श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा महला ५ घरु १०    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ऐसो दानु देहु जी संतहु जात जीउ बलिहारि ॥ मान मोही पंच दोही उरझि निकटि बसिओ ताकी सरनि साधूआ दूत संगु निवारि ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि जनम जोनि भ्रमिओ हारि परिओ दुआरि ॥१॥ किरपा गोबिंद भई मिलिओ नामु अधारु ॥ दुलभ जनमु सफलु नानक भव उतारि पारि ॥२॥१॥४५॥ {पन्ना 1307}

पद्अर्थ: दानु = (नाम की) दाति। संतहु = हे संत जनों! जात = जाती है। जीउ = जिंद। बलिहारि = सदके, कुर्बान। मान = अहंकार। पंच = (कामादिक) पाँच (चोर)। दोही = ठॅगी हुई। उरझि = (कामादिक में) फस के। निकटि = (इन कामादिकों के) नजदीक। ताकी = (अब) देखी है। साधूआ = संत जनों की। दूत संगु = (कामादिक) वैरियों का साथ। निवारि = दूर करो।1। रहाउ।

कोटि = करोड़ों। भ्रमिओ = भटकता फिरा। दुआरि = (तुम्हारे) दर पे।1।

अधारु = आसरा। दुलभ = मुश्किल से मिलने वाला। सफलु = कामयाब। भव = संसार समुंद्र।2।

अर्थ: हे संत जनों! मुझे इस तरह का दान दो (जो पाँचों कामादिक वैरियों से बचा के रखे, मेरी) जिंद (नाम की दाति से) सदके जाती है। (ये जिंद) अहंकार में मस्त रहती है, (कामादिक) पाँच (चोरों के हाथों) ठॅगी जाती है, (उन कामादिकों में ही) फंस के (उनके ही) नजदीक टिकी रहती है। मैंने (इनसे बचने के लिए) संत जनों की शरण ताकी है। (हे संत जनो! मेरा इन कामादिक) वैरियों वाला साथ दूर करो।1। रहाउ।

हे संत जनों! (कामादिक पाँचों वैरियों के प्रभाव तले रह के मनुष्य की जिंद) करोड़ों जन्मों-जूनियों में भटकती रहती है। (हे संत जनो!) मैं और आसरे छोड़ के तुम्हारे द्वारे आया हूँ।1।

हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, उसको (कामादिक वैरियों का मुकाबला करने के लिए परमात्मा का) नाम-आसरा मिल जाता है, उसका ये दुर्लभ (मानस) जनम सफल हो जाता है। हे नानक! (प्रभू चरणों में अरदास करके कह- हे प्रभू! मुझे अपने नाम का आसरा दे के) संसार-समुंद्र से पार लंघा ले।2।1।45।

कानड़ा महला ५ घरु ११    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सहज सुभाए आपन आए ॥ कछू न जानौ कछू दिखाए ॥ प्रभु मिलिओ सुख बाले भोले ॥१॥ रहाउ ॥ संजोगि मिलाए साध संगाए ॥ कतहू न जाए घरहि बसाए ॥ गुन निधानु प्रगटिओ इह चोलै ॥१॥ चरन लुभाए आन तजाए ॥ थान थनाए सरब समाए ॥ रसकि रसकि नानकु गुन बोलै ॥२॥१॥४६॥ {पन्ना 1307}

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। सुभाऐ = प्यार से, प्यार के प्रेरे हुए। आपन = आपने आप। जानौ = मैं जानता। न कछू जानौ (न) कछू दिखाऐ = ना मैं कुछ जानता हूँ, ना मैंने कुछ दिखाया है (ना मेरी मति-बुद्धि ऊँची है, ना मेरी करणी ऊँची है)। बाले भोले = भोले बालक को।1। रहाउ।

संजोगि = संजोग ने। साध संगाऐ = साध-संगति में। कतहू = किसी भी और तरफ। घरहि = घर में ही। गुन निधानु = गुणों का खजाना प्रभू। इह चोलै = इस शरीर में।1।

लुभाऐ = लुभा लिए, आकर्षित कर लिया। आन = अन्य, और (प्यारे, आसरे)। तजाऐ = छोड़ दिए हें। थान थनाऐ = स्थान स्थान में, हरेक जगह में। सरब = सबमें। रसकि = स्वाद से, आनंद से।2।

अर्थ: हे भाई! (किसी) आत्मिक अडोलता वाले प्यार की प्रेरणा से (प्रभू जी) अपने आप ही (मुझे) आ मिले हैं, मैं तो ना-कुछ जानता-बूझता हूँ, ना मैं कोई अच्छी करणी दिखा सका हूँ। मुझे भोले बालक को, सुखों का मालिक प्रभू (स्वयं ही) आ मिला है।1। रहाउ।

हे भाई! (किसी बीते हुए वक्त के) संजोग ने (मुझे) साध-संगति में मिला दिया, (अब मेरा मन) किसी भी और तरफ नहीं जाता, (हृदय-) घर में ही टिका रहता है। (मेरे इस शरीर में गुणों का खजाना प्रभू प्रकट हो गया है)।1।

हे भाई! (प्रभू के) चरणों ने (मुझे अपनी ओर) आकर्षित कर लिया है, मुझसे अन्य सारे मोह-प्यार छुड़वा लिए हैं, (अब मुझे ऐसा दिखाई देता है कि वह प्रभू) हरेक जगह में सब में बस रहा है। (अब उसका दास) नानक बड़े आनंद से उसके गुण उचारता रहता है।2।1।46।

कानड़ा महला ५ ॥ गोबिंद ठाकुर मिलन दुराईं ॥ परमिति रूपु अगम अगोचर रहिओ सरब समाई ॥१॥ रहाउ ॥ कहनि भवनि नाही पाइओ पाइओ अनिक उकति चतुराई ॥१॥ जतन जतन अनिक उपाव रे तउ मिलिओ जउ किरपाई ॥ प्रभू दइआर क्रिपार क्रिपा निधि जन नानक संत रेनाई ॥२॥२॥४७॥ {पन्ना 1307}

पद्अर्थ: दुराईं = कठिन, मुश्किल। परमिति = मिति से परे, अंदाजे से परे, जिसकी हस्ती का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। अगंम = अपहुँच। अगोचर = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके।1। रहाउ।

कहनि = कहने से, (सिर्फ) जुबानी बातें करने से। भवणि = भ्रमण से, तीर्थ यात्रा आदि करने से। उकति = दलील, युक्ति।1।

उपाव = (शब्द 'उपाउ' का बहुवचन) उपाय। रे = हे भाई! तउ = तब। जउ = जब। दइआर = दयाल। क्रिपार = कृपाल। क्रिपानिधि = कृपा का खजाना। रेनाई = चरण धूल।2।

अर्थ: हे भाई! गोबिंद को ठाकुर को मिलना बहुत मुश्किल है। वह परमात्मा (वैसे तो) सबमें समाया हुआ है (पर) उसका स्वरूप अंदाजे से परे है, वह अपहुँच है, उस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।1। रहाउ।

हे भाई! (निरी ज्ञान की) बातें करने से, (तीर्थ आदि पर) भ्रमण से परमात्मा नहीं मिलता, अनेकों युक्तियों और चतुराईयों से भी नहीं मिलता।1।

हे भाई! अनेकों यतन और अनेकों तरीकों से भी परमात्मा नहीं मिलता। वह तब ही मिलता है जब उसकी अपनी कृपा होती है। हे दास नानक! दयाल, कृपाल, कृपा के खजाना प्रभू संत जनों की चरण-धूल में रहने से मिलता है।2।2।47।

कानड़ा महला ५ ॥ माई सिमरत राम राम राम ॥ प्रभ बिना नाही होरु ॥ चितवउ चरनारबिंद सासन निसि भोर ॥१॥ रहाउ ॥ लाइ प्रीति कीन आपन तूटत नही जोरु ॥ प्रान मनु धनु सरबसुो हरि गुन निधे सुख मोर ॥१॥ ईत ऊत राम पूरनु निरखत रिद खोरि ॥ संत सरन तरन नानक बिनसिओ दुखु घोर ॥२॥३॥४८॥ {पन्ना 1307}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! सिमरत = सिमरते हुए। चितवउ = मैं चितवता हूँ। चरनारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरविंद = कमल फूल) कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। सासन = हरेक सांस के साथ। निसि = रात। भोर = दिन।1। रहाउ।

लाइ = लगा के, जोड़ के। कीन आपन = अपना बना लिया है। जोरु = जोड़, मिलाप। सरबसुो = (सर्वश्व), सारा धन पदार्थ, सब कुछ (अक्षर 'स' के साथ दो मात्राएं हैं- 'ो' और 'ु'। असल शब्द 'सरबसु' है, यहाँ 'सरबसो' पढ़ना है)। गुन निधे = गुणों का खजाना हरी। मोर = मेरा।1।

ईत = यहाँ। ऊत = वहाँ। निरखत = (मैं) देखता हूँ। रिद खोरि = हृदय की खोड़ में, हृदय के गुप्त स्थान में। तरन = बेड़ी, जहाज। घोर = बहुत भारी।2।

अर्थ: हे माँ! प्रभू के बिना (मेरा) और कोई (आसरा) नहीं है। उसका नाम हर वक्त सिमरते हुए मैं दिन-रात हरेक सांस के साथ उसके सुंदर चरणों का ध्यान धरता रहता हूँ।1। रहाउ।

हे माँ! (उस परमात्मा के साथ) प्यार डाल के (मैंने उसको) अपना बना लिया है (अब यह) प्रीति की गाँठ टूटेगी नहीं। मेरे लिए गुणों का खजाना हरी ही सुख है, जिंद है, मन है, धन है, मेरा सब कुछ वही है।1।

हे नानक! यहाँ-वहाँ हर जगह परमात्मा ही व्यापक है, मैं उसको अपने हृदय के गुप्त स्थान में (बैठा) देख रहा हूँ। (जीवों को पार लंघाने के लिए वह) जहाज़ है, संतों की शरण में (जिन्हें मिल जाती है, उनका) सारा बड़े से बड़ा दुख भी नाश हो जाता है।2।3।48।

कानड़ा महला ५ ॥ जन को प्रभु संगे असनेहु ॥ साजनो तू मीतु मेरा ग्रिहि तेरै सभु केहु ॥१॥ रहाउ ॥ मानु मांगउ तानु मांगउ धनु लखमी सुत देह ॥१॥ मुकति जुगति भुगति पूरन परमानंद परम निधान ॥ भै भाइ भगति निहाल नानक सदा सदा कुरबान ॥२॥४॥४९॥ {पन्ना 1307-1308}

पद्अर्थ: को = का। प्रभु = मालिक। संगे = (तेरे) साथ। असनेहु = नेहु, प्यार। साजनो = साजन, सज्जन। ग्रिहि तेरै = तेरे घर में। सभ केहु = सब कुछ, हरेक पदार्थ।1। रहाउ।

मानु = इज्जत। मागउ = मैं माँगता हूं। तानु = ताकत, आसरा। लखमी = माया। सुत = पुत्र। देह = शरीर, शारीरिक अरोग्यता।1।

मुकति = (विकारों से) मुक्ति, खलासी। जुगति = जीवन जाच। भुगति = खुराक, भोजन। परमानंद = परम आनंद, सबसे उच्च आनंद का मालिक। निधान = खजाना। भै = डर में, अदब में। भाइ = प्यार में। निहाल = प्रसन्न।2।

अर्थ: हे प्रभू! तू अपने सेवक के सिर पर रखवाला है, (तेरे सेवक का तेरे) साथ प्यार (बना रहता है)। हे प्रभू! तू (ही) मेरा सज्जन है, तू (ही) मेरा मित्र है, तेरे घर में हरेक पदार्थ है।1। रहाउ।

हे प्रभू! मैं (तेरे दर से) इज्जत माँगता हूँ, (तेरा) आसरा माँगता हूँ, धन-पदार्थ माँगता हूं, पुत्र माँगता हूं, शारीरिक आरोग्यता माँगता हूँ।1।

हे प्रभू! तू ही विकारों से खलासी देने वाला है, तू ही जीवन-युक्ति सिखाता है, तू ही भोजन देने वाला है, तू ही सबसे ऊँचे आनंद और सुखों का खजाना है। हे नानक! (कह- हे प्रभू! मैं तुझ पर से) सदा ही सदके जाता हूँ, (जो मनुष्य तेरे) डर में प्यार में (टिक के तेरी) भगती (करते हैं, वे) निहाल (हो जाते हैं)।2।4।49।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh