श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ पूरा सतिगुरु सेवि पूरा पाइआ ॥ पूरै करमि धिआइ पूरा सबदु मंनि वसाइआ ॥ पूरै गिआनि धिआनि मैलु चुकाइआ ॥ हरि सरि तीरथि जाणि मनूआ नाइआ ॥ सबदि मरै मनु मारि धंनु जणेदी माइआ ॥ दरि सचै सचिआरु सचा आइआ ॥ पुछि न सकै कोइ जां खसमै भाइआ ॥ नानक सचु सलाहि लिखिआ पाइआ ॥१८॥ {पन्ना 1286}

पद्अर्थ: करमि = बख्शिश से। मंनि = मन में। गिआनि = ज्ञान से। जणेदी = पैदा करने वाली। माइआ = माँ। सलाहि = सिफत कर के। हरि सरि = प्रभू रूप तालाब में, हरी नाम के समुंद्र में। जाणि = जान के, समझ के। मनूआ = सोहाना मन। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ, परमात्मा के साथ जान पहचान। गिआनि = प्रभू के साथ गहरी सांझ से। धिआनि = अडोल जुड़ी सुरति से। तीरथि = तीर्थ पर। जाणि = जान के, सूझ हासिल कर के। सबदि = शबद से। मारि = मार के, वश में ला के। दरि सचै = सदा कायम रहने वाले प्रभू के दर पर। सचिआरु = सुर्खरू।

अर्थ: जिस ने पूरे गुरू का हुकम माना है उसको पूरा प्रभू मिल जाता है; पूरे (भाव, अभॅुल) प्रभू की बख्शिश से प्रभू को सिमर के सिफतसालाह की बाणी वह मनुष्य अपने मन में बसाता है; पूरन आत्मिक समझ और अडोल सुरति की बरकति से वह अपने मन की मैल दूर करता है (इस तरह उसका) सुंदर (हुआ) मन आत्मिक जीवन की सूझ हासिल करके प्रभू-रूप सरोवर में प्रभू-रूप तीर्थ पर स्नान करता है।

उस मनुष्य की माँ भाग्यों वाली है, जो गुरू-शबद से मन को वश में ला के (माया के मोह से, जैसे) मर जाता है; वह मनुष्य सच्चे प्रभू की हजूरी में सच्चा और सत्य का व्यापारी माना जाता है। उस मनुष्य के जीवन पर कोई और उंगली नहीं उठा सकता क्योंकि वह पति-प्रभू को भा जाता है। हे नानक! सदा-स्थिर प्रभू के गुण गा के वह (सिफत-सालाह-रूप माथे पर) लिखे (भाग्य) हासिल कर लेता है।18।

नोट: इस पौड़ी की चौथी तुक में शब्द 'हरि सरि' को ध्यान से पढ़ें। रामकली राग की बाणी 'सदु' की पाँचवीं पौड़ी में भी यही शब्द 'हरि सरि पावऐ'।

सलोक मः १ ॥ कुलहां देंदे बावले लैंदे वडे निलज ॥ चूहा खड न मावई तिकलि बंन्है छज ॥ देन्हि दुआई से मरहि जिन कउ देनि सि जाहि ॥ नानक हुकमु न जापई किथै जाइ समाहि ॥ फसलि अहाड़ी एकु नामु सावणी सचु नाउ ॥ मै महदूदु लिखाइआ खसमै कै दरि जाइ ॥ दुनीआ के दर केतड़े केते आवहि जांहि ॥ केते मंगहि मंगते केते मंगि मंगि जाहि ॥१॥ {पन्ना 1286}

पद्अर्थ: कुलह = टोपी ( भाव, वह सेहली-टोपी जो एक मुरशिद अपने किसी चेले को अपने पीछे अपनी गद्दी पर बैठाने के समय देता है)।

(नोट: इस शलोक के होते हुए गुरू घर में 'सेहली टोपी' का रिवाज बताना निरी बनावटी बात है)।

नोट: 'समाहि' पड़ते हैं (यहॉ। पाठ 'समाइ' नहीं है, 'समाय' और 'समाहि' में फर्क है)।

तिकलि = कमर से। दुआई = आशीशें, दुआएं। महदूदु = हद में लाई हुई चीज, एक जाना माना परवाना। दर = (पीरों मुरशिदों के) दरवाजे। बावले = मूर्ख। निलज = बेशर्म। न मावई = घुस नहीं सकता, नहीं समा रहा। देनि् = देते हैं। सि = वह लोग भी। न जापई = समझा नहीं जा सकता, न जापे। जाइ = जा के। कै दरि = के दर पर।

अर्थ: वे लोग मूर्ख हैं जो (चेलों को) (सेहली-) टोपी देते हैं (और अपने आप को मशहूर करने के लिए अपनी जगह गद्दी देते हैं; यह सेहली टोपी) लेने वाले भी बदीद हैं (जो केवल सेहली टोपी से अपने आप को बरकति देने के समर्थ समझ लेते हैं) (इनकी हालत तो इस तरह है जैसे) चूहा (खुद तो) बिल में (घुस) नहीं सकता (और ऊपर से) कमर के साथ छॅज (छन्ना) बाँध लेता है।

हे नानक! (इस तरह की गद्दियाँ स्थापित करके) जो औरों को आशीशें देते हैं वे भी मर जाते हैं और आशिर्वाद लेने वाले भी मर जाते हैं, पर परमात्मा की रजा समझी नहीं जा सकती कि वह (मर के) कहाँ जा पड़ते हैं (भाव, सिर्फ सेहली टोपी और आर्शीवाद प्रभू की हजूरी में कबूल होने के लिए काफी नहीं हैं; मुर्शिद की चेले को आशीश और सेहली टोपी जीवन का सही रास्ता नहीं है)।

मैंने तो सिर्फ 'नाम' को ही हाड़ी की फसल बनाया है और सच्चा 'नाम' ही साउणी की फसल, (भाव, 'नाम' ही मेरे जीवन-सफर की पूँजी है), यह मैंने एक ऐसा पट्टा लिखाया है जो पति-प्रभू की हजूरी में जा पहुँचता है ।

(नोट: पीर अपने चेलों से हाड़ी-साउणी की फसल के वक्त जा के कार-भेट लेते हैं)।

दुनिया के (पीरों-मुरशिदों के तो) बड़े अड्डे हैं, कई यहाँ आते हैं और जाते हैं; कई मंगते इनसे माँगते हैं और कई माँग-माँग के चले जाते हैं (पर प्रभू का 'नाम'-रूप पट्टा इनसे नहीं मिल सकता)।1।

मः १ ॥ सउ मणु हसती घिउ गुड़ु खावै पंजि सै दाणा खाइ ॥ डकै फूकै खेह उडावै साहि गइऐ पछुताइ ॥ अंधी फूकि मुई देवानी ॥ खसमि मिटी फिरि भानी ॥ अधु गुल्हा चिड़ी का चुगणु गैणि चड़ी बिललाइ ॥ खसमै भावै ओहा चंगी जि करे खुदाइ खुदाइ ॥ सकता सीहु मारे सै मिरिआ सभ पिछै पै खाइ ॥ होइ सताणा घुरै न मावै साहि गइऐ पछुताइ ॥ अंधा किस नो बुकि सुणावै ॥ खसमै मूलि न भावै ॥ अक सिउ प्रीति करे अक तिडा अक डाली बहि खाइ ॥ खसमै भावै ओहो चंगा जि करे खुदाइ खुदाइ ॥ नानक दुनीआ चारि दिहाड़े सुखि कीतै दुखु होई ॥ गला वाले हैनि घणेरे छडि न सकै कोई ॥ मखीं मिठै मरणा ॥ जिन तू रखहि तिन नेड़ि न आवै तिन भउ सागरु तरणा ॥२॥ {पन्ना 1286}

पद्अर्थ: सउ मणु, पंजि सै (मण) = (भाव) बहुत सारा कई मनों में। डकै = डकारता है। फूकै = फूकें मारता है, शूकता है। साहि गइअै = जब जिंद निकल जाती है। पछुताइ = (भाव,) वह डरावनी फूके मारनी समाप्त हो जाती है। फूकि = फूकें मार के, (भाव,) अहंकार में। मिटी = समाई। भानी = अच्छी लगी। गुला = गुल्ली। गैणि = आकाश में। सकता = बलवान। सीहु = शेर। मिरिआ = मृगों को। सताणा = तगड़ा। घुरै = घुरने में। बुकि = बॅुक के, गरज के। ओहा = वह चिड़िया ही। ओहो = वह अॅक तिड्डा ही ('ओहा' स्त्रीलिंग है और 'ओहो' पुलिंग)। अॅक तिड्डा = धतूरे पर बैठने वाला टिड्डा। सुखि कीतै = मौज माणने से। मखीं = मक्खियों ने। मिठै = मिठास में। भउ सागरु = संसार समुंद्र। पिछै पै = पीछे चल के। खाइ = खाती है। सै = सैंकड़ों।

किस नो: संबंधक 'नो' के कारण 'किसु' की 'ु' मात्रा हट गई है।

अर्थ: हाथी कितना ही घी-गुड़ और कई मन दाना खाता है; (तृप्त हो के) डकारता है, फुंकारे मारता है, मिट्टी (सूंड से) उड़ाता है, पर जब साँस निकल जाते हैं तब वह डकारना फूंके मारना खत्म हो जाता है। (धन-पदार्थ के घमण्ड में) अंधी और कमली (हुई दुनिया भी हाथी ही की तरह) फूंके मार-मार के मरती है; (आत्मिक मौत सहेड़ती है)। अगर (अहंकार गवा के) पति में समाए तो पति को भाती है।

चिड़ी की चोग है आधा दाना (भाव, बहुत थोड़ा सा) (एक थोड़ी सी चोग चुग के) वह आकाश में उड़ती है और बोलती है; यदि वह मालिक प्रभू को याद करती है और उसको भाती है तो वह चिड़िया ही अच्छी है (डकार और फूकें मारने वाले हाथी से बेहतर तो एक छोटी सी चिड़िया ही है)।

एक बली शेर सैकड़ों मृगों को मारता है, उस शेर के पीछे कई और जंगली पशू भी पेट भरते हैं। ताकत के गुमान में वह शेर अपने घुरने में नहीं समाता, पर जब उसके साँस निकल जाते हैं तब उसका गरजना खत्म हो जाता है। वह अंधा किसको गरज-गरज के सुनाता है? पति-प्रभू को तो उसका गरजना अच्छा नहीं लगता। (इस शेर के मुकाबले पर, देखिए,) अॅक टिड्डा, धतूरे से प्यार करता है, धतूरे की डाली पर बैठ के धतूरा ही खाता है; पर अगर वह मालिक प्रभू को याद करता है तो उसको भाता है तो (दहाड़-दहाड़ के औरों को डराने वाले शेर से तो) वह अॅक टिड्डा ही अच्छा है।

हे नानक! दुनिया (में जीना) चार दिनों का है, यहाँ पर मौज माणने से दुख ही निकलता है, (इस दुनिया की मिठास ऐसी है कि ज़बानी ज्ञान की) बातें करने वाले तो बहुत हैं पर (इस मिठास को) कोई छोड़ नहीं सकता।

मक्खियां इस मिठास पर मरती हैं। पर, हे प्रभू! जिनको तू बचाऐ, उनके नजदीक यह मिठास नहीं फटकती, वे संसार-समुंद्र से (साफ) तैर के निकल जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ अगम अगोचरु तू धणी सचा अलख अपारु ॥ तू दाता सभि मंगते इको देवणहारु ॥ जिनी सेविआ तिनी सुखु पाइआ गुरमती वीचारु ॥ इकना नो तुधु एवै भावदा माइआ नालि पिआरु ॥ गुर कै सबदि सलाहीऐ अंतरि प्रेम पिआरु ॥ विणु प्रीती भगति न होवई विणु सतिगुर न लगै पिआरु ॥ तू प्रभु सभि तुधु सेवदे इक ढाढी करे पुकार ॥ देहि दानु संतोखीआ सचा नामु मिलै आधारु ॥१९॥ {पन्ना 1286}

पद्अर्थ: अगोचरु = (गो = इन्द्रियां। चरु = पहुँच। गोचरु = जिस तक इन्द्रियों की पहुँच हो सके) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। धणी = मालिक। वीचारु = समझ। इकना नो = कई जीवों को। इक पुकार = एक ऐसी आरजू। संतोखीआ = मैं संतोषी हो जाऊँ। आधारु = आसरा। सभि = सारे। ऐवै भावदा = ऐसे ही अच्छा लगता है। तुधु = तुझे।

अर्थ: हे प्रभू! हे अपहुँच! तू (मनुष्य की) इन्द्रि्रयों की पहुँच से परे है, तू सबका मालिक है, सदा स्थिर है, अदृश्य है और बेअंत है। सारे जीव मंगते हैं तू दाता है, तू एक ही सबको देने वाला है।

जिन मनुष्यों ने गुरू की मति के द्वारा (उच्च) समझ हासिल करके तुझे सिमरा है उन्होंने सुख प्राप्त किया है; पर, हे प्रभू! कई जीवों को तूने माया से प्यार करना ही दिया है, तुझे इस तरह ही अच्छा लगता है।

सतिगुरू के शबद से हृदय में प्रेम-प्यार पैदा करके ही परमात्मा की सिफतसालाह की जा सकती है। प्रेम के बिना बँदगी नहीं हो सकती, और प्रेम सतिगुरू के बिना नहीं मिलता।

तू सबका मालिक है, सारे जीव तुझे ही सिमरते हैं; मैं (तेरा) ढाढी (तेरे आगे) एक यही अरजोई करता है -हे प्रभू! मुझे अपना 'नाम' बख्श, मुझे तेरा नाम सदा कायम रहने वाला नाम ही (जिंदगी का) आसरा मिले, (जिसकी बरकति से) मैं संतोष वाला हो जाऊँ।19।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh