श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1305 कानड़ा महला ५ ॥ ऐसी कउन बिधे दरसन परसना ॥१॥ रहाउ ॥ आस पिआस सफल मूरति उमगि हीउ तरसना ॥१॥ दीन लीन पिआस मीन संतना हरि संतना ॥ हरि संतना की रेन ॥ हीउ अरपि देन ॥ प्रभ भए है किरपेन ॥ मानु मोहु तिआगि छोडिओ तउ नानक हरि जीउ भेटना ॥२॥२॥३५॥ {पन्ना 1305} पद्अर्थ: बिधे = बिधि, तरीका, ढंग। परसना = (चरणों की) छोह।1। रहाउ। पिआस = तमन्ना। सफल मूरति = वह प्रभू जिसकी हस्ती (जीवों को सारे) फल देने वाली है। उमगि = उमंग में आ के। हीउ = हृदय।1। दीन = निमाणा। मीन = मछली। रेन = चरण धूल। अरपि देन = भेट कर लिया जाऐ। किरपेन = कृपालु। तिआगि छोडिओ = त्याग दिया। भेटना = मिलता है।2। अर्थ: हे भाई! (मुझे बता) ऐसा कौन सा तरीका है जिससे प्रभू के दर्शन (हो जाएं, प्रभू के चरणों की) छूह मिल जाए?।1। रहाउ। हे भाई! सब जीवों को मन-माँगी मुरादें देने वाले प्रभू के दर्शनों की मेरी तमन्ना है इन्तजार है। उमंग में मेरा दिल (दर्शनों के लिए) तरस रहा है।1। (उक्तर:) अगर निमाणे हो के संत जनों के चरणों पर गिर जाएं (यदि प्रभू के दर्शनों की इतनी चाहत हो, जैसे) मछली को (पानी की) प्यास होती है, यदि संत-जनों के चरणों की धूड़ की खातिर अपना हृदय (भी) भेट कर दें, तो, हे भाई! प्रभू दयावान होता है। हे नानक! (जब किसी ने अपने अंदर से) अहंकार और मोह त्याग दिया, तब (उस को) प्रभू जी मिल जाते हैं।2।2।35। कानड़ा महला ५ ॥ रंगा रंग रंगन के रंगा ॥ कीट हसत पूरन सभ संगा ॥१॥ रहाउ ॥ बरत नेम तीरथ सहित गंगा ॥ जलु हेवत भूख अरु नंगा ॥ पूजाचार करत मेलंगा ॥ चक्र करम तिलक खाटंगा ॥ दरसनु भेटे बिनु सतसंगा ॥१॥ हठि निग्रहि अति रहत बिटंगा ॥ हउ रोगु बिआपै चुकै न भंगा ॥ काम क्रोध अति त्रिसन जरंगा ॥ सो मुकतु नानक जिसु सतिगुरु चंगा ॥२॥३॥३६॥ {पन्ना 1305} पद्अर्थ: कीट = कीड़ा। हसत = हाथी। पूरन = व्यापक।1। रहाउ। सहित = समेत। हेवत = बर्फ। अरु = और। पूजाचार = पूजा+आचार, पूजा आदि के कर्म। मेलंगा = अंगों को मेल के, आसन जमा के। खाटंगा = खट अंगों पर, (दोनों लातें, दोनों बाँहें, छाती, सिर) इन छह अंगों पर। दरसनु सत संगा = साध-संगति का दर्शन।1। हठि = हठ से। निग्रहि = इन्द्रियों को रोकने के यत्न से। बिटंगा = टांगों के बिना, सिर के भार, सिर बल। हउ रोगु = अहंकार का रोग। बिआपै = जोर डाल लेता है। चुकै न = खत्म नहीं होता। भंगा = तोट, कमी, दूरी। त्रिसन = तृष्णा। जरंगा = जलते हैं अंग। मुकतु = (विकारों से) स्वतंत्र।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा (इस जगत-तमाशे में) अनेकों ही रंगों में (बस रहा है) कीड़ी से लेकर हाथी तक सबके साथ बसता है।1। रहाउ। हे भाई! (उस परमात्मा के दर्शन करने के लिए) कोई व्रत नेम रख रहा है, कोई गंगा समेत सारे तीर्थों का स्नान करता है; कोई (ठंडे) पानी और बर्फ (की ठंढ सह रहा है), कोई भूख काटता है कोई नंगा रहता है; कोई आसन जमा के पूजा आदि कर्म करता है; कोई अपने शरीर के छह अंगों पर चक्र-तिलक आदि लगाने के कर्म करता है। पर, साध-संगति के दर्शन किए बिना (ये सारे कर्म व्यर्थ हैं)। हे भाई! (अनेकों रंगों में व्यापक उस प्रभू के दर्शन करने के लिए) कोई मनुष्य हठ से इन्द्रियों को रोकने के यतन से सिर के बल होया हुआ है। (पर इस तरह बल्कि) अहंकार का रोग (मनुष्य पर अपना) जोर डाल लेता है, (उसके अंदर से आत्मिक जीवन की) कमी खत्म नहीं होती, काम-क्रोध-तृष्णा (की आग) में जलता रहता है। हे नानक! (काम-क्रोध-तृष्णा से) वह मनुष्य बचा रहता है जिसको सोहाना गुरू मिल जाता है।2।36। कानड़ा महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तिख बूझि गई गई मिलि साध जना ॥ पंच भागे चोर सहजे सुखैनो हरे गुन गावती गावती गावती दरस पिआरि ॥१॥ रहाउ ॥ जैसी करी प्रभ मो सिउ मो सिउ ऐसी हउ कैसे करउ ॥ हीउ तुम्हारे बलि बले बलि बले बलि गई ॥१॥ पहिले पै संत पाइ धिआइ धिआइ प्रीति लाइ ॥ प्रभ थानु तेरो केहरो जितु जंतन करि बीचारु ॥ अनिक दास कीरति करहि तुहारी ॥ सोई मिलिओ जो भावतो जन नानक ठाकुर रहिओ समाइ ॥ एक तूही तूही तूही ॥२॥१॥३७॥ {पन्ना 1305} पद्अर्थ: तिख = तृष्णा, माया की प्यास। मिलि = मिल के। पंच चोर = (आत्मिक जीवन के सरमाए चुराने वाले कामादिक) पाँच चोर। हरे गुन = हरी के गुण। सहजे सुखैनो = बड़ी आसानी से। दरस पिआरि = दर्शन के प्यार में।1। रहाउ। मो सिउ = मुझसे, मेरे साथ। हउ = मैं। करउ = मैं करूँ। हीओु = हृदय (असल शब्द 'हीउ' है यहां 'हीओ' पढ़ना है)। बलि बले = कुर्बान।1। पै = पड़ कर। संत पाइ = संत जनों के पैरों पर। धिआइ = (तेरा नाम) सिमर के। केहरो = कौन सा? जितु = जिस (जगह) में। कीरति = सिफतसालाह। करहि = करते हैं (बहुवचन)। भावतो = प्यारा लगता है। ठाकुर = हे ठाकुर! रहिओ समाइ = व्यापक है।2। अर्थ: हे भाई! संत जनों को मिल के (मेरे अंदर से माया की) तृष्णा बिल्कुल ही समाप्त हो गई है। प्रभू के दर्शनों की तमन्ना में प्रभू के गुण गाते-गाते बड़ी ही आसानी से (कामादिक) पाँचों चोर (मेरे अंदर से) भाग गए हैं।1। रहाउ। हे प्रभू! जिस तरह की मेहर तूने मेरे ऊपर की है (उसके बदले में मैं) वैसी ही (तेरी सेवा) मैं कैसे कर सकता हूँ? हे प्रभू! मेरा दिल तुझसे सदके जाता है, कुर्बान जाता है।1। हे प्रभू! पहले (तेरे) संत-जनों के पैरों में पड़ कर (और, तेरा नाम) सिमर-सिमर के मैंने (तेरे संग) प्रीति बनाई है। हे प्रभू! तेरी वह जगह बहुत ही आश्चर्यजनक होगी जहाँ (बैठ के) तू (सारे) जीवों की संभाल करता है। तेरे अनेकों ही दास तेरी सिफत-सालाह करते रहते हैं। हे दास नानक! (कह-) हे ठाकुर! तुझे वही (दास) मिल सका है जो तुझे प्यारा लगा। हे ठाकुर! तू हर जगह व्यापक है, हर जगह सिर्फ तू ही है।2।1।37। कानड़ा महला ५ घरु ८ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तिआगीऐ गुमानु मानु पेखता दइआल लाल हां हां मन चरन रेन ॥१॥ रहाउ ॥ हरि संत मंत गुपाल गिआन धिआन ॥१॥ हिरदै गोबिंद गाइ चरन कमल प्रीति लाइ दीन दइआल मोहना ॥ क्रिपाल दइआ मइआ धारि ॥ नानकु मागै नामु दानु ॥ तजि मोहु भरमु सगल अभिमानु ॥२॥१॥३८॥ {पन्ना 1305} पद्अर्थ: तिआगीअै = त्याग देना चाहिए। पेखता = देख रहा है। दइआल = दया का घर प्रभू। हां हां मन = हे मन! रेन = धूल।1। रहाउ। मंत = उपदेश। गिआन = गहरी सांझ। धिआन = सुरति।1। हिरदै = हृदय में। लाइ = जोड़े रख। मोहना = मन को मोह लेने वाला प्रभू। क्रिपाल = हे कृपालु! मइआ धारि = मेहर कर। नानकु मागै = नानक माँगता है। तजि = त्याग के। भरमु = भटकना।2। अर्थ: हे भाई! (अपने अंदर से) गुमान-अहंकार दूर कर लेना चाहिए। दया-का-घर सुंदर प्रभू (हमारे हरेक काम को) देख रहा है। हे मन! (सबके) चरणों की धूड़ (बना रह)।1। रहाउ। हे भाई! हरी-गोपाल के संत जनों के उपदेश की गहरी विचार में सुरति जोड़े रख।1। हे भाई! गोबिंद के गुण (अपने) दिल में (सदा) गाया कर, दीनों पर दया करने वाले मोहन प्रभू के सुंदर चरणों से प्रीति बनाए रख। हे कृपा के श्रोत प्रभू! (मेरे पर सदा) मेहर कर (तेरा दास) नानक (अपने अंदर से) मोह-भ्रम और गुमान दूर कर के (तेरे दर से तेरा) नाम-दान माँगता है।2।1।38। कानड़ा महला ५ ॥ प्रभ कहन मलन दहन लहन गुर मिले आन नही उपाउ ॥१॥ रहाउ ॥ तटन खटन जटन होमन नाही डंडधार सुआउ ॥१॥ जतन भांतन तपन भ्रमन अनिक कथन कथते नही थाह पाई ठाउ ॥ सोधि सगर सोधना सुखु नानका भजु नाउ ॥२॥२॥३९॥ {पन्ना 1305-1306} पद्अर्थ: प्रभ कहन = प्रभू की सिफतसालाह। मलन दहन = (विकारों की) मैल को जलाने के समर्थ (सिफतसालाह)। लहन = प्राप्ति। गुर मिलै = गुरू को मिल के। आन = अन्य, कोई और। उपाउ = तरीका, उपाय, ढंग।1। रहाउ। तटन = (तट = तीथ। का किनारा) तीर्थ स्नान। खटन = (खट = छे) रोजाना छह कर्मों का अभ्यास (दान लेना और देना, विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करना और कराना)। जटन = जटाएं सिर पर धारण करनी। होमन = हवन यज्ञ करने। डंड धार = डंडा धारी जोगी बनना। सुआउ = स्वार्थ, प्रयोजन।1। भांतन = अनेकों भांति के। तपन = तप साधने। भ्रमन = धरती पर भ्रमण करना। कथते = कहते हुए। थाह = गहराई। ठाउ = जगह। सोधि = सोध के, विचार के। सोधना = विचारें। सगर = सगल, सारी। भजु नाउ = नाम सिमरा कर।2। अर्थ: हे भाई! गुरू को मिल के (ही, विकारों की) मैल को जलाने की समर्था वाली प्रभू की सिफत-सालाह प्राप्त होती है। और कोई तरीका (इसकी प्राप्ति का) नहीं है।1। रहाउ। हे भाई! तीर्थों के स्नान, ब्राहमणों वाले छह कर्मों का रोजाना अभ्यास, जटाएं धारण करनी, हवन-यज्ञ करने, डंडा-धारी जोगी बनना - (मेरा इन कामों से कोई) वास्ता नहीं।1। हे भाई! (धूणियां आदि तपा के) तप करने, धरती का भ्रमण करते रहना- इस तरह के अनेकों किस्मों के यतन करने से, अनेकों व्याख्यान करने से (परमात्मा के गुणों की) गहराई को नहीं पाया जा सकता, (सुख-शांति की अथाह सीमा को) नहीं आँका जा सकता। हे नानक! सारी विचारें विचार के (यही बात स्पष्ट हुई है कि) परमात्मा का नाम सिमरा करो (इसी में ही) आनंद है।2।2।39। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |