श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1281 सलोक मः ३ ॥ बाबीहा जिस नो तू पूकारदा तिस नो लोचै सभु कोइ ॥ अपणी किरपा करि कै वससी वणु त्रिणु हरिआ होइ ॥ गुर परसादी पाईऐ विरला बूझै कोइ ॥ बहदिआ उठदिआ नित धिआईऐ सदा सदा सुखु होइ ॥ नानक अम्रितु सद ही वरसदा गुरमुखि देवै हरि सोइ ॥१॥ {पन्ना 1281} पद्अर्थ: बाबीहा = हे पपीहे! (नौट: पपीहा बरखा = बूँद का प्यासा होता है; सो, इसकी उस मनुष्य के साथ उपमा दी गई है जिसमें प्रभू से मिलने की तड़प होती है)। वससी = बरसेगा। वणु = जंगल। त्रिणु = तृण, घास। वणु त्रिणु = सारी बनस्पति। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। अर्थ: हे बिरही जीव! जिस प्रभू को मिलने के लिए तू तरले ले रहा है, उसको मिलने की तमन्ना हरेक जीव रखता है, जब वह प्रभू स्वयं मेहर कर के ('नाम' की) बरखा करेगा तो सारी सृष्टि (सारी बनस्पति) हरी हो जाएगी। कोई विरला बंदा समझता है कि ('नाम-अमृत') गुरू की कृपा से मिलता है; अगर बैठते-उठते हर वक्त प्रभू को सिमरें तो सदा ही सुख प्राप्त होता है। हे नानक! प्रभू के आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की बरखा तो सदा ही हो रही है, पर वह प्रभू यह दाति उस मनुष्य को देता है जो गुरू के सन्मुख रहता है।1। मः ३ ॥ कलमलि होई मेदनी अरदासि करे लिव लाइ ॥ सचै सुणिआ कंनु दे धीरक देवै सहजि सुभाइ ॥ इंद्रै नो फुरमाइआ वुठा छहबर लाइ ॥ अनु धनु उपजै बहु घणा कीमति कहणु न जाइ ॥ नानक नामु सलाहि तू सभना जीआ देदा रिजकु स्मबाहि ॥ जितु खाधै सुखु ऊपजै फिरि दूखु न लागै आइ ॥२॥ {पन्ना 1281} पद्अर्थ: कलमलि = व्याकुल। मेदनी = धरती। सचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने। कंनु दे = कान दे के, ध्यान से। धीरक = धैर्य। वुठा = बसा हुआ। छहबर = झड़ी। अनु = अन्न, अनाज। संबाहि = इकट्ठा कर के, पहुँचा के। (नोट: 'भूत काल' का अर्थ 'वर्तमान' में करना है)। अर्थ: (जब) धरती (वर्षा के बग़ैर) व्याकुल होती है तो एक-मन हो के प्रार्थना करती है तो सदा-स्थिर सच्चा प्रभू (इस आरजू को) ध्यान से सुनता है, और सहज ही अपने सदा के बने स्वभाव अनुसार (धरती को) धीरज देता है; इन्द्र को आज्ञा देता है, वह झड़ी लगा के बरखा करता है; बेअंत अनाज (-रूप) धन पैदा होता है। (प्रभू की इस बख्शिश का) मूल्य नहीं पाया जा सकता। हे नानक! जो प्रभू सब जीवों को रिजक पहुँचाता है उसके नाम की सराहना करो; इस नाम-भोजन के खाने से सुख पैदा होता है (सुख भी ऐसा कि) फिर कभी दुख आ के नहीं लगता।2। पउड़ी ॥ हरि जीउ सचा सचु तू सचे लैहि मिलाइ ॥ दूजै दूजी तरफ है कूड़ि मिलै न मिलिआ जाइ ॥ आपे जोड़ि विछोड़िऐ आपे कुदरति देइ दिखाइ ॥ मोहु सोगु विजोगु है पूरबि लिखिआ कमाइ ॥ हउ बलिहारी तिन कउ जो हरि चरणी रहै लिव लाइ ॥ जिउ जल महि कमलु अलिपतु है ऐसी बणत बणाइ ॥ से सुखीए सदा सोहणे जिन्ह विचहु आपु गवाइ ॥ तिन्ह सोगु विजोगु कदे नही जो हरि कै अंकि समाइ ॥७॥ {पन्ना 1281} पद्अर्थ: दूजै = (प्रभू को छोड़ के) और में लगने से। कूड़ि = झूठ में लगने से, माया के मोह में फसने से। पूरबि = पिछले समय में। अंकि = गोद में। विछोड़िअै = विछोड़े हुए को। समाइ = लीन। अर्थ: हे प्रभू जी! तू सदा कायम रहने वाला है, जो तेरा रूप हो जाता है तू उसको (अपने में) मिला लेता है। जो मनुष्य माया में लगा हुआ है उसका (सत्य के उलट) दूसरा पक्ष है (भाव, वह दूसरी तरफ, झूठ की ओर जाता है, और) झूठ से (भाव, झूठ में लग के) प्रभू नहीं मिलता, प्रभू को मिला नहीं जा सकता। (झूठ में लगे हुए बंदे को) मोह चिंता विछोड़ा व्यापता है, वह (दोबारा) वही काम करता जाता है जो पिछले किए कर्मों के अनुसार (उसके माथे पर) लिखा है; पर, प्रभू बिछोड़े हुए जीव को भी स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ता है, स्वयं ही अपनी यह वडिआई दिखाता है। जो मनुष्य प्रभू के चरणों में सुरति जोड़ के रखते हैं, मैं उन पर से सदके हूँ; प्रभू ने ऐसी बनतर बना रखी है (कि उसके चरणों में जुड़ने वाले इस तरह जगत से निर्लिप रहते हैं) जैसे पानी में कमल का फूल अछोह रहता है। जो मनुष्य अपने अंदर से आपा-भाव गवाते हैं वे सदा सुखी रहते हैं और सुंदर लगते हैं (सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं)। जो प्रभू की गोद में टिके रहते हैं उनको कभी चिंता और विछोड़ा नहीं व्यापता।7। सलोक मः ३ ॥ नानक सो सालाहीऐ जिसु वसि सभु किछु होइ ॥ तिसै सरेविहु प्राणीहो तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ गुरमुखि हरि प्रभु मनि वसै तां सदा सदा सुखु होइ ॥ सहसा मूलि न होवई सभ चिंता विचहु जाइ ॥ जो किछु होइ सु सहजे होइ कहणा किछू न जाइ ॥ सचा साहिबु मनि वसै तां मनि चिंदिआ फलु पाइ ॥ नानक तिन का आखिआ आपि सुणे जि लइअनु पंनै पाइ ॥१॥ {पन्ना 1281} पद्अर्थ: सहसा = तौखला। चिंदिआ = चितवा हुआ। लइअनु = लिए हैं उसने (देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। पंनै = लेखे में। वसि = वश में। सरेवहु = सिमरते रहो। मनि = मन में। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। मूलि न = बिल्कुल नहीं। होवई = होए, होता। सहजै = रजा अनुसार। जि = जो मनुष्य। अर्थ: हे नानक! जिस प्रभू के वश में हरेक बात है उसकी सदा वडिआई करनी चाहिए, उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं, हे लोगो! उस प्रभू को ही सिमरो। (अगर) गुरू के द्वारा हरी-प्रभू मन में आ बसे तो (मन में) सदा ही सुख बना रहता है, तौखला (व्याकुलता) बिल्कुल नहीं रहता, सारी चिंता मन में से निकल जाती है, जो कुछ (जगत में) बरत रहा है वह रज़ा में ही हो रहा दिखता है उस पर कोई ऐतराज़ (मन में) उठता ही नहीं। अगर सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू मन में आ बसे तो मन में चितवा हुआ (हरेक) फल हासिल होता है। हे नानक! जिनको प्रभू ने अपने लेखे में लिख लिया है (भाव, जिन पर मेहर की नज़र करता है) उनकी अरदास ध्यान से सुनता है।1। मः ३ ॥ अम्रितु सदा वरसदा बूझनि बूझणहार ॥ गुरमुखि जिन्ही बुझिआ हरि अम्रितु रखिआ उरि धारि ॥ हरि अम्रितु पीवहि सदा रंगि राते हउमै त्रिसना मारि ॥ अम्रितु हरि का नामु है वरसै किरपा धारि ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ हरि आतम रामु मुरारि ॥२॥ {पन्ना 1281} पद्अर्थ: बूझणहार = समझने योग्य, वे मनुष्य जो ये समझने के समर्थ हैं। अरि = हृदय में। धारि = धार के, संभाल के। आतम रामु = सब जगह व्यापक आत्मा, परमात्मा। मुरारि = (मुर+अरि) मुर दैत्य का वैरी (कृष्ण), प्रभू। बूझनि = समझते हैं। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीवहि = पीते हैं। मारि = मार के। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। अर्थ: 'अमृत' की बरखा हो रही है (पर इस भेद को) वही समझते हैं जो समझने-योग्य हैं; जिन्होंने गुरू से (यह भेद) समझ लिया है। वे 'अमृत' हृदय में संभाल के रखते हैं; वे मनुष्य अहंकार और (माया की) तृष्णा मिटा के, प्रभू के प्यार में रंगे हुए सदा 'अमृत' पीते हैं। (वह अमृत क्या है?) 'अमृत' प्रभू का 'नाम' है और इसकी बरखा होती है प्रभू की कृपा से। हे नानक! सबमें व्यापक मुरारी परमात्मा सतिगुरू के माध्यम से ही नज़र आता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |