श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा महला ५ ॥ साजना संत आउ मेरै ॥१॥ रहाउ ॥ आनदा गुन गाइ मंगल कसमला मिटि जाहि परेरै ॥१॥ संत चरन धरउ माथै चांदना ग्रिहि होइ अंधेरै ॥२॥ संत प्रसादि कमलु बिगसै गोबिंद भजउ पेखि नेरै ॥३॥ प्रभ क्रिपा ते संत पाए वारि वारि नानक उह बेरै ॥४॥५॥१६॥ {पन्ना 1301}

पद्अर्थ: साजना = हे सज्जनो! संत = हे संतजनो! मेरै = मेरे घर में, मेरे पास।1। रहाउ।

गुन गाइ = (परमात्मा के) गुण गा के। मंगल = खुशियां। कसमला = पाप। मिटि जाहि = मिट जाते हैं। परेरै = दूर (हो जाते हैं)।1।

धरउ = मैं धरता हूँ। माथै = (अपने) माथे पर। चांदना = रौशनी। ग्रिहि अंधेरै = (मेरे) अंधेरे (हृदय) घर में। होइ = हो जाता है।2।

संत प्रसादि = संत जनों की कृपा से। कमलु = हृदय कमल फूल। बिगसै = खिल उठता है। भजउ = मैं भजता हूँ, मैं भजन करता हूँ। पेखि = देख के।3।

ते = से, के द्वारा। वारि वारि = बलिहार बलिहार (जाता हूँ)। उह बेरै = उस घड़ी (वक्त, महूरत) से।4।

अर्थ: हे संत जनो! हे सज्जनो! तुम मेरे घर आओ।1। रहाउ।

हे सज्जनो! (तुम्हारी संगति में परमात्मा के) गुण गा के (मेरे दिल में) आनंद पैदा हो जाता है, खुशियां बन जाती हैं, (मेरे अंदर से) सारे पाप मिट जाते हैं, दूर हो जाते हैं।1।

हे भाई! जब मैं संत जनों के चरण (अपने) माथे पर रखता हूँ, मेरे अंधकार भरे (हृदय-) घर में (आत्मिक-) रौशनी होती है।2।

हे भाई! संत जनों की कृपा से (मेरा हृदय-) कमल खिल उठता है, गोबिंद को (अपने) नजदीक देख के मैं उसका भजन करता हूँ।3।

हे नानक! ( कह- हे भाई! ) परमात्मा की मेहर से मैं संत जनों को मिला। मैं उस वक्त से ही सदा कुर्बान जाता हूँ (जब से संतों की संगति प्राप्त हुई)।4।5।16।

कानड़ा महला ५ ॥ चरन सरन गोपाल तेरी ॥ मोह मान धोह भरम राखि लीजै काटि बेरी ॥१॥ रहाउ ॥ बूडत संसार सागर ॥ उधरे हरि सिमरि रतनागर ॥१॥ सीतला हरि नामु तेरा ॥ पूरनो ठाकुर प्रभु मेरा ॥२॥ दीन दरद निवारि तारन ॥ हरि क्रिपा निधि पतित उधारन ॥३॥ कोटि जनम दूख करि पाइओ ॥ सुखी नानक गुरि नामु द्रिड़ाइओ ॥४॥६॥१७॥ {पन्ना 1301}

पद्अर्थ: गोपाल = (गो = सृष्टि) हे सृष्टि के पालनहार! धोह = ठॅगी। काटि बेरी = बेड़ी काट के।1। रहाउ।

बूडत = डूब रहे। सागर = समुंद्र। उधरे = बच जाते हैं। सिमरि = सिमर के। रतनागर = (रतन+आकर) रत्नों की खान प्रभू।1।

सीतला = शीतल, ठंडक देने वाला। पूरनो = सर्व व्यापक। ठाकुर = हे ठाकुर!।2।

दीन दरद = गरीबों के दुख। निवारि = दूर करके। तारन = पार लंघाने वाला। निधि = खजाना। पतित = विकारी। उधारन = बचाने वाला।1।

कोटि = करोड़ों। करि = सह के। पाइओ = (मनुष्य जनम) मिला। गुरि = गुरू ने। द्रिढ़ाइओ = (हृदय में) दृढ़ किया।4।

अर्थ: हे सृष्टि के पालनहार! मैं तेरे चरणों की शरण आया हूँ। (मेरे अंदर से) मोह, अहंकार, ठॅगी, भटकना (आदि के) फंदे काट के (मेरी) रक्षा कर।1। रहाउ।

हे रत्नों की खान हरी! संसार-समुंद्र में डूब रहे जीव (तेरा नाम) सिमर के बच निकलते हैं।1।

हे हरी! तेरा नाम (जीवों के हृदय को) ठंढक देने वाला है। हे ठाकुर! तू सर्व-व्यापक है, तू मेरा प्रभू है।2।

हे भाई! परमात्मा गरीबों का दुख दूर करके (उनको दुखों के समुंद्र में से) पार लंघाने वाला है। हे भाई! हरी दया का खजाना है, विकारियों को (विकारों से) बचाने वाला है।3।

हे नानक! (मनुष्य) करोड़ों जन्मों के दुख सह के (मनुष्य-जन्म) हासिल करता है, (पर) सुखी (वही) है (जिसके हृदय में) गुरू ने (परमात्मा का) नाम पक्का कर दिया है।4।6।17।

कानड़ा महला ५ ॥ धनि उह प्रीति चरन संगि लागी ॥ कोटि जाप ताप सुख पाए आइ मिले पूरन बडभागी ॥१॥ रहाउ ॥ मोहि अनाथु दासु जनु तेरा अवर ओट सगली मोहि तिआगी ॥ भोर भरम काटे प्रभ सिमरत गिआन अंजन मिलि सोवत जागी ॥१॥ तू अथाहु अति बडो सुआमी क्रिपा सिंधु पूरन रतनागी ॥ नानकु जाचकु हरि हरि नामु मांगै मसतकु आनि धरिओ प्रभ पागी ॥२॥७॥१८॥ {पन्ना 1301}

पद्अर्थ: धनि = धन्य, सराहनीय। संगि = साथ। कोटि = करोड़ों। आइ = आ के। बडभागी = बड़े भाग्यों से।1। रहाउ।

मोहि = मैं। अनाथु = निमाणा। अवर ओट = और आसरा। मोहि = मैं। भोर भरम = छोटे से छोटे भरम भी। अंजन = सुरमा। मिलि = मिल के।1।

अति बडो = बहुत बड़ा। क्रिपा निधि = कृपा का समुंद्र। रतनागी = (रतन+आकर) रत्नों की खान। जाचकु = मंगता। मांगै = माँगता है (एक वचन)। मसतकु = माथा। आनि = ला के (आइ = आ के)। प्रभ पागी = प्रभू के पगों (पैरों) में।2।

अर्थ: हे भाई! वह प्रीत धन्य है जो (परमात्मा के) चरणों में लगती है। (उस प्रीति की बरकति से, मानो) करोड़ों जपों-तपों के सुख प्राप्त हो जाते हैं, और पूरन प्रभू जी बहुत बड़े भाग्यों से आ मिलते हैं।1। रहाउ।

हे प्रभू! मैं तेरा दास हूँ तेरा सेवक हूँ, मुझे और कोई आसरा नहीं (तेरे बिना) मैं और सारी ओट छोड़ चुका हूँ। हे प्रभू! तेरा नाम सिमरते हुए तेरे साथ गहरी सांझ का सुरमा डाल के मेरे छोटे से छोटे भ्रम भी काटे गए हैं, (तेरे चरणों में) मिल के मैं (माया के मोह की नींद में) सोई जाग उठी हॅूँ।1।

हे स्वामी! तू एक बहुत बड़ा अथाह दया-का-सागर है, तू सर्व-व्यापक है, तू रत्नों की खान है। (तेरे दर का) मंगता नानक, हे हरी! तेरा नाम माँगता है, (नानक ने अपना) माथा, हे प्रभू! तेरे चरणों पर ला के रख दिया है।2।7।18।

कानड़ा महला ५ ॥ कुचिल कठोर कपट कामी ॥ जिउ जानहि तिउ तारि सुआमी ॥१॥ रहाउ ॥ तू समरथु सरनि जोगु तू राखहि अपनी कल धारि ॥१॥ जाप ताप नेम सुचि संजम नाही इन बिधे छुटकार ॥ गरत घोर अंध ते काढहु प्रभ नानक नदरि निहारि ॥२॥८॥१९॥ {पन्ना 1301}

पद्अर्थ: कुचिल = गंदे आचरण वाले। कठोर = निर्दई। कपट = ठॅगी करने वाले। कामी = विषई। जिउ जानहि = जिस भी ढंग से तू (पार लंघाना ठीक) जानता है। तिउ = उसी तरह। सुआमी = हे स्वामी!।1। रहाउ।

समरथु = सारी ताकतों का मालिक। सरनि जोगु = शरण आए की रक्षा करने योग्य। कल = सक्ता, कला, ताकत। धारि = धार के, बरत के।1।

जाप = देवताओं को वश में करने वाला मंत्र। ताप = धूणियों आदि से शरीर को कष्ट देने। सुचि = शारीरिक पवित्रता। संजम = इन्द्रियों को विकारों से बचाने के यत्न। इन बिधे = इन तरीकों से। छुटकार = (विकारों से) खलासी। गरत = (गर्त) गड्ढा। घोर अंध = घोर अंधेरा (जहाँ आत्मिक जीवन की सूझ की थोड़ी सी भी रौशनी ना मिले)। ते = से, में से। प्रभ = हे प्रभू! नदरि निहारि = मेहर भरी निगाह से देख के। निहारि = देख के।2।

अर्थ: हे स्वामी! हम जीव गंदे आचरण वाले और दयाहीन हैं, ठॅगी करने वाले हैं, विषई हैं। जिस भी तरीके से तू (जीवों को पार लंघाना ठीक) समझता है, उसी तरह (इन विकारों से) पार लंघा।1। रहाउ।

हे स्वामी! तू सारी ताकतों का मालिक है, तू शरण पड़े की रक्षा करने योग्य है, तू (जीवों को) अपनी ताकत बरत के बचाता (आ रहा) है।1।

हे नानक! (कह-) जप, तप, व्रत-नेम, शारीरिक पवित्रता, संजम - इन तरीकों से (विकारों से जीवों की) खलासी नहीं हो सकती। हे प्रभू! तू (स्वयं ही) मेहर की निगाह से देख के (विकारों के) घोर अंधकार भरे गड्ढे में से बाहर निकाल।2।8।19।

कानड़ा महला ५ घरु ४    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नाराइन नरपति नमसकारै ॥ ऐसे गुर कउ बलि बलि जाईऐ आपि मुकतु मोहि तारै ॥१॥ रहाउ ॥ कवन कवन कवन गुन कहीऐ अंतु नही कछु पारै ॥ लाख लाख लाख कई कोरै को है ऐसो बीचारै ॥१॥ बिसम बिसम बिसम ही भई है लाल गुलाल रंगारै ॥ कहु नानक संतन रसु आई है जिउ चाखि गूंगा मुसकारै ॥२॥१॥२०॥ {पन्ना 1301}

पद्अर्थ: नरपति = नरों का पति, बादशाह। नमस्कारै = नमस्कार करता रहता है, सिर झुकाता रहता है। कउ = से। बलि जाईअै = सदके जाना चाहिए। मुकतु = (दुनिया के बँधनों से) स्वतंत्र। मोहि = मुझे। तारै = (संसार = समुंद्र से) पार लंघाता है (पार लंघाने की समर्था रखता है)।1। रहाउ।

कवन कवन गुन = कौन कौन से गुण? कहीअै = बयान किए जाएं। पारै = परला छोर। कई कोरै = कई करोड़ों में। को है = कोई (विरला) है। अैसो = इस तरह। बीचारै = विचारता है।1।

बिसम = हैरान। भई है = हुआ जाता है। लाल गुलाल रंगारै = सुंदर प्रभू और सुंदर प्रभू के रंगों से। कहु = कह। नानक = हे नानक! रसु = (आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल का) स्वाद। आई है = आता है। चाखि = चख के। मुसकारै = मुस्करा देता है।2।

अर्थ: हे भाई! (प्रभू के बेअंत रंग देख-देख के जो गुरू) प्रभू-पातशाह को सदा सिर निवाता रहता है, जो (नाम की बरकति से) (दुनिया के बँधनों से) स्वयं निर्लिप है, और मुझे पार लंघाने की समर्थता रखता है, उस गुरू से सदा ही बलिहार जाना चाहिए।1। रहाउ।

हे भाई! लाखों लोगों में करोड़ों लोगों में से कोई विरला (ऐसा मनुष्य) होता है, जो ऐसा सोचता है कि परमात्मा के सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते, परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, परमात्मा के गुणों का परला छोर नहीं मिल सकता।1।

हे भाई! सोहाने प्रभू और सुंदर प्रभू के (आश्चर्यजनक) करिश्मों (को देख के) हैरान हो जाया जाता है। हे नानक! कह- संत जनों को (आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का) स्वाद आता है (पर, इस स्वाद को वे बयान नहीं कर सकते) जैसे (कोई) गूँगा मनुष्य (कोई स्वादिष्ट पदार्थ) चख के (सिर्फ) मुस्करा ही देता है (पर स्वाद को बयान नहीं कर सकता)।2।1।20।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh