श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा महला ४ ॥ भजु रामो मनि राम ॥ जिसु रूप न रेख वडाम ॥ सतसंगति मिलु भजु राम ॥ बड हो हो भाग मथाम ॥१॥ रहाउ ॥ जितु ग्रिहि मंदरि हरि होतु जासु तितु घरि आनदो आनंदु भजु राम राम राम ॥ राम नाम गुन गावहु हरि प्रीतम उपदेसि गुरू गुर सतिगुरा सुखु होतु हरि हरे हरि हरे हरे भजु राम राम राम ॥१॥ सभ सिसटि धार हरि तुम किरपाल करता सभु तू तू तू राम राम राम ॥ जन नानको सरणागती देहु गुरमती भजु राम राम राम ॥२॥३॥९॥ {पन्ना 1297}

पद्अर्थ: भजु = भजन किया कर। मनि = मन में। रूप = शकल। रेख = चक्र चिन्ह। वडाम = (सबसे) बड़ा। मिलु = मिला रह। हो = हे भाई! मथाम = माथे के।1। रहाउ।

जितु = जिस में। जितु ग्रिहि = जिस घर में। जितु मंदरि = जिस मन्दिर में। हरि जासु = हरी का जस (यश)। तितु = उस में। तितु घरि = उस घर में। आनदो आनंद = आनंद ही आनंद। हरि प्रीतम गुन = हरी प्रीतम के गुण। उपदेसि गुरू = गुरू के उपदेश से।1।

सभ सिसटि धार = सारी सृष्टि का आसरा। नानको = नानकु।2।

अर्थ: हे भाई! जिस राम की शकल जिसके चक्र-चिन्ह नहीं बताए जा सकते, जो राम सबसे बड़ा है, उसके नाम का भजन अपने मन में किया कर। हे भाई! साध-संगति में मिल और राम का भजन कर, तेरे माथे के बड़े भाग्य हो जाएंगे।1। रहाउ।

हे भाई! जिस हृदय-घर में जिस हृदय-मंदिर में परमात्मा की सिफत-सालाह होती है, उस हृदय-धर में आनंद ही आनंद बना रहता है। हे भाई! सदा राम का भजन करता रह। हे भाई! हरी प्रीतम के नाम का गुण गाता रह, गुरू सतिगुरू के उपदेश से गुण गाता रह। राम-नाम का भजन करता रह, हरी-नाम को जपने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।1।

हे हरी! तू सारी सृष्टि का आसरा है, तू दया का घर है, तू सबको पैदा करने वाला है, हर जगह तू ही तू है। दास नानक तेरी शरण आया है, (दास को) गुरू की शिक्षा बख्श। हे भाई! सदा राम के नाम का भजन करता रह।2।3।9।

कानड़ा महला ४ ॥ सतिगुर चाटउ पग चाट ॥ जितु मिलि हरि पाधर बाट ॥ भजु हरि रसु रस हरि गाट ॥ हरि हो हो लिखे लिलाट ॥१॥ रहाउ ॥ खट करम किरिआ करि बहु बहु बिसथार सिध साधिक जोगीआ करि जट जटा जट जाट ॥ करि भेख न पाईऐ हरि ब्रहम जोगु हरि पाईऐ सतसंगती उपदेसि गुरू गुर संत जना खोलि खोलि कपाट ॥१॥ तू अपर्मपरु सुआमी अति अगाहु तू भरपुरि रहिआ जल थले हरि इकु इको इक एकै हरि थाट ॥ तू जाणहि सभ बिधि बूझहि आपे जन नानक के प्रभ घटि घटे घटि घटे घटि हरि घाट ॥२॥४॥१०॥ {पन्ना 1297}

पद्अर्थ: सतिगुर पग = गुरू के पैर। चाटउ = मैं चाटता हूँ, मैं चूमता हूँ। जितु मिलि = जिस (गुरू) को मिल। पाधर = पधरा, सीधा, सपाट। हरि घाट = हरी (के मिलाप) का रास्ता। गाट = गट गट कर के। हो = हे भाई! लिलाट = माथे पर।1। रहाउ।

खट करम = छे धार्मिक कर्म। करि = कर। बिसथार = खिलारा, विस्तार, पसारा। सिध = जोग साधना में माहिर जोगी। साधिक = साधना करने वाले। करि जट जटा = जटाएं धर के। भेख = धार्मिक पहरावा। ब्रहम जोगु = परमात्मा का मिलाप। खोलि कपाट = अपने मन के किवाड़ खोल लो।1।

अपरंपरु = परे से परे। अगाहु = अथाह, बहुत ही गहरा। भरपुरि रहिआ = सब जगह व्यापक है। थाट = बनावट, पैदायश, उत्पक्ति। आपे = स्वयं ही। सभ बिधि = सारे ढंग। घटि घटे = हरेक घट में।2।

अर्थ: हे भाई! जिस गुरू को मिल के परमात्मा के मिलाप का सीधा रारस्ता मिल जाता है, मैं उस गुरू के चरण चूमता हूँ। हे भाई! (तू भी गुरू की शरण पड़ के) परमात्मा का भजन किया कर, परमात्मा का नाम-जल गट-गट कर के पीया कर। तेरे माथे के लेख उघड़ पड़ेंगे।1। रहाउ।

हे भाई! (पंडितों की तरह शास्त्रों द्वारा बताए गए) छह कर्मों की क्रिया करके (इस तरह के) और भी बहुत सारे पसारे करके, सिध जोगी साधिकों की तरह जटाएं धार के, धार्मिक पहरावे पहनने से परमात्मा का मिलाप हासिल नहीं किया जा सकता। परमात्मा मिलता है साध-संगति में। (इस वास्ते, हे भाई!) संत जनों की संगति में रह के गुरू के उपदेश से तू अपने मन के किवाड़ खोल।1।

हे प्रभू! हे मालिक! तू परे से परे है, तू बहुत अथाह है, तू पानी में धरती पर हर जगह व्यापक है। हे हरी! ये सारी जगत-उत्पक्ति सिर्फ तेरी ही है। (इस सृष्टि के बारे) तू सारे ढंग जानता है, तू खुद ही समझता है। हे दास नानक के प्रभू! तू हरेक शरीर में हरेक देही में मौजूद है।2।4।10।

कानड़ा महला ४ ॥ जपि मन गोबिद माधो ॥ हरि हरि अगम अगाधो ॥ मति गुरमति हरि प्रभु लाधो ॥ धुरि हो हो लिखे लिलाधो ॥१॥ रहाउ ॥ बिखु माइआ संचि बहु चितै बिकार सुखु पाईऐ हरि भजु संत संत संगती मिलि सतिगुरू गुरु साधो ॥ जिउ छुहि पारस मनूर भए कंचन तिउ पतित जन मिलि संगती सुध होवत गुरमती सुध हाधो ॥१॥ जिउ कासट संगि लोहा बहु तरता तिउ पापी संगि तरे साध साध-संगती गुर सतिगुरू गुर साधो ॥ चारि बरन चारि आस्रम है कोई मिलै गुरू गुर नानक सो आपि तरै कुल सगल तराधो ॥२॥५॥११॥ {पन्ना 1297}

पद्अर्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! माधो = माधव, माया का पति (मा+धव। धव = पति। मा = माया)। अगम = अपहुँच। अगाधो = अथाह। लाधो = मिल जाता है। हो = हे भाई! धुरि = धुर दरगाह से। लिलाधो = लिलाट पर, माथे पर।1। रहाउ।

बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। संचि = इकट्ठी करके। चितै = चितवै, चितवता है। मिलि = मिल के। छुहि = छूह के। मनूर = जला हुआ लोहा। कंचन = सोना। पतित = विकारों में गिरे हुए। सुध = शुद्ध, पवित्र। सुध हाधो = शुद्ध हो जाते हैं।1।

कासट संगि = काठ के साथ, बेड़ी की संगति में। चारि बरन = ब्रहमण, खत्री, वैश्य, शूद्र। चारि आस्रम = ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ ओर सन्यास आश्रम।2।

अर्थ: हे मन! माया के पति गोबिंद का नाम जपा करो, जो अपहुँच है और अथाह है। हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर धुर दरगाह से (प्रभू मिलाप का लेख) लिखा होता है, उसको गुरू की मति द्वारा परमात्मा मिल जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! आत्मिक मौत लाने वाली माया को संचित करके मनुष्य अनेकों विकार चितवने लग जाता है। हे भाई! साध-संगति में मिल के, गुरू सतिगुरू को मिल के हरी-नाम का भजन किया कर (इस तरह ही) सुख मिलता है। हे भाई! जैसे पारस को छू के जला हुआ लोहा सोना बन जाता है; वैसे ही विकारी मनुष्य साध-संगति में मिल के, गुरू की मति ले के, सुच्चे जीवन वाले बन जाते हैं।1।

हे भाई! जैसे काठ (बेड़ी, नाव) की संगति में बहुत सारा लोहा (नदी से) पार लांघ जाता है, वैसे ही विकारी मनुष्य भी साध-संगति में गुरू की संगति में रह के (संसार-समुंद्र से) तैर जाते हैं। हे नानक! (ब्राहमण, खत्री आदि) चार वर्ण (प्रसिद्ध) हैं, (ब्रहमचर्य आदि) चार आश्रम (प्रसिद्ध) हैं, (इनमें से) जो भी कोई गुरू को मिलता है, वह खुद (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाता है, और अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेता है।2।5।11।

कानड़ा महला ४ ॥ हरि जसु गावहु भगवान ॥ जसु गावत पाप लहान ॥ मति गुरमति सुनि जसु कान ॥ हरि हो हो किरपान ॥१॥ रहाउ ॥ तेरे जन धिआवहि इक मनि इक चिति ते साधू सुख पावहि जपि हरि हरि नामु निधान ॥ उसतति करहि प्रभ तेरीआ मिलि साधू साध जना गुर सतिगुरू भगवान ॥१॥ जिन कै हिरदै तू सुआमी ते सुख फल पावहि ते तरे भव सिंधु ते भगत हरि जान ॥ तिन सेवा हम लाइ हरे हम लाइ हरे जन नानक के हरि तू तू तू तू तू भगवान ॥२॥६॥१२॥ {पन्ना 1297-1298}

पद्अर्थ: जसु = सिफत सालाह। गावत = गाते हुए। लहान = उतर जाते हैं। सुनि = सुना कर। कान = कानों से। हो = हे भाई! किरपाल = दयावान।1। रहाउ।

धिआवहि = ध्याते हैं (बहुवचन)। इक मनि = एक मन से। इक चिति = एक चिक्त से। ते साधू = वह भले मनुष्य। जपि = जप के। निधान = (सुखों का) खजाना। करहि = करते हैं (बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभू! मिलि = मिल के। भगवान = हे भगवान!।1।

कै हिरदै = के दिल में। सुआमी = हे स्वामी! ते = वे (बहुवचन)। भव सिंधु = संसार समुंद्र। जान = जानो। हम = हमें, मुझे।2।

अर्थ: हे भाई! हरी के भगवान के गुण गाया करो। (हरी के) गुण गाते हुए पाप दूर हो जाते हैं। हे भाई! गुरू की मति ले के (अपने) कानो से हरी की सिफत-सालाह सुना कर, हरी दयावान हो जाता है।1। रहाउ।

हे प्रभू! तेरे सेवक एक-मन एक चिक्त हो के तेरा ध्यान करते हैं, सुखों का खजाना तेरा नाम जप-जप के वे गुरमुख मनुष्य आत्मिक आनंद लेते हैं। हे प्रभू! हे भगवान! तेरे संत जन गुरू सतिगुरू को मिल के तेरी सिफतसालह करते रहते हैं।1।

हे मालिक! जिनके हृदय में तू बस जाता है, वे आत्मिक आनंद का फल हासिल करते है, वे संसार-समुंद्र को पार कर जाते हैं। हे भाई! उनको भी हरी के भगत जानो। हे हरी! हे दास नानक के भगवान! मुझे (अपने) उन संत-जनों की सेवा में लगाए रख, सेवा में लगाए रख।2।6।12

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh