श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः २ ॥ नाउ फकीरै पातिसाहु मूरख पंडितु नाउ ॥ अंधे का नाउ पारखू एवै करे गुआउ ॥ इलति का नाउ चउधरी कूड़ी पूरे थाउ ॥ नानक गुरमुखि जाणीऐ कलि का एहु निआउ ॥१॥ {पन्ना 1288}

पद्अर्थ: ऐवै = इस तरह। गुआउ = गुफ़तगू, वार्तालाप, बचन। इलति = शरारत। कूड़ी = झूठी औरत। पूरे थाउ = सबसे आगे जगह मिलती है। निआउ = न्याय। पारखू = अच्छी परख कर सकने वाला

अर्थ: कंगाल का नाम बादशाह (रखा जाता है), मूख का नाम पण्डित (रखा जाता है), अंधे को पारखू (कहा जाता है) - (बस! जगत) इस तरह की (उल्टी) बातें करता है। शरारत (करने वाले) का नाम चौधरी (पड़ जाता है) और झूठी औरत सबसे आगे जगह घेरती है (भाव, हर जगह प्रधान बनती है)। हे नानक! यह है न्याय कलियुग का (भाव, जहाँ यह रवईया बरता जाता है वहाँ कलियुग का पहरा जानो)। पर, गुरू के सन्मुख होने से ही ये समझ आती है (कि यह तरीका व्यवहार गलत है। मन के पीछे चलने वाले लोग इस रवईए के आदी हुए रहते हैं)।1।

मः १ ॥ हरणां बाजां तै सिकदारां एन्हा पड़्हिआ नाउ ॥ फांधी लगी जाति फहाइनि अगै नाही थाउ ॥ सो पड़िआ सो पंडितु बीना जिन्ही कमाणा नाउ ॥ पहिलो दे जड़ अंदरि जमै ता उपरि होवै छांउ ॥ राजे सीह मुकदम कुते ॥ जाइ जगाइन्हि बैठे सुते ॥ चाकर नहदा पाइन्हि घाउ ॥ रतु पितु कुतिहो चटि जाहु ॥ जिथै जीआं होसी सार ॥ नकीं वढीं लाइतबार ॥२॥ {पन्ना 1288}

पद्अर्थ: तै = और। सिकदार = अहलकार। ऐना पढ़िआ नाउ = इनका नाम है 'पढ़े हुए'।

(नोट: पाला हुआ हिरन और बाज़ अपने ही जाति-भाईयों को ला फसाता है वैसे ही अहलकार अपने ही हम-जिनस मनुष्यों का लहू पीते हैं)।

फांधी = फंदा, फाही। अगै = प्रभू की हजूरी में। थाउ नाही = कबूल नहीं हैं। बीना = समझदार। पहिलो दे = सबसे पहला। मॅुकदम = मुसाहिब, अहलकार। नहदा = नहुंद्रां, नाखूनी पँजे। घाउ = घाव, जख़्म। रतु पितु = लहू और पिता। कुतिहो = (मॅुकदम) कुक्तों से। लाइतबार = बेइतबारे। सार = परख, कद्र। नकीं वढीं = कटे हुए नाक से, नक कटे।

अर्थ: हिरन, बाज़ और अहलकार- इनका नाम लोग 'पढ़े हुए' रखते हैं (पर ये कैसी विद्या है? यह तो) फंदा लिए हुए है जिस में अपनी ही जाति-भाईयों को फसाते हैं; प्रभू ही हजूरी में ऐसे पढ़े हुए मंजूर नहीं हैं।

जिस-जिस ने 'नाम' की कमाई की है वही विद्वान है पंडित है और समझदार है (क्यों वृक्ष की) जड़ सबसे पहले (जमीन के) अंदर पैदा होती है तब ही (वृक्ष उग के) बाहर छाया बनती है (सो, सुखदाती विद्या वही है अगर पहले मनुष्य अपने मन में 'नाम' बीजे)।

('नाम' से वंचित विद्या का हाल देखो), राजे (मानो) शेर हैं (उनके, पढ़े हुए) अहलकार (मानो) कुत्ते हैं, बैठे-सोए हुओं को (भाव, वक्त-बेवक्त जनता को) जा जगाते हैं (भाव, तंग करते हैं)। ये अहलकार (जैसे, शेरों के) नाखूनी पँजे नहुंद्रां हैं, जो (लोगों का) घात करते हैं, (राजे-शेर इन अहिलकार) कुक्तों से (लोगों का) लहू पीते हैं।

पर जहाँ जीवों की (करणी की) परख होती है, वहाँ ऐसे (पढ़े हुए लोग) बे-ऐतबारों के नाक-कटे (समझे जाते हैं)।2।

पउड़ी ॥ आपि उपाए मेदनी आपे करदा सार ॥ भै बिनु भरमु न कटीऐ नामि न लगै पिआरु ॥ सतिगुर ते भउ ऊपजै पाईऐ मोख दुआर ॥ भै ते सहजु पाईऐ मिलि जोती जोति अपार ॥ भै ते भैजलु लंघीऐ गुरमती वीचारु ॥ भै ते निरभउ पाईऐ जिस दा अंतु न पारावारु ॥ मनमुख भै की सार न जाणनी त्रिसना जलते करहि पुकार ॥ नानक नावै ही ते सुखु पाइआ गुरमती उरि धार ॥२२॥ {पन्ना 1288}

पद्अर्थ: मेदनी = धरती। सार = संभाल। भरमु = भटकना (रूपी जंजीर, देखें पौड़ी नं:21)। मोख दुआर = (बंदीखाने में से) मुक्ति का द्वार। सहजु = अडोल अवस्था। उरि = हृदय में। नामि = नाम में। मिलि = मिल के। जोती = परमात्मा में। भैजलु = संसार समुंद्र। पारावारु = पार+अवारु, इस पार उस पार का छोर। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। सार = कद्र। न जाणनी = नहीं जानते। जलते = जलते। करहि = करते हैं। ते = से। उरि = हृदय में।

अर्थ: (जो प्रभू) खुद जगत पैदा करता है और खुद ही इसकी संभाल करता है, (उसका) डर रखे बिना (माया के पीछे) भटकना (-रूपी बँधन) काटा नहीं जाता, ना ही उसके नाम में प्यार बनता है। प्रभू का डर गुरू की शरण पड़ने से होता है और ('रबाणी बंद' में से) खलासी का रास्ता मिलता है (क्योंकि प्रभू का) डर रखने से बेअंत प्रभू की जोति में जोति मिलाने से मन की अडोलता प्राप्त होती है। इस डर के कारण गुरमति द्वारा (उच्च) विचार बनती है, और, संसार-समुंद्र से पार लांघा जाता है, इस डर से ही डर-रहित प्रभू मिलता है जिसका अंत नहीं पाया जा सकता जिसका इस पार उस पार का किनारा नहीं मिलता।

अपने मन के पीछे चलने वाले लोगों को प्रभू के डर (में रहने की) सार नहीं पड़ती (नतीजा यह निकलता है कि वह माया की) तृष्णा (आग) में जलते-विलकते हैं। हे नानक! प्रभू के 'नाम' से ही सुख मिलता है और (यह 'नाम') गुरू की मति पर चलने से ही हृदय में टिकता है।22।

सलोक मः १ ॥ रूपै कामै दोसती भुखै सादै गंढु ॥ लबै मालै घुलि मिलि मिचलि ऊंघै सउड़ि पलंघु ॥ भंउकै कोपु खुआरु होइ फकड़ु पिटे अंधु ॥ चुपै चंगा नानका विणु नावै मुहि गंधु ॥१॥ {पन्ना 1288}

पद्अर्थ: सादै = स्वाद का। गंढु = संबंध। लबै = लब का। मालै = माल (धन) से। घुलि मिलि = अच्छी तरह मिल के। मिचलि = मेल, एक मेकता, तदाकारता। ऊघै = ऊंघने वाले को, निंद्रा में रहने वाले को। सउड़ि = सिकुड़ी हुई जगह। भउकै = भौंकता है, बहुत बोलता है। कोपु = क्रोध। फकड़ ुपिटे = बद्ज़बानी बोलता है। मुहि = मुँह में।

अर्थ: रूप की काम (-वासना) से मित्रता है, भूख का संबंध स्वाद से है। लोभ की धन के साथ अच्छी मिली हुई एकमेकता है (नींद से) ऊँघ रहे को सिकुड़ी हुई जगह ही पलंघ है। क्रोध बहुत बोलता है, (क्रोध में) अंधा (हुआ व्यक्ति) ख्वार हो के बद्-ज़बानी ही करता है।

हे नानक! प्रभू के नाम के बिना (मनुष्य के) मुँह में (बद्-कलामी की) बद्बू ही होती है (बोलने से ज्यादा) इसका चुप रहना ठीक है।1।

भाव: जहाँ नाम-हीनता है वहाँ सहज ही बद्कलामी है।

मः १ ॥ राजु मालु रूपु जाति जोबनु पंजे ठग ॥ एनी ठगीं जगु ठगिआ किनै न रखी लज ॥ एना ठगन्हि ठग से जि गुर की पैरी पाहि ॥ नानक करमा बाहरे होरि केते मुठे जाहि ॥२॥ {पन्ना 1288}

पद्अर्थ: किनै = किसी ने (भी)। लज = इज्जत। मुठे = ठॅगे। ऐनी ठगीं = इन (पाँचों) ठगों ने। रखी = बचाई। से ठग = वे ठग, वह समझदार लोग। ठगनि् = ठग लेते हैं, चाल में नहीं आते। जि = जो। पाहि = पड़ते हैं। होरि = (बहुवचन शब्दद 'होर' से)। होरि केते = और अनेकों। मुठै जाहि = (आत्मिक जीवन के सरमाए से) लूटे जा रहे हैं। करमा बाहरे = भाग्यहीन व्यक्ति।

अर्थ: राज, धन, सुंदरता, (ऊँची) जाति, और जवानी -यह पाँचों ही (मानो) ठॅग हैं, इन ठगों ने जगत को ठॅग लिया है (जो भी इनके अड्डे चढ़ा) किसी ने (इनसे) अपनी इज्जत नहीं बचाई।

इन (ठगों) को भी वह ठॅग (भाव, समझदार लोग) दाँव लगा जाते हैं (भाव, वह बंदे इनकी चाल में नहीं आते) जो सतिगुरू की शरण में आते है। (पर) हे नानक! और बड़े भाग्यहीन (इनके हाथों में खेल के) लूटे जा रहे हैं।2।

पउड़ी ॥ पड़िआ लेखेदारु लेखा मंगीऐ ॥ विणु नावै कूड़िआरु अउखा तंगीऐ ॥ अउघट रुधे राह गलीआं रोकीआं ॥ सचा वेपरवाहु सबदि संतोखीआं ॥ गहिर गभीर अथाहु हाथ न लभई ॥ मुहे मुहि चोटा खाहु विणु गुर कोइ न छुटसी ॥ पति सेती घरि जाहु नामु वखाणीऐ ॥ हुकमी साह गिराह देंदा जाणीऐ ॥२३॥ {पन्ना 1288}

पद्अर्थ: लेखेदारु = लेखा रखने वाला, चतुराई की बातें करने वाला। कूड़िआरु = झूठ का व्यापारी। तंगीअै = मुश्किल डालता है। अउघट = मुश्किल। रुधे = रोके हुए। मुहे = मुँह पर ही। मुहे मुहि = मुँहो मुँह। साह = (भाव) जिंदगी। गिराह = ग्रास (भाव,) रोजी। सचा = सदा कायम रहने वाला। वेपरवाहु = बेमुथाज। सबदि = शबद से। हाथ = गहराई। पति = इज्जत। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभू के दर पर।

अर्थ: जो मनुष्य विद्वान भी हो और चतुराई की बातें भी करना जानता हो ('तृष्णा' के बारे में) उससे भी लेखा लिया जाता है (भाव, 'तृष्णा' उससे भी लेखा लेती है, निरी विद्या और चतुराई 'तृष्णा' से बचा नहीं सकती), (क्योंकि) प्रभू के नाम के बिना (पढ़ा हुआ भी) झूठ का ही व्यापारी है, दुखी होता हैं कठिनाईयाँ ही उठाता है। उसकी (जिंदगी के) गलियां और रास्ते (तृष्णा की आग से) रुके हुए हैं (उनके बीच में से पार लांघना) मुश्किल है। गुरू-शबद के द्वारा संतोषी बंदों को सदा कायम रहने वाला बे-मुहताज परमात्मा मिलता है। प्रभू (मानो) बड़ा गहरा (समुंद्र) है, (विद्या और चुराई के आसरे) उसकी थाह नहीं लगाई जा सकती। (बल्कि, 'पढ़ा कूड़ियार' विद्या के गुमान में रह के तृष्णा की) भरपूर चोटें खाता है; (भले ही पढ़ा हुआ हो) कोई मनुष्य गुरू (की शरण) के बिना (तृष्णा से) बच नहीं सकता।

(परमात्मा का) नाम सिमरना चाहिए (अगर नाम सिमरें) तो बेशक इज्जत से प्रभू के दर पर पहुँचो। (सिमरन की बरकति से) यह निश्चय बनता है कि प्रभू अपने हुकम में जीवों को जीवन और रोज़ी देता है।23।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh