श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः २ ॥ सावणु आइआ हे सखी कंतै चिति करेहु ॥ नानक झूरि मरहि दोहागणी जिन्ह अवरी लागा नेहु ॥१॥ {पन्ना 1280}

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। नेहु = प्यार। कंतै = पति प्रभू को।

अर्थ: हे सखी! सावन (का महीना) आया है (भाव, गुरू के द्वारा नाम-अमृत की बरखा हो रही है) पति (-प्रभू) को हृदय में परो लो। हे नानक! जिन (जीव-सि्त्रयों) का प्यार (प्रभू-पति को छोड़ के) औरों के साथ है वे दुर्भागिनियाँ दुखी होती हैं।1।

मः २ ॥ सावणु आइआ हे सखी जलहरु बरसनहारु ॥ नानक सुखि सवनु सोहागणी जिन्ह सह नालि पिआरु ॥२॥ {पन्ना 1280}

पद्अर्थ: जलहरु = जलधर, बादल। सुखि = सुख में। सवनु = (व्याकरण के अनुसार ये शब्द 'हुकमी भविष्यत' अन पुरख, बहुवचन है; देखें 'गुरबाणी व्याकरण') बेशक सावन, सावन का आनंद लें।

अर्थ: हे सखी! सावन (भाव, 'नाम' की बरखा का समय) आया है, बादल बरसने लगा है (भाव, गुरू मेहर कर रहा है)। हे नानक! (इस सोहावने समय) जिन (जीव-सि्त्रयों का) पति (-प्रभू) के साथ प्यार बना हुआ है वे भाग्यशाली सुखद सावन (मनाएं) (भाव, सुखी जीवन व्यतीत करें)।2।

पउड़ी ॥ आपे छिंझ पवाइ मलाखाड़ा रचिआ ॥ लथे भड़थू पाइ गुरमुखि मचिआ ॥ मनमुख मारे पछाड़ि मूरख कचिआ ॥ आपि भिड़ै मारे आपि आपि कारजु रचिआ ॥ सभना खसमु एकु है गुरमुखि जाणीऐ ॥ हुकमी लिखै सिरि लेखु विणु कलम मसवाणीऐ ॥ सतसंगति मेलापु जिथै हरि गुण सदा वखाणीऐ ॥ नानक सचा सबदु सलाहि सचु पछाणीऐ ॥४॥ {पन्ना 1280}

पद्अर्थ: मलाखाड़ा = मल अखाड़ा, पहलवानों के घुलने की जगह। भड़थू = शोर। मचिआ = मचा, चढ़दीकला में है। मसवाणी = (मसु = स्याही) दवात।

अर्थ: (प्रभू ने) खुद ही छिंज डलवा के (भाव, जगत रचना कर के) (यह जगत, मानो) पहलवानों के दंगल के लिए स्थल बनाया है; (जीव-रूप पहलवान) शोर मचा के (यहाँ) उतरे हैं (भाव, बेअंत जीव बड़ी तेजी से दबादब जगत में जनम ले के चले आ रहे हैं)। (इनमें से) वे मनुष्य जो गुरू के सन्मुख हैं चढ़दीकला में हैं, (पर) मन के पीछे चलने वाले कच्चे मूर्खों को पटख़नी दे के (भाव, मुँह भार) मारता है; (जीवों में व्यापक हो के) प्रभू स्वयं ही लड़ रहा है, स्वयं ही मार रहा है उसने खुद ही (यह छिंझ का) कारज रचा है।

सब जीवों का मालिक एक प्रभू ही है, इस बात की समझ गुरू के सन्मुख होने से आती है, अपने हुकम अनुसार ही (हरेक जीव के) सिर पर कलम-दवात के बिना ही (रज़ा का) लेख लिख रहा है।

(उस प्रभू का) मिलाप सत्संग में ही हो सकता है जहाँ सदा प्रभू के गुण कथे जाते हैं। हे नानक! (गुरू का) सच्चा शबद गा के सदा कायम रहने वाला प्रभू पहचाना जा सकता है (भाव, प्रभू की सार पड़ती है, प्रभू के साथ जान-पहचान बनती है)।4।

सलोक मः ३ ॥ ऊंनवि ऊंनवि आइआ अवरि करेंदा वंन ॥ किआ जाणा तिसु साह सिउ केव रहसी रंगु ॥ रंगु रहिआ तिन्ह कामणी जिन्ह मनि भउ भाउ होइ ॥ नानक भै भाइ बाहरी तिन तनि सुखु न होइ ॥१॥ {पन्ना 1280}

पद्अर्थ: ऊंनवि = झुक के। अवरि = और और, कई तरह के। वंन = रंग। तिसु साह सिउ = उस शाह से (जो झुक झुक के आया है)। केव = कैसे? रंगु = प्यार। भाउ = प्रेम। भाइ बाहरी = प्रेम से वंचित। भउ = डर, अदब।

अर्थ: (गुरू-रूप बादल) झुक झुक के आया है (भाव, मेहर करने के लिए तैयार है) और कई तरह के रंग दिखा रहा है (भाव, गुरू कई किसम के करिश्मे करता है); पर, क्या पता मेरा उस (नाम-खजाने के) शाह के साथ कैसे साथ बना रहेगा।

(उस मेहरों के सांई के साथ) उन (जीव-) सि्त्रयों का प्यार टिका रहता है जिनके मन में उसका डर और प्यार है। हे नानक! जो डर और प्यार से वंचित हैं उनके शरीर में सुख नहीं होता।1।

मः ३ ॥ ऊंनवि ऊंनवि आइआ वरसै नीरु निपंगु ॥ नानक दुखु लागा तिन्ह कामणी जिन्ह कंतै सिउ मनि भंगु ॥२॥ {पन्ना 1280}

पद्अर्थ: निपंगु = (नि+पंगु। पंग = पंक, कीचड़) कीचड़ रहित, साफ। भंगु = तोट, विछोड़ा। मनि = मन में।

अर्थ: (गुरू-बादल) झुक झुक के आया है और साफ जल बरसा रहा है; पर, हे नानक! उन (जीव-) सि्त्रयों को (फिर भी) दुख व्याप रहा है जिनके मन में पति-प्रभू से विछोड़ा है।2।

पउड़ी ॥ दोवै तरफा उपाइ इकु वरतिआ ॥ बेद बाणी वरताइ अंदरि वादु घतिआ ॥ परविरति निरविरति हाठा दोवै विचि धरमु फिरै रैबारिआ ॥ मनमुख कचे कूड़िआर तिन्ही निहचउ दरगह हारिआ ॥ गुरमती सबदि सूर है कामु क्रोधु जिन्ही मारिआ ॥ सचै अंदरि महलि सबदि सवारिआ ॥ से भगत तुधु भावदे सचै नाइ पिआरिआ ॥ सतिगुरु सेवनि आपणा तिन्हा विटहु हउ वारिआ ॥५॥ {पन्ना 1280}

नोट: गुरू अमरदास जी की मारू की वार की पउड़ी नं:10 में शब्द 'दोवै तरफ़ा' प्रयोग करते हैं। यह 'वार' उनके पास मौजूद थी।

पद्अर्थ: तरफा = पक्ष, धड़े ('गुरमुख' और 'मनमुख' जिनका वर्णन पिछली पउड़ी में आया है)। वादु = झगड़ा। परविरति = दुनिया में मन का फस जाना। निरविरति = दुनिया से मन अलग रहना। हाठा = तरफ, पक्ष में। रैबारिआ = रहबर, विचौला। सूर = सूरमे। नाइ = नाम में। महलि = हजूरी में। सवारिआ = सुर्खरू हो गए।

अर्थ: ('गुरमुख' और 'मनमुख') दोनों किस्मों के जीव पैदा करके (दोनों में) प्रभू स्वयं मौजूद है, धार्मिक उपदेश (-वेद बाणी) भी उसने खुद ही किया है (और इस तरह 'गुरमुख' और 'मनमुख' के अंदर अलग-अलग 'विचार' डाल के, दोनों धड़ों के) अंदर झगड़ा भी उसने खुद ही डाला है। जगत के धंधों में खचित होना और जगत से निर्लिप रहना- ये दोनों पक्ष उसने खुद ही बना दिए हैं और खुद ही 'धर्म' (-रूप हो के दोनों के बीच) विचोला बना हुआ है; पर, मन के पीछे चलने वाले मूर्ख झूठ के व्यापारी हैं वे जरूर प्रभू की दरगाह में बाजी हार जाते हैं।

जिन्होंने गुरू की मति का आसरा लिया वे गुरू-शबद की बरकति से शूरवीर बन गए क्योंकि उन्होंने काम और क्रोध को जीत लिया; वे गुरू-शबद के द्वारा सच्चे प्रभू की हजूरी में सुर्खरू हो गए। (हे प्रभू!) वह तेरे भगत तुझे अच्छे लगते हैं, क्योंकि वे तेरे सदा कायम रहने वाले नाम में प्यार पाते हैं।

जो मनुष्य अपने सतिगुरू को सेवते हैं (भाव, जो गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलते हैं), मैं उन पर से बलिहार जाता हूँ।5।

सलोक मः ३ ॥ ऊंनवि ऊंनवि आइआ वरसै लाइ झड़ी ॥ नानक भाणै चलै कंत कै सु माणे सदा रली ॥१॥ {पन्ना 1280}

पद्अर्थ: रली = आनंद। लाइ = लगा के। कै भाणे = के हुकम में।

अर्थ: (गुरू-बादल) झुक-झुक के आया है और झड़ी लगा के बरस रहा है (भाव, गुरू 'नाम'-उपदेश की बरखा कर रहा है); पर, हे नानक! (इस उपदेश को सुन के) जो मनुष्य पति (-प्रभू) की रज़ा में चलता है वही (उस 'उपदेश'-बरखा का) आनंद लेता है।1।

मः ३ ॥ किआ उठि उठि देखहु बपुड़ें इसु मेघै हथि किछु नाहि ॥ जिनि एहु मेघु पठाइआ तिसु राखहु मन मांहि ॥ तिस नो मंनि वसाइसी जा कउ नदरि करेइ ॥ नानक नदरी बाहरी सभ करण पलाह करेइ ॥२॥ {पन्ना 1280}

पद्अर्थ: बपुड़ें = हे बेचारे लोगो! मेघ = बादल। मेघै हथि = बादल के हाथ में। पठाइआ = भेजा है। मंनि = मन में। नदरि = नज़र (अरबी के 'ज़' का उच्चारण 'द' भी है; इसी तरह 'काग़ज़' और 'काग़द')। करणपलाह = (संस्कृत: करुणा+प्रलाप। करुणा = तरस। प्रलाप = विलाप) वह विलाप जो तरस पैदा करे, तरले, कीरने।

अर्थ: हे बेचारे लोगो! इस बादल को उठ-उठ के क्या देखते हो, इसके अपने वश में कुछ भी नहीं (कि ये बरखा कर सके)। (हे भाई!) जिस मालिक ने यह बादल भेजा है उसको अपने मन में चेते करो।

(पर यह किसी के वश की बात नहीं) जिस जीव पर प्रभू स्वयं मेहर की नज़र करता है उसके मन में (अपना आप) बसाता है। हे नानक! प्रभू के मेहर की नज़र के बिना सारी सृष्टि तरले ले रही है।2।

पउड़ी ॥ सो हरि सदा सरेवीऐ जिसु करत न लागै वार ॥ आडाणे आकास करि खिन महि ढाहि उसारणहार ॥ आपे जगतु उपाइ कै कुदरति करे वीचार ॥ मनमुख अगै लेखा मंगीऐ बहुती होवै मार ॥ गुरमुखि पति सिउ लेखा निबड़ै बखसे सिफति भंडार ॥ ओथै हथु न अपड़ै कूक न सुणीऐ पुकार ॥ ओथै सतिगुरु बेली होवै कढि लए अंती वार ॥ एना जंता नो होर सेवा नही सतिगुरु सिरि करतार ॥६॥ {पन्ना 1280}

पद्अर्थ: वार = देर (देखें, आसा दी वार, १।१।)। आडाणे = अडे हुए, तने हुए। पति = इज्जत। ओथै = उस अवस्था में जब सारे किए हुए कर्म सामने आते हैं।

अर्थ: (हे भाई!) उस प्रभू को सदा सिमरें जिसको (जगत) बनाने में देर नहीं लगती; यह तने हुए आकाश बना के एक पलक में नाश करके (दोबारा) बनाने में समर्थ है। प्रभू स्वयं ही जगत पैदा करके स्वयं ही इस रचना का ख़्याल रखता है। पर, जो मनुष्य (ऐसे प्रभू को बिसार के) अपने मन के पीछे चलता है (और विकारों में प्रवृति होता है) उससे आगे जा के उसके किए कर्मों का लेखा माँगा जाता है (विकारों के कारण) उसको मार पड़ती है। गुरू के हुकम में चलने वाले बंदे का लेखा बाइज्जत निपटता है क्योंकि गुरू उसको सिफत-सालाह के खजाने बख्शता है।

किए हुए कर्मों का लेखा होने के वक्त किसी और की पेश नहीं जाती, और उस वक्त किसी कूक-पुकार का भी कोई फायदा नहीं होता। उस वक्त वास्ते तो सतिगुरू ही मददगार होता है क्योंकि आखिर गुरू ही विकारों से बाहर निकालता है।

किसी और किस्म की सेवा इन जीवों के लिए लाभदायक नहीं है, अकाल-पुरख का भेजा हुआ सतिगुरू ही जीवों के सिर पर हाथ रखता है।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh