श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा महला ५ ॥ भगति भगतन हूं बनि आई ॥ तन मन गलत भए ठाकुर सिउ आपन लीए मिलाई ॥१॥ रहाउ ॥ गावनहारी गावै गीत ॥ ते उधरे बसे जिह चीत ॥१॥ पेखे बिंजन परोसनहारै ॥ जिह भोजनु कीनो ते त्रिपतारै ॥२॥ अनिक स्वांग काछे भेखधारी ॥ जैसो सा तैसो द्रिसटारी ॥३॥ कहन कहावन सगल जंजार ॥ नानक दास सचु करणी सार ॥४॥५॥ {पन्ना 1299}

पद्अर्थ: भगतन हूँ = भगतों को ही। बनि आई = फबती है। गलत = गलतान, मस्त। सिउ = से। आपन = अपने साथ।1। रहाउ।

गावनहारी = रिवाजी तौर पर गाने वाली दुनिया। ते = वे मनुष्य (बहुवचन)। जिह चीत = जिनके चिक्त में।1।

बिंजन = स्वादिष्ट खाने। परोसनहारै = परोसने वाले ने, और के आगे धरने वाले ने। त्रिपतारै = अघा जाता है, तृप्त हो जाता है।2।

काछै = (कांछित) मन बांछित। भेखधारी = स्वांग रचने वाला। सा = था। तैसो = वैसा ही। द्रिसटारी = दिखता है।3।

कहन कहावन = और और बातें कहनी कहलवानी। जंजार = जंजाल, माया के मोह के फंदों (के कारण)। सचु = सदा स्थिर हरी नाम सिमरन। सार = श्रेष्ठ। करणी = कर्तव्य।4।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की) भगती भक्त-जनों से ही हो सकती है। उनके तन उनके मन परमात्मा की याद में मस्त रहते हैं। उनको प्रभू अपने साथ मिलाए रखता है।1। रहाउ।

हे भाई! दुनिया रिवाजी तौर पर ही (सिफतसालाह के) गीत गाती है। पर संसार-समुंद्र से पार वही लांघते हैं, जिनके हृदय में बसते हैं।1।

हे भाई! औरों के आगे (खाना) परोसने वाले ने (तो सदा) स्वादिष्ट खाने देखे हैं, पर तृप्त वही हैं जिन्होंने वह खाए।2।

हे भाई! भेष धारी (स्वांग रचने वाला) मनुष्य (माया की खातिर) अनेकों मन-इच्छित स्वांग बनाता है, पर जैसा वह (असल में) है, वैसा ही (उनको) दिखता है (जो उसको जानते हैं)।3।

हे भाई! (हरी-नाम सिमरन के बिना) और-और बातें कहनी-कहलवानी- ये सारे प्रयास माया के मोह के फंदों के मूल हैं। हे दास नानक! परमात्मा का नाम सिमरना ही सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य है।4।5।

कानड़ा महला ५ ॥ तेरो जनु हरि जसु सुनत उमाहिओ ॥१॥ रहाउ ॥ मनहि प्रगासु पेखि प्रभ की सोभा जत कत पेखउ आहिओ ॥१॥ सभ ते परै परै ते ऊचा गहिर ग्मभीर अथाहिओ ॥२॥ ओति पोति मिलिओ भगतन कउ जन सिउ परदा लाहिओ ॥३॥ गुर प्रसादि गावै गुण नानक सहज समाधि समाहिओ ॥४॥६॥ {पन्ना 1299}

पद्अर्थ: जनु = दास, सेवक। जसु = सिफत सालाह। सुनत = सुनते हुए। उमाहिओ = उमाह में आ जाता है, प्रसन्न-चिक्त हो जाता है।1। रहाउ।

मनहि = मन में। प्रगासु = (आत्मिक जीवन की) रौशनी। पेखि = देख के। सोभा = वडिआई। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। पेखउ = मैं देखता हूं। आहिओ = मौजूद।1।

ते = से। ते ऊचा = (सबसे) ऊँचा। गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला।2।

ओति = उने हुए में। पोति = परोए हुए में। परदा = पर्दा, दूरी। लाहिओ = दूर कर दिया।3।

प्रसादि = कृपा से। सहल = आत्मिक अडोलता। समाहिओ = लीन रहता है।4।

अर्थ: हे प्रभू! तेरा सेवक तेरी सिफतसालाह सुनते हुए उमाह में आ जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! प्रभू की महिमा देख के (मेरे) मन में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है। मैं जिधर-किधर भी देखता हूँ, (मुझे वह हर तरफ) मौजूद (दिखाई देता) है।1।

हे भाई! परमात्मा सब जीवों से बड़ा और सब जीवों से ऊँचा है; गहरा (समुंद्र) है, बड़े जिगरे वाला है, उसकी थाह नहीं लगाई जा सकती।2।

हे भाई! (जैसे) ताने में पेटे में (धागा मिला हुआ होता है, वैसे) परमात्मा अपने भगतों को मिला हुआ होता है, हे भाई! अपने सेवकों से उसने ओहला (पर्दा) दूर किया होता है।3।

हे नानक! गुरू की कृपा से (जो मनुष्य परमात्मा के) गुण गाता रहता है वह आत्मिक अडोलता की समाधि में लीन रहता है।4।6।

कानड़ा महला ५ ॥ संतन पहि आपि उधारन आइओ ॥१॥ रहाउ ॥ दरसन भेटत होत पुनीता हरि हरि मंत्रु द्रिड़ाइओ ॥१॥ काटे रोग भए मन निरमल हरि हरि अउखधु खाइओ ॥२॥ असथित भए बसे सुख थाना बहुरि न कतहू धाइओ ॥३॥ संत प्रसादि तरे कुल लोगा नानक लिपत न माइओ ॥४॥७॥ {पन्ना 1299}

पद्अर्थ: पहि = पास, के हृदय में। उधारन = (जीवों को संसार समुंद्र से) पार लंघाने के लिए।1। रहाउ।

दरसन भेटत = (संत जनों का, गुरू का) दर्शन करते हुए। पुनीता = पवित्र, अच्छे जीवन वाला। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का करता है।1।

निरमल = साफ। अउखधु = दवाई।2।

असथित = अडोल चिक्त। सुख थाना = आत्मिक अडोलता में। बहुरि = दोबार, फिर। कतहू = कहीं भी। धाइओ = भटकता, दौड़ता।3।

संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। कुल लोगा = (उसकी) कुल के सारे लोग। लिपत न माइओ = माया में लिप्त नहीं होता, माया का प्रभाव नहीं पड़ता।4।

अर्थ: हे भाई! (जगत के जीवों को) विकारों से बचाने के लिए (परमात्मा) स्वयं संत-जनों के हृदय में बसता है।1। रहाउ।

हे भाई! (जीव गुरू का) दर्शन करते हुए पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, (गुरू उनके हृदय में) परमात्मा का नाम दृढ़ कर देता है।1।

हे भाई! (जो मनुष्य गुरू से) हरी-नाम की दवाई (ले के) खाते हैं (उनके) सारे रोग काटे जाते हैं; (उनके) मन पवित्र हो जाते हैं।2।

हे भाई! (गुरू से दवाई ले के खाने वाले मनुष्य) अडोल-चिक्त हो जाते हैं, आत्मिक आनंद में टिके रहते हैं, (इस आनंद को छोड़ के वे) दोबारा किसी और तरफ़ नहीं भटकते।3।

हे नानक! गुरू की कृपा से (नाम-दवाई खा के वे सिर्फ खुद ही नहीं तैरते, उनकी) कुल के लोग भी (संसार-समुंद्र से पार) लांघ जाते हैं, उन पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता।4।7।

कानड़ा महला ५ ॥ बिसरि गई सभ ताति पराई ॥ जब ते साधसंगति मोहि पाई ॥१॥ रहाउ ॥ ना को बैरी नही बिगाना सगल संगि हम कउ बनि आई ॥१॥ जो प्रभ कीनो सो भल मानिओ एह सुमति साधू ते पाई ॥२॥ सभ महि रवि रहिआ प्रभु एकै पेखि पेखि नानक बिगसाई ॥३॥८॥ {पन्ना 1299}

पद्अर्थ: बिसरि गई = भूल गई है। सभु = सारी। ताति = ईष्या, जलन। ताति पराई = दूसरों का सुख देख के अंदर अंदर से जलने की आदत। ते = से। जब ते = जब से। मोहि = मैं।1। रहाउ।

को = कोई (मनुष्य)। सगल संगि = सबके साथ। हम कउ बनि आई = मेरा प्यार बना हुआ है।1।

भल = भला, अच्छा। सुमति = अच्छी अकल। साधू ते = गुरू से।2।

रवि रहिआ = मौजूद है। पेखि = देख के। बिगसाई = मैं खुश होता हूँ।3।

अर्थ: हे भाई! जब से मैंने गुरू की संगति प्राप्त की है, (तब से) दूसरों का सुख देख के अंदर-अंदर से जलने की आदत भूल गई है।1। रहाउ।

हे भाई! (अब) मुझे कोई वैरी नहीं दिखता, कोई पराया नहीं दिखता; सबके साथ मेरा प्यार बना हुआ है।1।

हे भाई! (अब) जो कुछ परमात्मा करता है, मैं उसको (सब जीवों के लिए) भला मानता हूँ। ये सुमति मैंने (अपने) गुरू से सीखी है।2।

हे नानक! (कह- जब से साध-संगति मिली है, मुझे ऐसा दिखता है कि) एक परमात्मा ही सब जीवों में मौजूद है (तभी सबको) देख-देख के खुश होता हूँ।3।8।

कानड़ा महला ५ ॥ ठाकुर जीउ तुहारो परना ॥ मानु महतु तुम्हारै ऊपरि तुम्हरी ओट तुम्हारी सरना ॥१॥ रहाउ ॥ तुम्हरी आस भरोसा तुम्हरा तुमरा नामु रिदै लै धरना ॥ तुमरो बलु तुम संगि सुहेले जो जो कहहु सोई सोई करना ॥१॥ तुमरी दइआ मइआ सुखु पावउ होहु क्रिपाल त भउजलु तरना ॥ अभै दानु नामु हरि पाइओ सिरु डारिओ नानक संत चरना ॥२॥९॥ {पन्ना 1299}

पद्अर्थ: ठाकुर जीउ = हे प्रभू जी! परना = आसरा। महतु = महत्व, वडिआई।1। रहाउ।

रिदै = हृदय में। संगि = साथ। सुहेले = सुखी। कहहु = तुम कहते हो।1।

मइआ = कृपा, दया। पावउ = मैं पाता हूं। क्रिपाल = कृपालु, दयावान। त = तो। भउजलु = संसार समुंद्र। अभै दान = निर्भयता देने वाला। डारिओ = रख दिया है।2।

अर्थ: हे प्रभू जी! (मुझे) तेरा ही आसरा है। मुझे तेरे ऊपर ही माण है; फखर है, मुझे तेरी ही ओट है, मैं तेरी ही शरण आ पड़ा हूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू जी! मुझे तेरी ही आस है, तेरे ऊपर ही भरोसा है, मैंने तेरा ही नाम (अपने) हृदय में टिकाया हुआ है। मुझे तेरा ही ताण है, तेरे चरणों में मैं सुखी रहता हूँ। जो कुछ तू कहता है, मैं वही कुछ कर सकता हूँ।1।

हे प्रभू! तेरी मेहर से, तेरी कृपा से ही मैं सुख पाता हूँ। अगर तू दयावान हो, तो मैं इस संसार-समुंद्र को पार लांघ सकता हूँ। हे नानक! (कह- हे भाई!) निर्भयता का दान देने वाला, हरी-नाम मैंने (गुरू से) हासिल कर लिया है (इसलिए) मैंने अपना सिर गुरू के चरणों पर रखा हुआ है।2।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh