श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा महला ५ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गाईऐ गुण गोपाल क्रिपा निधि ॥ दुख बिदारन सुखदाते सतिगुर जा कउ भेटत होइ सगल सिधि ॥१॥ रहाउ ॥ सिमरत नामु मनहि साधारै ॥ कोटि पराधी खिन महि तारै ॥१॥ जा कउ चीति आवै गुरु अपना ॥ ता कउ दूखु नही तिलु सुपना ॥२॥ जा कउ सतिगुरु अपना राखै ॥ सो जनु हरि रसु रसना चाखै ॥३॥ कहु नानक गुरि कीनी मइआ ॥ हलति पलति मुख ऊजल भइआ ॥४॥१॥ {पन्ना 1298}

पद्अर्थ: गाईअै = आओ मिल के गायन करें। क्रिपानिधि गुण = दया के खजाने, प्रभू के गुण। दुख बिदारन = दुखों का नाश करने वाला। जा कउ = जिस (गुरू) को। भेटत = मिलने से। होइ = होती है (एकवचन)। सिधि = कामयाबी, सफलता। सगल = सारी।1। रहाउ।

मनहि = मन को। साधारै = (विकारों के मुकाबले में) सहारा देता है। कोटि = करोड़ों। पराधी = अपराधी, पापी। तारै = (नाम) पार लंघा लेता है।1।

जा कउ = जिस (मनुष्य) को। चीति = चिक्त में। तिलु = रती भर भी।2।

राखै = रक्षा करता है। रसना = जीभ से। चाखै = चखता है।3।

कहु = कह। गुरि = गुरू ने। मइआ = दया। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक मे। मुख = मुँह। ऊजल = बेदाग़।4।

अर्थ: हे भाई! जिस गुरू को मिलके (जिंदगी) सारी सफल हो जाती है, उस दुखों के नाश करने वाले और सुखों के देने वाले गुरू को मिल के, आओ, मिल के माया के खजाने गोपाल के गुण गाया करें।1। रहाउ।

हे भाई! नाम सिमरने से नाम (मनुष्य के) मन को (विकारों के मुकाबले में) सहारा देता है। हरी-नाम करोड़ों पापियों को एक छिन में (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है।1।

हे भाई! जिस मनुष्य को अपना सतिगुरू चेते रहता है (वह मनुष्य सदा हरी-नाम जपता है, जिसकी बरकति से) उसको सपने में भी रक्ती भर भी कोई दुख पोह नहीं सकता।2।

हे भाई! प्यारा गुरू जिस मनुष्य की रक्षा करता है, वह मनुष्य (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम-रस चखता रहता है।3।

हे नानक! कह- (जिन मनुष्यों पर) गुरू ने मेहर की, उनके मुँह इस लोक में और परलोक में उज्जवल हो गए।4।1।

कानड़ा महला ५ ॥ आराधउ तुझहि सुआमी अपने ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत सासि सासि सासि हरि जपने ॥१॥ रहाउ ॥ ता कै हिरदै बसिओ नामु ॥ जा कउ सुआमी कीनो दानु ॥१॥ ता कै हिरदै आई सांति ॥ ठाकुर भेटे गुर बचनांति ॥२॥ सरब कला सोई परबीन ॥ नाम मंत्रु जा कउ गुरि दीन ॥३॥ कहु नानक ता कै बलि जाउ ॥ कलिजुग महि पाइआ जिनि नाउ ॥४॥२॥ {पन्ना 1298}

पद्अर्थ: आराधउ = मैं आराधता हूँ, याद करता रहता हूँ। तुझहि = तुझे हीं। सुआमी = हे स्वामी! सासि सासि = हरेक सांस के साथ।1।

ता कै हिरदै = उस (मनुष्य) के दिल में। जा कउ = जिस (मनुष्य) को।1।

ठाकुर भेटे = मालिक प्रभू को मिलता है। गुर बचनांति = गुरू के बचनों से।2।

कला = आत्मिक ताकत। परबीन = प्रवीण, समझदार। मंत्रु = उपदेश। गुरि = गुरू ने।3।

बलि जाउ = मैं सदके जाता हू। कलिजुग महि = झगड़ों भरे जगत में । जिनि = जिस (मनुष्य) ने।4।

(नोट: यहाँ किसी युग की बात नहीं है)।

अर्थ: हे (मेरे) अपने मालिक! मैं (सदा) तुझे ही याद करता रहता हूं। हे हरी! उठते, बैठते, सोते, जागते, हरेक सांस के साथ मैं तेरा ही नाम जपता हूँ।1। रहाउ।

हे भाई! मालिक-प्रभू जिस मनुष्य को (नाम की) दाति बख्शता है, उसके हृदय में (उस मालिक का) नाम टिक जाता है।1।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के उपदेश पर चल कर मालिक-प्रभू को मिल जाता है, उसके दिल में (विकारों की अग्नि) ठंडी पड़ जाती है।2।

हे भाई! जिस (मनुष्य) को गुरू ने परमात्मा का नाम-मंत्र दे दिया, वही है सारी आत्मिक ताकतों में प्रवीण।3।

हे नानक! कह- जिस मनुष्य ने इस बखेड़ों भरे जगत में परमात्मा का नाम-खजाना पा लिया, मैं उस (मनुष्य) से बलिहार जाता हूँ।4।7।

कानड़ा महला ५ ॥ कीरति प्रभ की गाउ मेरी रसनां ॥ अनिक बार करि बंदन संतन ऊहां चरन गोबिंद जी के बसना ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक भांति करि दुआरु न पावउ ॥ होइ क्रिपालु त हरि हरि धिआवउ ॥१॥ कोटि करम करि देह न सोधा ॥ साधसंगति महि मनु परबोधा ॥२॥ त्रिसन न बूझी बहु रंग माइआ ॥ नामु लैत सरब सुख पाइआ ॥३॥ पारब्रहम जब भए दइआल ॥ कहु नानक तउ छूटे जंजाल ॥४॥३॥ {पन्ना 1298}

पद्अर्थ: कीरति = कीर्ति, सिफतसालाह। गाउ = गाया कर। रसनां = हे जीभ! करि = किया कर। बंदन = नमस्कार। ऊहां = वहाँ, संत जनों के हृदय में। बसना = बसते हैं।1। रहाउ।

अनिक भांति करि = अनेकों ढंग बरत के। न पावउ = मैं नहीं पा सकता। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ।1।

कोटि = करोड़ों। करम = मिथे हुए धार्मिक कर्म। करि = कर के। देह = शरीर। न सोधा = पवित्र नहीं होता, शुद्ध नहीं होता। परबोधा = (माया के मोह की नींद में से) जाग जाता है।2।

त्रिसन = प्यास, लालच। लैत = लेते हुए, सिमरते। सरब = सारे।3।

दइआल = दयावान। कहु = कह। जंजाल = माया के मोह के फंदे।4।

अर्थ: हे मेरी जीभ! परमात्मा की सिफतसालाह के गीत गाया कर। हे भाई! संत-जनों के चरणों पे अनेकों बार नमस्कार किया कर, संत-जनों के दिल में सदा परमात्मा के चरण बसते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! अनेकों ढंग इस्तेमाल करके भी मैं परमात्मा का दर नहीं ढूँढ सकता। अगर परमात्मा स्वयं ही दयावान होए तो मैं उसका ध्यान धर सकता हूँ।1।

हे भाई! (तीर्थ-यात्रा आदिक) करोड़ों ही (मिथे हुए धार्मिक) कर्म करके (मनुष्य का) शरीर पवित्र नहीं हो सकता। मनुष्य का मन साध-संगति में ही (माया के मोह की नींद में से) जागता है।2।

हे भाई! (करोड़ों कर्म करके भी इस) बहु-रंगी माया की तृष्णा नहीं मिटती। पर परमात्मा का नाम सिमरते हुए सारे सुख मिल जाते हैं।3।

हे नानक! कह- (हे भाई!) जब (किसी प्राणी पर) प्रभू जी दयावान होते हैं, तब (परमात्मा का नाम सिमर के उस मनुष्य की) माया के मोह के (सारे) फंदे टूट जाते हैं।4।3।

कानड़ा महला ५ ॥ ऐसी मांगु गोबिद ते ॥ टहल संतन की संगु साधू का हरि नामां जपि परम गते ॥१॥ रहाउ ॥ पूजा चरना ठाकुर सरना ॥ सोई कुसलु जु प्रभ जीउ करना ॥१॥ सफल होत इह दुरलभ देही ॥ जा कउ सतिगुरु मइआ करेही ॥२॥ अगिआन भरमु बिनसै दुख डेरा ॥ जा कै ह्रिदै बसहि गुर पैरा ॥३॥ साधसंगि रंगि प्रभु धिआइआ ॥ कहु नानक तिनि पूरा पाइआ ॥४॥४॥ {पन्ना 1298-1299}

पद्अर्थ: अैसी = इस तरह की (दाति)। ते = से। संगु साधू का = गुरू का साथ। जपि = जप के। परम गते = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।

पूजा = भगती, प्यार। कुसलु = सुख। जु = जो।1।

सफल = कामयाब। दुरलभ = बड़ी मुश्किल से मिलने वाली। देही = काया, मानस शरीर। जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। मइआ = दया, मेहर। करेही = करते हैं।

अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझी। भरमु = भटकना। दुख डेरा = दुखों का डेरा। जा कै ह्रिदै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। बसहि = बसते हैं।3।

रंगि = प्यार से। तिनि = उस (मनुष्य) ने। पूरा = पूरा प्रभू।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा से ऐसी (दाति) माँग (कि मुझे) संत जनों की टहल (करने का मौका मिलता रहे, मुझे) गुरू का साथ (मिला रहे, और) हरी-नाम जप के (मैं) सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था (प्राप्त कर सकूँ)।1। रहाउ।

(हे भाई! ये माँग प्रभू से मांग कि मैं) प्रभू-चरणों की भगती करता रहूँ, प्रभू की शरण पड़ा रहूँ (यह माँग कि) जो कुछ प्रभू जी करते हैं, उसको मैं सुख समझूँ।1।

हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरू जी कृपा करते हैं (वह मनुष्य परमात्मा से साध-संगति का मिलाप और हरी-नाम का सिमरन माँगता है, इस तरह) उसका ये दुर्लभ मनुष्य-जनम सफल हो जाता है।2।

हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में गुरू के चरण बसते हैं, उसके अंदर आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी दूर हो जाती है; सारे दुखों का डेरा ही उठ जाता है।3।

हे नानक! कह- (हे भाई!) जिस (मनुष्य) ने गुरू की संगति में (टिक के) प्यार से परमात्मा का सिमरन किया है, उसने उस पूरन परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है।4।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh