श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ अतुलु किउ तोलीऐ विणु तोले पाइआ न जाइ ॥ गुर कै सबदि वीचारीऐ गुण महि रहै समाइ ॥ अपणा आपु आपि तोलसी आपे मिलै मिलाइ ॥ तिस की कीमति ना पवै कहणा किछू न जाइ ॥ हउ बलिहारी गुर आपणे जिनि सची बूझ दिती बुझाइ ॥ जगतु मुसै अम्रितु लुटीऐ मनमुख बूझ न पाइ ॥ विणु नावै नालि न चलसी जासी जनमु गवाइ ॥ गुरमती जागे तिन्ही घरु रखिआ दूता का किछु न वसाइ ॥८॥ {पन्ना 1282}

नोट: 'आपु' और 'आपि' में फर्क है। देखें, 'गुरबाणी व्याकरण'

पद्अर्थ: कै सबदि = के शबद से। हउ = मैं। जिनि = जिस (गुरू ने)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मुसै = ठगा जा रहा है। बूझ = समझ। जासी = जाएगा। वसाइ = वश, जोर।

अर्थ: परमात्मा अतुल है, उसके सारे गुण जाचे नहीं जा सकते। पर, उसके गुणों की विचार करे बिना उसकी प्राप्ति भी नहीं होती। प्रभू के गुणों की विचार सतिगुरू के शबद द्वारा ही हो सकती है (जो मनुष्य विचार करता है वह) उसके गुणों में मगन रहता है।

अपने आप को प्रभू स्वयं ही तोल सकता है (भाव, प्रभू कितना बड़ा है यह बात वह स्वयं ही जानता है) वह खुद ही (अपने सेवकों को गुरू का) मिलाया मिलता है। प्रभू का मूल्य नहीं पड़ सकता; (वह कितना बड़ा है इस बारे) कोई बात कही नहीं जा सकती। मैं कुर्बान हूँ अपने गुरू से जिसने (मुझे सच्ची सूझ दे दी है)।

(गुरू की मति के बिना) जगत ठगा जा रहा है, अमृत लूटा जा रहा है, मन के पीछे चलने वाले लोगों को यह समझ नहीं पड़ती। प्रभू के नाम के बिना (कोई अन्य चीज़ मनुष्य के) साथ नहीं जाएगी (सो, 'नाम' से भूला हुआ मनुष्य अपना जनम व्यर्थ गवा के जाएगा)।

जो मनुष्य गुरू की मति ले कर (माया के मोह की नींद में से) जाग जाते हैं वे अपना घर (भाव, अपना शरीर, विकारों से) बचा के रखते हैं, इन दूतों (विकारों) का उन पर कोई जोर नहीं चलता।8।

सलोक मः ३ ॥ बाबीहा ना बिललाइ ना तरसाइ एहु मनु खसम का हुकमु मंनि ॥ नानक हुकमि मंनिऐ तिख उतरै चड़ै चवगलि वंनु ॥१॥ {पन्ना 1282}

पद्अर्थ: तिख = प्यास। चवगलि = चार गुना। वंनु = रंग।

अर्थ: हे पपीहे! न बिलक, अपना मन ना तरसा और मालिक का हुकम मान (उसके हुकम में बरखा होगी) हे नानक! प्रभू की रज़ा में चलने से ही (माया की) प्यास मिटती है और चौगुना रंग चढ़ता है (भाव, मन पूरे तौर पर खिलता है)।1।

मः ३ ॥ बाबीहा जल महि तेरा वासु है जल ही माहि फिराहि ॥ जल की सार न जाणही तां तूं कूकण पाहि ॥ जल थल चहु दिसि वरसदा खाली को थाउ नाहि ॥ एतै जलि वरसदै तिख मरहि भाग तिना के नाहि ॥ नानक गुरमुखि तिन सोझी पई जिन वसिआ मन माहि ॥२॥ {पन्ना 1282}

पद्अर्थ: कूकण पाहि = तू बिलक रहा है। चहु दिसि = चारों तरफ। फिराइ = तू फिरता है। सार = कद्र। न जाणही = तू नहीं जानता। ऐतै जलि वरसदै = इतना पानी बरसा। त्रिख = प्यास से।

अर्थ: हे पपीहे! पानी में तू बसता है, पानी में ही तू चलता-फिरता है (भाव, हे जीव! उस सर्व-व्यापक हरी में ही तू जीता-बसता है), पर उस पानी की तुझे कद्र नहीं, इस वास्ते तू बिलक रहा है। चारों तरफ ही जलों में थलों में बरखा हो रही है कोई जगह ऐसी नहीं जहाँ बरखा नहीं होती; इतनी बरसात होते हुए भी जो प्यासे मर रहे हैं उनके भाग्य (अच्छे) नहीं हैं।

हे नानक! गुरू के द्वारा जिनके हृदय में प्रभू आ बसता है उन्हें ये समझ आ जाती है (कि प्रभू हर जगह बसता है)।2।

पउड़ी ॥ नाथ जती सिध पीर किनै अंतु न पाइआ ॥ गुरमुखि नामु धिआइ तुझै समाइआ ॥ जुग छतीह गुबारु तिस ही भाइआ ॥ जला बि्मबु असरालु तिनै वरताइआ ॥ नीलु अनीलु अगमु सरजीतु सबाइआ ॥ अगनि उपाई वादु भुख तिहाइआ ॥ दुनीआ कै सिरि कालु दूजा भाइआ ॥ रखै रखणहारु जिनि सबदु बुझाइआ ॥९॥ {पन्ना 1282}

पद्अर्थ: सिध = साधना में माहिर जोगी। जुग छतीह = (भाव,) अनेकों युग। गुबारु = अंधेरा। बिंबु = जल। असरालु = भयानक। नीलु अनीलु = (भाव,) बेअंत। सरजीतु = सदा जीवित रहने वाला। जिनि = जिस (प्रभू) ने। सिरि = सिर पर। भाइआ = भाया, अच्छा लगा। तिस ही = ('तिसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) उस (प्रभू) को ही। वादु = झगड़ा।

अर्थ: (हे प्रभू!) नाथ, जती, सिद्धहस्त जोगी, पीर (कई हो गुजरे हैं, पर) किसी ने तेरा अंत नहीं पाया (भाव, तू कैसा है और कब से है, कितना है- ये बात कोई बता नहीं सका। कई यत्न कर चुके)। गुरू की शिक्षा पर चलने वाले मनुष्य (ऐसे निश्फल उद्यम छोड़ के, केवल तेरा) नाम सिमर के तेरे (चरणों में) लीन रहते हैं।

(हे भाई!) यह बात उस प्रभू को ऐसे ही अच्छी लगी है कि अनेकों युग अंधेरा ही अंधेरा था (भाव, ये नहीं कहा जा सकता कि जब जगत की रचना हुई थी तब क्या था); फिर भयानक जल ही जल- ये खेल भी उसी ने बनाई; और, वह सदा जीवित रहने वाला प्रभू स्वयं बेअंत ही बेअंत और पहुँच से परे है।

(हे भाई!) (जब उसने जगत-रचना कर दी, तब) तृष्णा की आग, वाद-विवाद की भूख-प्यास भी उसने खुद ही पैदा कर दी। दुनिया (भाव, जीवों) के सिर पर मौत (का डर भी उसने पैदा किया है, क्योंकि इनको) यह दूसरा (भाव, प्रभू को छोड़ के यह दिखाई देता जगत) प्यारा लग रहा है। पर, रखने के समर्थ प्रभू जिसने (गुरू के द्वारा) शबद की सूझ बख्शी है (इन अग्नि, वाद, भूख, प्यास और काल आदि से) रक्षा भी खुद ही करता है।9।

सलोक मः ३ ॥ इहु जलु सभ तै वरसदा वरसै भाइ सुभाइ ॥ से बिरखा हरीआवले जो गुरमुखि रहे समाइ ॥ नानक नदरी सुखु होइ एना जंता का दुखु जाइ ॥१॥ {पन्ना 1282}

पद्अर्थ: सभ तै = हर जगह। भाइ = प्रेम से। भाउ = प्रेम। सुआइ = स्वभाव अनुसार, रज़ा अनुसार। वरसै = बरसता है। से = वही। नदरि = परमात्मा की मेहर की निगाह से।

अर्थ: (प्रभू का नाम रूप) यह जल (भाव, बरसात) हर जगह बरस रहा है और बरसता भी है प्रेम से अपनी मौज से (भाव, किसी भेद-भाव के बग़ैर), पर, केवल वही (जीव-रूप) वृक्ष हरे होते हैं जो गुरू के सन्मुख हो के (इस 'नाम' बरखा में) लीन रहते हैं।

हे नानक! प्रभू की मेहर की नजर से सुख पैदा होता है और इन जीवों का दुख दूर होता है।1।

मः ३ ॥ भिंनी रैणि चमकिआ वुठा छहबर लाइ ॥ जितु वुठै अनु धनु बहुतु ऊपजै जां सहु करे रजाइ ॥ जितु खाधै मनु त्रिपतीऐ जीआं जुगति समाइ ॥ इहु धनु करते का खेलु है कदे आवै कदे जाइ ॥ गिआनीआ का धनु नामु है सद ही रहै समाइ ॥ नानक जिन कउ नदरि करे तां इहु धनु पलै पाइ ॥२॥ {पन्ना 1282}

पद्अर्थ: भिंनी = भीगी हुई। भिंनी रैणि = भीगी हुई रात के वक्त। करे रजाइ = मर्जी करता है, प्रभू को भाता है। जुगति = जीने की जुगति। समाइ = आ बसती है। खेलु = तमाशा। पलै पाइ = देता है, बख्शिश है। वुठा = बरसा। छहबर = झड़ी। जिसु = जिससे। जितु वुठै = जिसके बरसने से। गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी जान पहचान रखने वाला मनुष्य।

अर्थ: जब प्रभू को भाता है (तब) भीगी हुई रात में (बादल) चमकता है और झड़ी लगा के बरसता है, इसके बरसने से बहुत अन्न (-रूप) धन पैदा होता है। इस धन के बरसने से मन तृप्त होता है और जीवों में जीने की जुगति आती है (भाव, अन्न खाने से जीव जीते हैं)। पर, यह (अन्न-रूप) धन तो करतार का एक तमाशा है जो कभी पैदा होता है कभी नाश हो जाता है। परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले लोगों के लिए प्रभू का नाम ही धन है जो सदा टिका रहता है।

हे नानक! जिन पर प्रभू मेहर की नज़र करता है उनको यह धन बख्शता है।2।

पउड़ी ॥ आपि कराए करे आपि हउ कै सिउ करी पुकार ॥ आपे लेखा मंगसी आपि कराए कार ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ हुकमु करे गावारु ॥ आपि छडाए छुटीऐ आपे बखसणहारु ॥ आपे वेखै सुणे आपि सभसै दे आधारु ॥ सभ महि एकु वरतदा सिरि सिरि करे बीचारु ॥ गुरमुखि आपु वीचारीऐ लगै सचि पिआरु ॥ नानक किस नो आखीऐ आपे देवणहारु ॥१०॥ {पन्ना 1282}

पद्अर्थ: गावारु = मूर्ख। सभसै = सबको। सिरि सिरि = हरेक सिर पर।

(नोट: शब्द 'आपि' और 'आपु' में फर्क समझने योग्य है। आपु = अपने आप को)।

हउ = मैं। कै सिउ = किसके पास? पुकार = फरियाद। थीअै = होता है। भावै = अच्छा लगता है। आपे = स्वयं ही। आधारु = आसरा। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।

किस नो: 'किसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: प्रभू (सब कुछ) स्वयं ही कर रहा है और (जीवों से) स्वयं ही करवा रहा है (सो, इस अग्नि, वाद, भूख, प्यास, काल आदि के बारे) किसी और के पास फरियाद नहीं की जा सकती। (जीवों से) स्वयं ही (भूख, प्यास आदि वाले) काम करवा रहा है और (इन किए कामों का) लेखा भी खुद ही माँगता है। मूर्ख जीव (ऐसे ही) हैंकड़ दिखाता है (असल में) वही कुछ होता है जो उस प्रभू को अच्छा लगता है। (इन अग्नि, भूख आदि से) अगर प्रभू खुद ही बचाए तो बचा जा सकता है, यह बख्शिश वह खुद ही करने वाला है। जीवों की संभाल प्रभू स्वयं ही करता है, स्वयं ही (जीवों की अरदासें) सुनता है और हरेक जीव को आसरा देता है। सब जीवों में प्रभू स्वयं ही मौजूद है और हरेक जीव का ध्यान रखता है।

जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है वह अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, और उसका प्यार (इन भूख प्यास आदि वाले पदार्थों की जगह) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू में बनता जाता है। पर, हे नानक! यह दाति वह स्वयं ही देता है, किसी और के आगे कुछ भी नहीं कहा जा सकता।10।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh