। सबदु = हुकम। चोज = तमाशे। विडाणिया = आश्चर्य। पुरब = धार्मिक मेले। सरि = बराबर। कि = क्या? होर = और सृष्टि। अर्थ: (प्रभू ने) स्वयं ही अपने आप को प्रकट करके अपनी अस्लियत समझाई है, आकाश और धरती को अलग-अलग करके (ये आकाश उसने मानो, अपने तख़्त पर) चंदोआ ताना हुआ है; (सारे जगत रूपी दरबार पर) आकाश को स्तम्भों के बगैर टिका के अपने हूकम को नगारा बनाया है, अपनी जोति टिकाई है; (जीवों के कार्य-व्यवहार के लिए) रात और दिन (-रूप) आश्चर्य भरे तमाशे बना दिए हैं। पर्वों के समय तीर्थों पर नहाने आदि के धार्मिक ख्याल (भी प्रभू ने स्वयं ही जीवों के अंदर पैदा किए हैं)। (हे प्रभू!) (तेरी इस आश्चर्यजनक खेल का) क्या बयान करें? तेरे जैसा और कोई नहीं है; तू तो सदा कायम रहने वाले तख़्त पर बैठा है और (सृष्टि) पैदा होती है (और नाश होती है)।1। सलोक मः १ ॥ नानक सावणि जे वसै चहु ओमाहा होइ ॥ नागां मिरगां मछीआं रसीआं घरि धनु होइ ॥१॥ {पन्ना 1279} पद्अर्थ: सावणि = सावन (के महीने) में। ओमाहा = चाव। रसीआ = रस का आशिक। घरि = घर में। अर्थ: हे नानक! अगर सावन के महीने बरसात हो तो चार धड़ों में उल्लास होता है- साँपों को, हिरनों को, मछलियों को और रसों के आशिकों को जिनके घर में (रस भोगने के लिए) धन हो।1। मः १ ॥ नानक सावणि जे वसै चहु वेछोड़ा होइ ॥ गाई पुता निरधना पंथी चाकरु होइ ॥२॥ पद्अर्थ: गाईपुत = बैल। पंथी = राही, मुसाफिर। चाकरु = नौकर। अर्थ: हे नानक! सावन में अगर वर्षा हो तो चार पक्षों को (उल्लास से) विछोड़ा (भी, भाव, दुख) होता है, बैलों को (क्योंकि बरसात पड़ने से ये हल में जोते जाते हैं), गरीबों को (जिनकी मेहनत मजदूरी में रुकावट आती है), राहियों को और नौकर व्यक्तियों को।2। नोट: गुरू के दर से 'नाम' की बरखा होने पर गुरमुख और मनमुख पर अलग-अलग असर होता है। पउड़ी ॥ तू सचा सचिआरु जिनि सचु वरताइआ ॥ बैठा ताड़ी लाइ कवलु छपाइआ ॥ ब्रहमै वडा कहाइ अंतु न पाइआ ॥ ना तिसु बापु न माइ किनि तू जाइआ ॥ ना तिसु रूपु न रेख वरन सबाइआ ॥ ना तिसु भुख पिआस रजा धाइआ ॥ गुर महि आपु समोइ सबदु वरताइआ ॥ सचे ही पतीआइ सचि समाइआ ॥२॥ {पन्ना 1279} पद्अर्थ: कवलु = पुरातन विचार है कि ब्रहमा ने जगत पैदा किया और ब्रहमा खुद 'कमल' से पैदा हुआ; सो, 'कमल की उत्पक्ति का मूल'। कवलु छपाइआ = सृष्टि की उत्पक्ति को छुपा के, (भाव,) अभी जगत की उत्पक्ति नहीं हुई थी। किनि = किस ने? तू = तुझे। सबाइआ = सारे। रजा धाइआ = भरे पुरे। पतीआइ = पतीज के। सचि = सच्चे प्रभू में, सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। अर्थ: (हे प्रभू!) तू सदा कायम रहने वाला है, तू ऐसी हस्ती का मालिक (सचिआर) है कि जिस ने (अपनी यह) हस्ती (हर जगह) पसारी हुई है; अभी सृष्टि की उत्पक्ति नहीं हुई थी जब तू (अपने आप में) समाधि लगाए बैठा था, ब्रहमा ने (भी जो जगत को रचने वाला माना जाता है यह भेद ना समझा और अपने आप को ही सबसे) बड़ा कहलवाया, उसको तेरी सार ना आई। (हे प्रभू!) तुझे किसने पैदा किया है? (भाव, तुझे जनम देने वाला कोई नहीं है)। (हे भाई!) उस (प्रभू) का ना कोई पिता है ना माँ; ना उसका कोई (खास) स्वरूप है ना निशान; सारे रूप-रंग उसके हैं; उसको कोई भूख-प्यास नहीं है, संतुष्ट-तृप्त है। (हे भाई!) प्रभू अपने आप को गुरू में लीन करके (अपना) शबद (भाव, संदेश) (सारे जगत में) बाँट रहा है, और गुरू इस सदा कायम रहने वाले प्रभू में पतीज के सदा-स्थिर प्रभू में ही जुड़ा रहता है।2। सलोक मः १ ॥ वैदु बुलाइआ वैदगी पकड़ि ढंढोले बांह ॥ भोला वैदु न जाणई करक कलेजे माहि ॥१॥ {पन्ना 1279} पद्अर्थ: करक = पीड़ा, (प्रभू से बिछोड़े का) दुख। वैदगी = दवाई देने के लिए। अर्थ: हकीम (मरीज़ को) दवाई देने के लिए बुलाया जाता है, वह (मरीज की) बाँह पकड़ के (नाड़ी) टटोलता है (और मर्ज़ तलाशने का यतन करता है, पर) अंजान हकीम यह नहीं जानता कि (प्रभू से विछोड़े की) पीड़ा (बिरही बंदों के) दिल में हुआ करती है।1। मः २ ॥ वैदा वैदु सुवैदु तू पहिलां रोगु पछाणु ॥ ऐसा दारू लोड़ि लहु जितु वंञै रोगा घाणि ॥ जितु दारू रोग उठिअहि तनि सुखु वसै आइ ॥ रोगु गवाइहि आपणा त नानक वैदु सदाइ ॥२॥ {पन्ना 1279} पद्अर्थ: वंञै = (वंजै) दूर हो जाय, चला जाय। रोगा घाणि = रोगों की घाणी, रोगों का ढेर। जितु दारू = जिस दवाई से। उठिअहि = उड़ाए जा सकें। तनि = शरीर में। आइ = आ के। गवाइहि = अगर तू दूर कर ले। अर्थ: (हे भाई!) पहले (अपना ही आत्मिक) रोग ढूँढ (और उसकी) ऐसी दवाई तलाश ले जिससे सारे (आत्मिक) रोग दूर हो जाएं जिस दवाई से (सारे) रोग उठाए जा सकें और शरीर में सुख आ बसे। (हे भाई! तब ही) तू हकीमों का हकीम है (सबसे बढ़िया हकीम है) (तब ही) तू समझदार वैद्य (कहलवा सकता) है। हे नानक! (कह- हे भाई!) अगर तू (पहले) अपना रोग दूर कर ले तो (अपने आप को) हकीम कहलवा (कहलवाने का हकदार है)। पउड़ी ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु देव उपाइआ ॥ ब्रहमे दिते बेद पूजा लाइआ ॥ दस अवतारी रामु राजा आइआ ॥ दैता मारे धाइ हुकमि सबाइआ ॥ ईस महेसुरु सेव तिन्ही अंतु न पाइआ ॥ सची कीमति पाइ तखतु रचाइआ ॥ दुनीआ धंधै लाइ आपु छपाइआ ॥ धरमु कराए करम धुरहु फुरमाइआ ॥३॥ {पन्ना 1279} पद्अर्थ: दस अवतारी = (अवतारीं) दस अवतारों में (दस अवतार = वराह, नरसिंह, वामन, परशराम, मॅछ, कॅछ, राम, कृष्ण, बौध और कलकी= 10)। हुकमि = हुकम में। ईस महेसुर = शिव के 11 (रुद्र) अवतार। तिनी = उन 11 शिव अवतारों ने। अर्थ: (परमात्मा ने स्वयं ही) ब्रहमा, विष्णु और शिव- (ये तीन) देवता पैदा किए। ब्रहमा को उसने वेद दे दिए (भाव, वेदों का कर्ता बनाया और लोगों को इनके द्वारा बताई गई) पूजा कराने में उलझा दिया। (विष्णू) दस अवतारों में राजा राम (आदि) रूप धारण करता रहा और हमले कर के दैत्यों को मारता रहा (पर, ये) सारे (अवतार प्रभू के ही) हुकम में हुए। शिव (के 11 रुद्र) अवतारों ने सेवा की (भाव, तप साधना की, पर उन्होंने भी प्रभू का) अंत नहीं पाया। (प्रभू ने) सदा अटल रहने वाले मूल वाली (अपनी सक्ता) पा के (यह जगत, मानो, अपना) तख़्त बनाया है, इसमें दुनिया (के जीवों) को धंधे में उलझा के (प्रभू ने) अपने आप को छुपा रखा है। (यह भी) धुर से (प्रभू का ही) फुरमान है कि धर्मराज (जीवों से अच्छे-बुरे) काम करवा रहा है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |