श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1306 कानड़ा महला ५ घरु ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पतित पावनु भगति बछलु भै हरन तारन तरन ॥१॥ रहाउ ॥ नैन तिपते दरसु पेखि जसु तोखि सुनत करन ॥१॥ प्रान नाथ अनाथ दाते दीन गोबिद सरन ॥ आस पूरन दुख बिनासन गही ओट नानक हरि चरन ॥२॥१॥४०॥ {पन्ना 1306} पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पतित पावनु = विकारियों को पवित्र करने वाला। भगति वछलु = भगती से प्यार करने वाला। भै हरन = सारे डर दूर करने वाला। तरन = बेड़ी, जहाज़। तारन तरन = (जीवों को संसार समुंद्र से) पार लंघाने के जहाज।1। रहाउ। नैन = आँखें। तिपते = तृप्त हो जाते हैं। पेखि = देख के। सुनत = सुनते हुए। करन = कान। तोखि = संतोखे जाते हैं, शांति हासिल करते हैं।1। प्रान नाथ = हे (जीवों के) प्राणों के नाथ! अनाथ नाथे = हे अनाथों के दातार! दीन दाते = हे दीनों के दातार! आस पूरन = हे (सबकी) आशाएं पूरी करने वाले! गही = पकड़ी है। हरि = हे हरी!।2। अर्थ: हे प्रभू! तू विकारियों को पवित्र करने वाला है, तू भगती-भाव से प्यार करने वाला है, तू (जीवों के सारे) डर दूर करने वाला है, तू (जीवन को संसार-समुंद्र से) पार लंघाने के लिए जहाज है।1। हे प्रभू! तेरे दर्शन करके (मेरी) आँखें तृप्त हो जाती हैं, मेरे कान तेरा यश सुन के ठंडक हासिल करते हैं।1। हे (जीवों के) प्राणों के नाथ! हे अनाथों के दाते! हे दीनों के दाते! हे गोबिंद! मैं तेरी शरण आया हूँ। हे नानक! (कह-) हे हरी! हे (सब जीवों की) आशाएं पूरी करने वाले! हे (सबके) दुख नाश करने वाले! मैंने तेरे चरणों की ओट ली है।2।1।40। कानड़ा महला ५ ॥ चरन सरन दइआल ठाकुर आन नाही जाइ ॥ पतित पावन बिरदु सुआमी उधरते हरि धिआइ ॥१॥ रहाउ ॥ सैसार गार बिकार सागर पतित मोह मान अंध ॥ बिकल माइआ संगि धंध ॥ करु गहे प्रभ आपि काढहु राखि लेहु गोबिंद राइ ॥१॥ अनाथ नाथ सनाथ संतन कोटि पाप बिनास ॥ मनि दरसनै की पिआस ॥ प्रभ पूरन गुनतास ॥ क्रिपाल दइआल गुपाल नानक हरि रसना गुन गाइ ॥२॥२॥४१॥ {पन्ना 1306} पद्अर्थ: दइआल ठाकुर = हे दया के घर मालिक प्रभू! आन = अन्य, और। जाइ = जगह। पतित पावन = विकारियों को पवित्र करने वाला। बिरदु = आदि कदीमी स्वभाव। सुआमी = हे स्वामी! उधरते = (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं। धिआइ = सिमर के।1। रहाउ। गार = जिल्लण, गारा। सागर = समुंद्र। पतित = गिरे हुए। अंध = अंधा, जिसको जीवन का सही रास्ता नहीं दिख सकता। बिकल = व्याकुल, घबराए हुए। संगि = साथ। माइआ धंध = माया के धंधे। करु = हाथ। गहे = पकड़ के। गोबिंद राऐ = हे प्रभू पातशाह!।1। अनाथ नाथ = हे अनाथों के नाथ! सनाथ संतन = हे संतों के सहारे! कोटि = करोड़ों। मनि = (मेरे) मन में। पिआस = प्यास, तमन्ना। गुन तास = हे गुणों के खजाने! क्रिपाल = हे कृपा के घर। रसना = जीभ।2। अर्थ: हे दया-के-घर ठाकुर प्रभू! (मैं तेरे) चरणों की शरण (आया हूँ। दुनिया के विकारों से बचने के लिए तेरे बिना) और कोई जगह नहीं। हे स्वामी! विकारियों को पवित्र करना तेरा आदि-कदीमी स्वभाव है। हे हरी! तेरा नाम सिमर-सिमर के (अनेकों जीव संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं।1। रहाउ। हे प्रभू पातशाह! जगत विकारों की गार है, विकारों का समुंद्र है, माया के मोह और गुमान से अंधे हुए जीव (इसमें) गिरे रहते हैं, माया के झमेलों से व्याकुल हुए रहते हैं। हे प्रभू! (इनका) हाथ पकड़ के तू खुद (इनको इस कीचड़ में से) निकाल, तू स्वयं (इनकी) रक्षा कर।1। हे अनाथों के नाथ! हे संतों के सहारे! हे (जीवों के) करोड़ों पाप नाश करने वाले! (मेरे) मन में (तेरे) दर्शनों की तमन्ना है। हे पूरन प्रभू! हे गुणों के खजाने! हे कृपालु! हे दयालु! हे गोपाल! हे हरी! (मेहर कर) नानक की जीभ (तेरे) गुण गाती रहे।2।2।41। कानड़ा महला ५ ॥ वारि वारउ अनिक डारउ ॥ सुखु प्रिअ सुहाग पलक रात ॥१॥ रहाउ ॥ कनिक मंदर पाट सेज सखी मोहि नाहि इन सिउ तात ॥१॥ मुकत लाल अनिक भोग बिनु नाम नानक हात ॥ रूखो भोजनु भूमि सैन सखी प्रिअ संगि सूखि बिहात ॥२॥३॥४२॥ {पन्ना 1306} पद्अर्थ: वारि डारि = वारि डारउ, मैं सदके करती हूँ। वारउ = मैं वारती हूँ। अनिक = अनेकों (और सुख)। प्रिअ सुहाग रात = प्यार के सोहाग की रात। सुख पलक = पल भर का सुख।1। रहाउ। कनिक = सोना। कनिक मंदर = सोने के महल। पाट = रेशम, पॅट। पाट सेज = रेशम की सेज। सखी = हे सखी! मोहि = मुझे। तात = प्रयोजन।1। मुकत = मोती। हात = (आत्मिक) मौत। सैन = सोना। प्रिअ संगि = प्यारे के साथ। सूखि = सुख में। बिहाति = (उम्र) गुजारती है।2। अर्थ: हे सखी! (पतिव्रता स्त्री की तरह) मैं प्यारे प्रभू-पति के सोहाग की रात के सुख से (और) अनेकों (सुख) वारती हूँ, सदके रहती हूँ।1। रहाउ। हे सहेलिए! सोने के महल और रेशमी कपड़ों की सेज- इनके साथ मुझे कोई लगन नहीं है।1। हे नानक! मोती, हीरे (मायावी पदार्थों के) अनेकों भोग परमात्मा के नाम के बिना (आत्मिक) मौत (का कारण) हैं। (इसलिए) हे सहेलिए! रूखी रोटी (खानी और) जमीन पर सोना (अच्छा है क्योंकि) प्यारे, प्रभू की संगति में जिंदगी सुख में बीतती है।2।3।42। कानड़ा महला ५ ॥ अहं तोरो मुखु जोरो ॥ गुरु गुरु करत मनु लोरो ॥ प्रिअ प्रीति पिआरो मोरो ॥१॥ रहाउ ॥ ग्रिहि सेज सुहावी आगनि चैना तोरो री तोरो पंच दूतन सिउ संगु तोरो ॥१॥ आइ न जाइ बसे निज आसनि ऊंध कमल बिगसोरो ॥ छुटकी हउमै सोरो ॥ गाइओ री गाइओ प्रभ नानक गुनी गहेरो ॥२॥४॥४३॥ {पन्ना 1306} पद्अर्थ: अहं = अहंकार। तोरो = तोड़ो, नाश कर दो। जोरो = जोड़ो। मुखु जोरो = (सत्संगियों से) मुँह जोड़ो, संगति में मिल बैठा कर। करत = करते हुए। गुरु गुरु करत = गुरू गुरू करते हुए, गुरू को हृदय में बसाते हुए। लोरो = लोड़, तलाश, खोज। मनु लोरो = मन को खोजा करो। मोरो = मोड़ो, सुरति पलटा कर। प्रिअ प्रीति = प्यारे की प्रीति (की ओर)।1। रहाउ। ग्रिहि = (हृदय-) घर में। सुहावी = सुख देने वाली, सुंदर। आगनि = आंगन में, (हृदय-) आँगन में। चैना = चैन, शांति। तोरो = तोड़। री = हे सखी! सिउ = साथ। संगु = साथ।1। आइ न जाइ = न आए ना जाए, ना आता है ना जाता है, भटकता नहीं। निज आसनि = अपने आसन पर। ऊंध = (प्रभू से) उल्टा हुआ। कमल = (हृदय-) कमल फूल। बिगसोरो = खिल उठता है। सोरो = शोर। री = हे सखी! गाइओ = (जिस ने) गाया। गुनी गहेरो = गुणों का खजाना।2। अर्थ: हे सखी! (साध-संगति में) मिल के बैठा कर (साध-संगति की बरकत से अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर। हे सहेली! गुरू को हर वक्त अपने अंदर बसाते हुए (अपने) मन को खोजा कर, (इस तरह अपने मन को) प्यारे प्रभू की प्रीति की ओर पल्टाया कर।1। रहाउ। हे सहेली! (साध-संगति में मन की खोज और प्रभू की प्रीति की सहायता से अपने अंदर से) (कामादिक) पाँच-वैरियों से (अपना) साथ तोड़ने का सदा यतन किया कर, (इस तरह तेरे) हृदय-घर में (प्रभू-मिलाप की) सुंदर सेज बन जाएगी, तेरे (हृदय के) आँगन में शांति आ टिकेगी।1। हे नानक! (कह- ) हे सखी! जिस जीव-स्त्री ने गुणों के खजाने प्रभू की सिफतसालाह के गीत गाने शुरू कर दिए, (उसके अंदर से) अहंकार का शोर खत्म हो गया, उसका (प्रभू से) पल्टा हुआ हृदय-कमल-फूल (सीधा हो के, प्रभू की ओर मुख कर के) खिल उठता है, वह सदा अपने आसन पर बैठी रहती है (अडोल-चिक्त रहती है), उसकी भटकना समाप्त हो जाती है।2।4।43। कानड़ा मः ५ घरु ९ ॥ तां ते जापि मना हरि जापि ॥ जो संत बेद कहत पंथु गाखरो मोह मगन अहं ताप ॥ रहाउ ॥ जो राते माते संगि बपुरी माइआ मोह संताप ॥१॥ नामु जपत सोऊ जनु उधरै जिसहि उधारहु आप ॥ बिनसि जाइ मोह भै भरमा नानक संत प्रताप ॥२॥५॥४४॥ {पन्ना 1306} पद्अर्थ: तां ते = इस वास्ते। मना = हे मन! जापि = जपा कर। संत बेद = गुरू के बचन। पंथु = (जिंदगी का) रास्ता। गाखरो = मुश्किल, कठिन। मगन = मस्त। अहं = अहंकार। रहाउ। राते = रंगे हुए। माते = मस्त। संगि माइआ = माया के साथ। बपुरी = बेचारी। संताप = कलेश।1। जपत = जपते हुए। जिसहि = जिस को ('जिसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। उधारहु = पार लंघाता है। भै = (सारे) डर। संत प्रताप = गुरू के प्रताप से।2। अर्थ: हे (मेरे) मन! (अगर अहंकार के ताप से बचना है) तो परमात्मा का नाम जपा कर, सदा जपा कर, यही उपदेश गुरू के बचन करते हैं। (नाम जपे बिना जिंदगी का) रास्ता बहुत मुश्किल है (इसके बिना) मोह में डूबे रहा जाता है, अहंकार का ताप चढ़ा रहता है। रहाउ। हे मन! जो मनुष्य बुरी माया के साथ रति-मस्त रहते हैं, उनको (माया के) मोह के कारण (अनेकों) दुख-कलेश व्यापते हैं।1। हे प्रभू! जिस (मनुष्य) को तू स्वयं (संसार-समुंद्र से) पार लंघाता है, वह मनुष्य (तेरा) नाम जपते हुए पार लांघाता है। हे नानक! गुरू के प्रताप से (मनुष्य के अंदर से माया का) मोह दूर हो जाता है, सारे डर मिट जाते हैं, भटकना समाप्त हो जाती है।2।5।44। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |