श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1283 सलोक मः ३ ॥ बाबीहा एहु जगतु है मत को भरमि भुलाइ ॥ इहु बाबींहा पसू है इस नो बूझणु नाहि ॥ अम्रितु हरि का नामु है जितु पीतै तिख जाइ ॥ नानक गुरमुखि जिन्ह पीआ तिन्ह बहुड़ि न लागी आइ ॥१॥ {पन्ना 1283} पद्अर्थ: बूझणु = समझ। जितु पीतै = जिस के पीने से। भरमि = भुलेखे में, भटकना में। भुलाइ = भुल जाए, विछुड़ जाय। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। तिख = प्यास। जितु पीतै = जिसको पीने से। जिन् = जिन्होंने। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चल के। इस नो: 'इसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। अर्थ: (शब्द पपीहा सुन के) कहीं कोई भुलेखा खा जाए, पपीहा यह जगत है, यह पपीहा (-जीव) पशू (-स्वभाव) है, इसको ये समझ नहीं (कि) परमात्मा का नाम (ऐसा) अमृत है जिसको पीने से (माया की) प्यास मिट जाती है। हे नानक! जिन लोगों ने गुरू के सन्मुख हो के (नाम-अमृत) पीया है उनको दोबारा (माया की) प्यास नहीं लगती।1। मः ३ ॥ मलारु सीतल रागु है हरि धिआइऐ सांति होइ ॥ हरि जीउ अपणी क्रिपा करे तां वरतै सभ लोइ ॥ वुठै जीआ जुगति होइ धरणी नो सीगारु होइ ॥ नानक इहु जगतु सभु जलु है जल ही ते सभ कोइ ॥ गुर परसादी को विरला बूझै सो जनु मुकतु सदा होइ ॥२॥ {पन्ना 1283} पद्अर्थ: लोइ = जगत में। वूठै = बरसात होने से। जुगति = जीवन जुगती। धरणी = धरती। सीगारु = श्रृंगार, सुंदरता। जलु = (भाव,) जिंदगी का मूल, प्रभू। सभु कोइ = हरेक जीव। परसादी = कृपा से। मुकतु = (माया के मोह से) आजाद। अर्थ: (चाहे) 'मलार' राग ठंडा राग है (भाव, शीतलता देने वाला है), पर (असल) शांति तब ही आती है जब (इस राग के द्वारा) प्रभू की सिफत-सालाह करें। यदि प्रभू अपनी दया करे तो (यह शांति) सारे जगत में (यूँ) फैल जाए, जैसे वर्षा होने पर जीवों में जीवन-जुगति (भाव, सक्ता) आ जाती है और धरती को भी हरी-भरी सुंदरता मिल जाती है। हे नानक! (असल में) यह जगत परमात्मा का रूप है (क्योंकि) हरेक जीव परमात्मा से ही पैदा होता है; पर कोई विरला व्यक्ति (यह बात) गुरू की मेहर से समझता है (और जो समझ लेता है) वह मनुष्य विकारों से रहित हो जाता है।2। पउड़ी ॥ सचा वेपरवाहु इको तू धणी ॥ तू सभु किछु आपे आपि दूजे किसु गणी ॥ माणस कूड़ा गरबु सची तुधु मणी ॥ आवा गउणु रचाइ उपाई मेदनी ॥ सतिगुरु सेवे आपणा आइआ तिसु गणी ॥ जे हउमै विचहु जाइ त केही गणत गणी ॥ मनमुख मोहि गुबारि जिउ भुला मंझि वणी ॥ कटे पाप असंख नावै इक कणी ॥११॥ {पन्ना 1283} पद्अर्थ: मणी = वडिआई। वणी = बनों में। धणी = मालिक। गणी = मैं गिनूँ। गरबु = अहंकार। कूड़ा = व्यर्थ। सची = सदा कायम रहने वाली। मेदनी = धरती, सृष्टि। आवागउण = जनम मरण। गणी = मैं गिनता हूँ। मोहि = मोह में। गुबारि = अंधेरे में। असंख = अनगिनत। अर्थ: हे प्रभू! तू सदा कायम रहने वाला बेपरवाह (बेमुथाज) मालिक है; तू स्वयं ही सब कुछ (करने कराने योग्य) है, किस दूसरे को मैं तेरे जैसा मानूँ? (दुनिया की किसी वडिआई को प्राप्त करके) मनुष्य का (कोई) अहंकार करना व्यर्थ है तेरी वडिआई ही सदा कायम रहने वाली है, तूने ही 'जनम मरण' (की मर्यादा) बना के सृष्टी पैदा की है। जो मनुष्य अपने गुरू के कहे पर चलता है उसका (जगत में) आना सफल है। अगर मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर हो जाए तो (तृष्णा आदि के अधीन हो के) तौखले करने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती। (पर) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य मोह-रूप अंधेरे में (इस तरह) भटक रहा है, जैसे (राह से) भूला हुआ मनुष्य जंगलों में (भटकता है)। प्रभू अपने 'नाम' का यह किनका मात्र दे के बेअंत पाप काट देता है।11। सलोक मः ३ ॥ बाबीहा खसमै का महलु न जाणही महलु देखि अरदासि पाइ ॥ आपणै भाणै बहुता बोलहि बोलिआ थाइ न पाइ ॥ खसमु वडा दातारु है जो इछे सो फल पाइ ॥ बाबीहा किआ बपुड़ा जगतै की तिख जाइ ॥१॥ {पन्ना 1283} पद्अर्थ: न जाणही = तू नहीं जानता। आपणै भाणै = अपने मन की मर्जी में चल के। थाइ न पाइ = कबूल नहीं होता। बपुड़ा = बेचारा। तिख = प्यास। अर्थ: हे (जीव) पपीहे! तू अपने मालिक का घर नहीं जानता (तभी माया की तृष्णा से आतुर हो रहा है), (मालिक का) घर देखने के लिए प्रार्थना कर। (जब तक) तू अपने (मन की) मर्जी के पीछे चल के बहुत ज्यादा बोलता है, यह बोलना प्रवान नहीं होता। (हे जीव!) मालिक बहुत बख्शिशें करने वाला है (उसके दर पर पड़ने से) जो माँगें सो मिल जाता है। यह (जीव) पपीहा बेचारा क्या है? (प्रभू के दर पर अरजोई करने से) सारे जगत की (माया की) प्यास मिट जाती है।1। मः ३ ॥ बाबीहा भिंनी रैणि बोलिआ सहजे सचि सुभाइ ॥ इहु जलु मेरा जीउ है जल बिनु रहणु न जाइ ॥ गुर सबदी जलु पाईऐ विचहु आपु गवाइ ॥ नानक जिसु बिनु चसा न जीवदी सो सतिगुरि दीआ मिलाइ ॥२॥ {पन्ना 1283} पद्अर्थ: भिंनी रैणि = (ओस-) भीगी रात के समय, अमृत वेला। सहजे = अडोल अवस्था में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में (जुड़ के)। सुभाइ = स्वाभाविक ही, जुड़े मन की मौज से। जलु = (भाव) प्रभू नाम। चसा = (भाव) पलक भर भी। जीउ = जिंद। सबदी = शबद से। आपु = स्वै भाव। गवाइ = दूर करके। सतिगुरि = गुरू ने। अर्थ: (जब) (जीव-) पपीहा अमृत बेला में अडोल अवस्था में प्रभू-चरणों में जुड़ के (जुड़े) मन की मौज से अरजोई करता है कि प्रभू का नाम मेरी जिंद है, 'नाम' के बिना मैं जी नहीं सकता, (तो इस तरह) मन में से स्वैभाव गवा के गुरू के शबद से नाम-अमृत मिलता है। हे नानक! जिस प्रभू के बिना एक पलक भर भी जीया नहीं जा सकता, सतिगुरू ने (अरजोई करने वाले को) वह प्रभू मिला दिया है (भाव, मिला देता है)।2। पउड़ी ॥ खंड पताल असंख मै गणत न होई ॥ तू करता गोविंदु तुधु सिरजी तुधै गोई ॥ लख चउरासीह मेदनी तुझ ही ते होई ॥ इकि राजे खान मलूक कहहि कहावहि कोई ॥ इकि साह सदावहि संचि धनु दूजै पति खोई ॥ इकि दाते इक मंगते सभना सिरि सोई ॥ विणु नावै बाजारीआ भीहावलि होई ॥ कूड़ निखुटे नानका सचु करे सु होई ॥१२॥ {पन्ना 1283} पद्अर्थ: खंड = हिस्से। असंख = बेअंत। सिरजी = पैदा की। ते = से। इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन) कई। सदावहि = कहलवाते हैं। दूजै = माया के मोह में। पति = इज्जत। सिरि = सिर पर। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। कूड़ = माया के सौदे। गोविंदु = धरती की सार लेने वाला। गोई = नाश की। मेदनी = धरती, सृष्टि। संचि = इकट्ठा करके। बाजारीआ = मसखरे, बहुरूपिए। भीहावलि = डरावनी (धरती)। अर्थ: (इस सृष्टि के) बेअंत धरतियां और पाताल हैं, मुझसे गिने नहीं जा सकते। (हे प्रभू!) तू (इस सृष्टि को) पैदा करने वाला है तू ही इसकी सार लेने वाला है, तूने ही पैदा की है तू ही नाश करता है। सृष्टि की चौरासी लाख जूनियाँ तुझसे ही पैदा हुई हैं। (यहाँ) कई अपने-आप को राजे-ख़ान और मलिक कहते हैं और कहलवाते हैं, कई धन एकत्र करके (अपने आप को) शाह कहलवाते हैं, (पर) इस दूसरे मोह में पड़ कर इज्जत गवा लेते हैं। यहाँ कई दाते हैं कई मँगते हैं (पर, क्या दाते और क्या मँगते) सबके सिर पर वह प्रभू ही पति है। (चाहे राजे कहलवाएं अथवा शाहूकार कहलवाएं) प्रभू के नाम के बिना जीव (मानो) बहु-रूपिए हैं (धरती इनके भार से) भय-भीत हुई है। हे नानक! (ये राजे और शाहूकार आदि) झूठ के सौदे खत्म हो जाते हैं (भाव, तृष्णा के अधीन हो के राज-धन का घमण्ड झूठा है।) जो कुछ सदा स्थिर रहने वाला प्रभू करता है वही होता है।12। सलोक मः ३ ॥ बाबीहा गुणवंती महलु पाइआ अउगणवंती दूरि ॥ अंतरि तेरै हरि वसै गुरमुखि सदा हजूरि ॥ कूक पुकार न होवई नदरी नदरि निहाल ॥ नानक नामि रते सहजे मिले सबदि गुरू कै घाल ॥१॥ {पन्ना 1283} पद्अर्थ: हजूरि = अंग संग। घाल = मेहनत। महलु = परमात्मा की हजूरी। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने से। होवई = होती, हो। नदरी = मेहर की निगाह रखने वाला। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में (टिक के)। सबदि = शबद में (जुड़ के)। अर्थ: हे (जीव-) पपीहे! गुणवान (जीव-स्त्री) को ईश्वर का घर मिल जाता है, पर गुणहीन उससे सदा दूर रहती है। हे (जीव-) पपीहे! तेरे अंदर ही रॅब बसता है, गुरू के सन्मुख होने से सदा अंग-संग दिखता है (गुरू की शरण पड़ने से) किसी कूक-पुकार की जरूरत नहीं रहती, मेहर के साई की मेहरों से निहाल हो जाया जाता है। हे नानक! प्रभू के नाम में रंगे हुए बंदे गुरू के शबद में (जुड़ के) घाल-कमाई करके आत्मिक अडोलता में टिके रह के उसको मिल जाते हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |