श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः १ ॥ राती कालु घटै दिनि कालु ॥ छिजै काइआ होइ परालु ॥ वरतणि वरतिआ सरब जंजालु ॥ भुलिआ चुकि गइआ तप तालु ॥ अंधा झखि झखि पइआ झेरि ॥ पिछै रोवहि लिआवहि फेरि ॥ बिनु बूझे किछु सूझै नाही ॥ मोइआ रोंहि रोंदे मरि जांहीं ॥ नानक खसमै एवै भावै ॥ सेई मुए जिन चिति न आवै ॥१॥ {पन्ना 1287}

पद्अर्थ: राती दिन = दिन रात से; भाव ज्यों ज्यों दिन रात बीतते हैं। कालु = जिंदगी का समय। काइआ = शरीर। छिजै = पुराना हो रहा है, बिरध हो रहा है। परालु = पराली की तरह थोथा कमजोर। वरतणि = जगत का बरतण व्यवहार। जंजालु = फंदा, जाल। तप तालु = तप की जाच, बंदगी का तरीका। झेरि = झेड़े में, चक्कर में। लिआवहि फेरि = वापस ले आएं। रोंहि = रोते हैं। मरि जांही = खपते हैं।

अर्थ: ज्यों ज्यों रात दिन बीतते हैं उम्र का समय कम होता है, शरीर बुड्ढा होता जाता है और कमजोर पड़ता जाता है; जगत का वर्तण-व्यवहार (जीव के लिए) सारा जंजाल बनता जाता है (इसमें) भूले हुए को बँदगी की जाच बिसर जाती है। (जगत के वर्तण-व्यवहार में) अंधा हुआ जीव (इसमें) झखें मार-मार के (किसी लंबे) झमेले में पड़ता है, और, (उसके मरने के) बाद (उसके सन्बंधी) रोते हैं (और विरलाप करते हैं कि उसे कैसे) वापस ले आएं।

समझने के बिना जगत को (वर्तण-व्यवहार में) कुछ सूझता नहीं, (मरने वाला तो) मर गया, (पीछे बचे हुए) रोते हैं और रो-रो के खपते हैं। पर, हे नानक! पति-प्रभू को ऐसा ही अच्छा लगता है (कि जीव इसी तरह खपते रहें)।

(असल में) आत्मिक मौत मरे हुए वही हैं जिनके हृदय में प्रभू नहीं बसता।

मः १ ॥ मुआ पिआरु प्रीति मुई मुआ वैरु वादी ॥ वंनु गइआ रूपु विणसिआ दुखी देह रुली ॥ किथहु आइआ कह गइआ किहु न सीओ किहु सी ॥ मनि मुखि गला गोईआ कीता चाउ रली ॥ नानक सचे नाम बिनु सिर खुर पति पाटी ॥२॥ {पन्ना 1287}

पद्अर्थ: वादी = वाद विवाद करने वाला, (वाद = झगड़ा) झगड़ों का मूल (जैसे 'धन' से 'धनी')। वंनु = रंग। दुखी देह = बेचारा शरीर। कह = कहाँ? किहु न सीओ = यह कुछ वह नहीं था। मनि = मन में। मुखि = मुँह से। गोईआ = कहीं। रली = रलियां। सिर खुर = सिर से पैरों तक, सारी की सारी। पति = इज्जत।

(नोट: ऐसा मालूम होता है कि इस शबद के उच्चारण के वक्त गुरू नानक साहिब के सामने अभी ऐमनाबाद के कत्लेआम की घटना ताज़ा थी, जहाँ सि्त्रयों की बेइज्जती के बारे में उन्होंने ये दर्द भरे वचन उचारे थे = 'इकना पेरण सिरखुर पाटे इकना वासु मसाणी')।

अर्थ: (जब मनुष्य मर जाता है तो उसका वह) प्रीत-प्यार समाप्त हो जाता है (जो वह अपने सम्बन्धियों के साथ करता था) झगड़ों का मूल वैर भी खत्म हो जाता है; (शरीर का सुंदर) रंग-रूप नाश हो जाता है, बेचारा शरीर भी भूल जाता है (आग व मिट्टी आदि के हवाले हो जाता है)। (उसके संबन्धि व भाईचारे के लोग) मन में (विचार करते हैं) और मुँह से बातें करते हैं कि वह कहाँ से आया था और कहाँ चला गया। (भाव जहाँ से आया था वहीं चला गया) वह ऐसा नहीं था और इस प्रकार का था (भाव, उसमें फलाणे ऐब नहीं थे, और उसमें फलाणे गुण थे), वह बड़े चाव से रलियां माण गया है।

पर, हे नानक! (लोग जो चाहे कहें) परमात्मा के नाम के बिना (लोगों द्वारा होई हुई) सारी की सारी इज्जत बेकार हो गई (समझो)।2।

पउड़ी ॥ अम्रित नामु सदा सुखदाता अंते होइ सखाई ॥ बाझु गुरू जगतु बउराना नावै सार न पाई ॥ सतिगुरु सेवहि से परवाणु जिन्ह जोती जोति मिलाई ॥ सो साहिबु सो सेवकु तेहा जिसु भाणा मंनि वसाई ॥ आपणै भाणै कहु किनि सुखु पाइआ अंधा अंधु कमाई ॥ बिखिआ कदे ही रजै नाही मूरख भुख न जाई ॥ दूजै सभु को लगि विगुता बिनु सतिगुर बूझ न पाई ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए जिस नो किरपा करे रजाई ॥२०॥ {पन्ना 1287}

पद्अर्थ: सखाई = सखा, मित्र। बउराना = कमला सा। सार = कद्र, सूझ। जोति = जिंद, सुरति। मंनि = मन में। कहु किनि = बता किसने? (भाव,) किसी ने नहीं। अंधु = अंधापन, अंधों वाला काम। बिखिआ = माया। विगुता = दुखी होता है। रजाई = रजा का मालिक प्रभू। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। नावै = नाम की। जिसु मंनि = जिसके मन में। सभु को = हरेक जीव। लगि = लग के। दूजै = (परमात्मा के बिना) अन्य (के प्यार) में। बूझ = समझ। जोती = परमात्मा में।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: प्रभू का आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा सुख देने वाला है, आखिर ('नाम' ही) मित्र बनता है। पर, जगत, गुरू के बिना कमला सा हो रहा है, (क्योंकि गुरू के बिना इसको) नाम की कद्र नहीं पड़ती।

जो लोग गुरू के कहे अनुसार चलते हैं (और इस तरह) जिन्होंने प्रभू में अपनी सुरति जोड़ी हुई है वे (प्रभू-दर पर) कबूल हैं। जिस मनुष्य को प्रभू अपना भाणा (मीठा करके) मनाता है वह सेवक वैसा ही हो जाता है जैसा प्रभू मालिक है।

अपनी मर्जी के मुताबिक चलके कभी कोई मनुष्य सुख नहीं पाता, अंधा सदा अंधों वाले काम ही करता है; मूर्ख की (माया की) भूख कभी खत्म नहीं होती, माया में कभी वह तृप्त नहीं होता। माया में लग के हर कोई दुखी ही होता है, गुरू के बिना समझ नहीं पड़ती (कि माया का मोह दुख का मूल है)।

जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर करता है वह गुरू के कहे अनुसार चलता है और सुख पाता है।20।

सलोक मः १ ॥ सरमु धरमु दुइ नानका जे धनु पलै पाइ ॥ सो धनु मित्रु न कांढीऐ जितु सिरि चोटां खाइ ॥ जिन कै पलै धनु वसै तिन का नाउ फकीर ॥ जिन्ह कै हिरदै तू वसहि ते नर गुणी गहीर ॥१॥ {पन्ना 1287}

पद्अर्थ: पलै पाइ = मिल जाए।

(नोट: 'धनु पलै पाइ' और 'पलै धनु वसै' में शब्द 'पॅला' सांझा होने से ऐसा प्रतीत होता है कि शब्द 'धन' का अर्थ दोनों जगहों पर एक ही है। पर, 'धनु पलै पाइ' में 'नाम धन' का जिकर नहीं है। 'सरमु धरमु दुइ', ये शब्द बताते हैं कि गुरू नानक साहिब के सामने यह घटना मौजूद है जिस बाबत उन्होंने उचारा था 'सरमु धरमु दुइ छपि खलोऐ'। आरम्भ में यह बताया गया है कि यह 'वार' ऐमनाबाद के कत्लेआम के तुरंत बाद ही लिखी गई लगती है, पर यह बात भी मजेदार है कि गुरू अरजन साहिब जी ने गुरू नानक देव जी के कुछ शलोक भी यहाँ दर्ज किए हैं जो उसी ही घटना की याद दिलवाते हैं)।

कांढीअै = कहा जाता है। सरमु = इज्जत। दुइ = दोनों। जितु = जिस (धन) से। सिरि = सिर पर। खाइ = खाता है, सहता है। कै पलै = के पल्ले में। हिरदै = हृदय में। गुणी गहीर = गुणों के समुंद्र।

अर्थ: हे नानक! (जगत समझता है कि) अगर धन मिल जाए तो इज्जत बनी रहती है और धर्म कमाया जा सकता है। पर, जिस (धन) के कारण सिर पर चोटें पड़ें वह धन मित्र (भाव, श्रम धर्म में सहायक) नहीं कहा जा सकता। जिनके पास धन है उनका नाम 'कंगाल' है; (वे आत्मिक जीवन में कंगाल हैं); और, हे प्रभू! जिनके हृदय में तू स्वयं आप बसता है वे हैं गुणों के समुंद्र।1।

मः १ ॥ दुखी दुनी सहेड़ीऐ जाइ त लगहि दुख ॥ नानक सचे नाम बिनु किसै न लथी भुख ॥ रूपी भुख न उतरै जां देखां तां भुख ॥ जेते रस सरीर के तेते लगहि दुख ॥२॥ {पन्ना 1287}

पद्अर्थ: दुनी = दुनिया, माया। रूपी = रूप से, रूप देख देख के। रस = चस्के। दुखी = दुखों से। सहेड़ीअै = जोड़ी जाती है। लगहि = लगते हैं। तेते = उतने ही।

अर्थ: दुख सह-सह के धन इकट्ठा किया जाता है, अगर यह गायब हो जाए तो भी दुख ही मारते हैं। हे नानक! प्रभू के सच्चे नाम के बिना किसी की तृष्णा मिटती नहीं। 'रूप' देखने से (रूप देखने की) तृष्णा नहीं जाती (बल्कि) ज्यों-ज्यों देखते जाएं त्यों-त्यों और तृष्णा बढ़ती जाती है। जिस्म के जितने भी ज्यादा चस्के हैं, उतने ही ज्यादा इसको दुख व्यापते हैं।2।

मः १ ॥ अंधी कमी अंधु मनु मनि अंधै तनु अंधु ॥ चिकड़ि लाइऐ किआ थीऐ जां तुटै पथर बंधु ॥ बंधु तुटा बेड़ी नही ना तुलहा ना हाथ ॥ नानक सचे नाम विणु केते डुबे साथ ॥३॥ {पन्ना 1287}

पद्अर्थ: अंधी कंमी = उन कामों के कारण जो विचारहीन हो के किए जाएं । अंधु = अंधा, विचार से वंचित। तनु = (भाव,) ज्ञान इन्द्रियां। पथर बंधु = पत्थरों का बाँध, (भाव,) प्रभू के नाम की विचार। तुलहा = हल्की हल्की लकड़ियों का बँधा हुआ गॅठा जो दरिया के किनारे पर लोग बेड़ी की जगह बरतते हैं। हाथ = गहराई, थाह। साथ = काफले। मनि अंधे = अगर मन अंधा हो जाए। चिकड़ि लाइअै = अगर कीचड़ लगाया जाय। केते = अनेकों।

अर्थ: ज्यों-ज्यों विचार-हीन हो के बुरे काम किए जाएं, त्यों त्यों मन अंधा (भाव, विचारों से वंचित) होता जाता है; और मन विचार-हीन हुआ ज्ञानेन्द्रियां भी अंधी हो जाती हैं (भाव, आँखें-कान आदि भी बुरी तरफ ले चलते हैं)। सो, जब पत्थरों का बाँध (भाव, प्रभू के नाम के विचार का पक्का आसरा) टूट जाता है तब कीचड़ लगाने से कुछ नहीं बनता (भाव, और-और आसरे ढूँढने से)। (जब) बाँध टूट गया, ना बेड़ी रही, ना तुलहा रहा, ना (पानी का) थाह लग सका (भाव, पानी भी बहुत गहरा हुआ), (ऐसी हालत में) हे नानक! प्रभू के सच्चे नाम (-रूपी बाँध, बेड़ी, तुलहे) के बिना कई काफिले के काफिले डूब जाते हैं।3।

मः १ ॥ लख मण सुइना लख मण रुपा लख साहा सिरि साह ॥ लख लसकर लख वाजे नेजे लखी घोड़ी पातिसाह ॥ जिथै साइरु लंघणा अगनि पाणी असगाह ॥ कंधी दिसि न आवई धाही पवै कहाह ॥ नानक ओथै जाणीअहि साह केई पातिसाह ॥४॥ {पन्ना 1287}

पद्अर्थ: रुपा = चांदी। घोड़ी पातिसाह = घोड़ों वाले, (भाव,) रसालयों के मालिक बादशाह। साइरु = समुंद्र। असगाह = बहुत गहरा, अथाह। कंधी = किनारा। धाही = धाहें मार के (रोना)। कहाह = शोर। धाही कहाह = हाय हाय का शोर। सिरि = सिर पर, से बड़े।

अर्थ: लाखों मन सोना हो और लाखों मन चाँदी- ऐसे लाखों धनवानों से भी बड़े धनी हों, लाखों सिपाहियों की फौजें हों लाखों बाजे बजते हों, नेजे-बरदार लाखों फौजी रसालियों के मालिक बादशाह हों; पर, जहाँ (विकारों की) आग और पानी का अथाह समुंद्र पार करना पड़ता है, (इस समुंद्र का) किनारा भी नहीं दिखता, हाय-हाय की कुरलाहट का शोर भी मचा हुआ है, वहाँ, हे नानक! परखे जाते हैं कि (असल में) कौन धनी हैं और कौन बादशाह हैं (भाव, दुनिया का धन और बादशाही विकारों की आग में जलने और विकारों की लहरों में डूबने से बचा नहीं सकते; धन और बादशाहियत होते हुए भी 'हाय-हाय' नहीं मिटती)।4।

पउड़ी ॥ इकन्हा गलीं जंजीर बंदि रबाणीऐ ॥ बधे छुटहि सचि सचु पछाणीऐ ॥ लिखिआ पलै पाइ सो सचु जाणीऐ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु गइआ जाणीऐ ॥ भउजल तारणहारु सबदि पछाणीऐ ॥ चोर जार जूआर पीड़े घाणीऐ ॥ निंदक लाइतबार मिले हड़्हवाणीऐ ॥ गुरमुखि सचि समाइ सु दरगह जाणीऐ ॥२१॥ {पन्ना 1287-1288}

पद्अर्थ: गलीं = गले में। जंजीर = 'बिखिया' (माया) के बँधन (देखें पिछली पौड़ी "बिखिआ कदे ही रजै नाही")। बंदि = बंदीखाने में। गइआ जाणीअै = यहाँ से चलने पर समझ पड़ती है (भाव, जब माया से विछोड़ा होने लगता है तब समझ आती है कि माया के मोह के कितने पक्के जंजीर पड़े हुए थे)। निबेड़ ु = निर्णय, न्याय। भउजलु = संसार समुंद्र। जार = व्यभचारी। लाइतबार = चुग़लखोर। हढ़वाणी = हाथकड़ी, काठ। सरि = सदा स्थिर हरी नाम से। पलै पाइ = मिलता है। समाइ = लीन हो के।

अर्थ: (जो 'बिखिआ' में लगे रहे) उनके गलों में (माया के मोह के बँधन-रूप) जंजीरें पड़ी हुई हैं, वह, (मानो,) ईश्वर के बँदीखाने में (कैद) हैं; अगर सच्चे प्रभू की पहचान आ जाए (अगर सदा-स्थिर प्रभू के साथ गहरी सांझ बन जाए) तो सदा-स्थिर हरी-नाम के द्वारा ही (इन जंजीरों में) बंधे हुए छूट सकते हैं। इसलिए उस सच्चे प्रभू के साथ सांझ बनाएं, तब ही (नाम-सिमरन-रूप) लिखा हुआ (लेख) मिलता है यह सारा निर्णय प्रभू के हुकम में ही होता है, और इस की समझ (यहाँ जगत से) चलते वक्त ही पड़ती है। (सो,) गुरू के शबद के द्वारा उस प्रभू के साथ गहरी सांझ डालनी चाहिए जो संसार-समुंद्र से पार लंघाने से समर्थ है।

चोरों व्यभचारियों और जूए-बाज़ (आदि विकारियों का हाल इस प्रकार होता है जैसे) कोल्हू में पीढ़े जा रहे हों, निंदकों और चुग़लख़ोरों को (मानो, निंदा और चुग़ली की) हथकड़ी लगी हुई है (भाव, इस बुरी वादी में से वे अपने आप को निकाल नहीं सकते)।

पर जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हैं वे प्रभू में लीन हो के प्रभू की हजूरी में आदर पाएं।21।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh