श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1284 मः ३ ॥ बाबीहा बेनती करे करि किरपा देहु जीअ दान ॥ जल बिनु पिआस न ऊतरै छुटकि जांहि मेरे प्रान ॥ तू सुखदाता बेअंतु है गुणदाता नेधानु ॥ नानक गुरमुखि बखसि लए अंति बेली होइ भगवानु ॥२॥ {पन्ना 1284} पद्अर्थ: जीअ दान = आत्मिक जीवन की दाति। नेधानु = निधान, खजाना। जल = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल, अमृत। पिआस = तृष्णा। छुटकि जांहि = घबरा जाते हैं। प्रान = जिंद। अर्थ: (जब) (जीव-) पपीहा (प्रभू के आगे) विनती करता है कि - (हे प्रभू!) मेहर करके मुझे जीवन-दाति बख्श; तेरे नाम-अमृत के बिना (मेरी) तृष्णा खत्म नहीं होती, (तेरे नाम के बिना) मेरी जिंद व्याकुल हो जाती है। तू सुख देने वाला है, तू बेअंत है, तू गुण बख्शने वाला है, और तू सारे गुणों का खजाना है। हे नानक! (यह बिनती सुन के) भगवान गुरू के सन्मुख हुए मनुष्य पर मेहर करता है और अंत के समय उसका सहायक बनता है।2। पउड़ी ॥ आपे जगतु उपाइ कै गुण अउगण करे बीचारु ॥ त्रै गुण सरब जंजालु है नामि न धरे पिआरु ॥ गुण छोडि अउगण कमावदे दरगह होहि खुआरु ॥ जूऐ जनमु तिनी हारिआ कितु आए संसारि ॥ सचै सबदि मनु मारिआ अहिनिसि नामि पिआरि ॥ जिनी पुरखी उरि धारिआ सचा अलख अपारु ॥ तू गुणदाता निधानु हहि असी अवगणिआर ॥ जिसु बखसे सो पाइसी गुर सबदी वीचारु ॥१३॥ {पन्ना 1284} पद्अर्थ: उपाइ कै = पैदा करके। सरब जंजालु = निरा जंजाल, निरा विकारों में फसाने वाला मूल। नामि = नाम का। छोडि = छोड़ के। होहि = होते हैं। तिनी = उन्होंने। कितु = किस लिए? संसारि = संसार में। सबदि = शबद से। मारिआ = वश में लाया। अहि = दिन। निसि = रात। पिआरि = प्यार से (गुजारते हैं)। पुरखी = पुरखों ने। उरि = हृदय में। निधानु = (सारे गुणों का) खजाना। हहि = तू है। गुर शबदी = गुरू के सबद से। अर्थ: (प्रभू) स्वयं ही जगत बना के (जीवों के) गुणों और अवगुणों का लेखा करता है, (माया के) तीनों गुण (भी जो) निरे जंजाल (भाव, विकारों में फसाने वाले) ही हैं (ये भी प्रभू ने खुद ही रचे हैं, इसमें फस के जगत) प्रभू के नाम में प्यार नहीं डालता; (इस वास्ते जीव) गुण छोड़ के अवगुण कमाते हैं और (आखिर) प्रभू की हजूरी में शर्मिंदे होते हैं। ऐसे जीव (जैसे) जूए में मनुष्य-जन्म हार जाते हैं, उनका जगत में आना किसी अर्थ का नहीं होता। (पर) जिन मनुष्यों ने (गुरू के) सच्चे-शबद के द्वारा अपना मन वश में कर लिया है, जो दिन-रात प्रभू के नाम में प्यार डालते हैं, जिन्होंने अपने हृदय में सदा कायम रहने वाला अदृश्य और बेअंत प्रभू बसाया है (वे इस तरह विनती करते हैं) - हे प्रभू! तू गुणों का दाता है, तू गुणों का खजाना है, हम जीव गुणहीन हैं"। गुरू के शबद से (ऐसी स्वच्छ) विचार वह मनुष्य प्राप्त करता है जिस पर (परमात्मा खुद) मेहर करता है।13। सलोक मः ५ ॥ राति न विहावी साकतां जिन्हा विसरै नाउ ॥ राती दिनस सुहेलीआ नानक हरि गुण गांउ ॥१॥ {पन्ना 1284} पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटा हुआ। विहावी = बीतती। सुहेलीआ = सुखी जीव सि्त्रयां। अर्थ: जो लोग परमात्मा के चरणों से विछड़े हुए हैं, जिनको करतार का नाम भूला हुआ है उनकी रात बीतने में नहीं आती (भाव, उनकी जिंदगी रूपी रात दुखों में ही बीतती है; वे इतने दुखी होते हैं कि उनको उम्र भारी प्रतीत होती है)। पर, हे नानक! जो जीव-सि्त्रयाँ प्रभू के गुण गाती हैं उनके दिन-रात (भाव, सारी उम्र) सुख में गुजरते हैं।1। मः ५ ॥ रतन जवेहर माणका हभे मणी मथंनि ॥ नानक जो प्रभि भाणिआ सचै दरि सोहंनि ॥२॥ {पन्ना 1284} पद्अर्थ: हभे = सारे। मथंनि = माथे पर। प्रभ भाणिआ = जो प्रभू को भा गए हैं। दरि = दर पर। सचै दरि = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। सोहंनि = शोभती है। अर्थ: हे नानक! जो जीव प्रभू को प्यारे लगने लगे हैं वे उस सदा स्थिर रहने वाले के दर पर शोभा पाते हैं, उनके माथे पर (जैसे) सारे रत्न जवाहर मोती और मणिं हैं (भाव, गुणों के कारण उनके माथे पर नूर ही नूर है)।2। पउड़ी ॥ सचा सतिगुरु सेवि सचु सम्हालिआ ॥ अंति खलोआ आइ जि सतिगुर अगै घालिआ ॥ पोहि न सकै जमकालु सचा रखवालिआ ॥ गुर साखी जोति जगाइ दीवा बालिआ ॥ मनमुख विणु नावै कूड़िआर फिरहि बेतालिआ ॥ पसू माणस चमि पलेटे अंदरहु कालिआ ॥ सभो वरतै सचु सचै सबदि निहालिआ ॥ नानक नामु निधानु है पूरै गुरि देखालिआ ॥१४॥ {पन्ना 1284} पद्अर्थ: ़जि = जो कुछ। सतिगुर अगै = गुरू के सन्मुख हो के। घालिआ = कमाई की। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। सभो = हर जगह। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। सबदि = शबद से। निधानु = खजाना। गुरि = गुरू ने। साखी = शिक्षा, बाणी। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी। बेतालिआ = बेताल, भूतप्रेत, सही जीवन चाल से उखड़े हुए। चंमि = चमड़ी से। निहालिआ = देखा, नजर आया। अर्थ: जिन मनुष्यों ने सच्चे गुरू के हुकम में चल के सदा स्थिर रहने वाले प्रभू की आराधना की, जो कमाई उन्होंने गुरू के सन्मुख हो के की है वह अंत समय (जब और सारे रास्ते खत्म हो जाते हैं) उनका साथ आ देती है। सच्चा प्रभू उनके सिर पर रखवाला होता है, इसलिए मौत का डर उनको छू नहीं सकता, गुरू की बाणी-रूप जोति (उन्होंने अपने अंदर) जगाई हुई है, बाणी रूपी दीया प्रज्जवलित किया हुआ है। पर जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं वे प्रभू के नाम से वंचित होए हुए हैं और झूठ के व्यापारी हैं, बेताले भटकते फिरते हैं; वे (दरअसल) पशू हैं अंदर से काले हैं (देखने को) मनुष्य चमड़ी में लिपटे हुए हैं (भाव, देखने में मनुष्य दिखते हैं)। (पर, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता) हर जगह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू स्वयं बसता है- ये बात गुरू के सच्चे शबद के द्वारा ही देखी जा सकती है। हे नानक! प्रभू का नाम ही (असल) खजाना है जो पूरे गुरू ने (किसी भाग्यशाली को) दिखाया है।14। सलोक मः ३ ॥ बाबीहै हुकमु पछाणिआ गुर कै सहजि सुभाइ ॥ मेघु वरसै दइआ करि गूड़ी छहबर लाइ ॥ बाबीहे कूक पुकार रहि गई सुखु वसिआ मनि आइ ॥ नानक सो सालाहीऐ जि देंदा सभनां जीआ रिजकु समाइ ॥१॥ {पन्ना 1284} पद्अर्थ: बाबीहै = पपीहे ने। बाबीहे = पपीहे की। (नोट: इन दोनों शब्दों के 'जोड़' और 'अर्थ' में अंतर देखने योग्य है)। समाइ = संबाहि, पहुँचा के, इकट्ठा कर के। सहजि = आत्मिक अडोलता में टिक के। गुर कै सुभाइ = गुरू के अनुसार चल के। छहबर = झड़ी। रहि गई = खत्म हो जाती है। मनि = मन में। जि = जो प्रभ। अर्थ: जिस (जीव-) पपीहे ने आत्मिक अडोलता में टिक के गुरू के अनुसार चल के प्रभू का हुकम समझा है, (सतिगुरू-) बादल मेहर कर के लंबी झड़ी लगा के (उस पर 'नाम'-अमृत की) बरखा करता है, उस (जीव-) पपीहे की कूक पुकार खत्म हो जाती है, उसके मन में सुख आ बसता है। हे नानक! जो प्रभू सब जीवों को रोज़ी पहुँचाता है, उसकी ही सिफतसालाह करनी चाहिए।1। मः ३ ॥ चात्रिक तू न जाणही किआ तुधु विचि तिखा है कितु पीतै तिख जाइ ॥ दूजै भाइ भरमिआ अम्रित जलु पलै न पाइ ॥ नदरि करे जे आपणी तां सतिगुरु मिलै सुभाइ ॥ नानक सतिगुर ते अम्रित जलु पाइआ सहजे रहिआ समाइ ॥२॥ {पन्ना 1284} पद्अर्थ: कित पीतै = क्या पीने से? ('सतिगुरु' और 'सतिगुर' इन दोनो शब्दों के 'जोड़' और 'अर्थ' में फर्क देखने योग्य है)। सहजे = अडोलता में। न जाणही = तू नहीं जानता। दूजै भाइ = माया के मोह में। सतिगुर ते = गुरू से। अंम्रित जलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पलै न पाइ = नहीं मिलता। सुभाइ = उसकी रजा में। अर्थ: हे पपीहे (जीव)! तुझे नहीं पता कि तेरे अंदर कौन सी प्यास है (जो तुझे भटकना में डाल रही है; ना ही तुझे यह पता है कि) क्या पीने से यह प्यास मिटेगी; तू माया के मोह में भटक रहा है, तुझे (प्यास मिटाने के लिए) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल नहीं मिलता। अगर अकाल-पुरख अपनी मेहर की नजर करे तो उसकी रज़ा में गुरू मिल जाता है। हे नानक! गुरू से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल मिलता है (और उसकी बरकति से) अडोल अवस्था में टिके रहा जा जाता है।2। पउड़ी ॥ इकि वण खंडि बैसहि जाइ सदु न देवही ॥ इकि पाला ककरु भंनि सीतलु जलु हेंवही ॥ इकि भसम चड़्हावहि अंगि मैलु न धोवही ॥ इकि जटा बिकट बिकराल कुलु घरु खोवही ॥ इकि नगन फिरहि दिनु राति नींद न सोवही ॥ इकि अगनि जलावहि अंगु आपु विगोवही ॥ विणु नावै तनु छारु किआ कहि रोवही ॥ सोहनि खसम दुआरि जि सतिगुरु सेवही ॥१५॥ {पन्ना 1284-1285} पद्अर्थ: वणखंडि = बन के खंड में, जंगल के किसी हिस्से में। सदु = आवाज। हेंवही = सहते हैं ('जलु हेवत भूख अरु नंगा' = कानड़ा म: ५)। इकि = कई (बहुवचन)। जाइ = जा के। अंगि = शरीर पर (शब्द 'अंगि' और छेवीं तुक के 'अंगु' का जोड़ और अर्थ विचारने = योग्य हैं)। बिकट = मुश्किल। बिकराल = डरावनी। आपु = अपने आप को। विगोवही = दुखी होते हैं। छारु = राख। अर्थ: कई मनुष्य जंगल में किसी एकांत में जा बैठते हैं और मौन धार लेते हैं, कई पाला-ओस तोड़ के ठंडा पानी सहते हैं (भाव, उस ठंडे पानी में बैठते हैं, जिस पर बर्फ जमी हुई है), कई मनुष्य शरीर पर राख मलते हैं और (शरीर की) मैल कभी नहीं धोते (भाव, स्नान नहीं करते); कई मनुष्य मुश्किल डरावनी जटें बढ़ा लेते हैं (फकीर बन के अपनी) कुल और अपना घर गवा लेते हैं; कई लोग दिन रात नंगे फिरते हैं, कई सोते भी नहीं है। कई मनुष्य आग से अपना शरीर जलाते हैं (भाव, धूणियाँ जलाते हैं और इस तरह) अपना आप दुखी करते हैं। पर प्रभू के नाम से वंचित रह के मनुष्य-शरीर व्यर्थ गवाया, वे अब क्या कह के रोएं? (सिमरन का मौका गवा के पछताने का कोई लाभ नहीं होता) केवल वह जीव मालिक प्रभू की हजूरी में शोभायमान होते हैं जो गुरू के हुकम में चलते हैं।15। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |