श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार बाणी भगत रविदास जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नागर जनां मेरी जाति बिखिआत चमारं ॥ रिदै राम गोबिंद गुन सारं ॥१॥ रहाउ ॥ सुरसरी सलल क्रित बारुनी रे संत जन करत नही पानं ॥ सुरा अपवित्र नत अवर जल रे सुरसरी मिलत नहि होइ आनं ॥१॥ तर तारि अपवित्र करि मानीऐ रे जैसे कागरा करत बीचारं ॥ भगति भागउतु लिखीऐ तिह ऊपरे पूजीऐ करि नमसकारं ॥२॥ मेरी जाति कुट बांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा ॥ अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति तेरे नाम सरणाइ रविदासु दासा ॥३॥१॥ {पन्ना 1293}

पद्अर्थ: नागर = नगर के। बिखिआत = (विख्यात = well known avowed) मशहूर, प्रत्यक्ष, जानी मानी। रिदै = हृदय में। सारं = मैं संभालता हूं, मैं चेते करता हूँ।1। रहाउ।

सुरसरी = (सं: सुरसरित्) गंगा। सलल = पानी। क्रित = बनाया हुआ। बारुनी = (सं: वारुणी) शराब। रे = हे भाई! पानं नही करत = नहीं पीते। सुरा = शराब। नत = भले ही। अवर = और। आनं = और अलग।1।

तर = वृक्ष। तर तारि = ताड़ी के वृक्ष जिन में नशा देने वाला रस निकलता है। कागरा = कागज़। करत बीचारं = विचार करते हैं।2।

कुट बांढला = (चमड़ी) कूटने और काटने वाला। ढोर = मरे हुए पशू। नितहि = सदा। बिप्र = ब्राहमण। तिहि = उसको। डंडउति = डंडवत, नमस्कार। नाम सरणाइ = नाम की शरण में। तिहि = उस कुल में।3।

अर्थ: हे नगर के लोगो! यह बात तो जानी-मानी है कि मेरी जाति है चमार (जिसको तुम लोग बहुत नीची समझते हो, पर) मैं अपने हृदय में प्रभू के गुण याद करता रहता हूँ (इसलिए मैं नीच नहीं रह गया)।1। रहाउ।

हे भाई! गंगा के (भी) पानी से बनाया हुआ शराब गुरमुखि लोग नहीं पीते (भाव, वह शराब ग्रहण करने योग्य नहीं, इसी तरह अहंकार भी अवगुण ही है, चाहे वह ऊँची और पवित्र जाति का किया जाए), पर, हे भाई! अपवित्र शराब और चाहे और (गंदा) पानी भी हो, वह गंगा (के पानी) में मिल के (उससे) अलग नहीं रह जाते (इसी तरह नीच कुल का व्यक्ति भी परम-पवित्र-प्रभू में जुड़ के उससे अलग नहीं रह जाता)।1।

हे भाई! ताड़ी के वृक्ष अपवित्र माने जाते हैं, उसी तरह उन पेड़ों से बने हुए कागज़ों के बारे में भी लोग विचार करते हैं (भाव, उन कागज़ों को भी अपवित्र समझते हैं), पर, जब भगवान की सिफत-सालाह उन पर लिखी जाती है तो उनकी पूजा की जाती है।2।

मेरी जाति के लोग (चंमड़ा) कूटने और काटने वाले बनारस के इर्द-गिर्द (रहते हैं, और) नित्य मरे पशू ढोते हैं; पर, (हे प्रभू!) उसी कुल में पैदा होया हुआ तेरा सेवक रविदास तेरे नाम की शरण आया है, उसको अब बड़े-बड़े ब्राहमण नमस्कार करते हैं।3।1।

नोट: इस शबद की 'रहाउ' की तुक में रविदास जी लिखते हैं- 'मैं राम के गुण संभालता हूं, मैं गोबिंद के गुण संभालता हूँ' पर अगर अवतार-पूजा के दृष्टिकोण से देखें तो 'राम' श्री राम चंद्र जी का नाम है, और 'गोबिंद' श्री कृष्ण जी का नाम है। इन दोनों शब्दों के एक साथ प्रयोग से साफ स्पष्ट है कि रविदास जी किसी विशेष अवतार के उपासक नहीं थे। वे उस परमात्मा के भगत थे, जिसके लिए ये सारे शब्द बरते जा सकते हैं, और, सतिगुरू जी ने भी बरते हें।

भाव: सिमरन नीचों को ऊँचा कर देता है।

मलार ॥ हरि जपत तेऊ जना पदम कवलास पति तास सम तुलि नही आन कोऊ ॥ एक ही एक अनेक होइ बिसथरिओ आन रे आन भरपूरि सोऊ ॥ रहाउ ॥ जा कै भागवतु लेखीऐ अवरु नही पेखीऐ तास की जाति आछोप छीपा ॥ बिआस महि लेखीऐ सनक महि पेखीऐ नाम की नामना सपत दीपा ॥१॥ जा कै ईदि बकरीदि कुल गऊ रे बधु करहि मानीअहि सेख सहीद पीरा ॥ जा कै बाप वैसी करी पूत ऐसी सरी तिहू रे लोक परसिध कबीरा ॥२॥ जा के कुट्मब के ढेढ सभ ढोर ढोवंत फिरहि अजहु बंनारसी आस पासा ॥ आचार सहित बिप्र करहि डंडउति तिन तनै रविदास दासान दासा ॥३॥२॥ {पन्ना 1293}

पद्अर्थ: तेऊ = वही मनुष्य। जना = (प्रभू के) सेवक। पदम कवलास पति = (पद्मापति कमलापति)। पदमा = लक्ष्मी, माया। कमला = लक्ष्मी, माया। पदमापति = परमात्मा। कवलापति = परमात्मा, माया का पति। तास सम = उस प्रभू के समान, उस प्रभू जैसा। तास तुलि = उस परमात्मा के बराबर का। कोऊ आन = कोई अन्य। होइ = हो के, बन के। बिसथरिओ = पसरा हुआ, वयापक। रे = हे भाई! आन आन = (सं: अयन अयन) घर घर में, घट घट में। सोऊ = वही प्रभू। रहाउ।

जा कै = जिस के घर में। भागवतु = परमात्मा की सिफतसलाह। अवरु = (प्रभू के बिना) कोई और। आछोप = अछूत, अछोह। छीपा = धोबी। पेखीअै = देखने में आता है। नामना = वडिआई। सपत दीपा = सप्त द्वीपों में, सारे संसार में।1।

जा कै = जिसके कुल में। बकरीदि = वह ईद जिस पर गऊ की कुर्बानी देते हैं (बकर = गऊ)। बधु करहि = ज़बह करते हैं, कुर्बानी देते हैं। मानीअहि = माने जाते हैं, पूजे जाते हें। जा कै = जिसके खानदान में। बाप = पिता दादे, बड़े बुर्जुगों ने। अैसी सरी = ऐसी हो सकी। तिहू लोक = तीनों ही लोकों में, सारे जगत में। परसिध = मशहूर।2।

ढेढ = नीच जाति के लोग। अजहु = अभी तक। आचार = कर्म काण्ड। आचार सहित = कर्म काण्डी, शास्त्रों की मर्यादा पर चलने वाले। तिन तनै = उनके पुत्र (रविदास) को। दासान दासा = प्रभू के दासों का दास।3।

अर्थ: जो मनुष्य माया के पति परमात्मा को सिमरते हैं, वे प्रभू के (अनन्य) सेवक बन जाते हैं, उनको उस प्रभू जैसा, उस प्रभू के बराबर का, कोई और नहीं दिखता (इस वास्ते वे किसी का दबाव नहीं मानते)। हे भाई! उनको एक परमात्मा ही अनेक रूपों में व्यापक, घट घट में भरपूर दिखता है। रहाउ।

जिस (नामदेव) के घर में प्रभू की सिफत-सालाह लिखी जा रही है, (प्रभू-नाम के बिना) कुछ और देखने में नहीं आता (ऊँची जाति वालों के लिए तो) उसकी जाति छींबा है और वह अछूत है (पर उसकी उपमा तीनों लोकों में हो रही है); (ऋषि) ब्यास (के धर्म-पुस्तक) में लिखा मिलता है, सनक (आदि के पुस्तक) में भी देखने में आता है कि हरी-नाम की वडिआई सारे संसार में होती है।1।

(नोट: चुँकि यह बहस उच्च जाति वालों से है, इसलिए उन्होंने अपने ही घर में से ब्यास-सनक आदि का हवाला दिया है। रविदास जी खुद इनके श्रद्धालु नहीं हैं)।

हे भाई! जिस (कबीर) की जाति के लोग (मुसलमान बन कर) ईद-बकरीद के समय (अब) गऊएं हलाल करते हैं और जिनके घरों में अब शेखों शहीदों और पीरों की मान्यता होती है, जिस (कबीर) की जाति के बड़े-बुर्जुगों ने यह कर दिखाया, उनकी ही जाति में पैदा हुए पुत्र से ऐसा हो गया (कि इस्लामी हकूमत के दबाव से निडर रह के हरी-नाम सिमर के) सारे संसार में मशहूर हो गया।2।

जिसके खानदान के नीच लोग बनारस के आसपास (बसते हैं और) अभी तक मरे हुए पशू ढोते हैं, उनकी ही कुल में पैदा हुए पुत्र रविदास को, जो प्रभू के दासों का दास बन गया है, शास्त्रों की मर्यादा अनुसार चलने वाले ब्राहमण नमस्कार करते हैं।3।2।

नोट: फरीद जी और कबीर जी की सारी बाणी पढ़ के देखो, एक बात साफ प्रत्यक्ष ही दिखती है। फरीद जी हर जगह मुसलमानी शब्दों का प्रयोग करते हैं- मल-कुलमौत, पुरसलात (पुलसिरात), अकलि लतीफ, गिरावान, मरग आदिक सब इस्लामी शब्द ही हैं; विचार भी इस्लामी कल्चर वाले ही दिए हैं, जैसे, 'मिटी पर्ठ अतोलवी कोइ न होसी मितु'; यहाँ मुर्दे दबाने की तरफ इशारा है। पर, कबीर जी की बाणी पढ़ो, सभी शब्द हिन्दुओं वाले हैं, सिर्फ वहीं इस्लामी शब्दावली मिलेगी जहाँ किसी मुसलमान के साथ बहस है। परमात्मा के लिए आम तौर पर वही नाम बरते हैं जो हिन्दू लोग अपने अवतारों के लिए प्रयोग करते हैं, और, जो नाम सतिगुरू जी ने भी बहुत बार बरते हैं- पीतांबर, राम, हरी, नारायण, सारंगधर, ठाकुर आदिक।

इस उपरोक्त विचार से सहज ही यह अंदाजा लग सकता है, कि फरीद जी मुसलमानी घर और मुसलमानी ख्यालों में पले थे; कबीर जी हिन्दू घर और हिन्दू सभ्यता में। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि फरीद जी मुसलमान थे, और कबीर जी हिन्दू। हाँ, हिन्दू कुरीतियों और कुरस्मों को उन्होंने दिल खोल के नशर किया है; यह बात भी यही जाहिर करती है कि हिन्दू घर में जन्म होने और पलने के कारण कबीर जी हिंदू रस्मों और मर्यादा को अच्छी तरह जानते थे।

रविदास जी के इस शबद के दूसरे बंद में से कई सज्जन गलती खा जाते हैं के कबीर जी मुसलमान थे। पर आसा राग में कबीर जी का अपना शबद पढ़ के देखो; वे लिखते हैं;

'सकति सनेहु करि सुंनति करीअै, मै न बदउगा भाई॥ जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा, आपन ही कटि जाई॥२॥ सुंनति कीऐ तुरकु जे होइगा, अउरति का किआ करीअै॥ अरध सरीरी नारि न छोडै, ता ते हिंदू ही रहीअै॥३॥'

यहाँ स्पष्ट है कि कबीर जी की सुन्नत नहीं हुई थी, यदि वे मुसलमानी घर में पलते, तो छोटी उमर में ही माता-पिता सुन्नत करवा देते, जैसा कि इस्लामी शरह कहती है। कबीर जी मुसलमानी पक्ष का वर्णन करते हुए घर की संगिनी के लिए मुसलमानी शब्दावली 'अउरति' बरतते हैं, पर अपना पक्ष बताने के समय हिंदू-शब्दावली 'अरध सरीरी नारि' का प्रयोग करते हैं।

पर, क्या रविदास जी ने कबीर जी को मुसलमान बताया है? नहीं। ध्यान से पढ़ के देखिए। 'रहाउ' की तुक में रविदास जी उन मनुष्यों की आत्मिक अवस्था बयान करते हैं, जो हरी-नाम सिमरते हैं। कहते हैं- उनको हर जगह प्रभू ही दिखता है, उनको प्रभू ही सबसे बड़ा दिखता है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि वे निडर और प्रभू के साथ एक-मेक हो जाते हैं। आगे नामदेव की, कबीर की और अपनी मिसाल देते हैं - हरी-नाम की बरकति से नामदेव जी की वह शोभा हुई जो सनक और ब्यास जैसे ऋषि लिख गए, कबीर इस्लामी राज के दबाव से निडर रह के हरी-नाम सिमर के प्रसिद्ध हुआ, अपनी कुल के अन्य जुलाहों की तरह मुसलमान नहीं बना; हरी-नाम की बरकति ने ही रविदास जी को इतना ऊँचा किया कि ऊँची कुल के ब्राहमण उनके चरणों में लगते रहे।

सतिगुरू जी ने फरीद जी को 'शेख' लिखा है, शब्द 'शेख' इस्लामी है, पर कबीर जी को 'भगत' लिखते हैं, 'भगत' शब्द हिंदका है।

सो, रविदास जी के इस शबद से यह अंदाजा लगाना कि कबीर जी मुसलमान थे, भारी गलती करने वाली बात है।

भाव: सिमरन नीचों को ऊँचा कर देता है।

मलार    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मिलत पिआरो प्रान नाथु कवन भगति ते ॥ साधसंगति पाई परम गते ॥ रहाउ ॥ मैले कपरे कहा लउ धोवउ ॥ आवैगी नीद कहा लगु सोवउ ॥१॥ जोई जोई जोरिओ सोई सोई फाटिओ ॥ झूठै बनजि उठि ही गई हाटिओ ॥२॥ कहु रविदास भइओ जब लेखो ॥ जोई जोई कीनो सोई सोई देखिओ ॥३॥१॥३॥ {पन्ना 1293}

पद्अर्थ: प्रान नाथु = जिंद का सांई। कवन भगति ते = और किस भगती से? और किस तरह की भगती करने से? भाव, किसी और तरह की भगती करने से नहीं। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। रहाउ।

कहा लउ = कब तक? भाव, बस कर दूँगा, अब नहीं करूँगा। मैले कपरे धोवउ = मैं दूसरों के मैले कपड़े धोऊँगा, मैं दूसरों की निंदा करूँगा। आवैगी...सोवउ = कहा लगु आवैगी नीद कहा लगु सोवउ, कब तक नींद आऐगी और कब तक सोऊँगा? ना अज्ञानता की नींद आएगी और ना ही सोऊँगा।1।

जोई जोई जोरिओ = जो कुछ मैंने जोड़ा था, जितनी दुष्कर्मों की कमाई की थी। सोई सोई = वह सारा (लेखा)। झूठै बनजि = झूठे वणज में (लग के जो दुकान खोली थी)।2।

कहु = कह। रविदास = हे रविदास! भइओ जब लेखो = (साध-संगति में) जब (मेरे किए कर्मों का) लेखा हुआ, साध-संगति में जब मैंने अपने अंदर झाँक के देखा।3।

अर्थ: साध-संगति में पहुँच के मैंने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली है, (वरना) जिंद का सांई प्यारा प्रभू किसी और तरह की भगती से नहीं था मिल सकता। रहाउ।

(साध-संगति की बरकति से) अब मैंने पराई निंदा करनी छोड़ दी है, (सत्संग में रहने के कारण) ना मुझे अज्ञानता की नींद आएगी और ना ही मैं गाफिल होऊँगा।1।

(साध-संगति में आने से पहले) मैंने जितनी भी बुरे-कर्मों की कमाई की हुई थी (सत्संग में आ के) उस सारी की सारी का लेखा समाप्त हो गया है, झूठे वणज में (लग के मैंने जो दुकान खोली हुई थी, साध-संगति की कृपा से) वह दुकान ही उठ गई है।2।

(ये तब्दीली कैसे आई?) हे रविदास! कह- (साध-संगति में आ कर) जब मैंने अपने अंदर झाँका, तब जो-जो कर्म मैंने किए हुए थे वे सब कुछ प्रत्यक्ष दिखाई दे गए (और मैं बुरे-कर्मों से शर्मा के इनसे दूर हट गया)।3।3

शबद का भाव: साध-संगति ही एक ऐसा स्थान है जहाँ मन ऊँची अवस्था में पहुँच सकता है, और पराई निंदा, अज्ञानता, झूठ आदि विकारों से तर्क करके इनका सफाया कर सकता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh