श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1290 पउड़ी ॥ हउ किआ आखा इक जीभ तेरा अंतु न किन ही पाइआ ॥ सचा सबदु वीचारि से तुझ ही माहि समाइआ ॥ इकि भगवा वेसु करि भरमदे विणु सतिगुर किनै न पाइआ ॥ देस दिसंतर भवि थके तुधु अंदरि आपु लुकाइआ ॥ गुर का सबदु रतंनु है करि चानणु आपि दिखाइआ ॥ आपणा आपु पछाणिआ गुरमती सचि समाइआ ॥ आवा गउणु बजारीआ बाजारु जिनी रचाइआ ॥ इकु थिरु सचा सालाहणा जिन मनि सचा भाइआ ॥२५॥ {पन्ना 1290} पद्अर्थ: दिसंतर = देश+अंतर, देशांतर, और और देश। आपु = अपना आप (शब्द 'आपु' और 'आपि' के जोड़ और अर्थ में फर्क समझने योग्य है)। बाजारु = दिखावा। आवागउणु = जनम मरण का चक्कर। हउ = मैं। आखा = कहूँ। किन ही = किनि ही ('किनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) किसी ने ही। इकि = कई ('इक' का बहुवचन)। भवि = भटकना। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। बाजारी = दिखावा करने वाला, दिखावे का ढोंग रचने वाला, पाखण्डी। जिन मनि = जिनके मन में। अर्थ: (हे प्रभू!) मेरी एक जीभ है, मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करूँ? तेरा अंत किसी ने नहीं पाया, जो मनुष्य तेरी सिफतसालाह का शबद विचारते हैं वे तेरे में ही लीन हो जाते हैं। कई मनुष्य भगवा भेष बना के भटकते फिरते हैं, पर गुरू की शरण आए बिना (हे प्रभू!) तुझे किसी ने नहीं पाया, ये लोग (बाहर) देश-देशांतरों में भटकते खप गए, पर तुमने अपने आप को (जीव के) अंदर छुपा रखा है। सतिगुरू का शबद (मानो) एक चमकता मोती है (जिस किसी को प्रभू ने) यह मोती बख्शा है, उसके हृदय में (प्रभू ने) खुद प्रकाश करके (उसको अपना आप) दिखाया है; (वह भाग्यशाली मनुष्य) अपनी अस्लियत को पहचान लेते हैं और गुरू की शिक्षा के माध्यम से सच्चे प्रभू में लीन हो जाते हैं। (पर) जिन (भेषधारियों ने) दिखावे का ढोंग रचा हुआ है उन पाखण्डियों को जनम-मरण (का चक्कर) मिलता है; और, जिनको मन में सच्चा प्रभू प्यारा लगता है वे सदा स्थिर रहने वाले एक प्रभू के गुण गाते हैं।25। सलोक मः १ ॥ नानक माइआ करम बिरखु फल अम्रित फल विसु ॥ सभ कारण करता करे जिसु खवाले तिसु ॥१॥ {पन्ना 1290} पद्अर्थ: करम = किए हुए कर्मों के अनुसार। बिरखु = (शरीर रूप) वृक्ष। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। विसु = (आत्मिक मौत लाने वाला मोह रूप) जहर। कारण = सबब, वसीले। अर्थ: हे नानक! (जीवों के किए) कर्मों अनुसार (मनुष्य-शरीर रूप) माया का (रचा) वृक्ष (उगता) है (इसको) अमृत (भाव, नाम सुख) और जहर (भाव, मोह-दुख) दो किस्मों के फल लगते हैं। करतार स्वयं (अमृत और विष दो किस्मों के फलों के) सारे वसीले बनाता है, जिस जीव को जो फल खिलाता है उसको (वही खाना पड़त है)।1। मः २ ॥ नानक दुनीआ कीआं वडिआईआं अगी सेती जालि ॥ एनी जलीईं नामु विसारिआ इक न चलीआ नालि ॥२॥ {पन्ना 1290} पद्अर्थ: जलीई = जली हुईयों ने, चंदरियों ने। अगी सेती = आग से। जालि = जला दे। ऐनी = इन्होंने। अर्थ: हे नानक! दुनिया की वडियाइयो को आग से जला दे। इन चंदरियों ने (मनुष्य से) प्रभू का नाम भुलवा दिया है (पर, इनमें से) एक भी (मरणोपरांत) साथ नहीं जाती।2। पउड़ी ॥ सिरि सिरि होइ निबेड़ु हुकमि चलाइआ ॥ तेरै हथि निबेड़ु तूहै मनि भाइआ ॥ कालु चलाए बंनि कोइ न रखसी ॥ जरु जरवाणा कंन्हि चड़िआ नचसी ॥ सतिगुरु बोहिथु बेड़ु सचा रखसी ॥ अगनि भखै भड़हाड़ु अनदिनु भखसी ॥ फाथा चुगै चोग हुकमी छुटसी ॥ करता करे सु होगु कूड़ु निखुटसी ॥२६॥ {पन्ना 1290} पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर, हरेक का अलग अलग। निबेड़ = निर्णय, फैसला। जरवाणा = ज़ालिम। (नोट: शब्द 'जरवाणा' बाबर के ऐमनाबाद वाले कत्लेआम का चेता करवाता लगता है। 'जरवाणा कंनि् चढ़िआ नचसी', ये शब्द मुग़ल फौजी सिपाहियों के अत्याचार आँखों के आगे लाते प्रतीत होते हैं)। बोहिथु = जहाज। भड़हाड़ ु = भड़कते शोले। अनदिनु = हर रोज। होगु = होगा। तेरै हथि = तेरे हाथ में। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगता। कालु = मोत। बंनि = बाँध के। जरु = बुढ़ापा। कंनि् = कांधे पर। सचा = सदा कायम रहने वाला। भखै = भख रहा है, जल रहा है। हुकमी = प्रभू के हुकमि अनुसार ही। अर्थ: (हे प्रभू! सारे जगत को तू) अपने हुकम में चला रहा है (कहीं भेखी दिखावे का ढोंग रच रहे हैं, कहीं तुझे प्यार करने वाले तेरी सिफतसालाह कर रहे हैं; इनके कर्मों के अनुसार 'आवागवन' और तेरा प्यार तेरे ही हुकम में) अलग-अलग फैसला (होता है), सारा फैसला तेरे ही हाथ में है, तू ही (मेरे) मन को प्यारा लगता है। जब मौत, बाँध के (जीव को) ले चलती है, कोई इसको रख नहीं सकता; ज़ालिम बुढ़ापा (हरेक के) कंधे पर चढ़ के नाचता है (भाव, मौत का संदेशा दे रहा है जिसके आगे किसी की पेश नहीं चलती)। सतिगुरू ही सच्चा जहाज़ है सच्चा बेड़ा है जो (मौत के डर से) बचाता है। (जगत की तृष्णा की) आग के शोले भड़क रहे हैं, हर वक्त भड़कते रहते हैं (इन शोलों में) फसा हुआ जीव चोगा चुग रहा है; प्रभू के हुकम अनुसार ही इसमें से बच सकता है क्योंकि जो कुछ करतार करता है वही होता है। झूठ (का व्यापार, भाव, तृष्णा-अधीन हो के मायावी पदार्थों के पीछे दौड़ना) जीव के साथ नहीं निभता।26। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |