श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1289 सलोक मः १ ॥ पउणै पाणी अगनी जीउ तिन किआ खुसीआ किआ पीड़ ॥ धरती पाताली आकासी इकि दरि रहनि वजीर ॥ इकना वडी आरजा इकि मरि होहि जहीर ॥ इकि दे खाहि निखुटै नाही इकि सदा फिरहि फकीर ॥ हुकमी साजे हुकमी ढाहे एक चसे महि लख ॥ सभु को नथै नथिआ बखसे तोड़े नथ ॥ वरना चिहना बाहरा लेखे बाझु अलखु ॥ किउ कथीऐ किउ आखीऐ जापै सचो सचु ॥ करणा कथना कार सभ नानक आपि अकथु ॥ अकथ की कथा सुणेइ ॥ रिधि बुधि सिधि गिआनु सदा सुखु होइ ॥१॥ {पन्ना 1289} पद्अर्थ: पउणै = पवन का, हवा का। जीउ = जीव। तिन = इन जीवों को। किआ = क्या? किआ खुसीआ किआ पीड़ = क्या सुख औरक्या दुख? (भाव, अगर तत्वों की ओर देखें तो सब जीवों के एक-समान ही हैं, फिर इनको सुख और दुख क्यों अलग-अलग हैं?) आकासी = आकाशों में, (भाव,) हुकम कर रहे हैं। इकि = कई लोग। दरि = (राजाओं के) दर पर। आरजा = उम्र। जहीर = (अरबी) दुखी। फकीर = कंगाल। नथै नथिआ = नथुनी में जकड़ा हुआ। जापै = प्रतीत होता है, दिखता है। करना = जीवों का काम आदि करना। कथना = बोलना। कार = प्रभू द्वारा मिथी हुई किरति। सुणेइ = सुनता है। अर्थ: हवा पनी और आग (आदि तत्वों का मेल मिला के और उसमें जीवात्मा डाल के प्रभू ने) जीव बनाया, (तत्व सब जीवों में एक समान हैं, पर आश्चर्यजनक खेल यह है कि) इनको कईयों को दुख और कईयों को सुख (मिल रहे हैं)। कई धरती पर हैं (भाव, साधारण सी हालत में हैं) कई (मानो) पाताल में पड़े हुए हैं (भाव, कई उभरे हुए उच्च दर्जे पर हैं) कई (मानो) आकाश में हैं (भाव, कई हुकम चला रहे हैं), और कई (राजाओं के) दरबार में वज़ीर बने हुए हैं। कई लोगों की बड़ी उमर है, कई (कम उम्र में) मर के दुखी होते हैं। कई लोग (औरों को भी) दे के स्वयं भी बरतते हैं (पर, उनका धन) खत्म नहीं होता, कई सदा कंगाल फिरते हैं। प्रभू अपने हुकम अनुसार एक पलक में लाखों जीव पैदा करता है लाखों नाश करता है, हरेक जीव (अपने किए कर्मों के अनुसार रज़ा-रूपी) नाथ में जकड़ा हुआ है। जिस पर वह बख्शिश करता है उसके बँधन तोड़ता है। पर, प्रभू खुद कर्मों के लेखे से ऊपर है, उसका कोई रंग-रूप नहीं है और कोई चक्र-चिन्ह नहीं है। उसके स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता; वैसे वह हर जगह अस्तित्व वाला दिखता है। हे नानक! जीव जो कुछ कर रहे हैं और बोल रहे हैं वह सब प्रभू द्वारा रची हुई कार ही है, और वह स्वयं ऐसा है जिसका बयान नहीं किया जा सकता। जो मनुष्य उस अकॅथ प्रभू की बातें सुनता है (भाव, गुण गाता है) उसको ऊँची समझ प्राप्त होती है उसको सुख मिलता है (मानो) उसको रिद्धियाँ-सिद्धियाँ मिल गई हों।1। मः १ ॥ अजरु जरै त नउ कुल बंधु ॥ पूजै प्राण होवै थिरु कंधु ॥ कहां ते आइआ कहां एहु जाणु ॥ जीवत मरत रहै परवाणु ॥ हुकमै बूझै ततु पछाणै ॥ इहु परसादु गुरू ते जाणै ॥ होंदा फड़ीअगु नानक जाणु ॥ ना हउ ना मै जूनी पाणु ॥२॥ {पन्ना 1289} पद्अर्थ: अजरु = जो जरा ना जा सके, वह हालत जिसको सहना मुश्किल है, मन का वह वेग जिसको बर्दाश्त करना मुश्किल है । (नोट: कई सज्जन इसका अर्थ यूँ करते हें: 'आतम रस जो अजर वस्तु है।' पर, प्रश्न उठता है कि 'आतमरस' क्यों 'अजर' है? क्या यह कोई ऐसी अयोग्य अवस्था पैदा कर देता है जो बर्दाश्त नहीं होती? फिर, अगर 'बँदगी' भी किसी गलत राह पर डाल सकती है तो यह सही रास्ता कैसे हुआ? जहाँ 'नाम' है वहाँ 'अहंकार' नहीं, वहाँ प्रभू से 'विछोड़ा' नहीं, वहाँ तो प्रभू से 'मिलाप' है; और यह अवस्था बुरी नहीं होती, यहाँ कोई 'अहंकार' नहीं आ सकता, 'अहंकार' और 'नाम' तो इकट्ठे रह ही नहीं सकते। सो, 'आतम रस' कोई ऐसी अवस्था नहीं जिस पर किसी बँदिश की जरूरत पड़े, जिससे कोई खतरा हो सकता हो। क्रोध और श्राप वाली अवस्था 'नाम' और 'आतम रस' से बहुत नीचे दर्जे की अवस्था है। आतम-रसिया क्रोध में नहीं आता, श्राप नहीं देता; जब वह श्राप देने की हालत में हो, तब वह 'आतम रसिया' नहीं होता)। बंधु = बंधन, हद बंदी। नउ कुल बंधु = नौ गोलकों (नाक-कान आदि ज्ञान और कर्म इन्द्रियां) को हदबंदी मिल जाती है, (भाव,) ये सारी इन्द्रियां अपनी सही सीमा में रहती हैं। प्राण = स्वास स्वास। थिरु = अडोल। कंधु = शरीर। थिरु कंधु = शरीर अडोल हो जाता है, (भाव,) विकारों में डोलता नहीं। परसादु = कृपा, मेहर। होंदा = जो कहे 'मैं हूँ', (भाव) अहंकार वाला, अहंकारी। फड़ीअगु = पकड़ा जाएगा। जाणु = जान ले, समझ ले। जूनी पाणु = जूनियों में पड़ना, जनम मरन का चक्कर। अर्थ: जब मनुष्य मन की उस अवस्था पर काबू पा लेता है जिस पर काबू पाना कठिन होता है (भाव, जब मनुष्य मन को विकारों में गिरने से रोक लेता है, जब मनुष्य श्वास-श्वास प्रभू को सिमरता है तो इसके नौ की नौ (कर्म और ज्ञान) इन्द्रियाँ जायज़ सीमा में रहती हैं, इसका शरीर विकारों से अडोल हो जाता है। कहाँ से आया और कहाँ इसने जाना है? (भाव, इसका 'जनम-मरण का चक्कर' मिट जाता है), जीवत-भाव (फायदे वाली ख्वाहिशों) से मर के (प्रभू के दर पर) परवान हो जाता है। तब जीव परमात्मा की रज़ा को समझ लेता है, अस्लियत को पहचान लेता है- ये मेहर इसको गुरू से मिलती है। सो, हे नानक! ये समझ लो कि वही फसता है जो कहता है 'मैं हूँ' 'मैं हूँ' जहाँ 'हउ' नहीं वहाँ 'मैं' नहीं, वहाँ दुनिया में पड़ने (के लिए दुख भी) नहीं है।2। पउड़ी ॥ पड़्हीऐ नामु सालाह होरि बुधीं मिथिआ ॥ बिनु सचे वापार जनमु बिरथिआ ॥ अंतु न पारावारु न किन ही पाइआ ॥ सभु जगु गरबि गुबारु तिन सचु न भाइआ ॥ चले नामु विसारि तावणि ततिआ ॥ बलदी अंदरि तेलु दुबिधा घतिआ ॥ आइआ उठी खेलु फिरै उवतिआ ॥ नानक सचै मेलु सचै रतिआ ॥२४॥ {पन्ना 1289} पद्अर्थ: होरि बुधीं = और बुद्धियां। गरबि = अहंकार में। गुबारु = अंधा। तावणि = कड़ाहे में। उठी खेलु = खेल खत्म हो जाती है, मर जाता है। उवतिआ = अवैड़ा। सचे रतिआ = सच्चे में रंगा हुआ। मिथिआ = व्यर्थ। किन ही = किनि ही ('किनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) किसी ने ही। पारावारु = पार+अवार, परला उरला किनारा। सचु = सत्य, सदा स्थिर हरी नाम। भाइआ = अच्छा लगता। ततिआ = तला जाता है। सचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। अर्थ: ( हे भाई!) प्रभू का 'नाम' पढ़ना चाहिए, सिफतसालाह पढ़नी चाहिए, 'नाम' के बिना और बुद्धिमक्ता व्यर्थ हैं; ('नाम' ही सच्चा व्यापार है, इस ) सच्चे व्यापार के बिना जीवन व्यर्थ जाता है। (इन और-और किस्मों की बुद्धियों और चतुराईयों से) कभी किसी ने प्रभू का अंत नहीं पाया, उसका परला-उरला किनारा नहीं पाया, (हाँ, इन अक्लों के कारण) सारा जगत अहंकार में अंधा हो जाता है, इन (नाम-हीन विद्वानों) को 'सत्य' (भाव, 'नाम' सिमरना) अच्छा नहीं लगता। (ज्यों-ज्यों) ये नाम भुला के चलते हैं ('अहंकार' के कारण, मानो,) कड़ाहे में तले जाते हैं (इनके हृदय में पैदा होई हुई) दुविधा, मानो, जलती हुई आग में तेल डाला जाता है (भाव, 'दुविधा' के कारण विद्या से पैदा हुआ अहंकार और ज्यादा दुखी करता है)। (ऐसा व्यक्ति जगत में) आता है और मर जाता है (भाव, व्यर्थ जीवन गुजार जाता है, और सारी उम्र) अवैड़ा ही भ्रमित होता फिरता है। हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू में उस बँदे का मेल होता है जो उस सच्चे (के प्यार) में रंगा होता है।24। सलोक मः १ ॥ पहिलां मासहु निमिआ मासै अंदरि वासु ॥ जीउ पाइ मासु मुहि मिलिआ हडु चमु तनु मासु ॥ मासहु बाहरि कढिआ ममा मासु गिरासु ॥ मुहु मासै का जीभ मासै की मासै अंदरि सासु ॥ वडा होआ वीआहिआ घरि लै आइआ मासु ॥ मासहु ही मासु ऊपजै मासहु सभो साकु ॥ सतिगुरि मिलिऐ हुकमु बुझीऐ तां को आवै रासि ॥ आपि छुटे नह छूटीऐ नानक बचनि बिणासु ॥१॥ {पन्ना 1289} पद्अर्थ: निंमिआ = निर्मित हुआ, बना, आरम्भ हुआ। जीउ पाइ = जिंद हासिल करके, भाव, जब जान पड़ी। गिरासु = ग्रास, खुराक। सासु = साँस। को = कोई (भाव,) जीव। आवै रासि = रास आता है, सफल होता है। आपि छुटे = अपने जोर से बचा। बचनि = वचन से, (इस किस्म की) चर्चा से। बिणासु = हानि। अर्थ: सबसे पहले माँस (भाव, पिता के वीर्य) से ही (जीव के अस्तित्व का) आरम्भ होता है, (फिर) माँस (भाव, माँ के पेट) में ही इसका बसेवा होता है; जब (पुतले में) जान पड़ती है तब भी (जीभ-रूपी) माँस मुँह में मिलता है (इसके शरीर की सारी ही घाड़त) हड्डी चमड़ी और शरीर सब कुछ मास (ही बनता है)। जब (माँ के पेट-रूप) माँस में से बाहर भेजा जाता है तो भी स्तन (-रूप) माँस खुराक मिलती है; इसका मुँह भी माँस का है जीभ भी मास की है, माँस में ही साँस लेता है। जब जवान होता है और ब्याहा जाता है तो भी (स्त्री-रूप) माँस ही घर ले के आता है; (फिर) माँस से ही (बच्चा-रूप) माँस पैदा होता है; (सो, जगत का सारा) साक-संबंध माँस से ही है। (माँस खाने व ना खाने पर निर्णय समझने की जगह) यदि सतिगुरू मिल जाए तो प्रभू की रज़ा समझें तब जीव (का जगत में आना) सफल होता है (नहीं तो जीव का पैदा होने से लेकर मरने तक माँस से इतना गहरा वास्ता पड़ता है कि) अपने जोर से इससे बचने से कोई मुक्ति नहीं होती, और हे नानक! (इस किस्म की) चर्चा से (सिर्फ) हानि ही होती है।1। मः १ ॥ मासु मासु करि मूरखु झगड़े गिआनु धिआनु नही जाणै ॥ कउणु मासु कउणु सागु कहावै किसु महि पाप समाणे ॥ गैंडा मारि होम जग कीए देवतिआ की बाणे ॥ मासु छोडि बैसि नकु पकड़हि राती माणस खाणे ॥ फड़ु करि लोकां नो दिखलावहि गिआनु धिआनु नही सूझै ॥ नानक अंधे सिउ किआ कहीऐ कहै न कहिआ बूझै ॥ अंधा सोइ जि अंधु कमावै तिसु रिदै सि लोचन नाही ॥ मात पिता की रकतु निपंने मछी मासु न खांही ॥ इसत्री पुरखै जां निसि मेला ओथै मंधु कमाही ॥ मासहु निमे मासहु जमे हम मासै के भांडे ॥ गिआनु धिआनु कछु सूझै नाही चतुरु कहावै पांडे ॥ बाहर का मासु मंदा सुआमी घर का मासु चंगेरा ॥ जीअ जंत सभि मासहु होए जीइ लइआ वासेरा ॥ अभखु भखहि भखु तजि छोडहि अंधु गुरू जिन केरा ॥ मासहु निमे मासहु जमे हम मासै के भांडे ॥ गिआनु धिआनु कछु सूझै नाही चतुरु कहावै पांडे ॥ मासु पुराणी मासु कतेबीं चहु जुगि मासु कमाणा ॥ जजि काजि वीआहि सुहावै ओथै मासु समाणा ॥ इसत्री पुरख निपजहि मासहु पातिसाह सुलतानां ॥ जे ओइ दिसहि नरकि जांदे तां उन्ह का दानु न लैणा ॥ देंदा नरकि सुरगि लैदे देखहु एहु धिङाणा ॥ आपि न बूझै लोक बुझाए पांडे खरा सिआणा ॥ पांडे तू जाणै ही नाही किथहु मासु उपंना ॥ तोइअहु अंनु कमादु कपाहां तोइअहु त्रिभवणु गंना ॥ तोआ आखै हउ बहु बिधि हछा तोऐ बहुतु बिकारा ॥ एते रस छोडि होवै संनिआसी नानकु कहै विचारा ॥२॥ {पन्ना 1289-1290} पद्अर्थ: झगड़े = चर्चा करता है। गिआनु = ऊँची समझ, आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = ऊँची सुरति। बाणे = बाण अनुसार, आदत अनुसार। फड़ ु = पाखण्ड। सि लोचन = वह आँखें। रकतु = लहू। निपंने = पैदा हुए। निसि = रात को। मंधु = मंद। बाहर का मासु = बाहर से लाया हुआ मास। जीइ = जीव ने। अभखु = ना खाने वाली चीज़। केरा = का। कतेबीं = मुसलमानों की मज़हबी किताबों में। कमाणा = बरता जाता है। जगि = यज्ञ में। काजि = शादी ब्याह में। तोइअहु = पानी से। बिकारा = तब्दीलियां। संनिआसी = त्यागी। मारि = मार के। छोडि = छोड़ के। बैसि = बैठ के। नकु पकड़हि = नाक बँद कर लेते हैं। राती = रात को, छुप के। माणस खाणे = लोगों का लहू पीने की सोचें सोचते हैं। सूझै = सूझता (इनको)। किआ कहीअै = समझने का कोई लाभ नहीं। कहै = (अगर कोई) कहे, अगर कोई समझाए। सुआमी = हे स्वामी! हे पण्डित! सभि = सारे। लइआ वासेरा = डेरा लगाया हुआ है। भखु = खाने योग्य चीज़। चतुरु = समझदार। सुहावै = शोभता है, अच्छा माना जाता है। ओइ = (शब्द 'ओह' का बहुवचन) वे सारे। नरकि = नर्क में। सुरगि = स्वर्ग में। धिङाणा = (धिंगांणा) जोर जबरदस्ती की बात। रस = चस्के। ऐते रस = इतने सारे पदार्थों के चस्के। छोडि = छोड़ के। विचारा = विचार की बात। त्रिभवणु = सारा जगत। अर्थ: (अपनी तरफ़ से माँ का त्यागी) मूर्ख (पण्डित) मास-मास कह के चर्चा करता है, पर, ना इसको आत्मिक जीवन की समझ ना ही इसको सुरति है (वरना, ये ध्यान से बिचारे कि) माँस और साग में क्या फर्क है, और किस (के खाने) में पाप है। (पुराने समय में भी, लोग) देवताओं के स्वभाव के अनुसार (भाव, देवताओं को खुश करने के लिए) गैंडा मार के हवन और यज्ञ करते थे। जो मनुष्य (अपनी ओर से) माँस त्याग के (जब कभी कहीं माँस देखते हैं तो) बैठ के अपना नाक बँद कर लेते हैं (कि माँस की बदबू आ गई है) वे रात को मनुष्य को खा जाते हैं (भाव, छुप के मनुष्यों का लहू पीने के मनसूबे घड़ते हैं); (माँस ना खाने का यह) पाखण्ड करके लोगों को दिखाते हैं, वैसे इनको खुद ना समझ है ना ही सुरति है। पर, हे नानक! किसी अंधे मनुष्य को समझाने का कोई लाभ नहीं, (यदि कोई इसको) समझाए भी, तो भी ये समझाए समझते नहीं हैं। (अगर कहो अंधा कौन है तो) अंधा वह है जो अंधों वाले काम करता है, जिसके दिल में वह आँखें नहीं हैं (भाव, जो समझ से विहीन है), (नहीं तो सोचने वाली बात है कि खुद भी तो) माता और पिता के रक्त से हुए हैं और मछली (आदि) के माँस से परहेज़ करते हैं (भाव, माँस से ही पैदा हो के मांस से परहेज़ करने का क्या भाव? पहले भी तो माता-पिता के मास से ही शरीर पला है)। (फिर,) जब रात को औरत और मर्द इकट्ठे होते हैं तब भी (माँस के साथ ही) मंद (भाव, भोग) करते हैं। हम सारे माँस के पुतले हैं, हमारा आरम्भ माँस से ही हुआ, हम माँस से ही पैदा हुए, (माँस का त्यागी) पण्डित (माँस की चर्चा छेड़ के ऐसे ही अपने आप को) समझदार कहलवाता है, (दरअसल,) इसको ना समझ है ना ही सुरति है। (भला बताओ,) पंडित जी! (ये क्या कि) बाहर से लाया हुआ माँस बुरा और घर का (बरता हुआ) माँस अच्छा? (फिर) सारे जीव-जंतु माँस से पैदा हुए हैं, जिंद ने (अर्थात प्राणों ने माँस में ही) डेरा लगाया हुआ है; सो, जिनको रास्ता बताने वाला खुद अंधा है वह ना-खाने-योग्य चीज (भाव, पराया हॅक) तो खाते हैं और खाने-योग्य चीज (भाव, जिस चीज से जिंदगी का आरम्भ हुआ) को त्यागते हैं। हम सभी माँस के पुतले हैं, हमारा आरम्भ माँस से ही हुआ है, हम माँस से ही पैदा हुए, (माँस का त्यागी) पंडित (माँस की चर्चा छेड़ के ऐसे ही अपने आप को) समझदार कहलवाता है, (असलियत में) इसको ना समझ है ना सुरति है। पुराणों में माँस (का वर्णन) है, मुसलमानी मज़हबी किताबों में भी माँस (के प्रयोग का जिक्र) है; जगत के आरम्भ से माँस का उपयोग होता चला आया है। यज्ञ में, (शादी) ब्याह आदि कारजों में (माँस का प्रयोग) प्रधान है, उन जगहों पर माँस बरता जाता रहा है। औरत, मर्द, शाह, पातिशाह... सारे माँस से ही पैदा हुए हें। अगर ये सारे (माँस से बनने के कारण) नर्क में पड़ते दिखते हैं तो उनसे (माँस-त्यागी पंडित को) दान भी नहीं लेना चाहिए। (नहीं तो) देखिए, ये आश्चर्य भरे धक्केशाही की बात है कि दान देने वाले नर्क में जाएं और लेने वाले स्वर्ग में। (दरअसल) हे पंडित! तू खासा चतुर है, तुझे खुद को (माँस खाने के मामले की) समझ नहीं है, पर तू लोगों को समझाता है। हे पंडित! तुझे ये पता ही नहीं कि माँस कहाँ से पैदा हुआ। (देख,) पानी से अन्न पैदा होता है, कमाद गन्ना उगता है और कपास उगती है, पानी से ही सारा संसार पैदा होता है। पानी कहता है कि मैं कई तरीकों से भलाई करता हूँ (भाव, जीव को पालने के लिए कई किसमों की खुराक़-पोशाक पैदा करता हूँ), ये सारी तब्दीलियां (भाव, बेअंत किस्मों के पदार्थ) पानी में ही हैं। सो, नानक यह विचार की बात बताता है (कि अगर सच्चा त्यागी बनना है तो) इन सारे पदार्थों के चस्के छोड़ के त्यागी बने (क्योंकि माँस की उत्पक्ति भी पानी से ही है और अन्न-कमाद आदि की उत्पक्ति भी पानी से ही है)।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |