श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1308 कानड़ा महला ५ ॥ करत करत चरच चरच चरचरी ॥ जोग धिआन भेख गिआन फिरत फिरत धरत धरत धरचरी ॥१॥ रहाउ ॥ अहं अहं अहै अवर मूड़ मूड़ मूड़ बवरई ॥ जति जात जात जात सदा सदा सदा सदा काल हई ॥१॥ मानु मानु मानु तिआगि मिरतु मिरतु निकटि निकटि सदा हई ॥ हरि हरे हरे भाजु कहतु नानकु सुनहु रे मूड़ बिनु भजन भजन भजन अहिला जनमु गई ॥२॥५॥५०॥१२॥६२॥ {पन्ना 1308} पद्अर्थ: करत करत = हर वक्त करते रहते। चरच चरच चरचरी = चर्चा ही चर्चा। जोग धिआन = जोग समाधियां लगाने वाले। भेख = (छह) भेषों के साधू। गिआन = (शास्त्रों के) जानने वाले। फिरत फिरत = सदा भ्रमण करने वाले। धरत = धरती। धरचरी = धरती पर फिरने वाले।1। रहाउ। अहं अहं = अहंकार ही अहंकार। अवर = और। अहै = है। मूढ़ = मूर्ख। बवरई = बवरे, झल्ले। जति = यत्र, जहाँ (भी)। जात = जाऐ। काल = मौत, आत्मिक मौत। हई = (टिकी रहती) है।1। मानु = अहंकार। तिआगु = त्याग, छोड़। मिरतु = मौत। निकटि = नजदीक। हई = है। भाजु = भजन कर। कहत नानकु = नानक कहता है। अहिला = कीमती। गई = (व्यर्थ) जा रहा है।2। अर्थ: हे भाई! अनेकों योग-समाधियाँ लगाने वाले (छह) भेषों के साधू (शास्त्रों के) ज्ञाता सदा धरती पर घूमते फिरते हैं, (जहाँ जाते हैं) चर्चा ही चर्चा करते फिरते हैं, (पर प्रभू के भजन के बिना यह सब कुछ वयर्थ है)।1। हे भाई! (ऐसे अनेकों ही) और हैं, (उनके अंदर) अहंकार ही अहंकार, (नाम से वंचित वे) मूर्ख हैं, मूर्ख हैं, बावरे हैं। (वे धरती पर घूमते-फिरते हैं, इसको धर्म का कर्म समझते हैं, पर वे) जहाँ भी जाते हैं, जहाँ भी जाते हैं, सदा ही सदा ही आत्मिक मौत (उन पर सवार रहती) है। हे मूर्ख! (इन समाधियों का) माण, (भेष का) माण (शास्त्रों के ज्ञान का) अहंकार छोड़ दे, (इस तरह आत्मिक) मौत सदा (तेरे) नजदीक है, सदा (तेरे) पास है। (तुझे) नानक कहता है- हे मूर्ख! परमात्मा का भजन कर, हरी का भजन कर। भजन के बिना कीमती मनुष्या-जन्म (व्यर्थ) जा रहा है।2।5।50।12।62। कानड़ा असटपदीआ महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जपि मन राम नामु सुखु पावैगो ॥ जिउ जिउ जपै तिवै सुखु पावै सतिगुरु सेवि समावैगो ॥१॥ रहाउ ॥ भगत जनां की खिनु खिनु लोचा नामु जपत सुखु पावैगो ॥ अन रस साद गए सभ नीकरि बिनु नावै किछु न सुखावैगो ॥१॥ गुरमति हरि हरि मीठा लागा गुरु मीठे बचन कढावैगो ॥ सतिगुर बाणी पुरखु पुरखोतम बाणी सिउ चितु लावैगो ॥२॥ गुरबाणी सुनत मेरा मनु द्रविआ मनु भीना निज घरि आवैगो ॥ तह अनहत धुनी बाजहि नित बाजे नीझर धार चुआवैगो ॥३॥ राम नामु इकु तिल तिल गावै मनु गुरमति नामि समावैगो ॥ नामु सुणै नामो मनि भावै नामे ही त्रिपतावैगो ॥४॥ {पन्ना 1308} पद्अर्थ: जपि = जपा कर। मन = हे मन! पावैगो = पावै, पाता है। जपै = जपता है। सेवि = सेवा कर के, शरण पड़ के। समावैगो = समावै, लीन रहता है।1। रहाउ। खिनु खिनु = हर वक्त। लोचा = तांघ। जपत = जपते हुए। अन रस साद = अन्य रसों का स्वाद। नीकरि गऐ = निकल गए, दूर हो गए।1। गुरु कढावैगो = गुरू निकलवाए, गुरू निकलवाता है। पुरखोतम = सबसे उक्तम (अकाल-) पुरख। सिउ = से। लावैगो = लगाता है।2। द्रविआ = द्रवित हो गया, नरम हो गया। भीना = भीग गया। निज घरि = अपने (असल) घर में। तह = उस (हृदय-घर) में। अनहत = एक रस, लगातार। धुनी = सुर। बाजहि = बजते रहते हैं। नीझर = निर्झर, चश्मा। चुआवैगो = चोआवै, (निरंतर) टपकती रहती है, जारी रहती है।3। तिल तिल = हर वक्त। गावै = गाता रहता है। नामि = नाम में। नामो = नाम ही। मनि = मन में। भावे = प्यारा लगता है। नामे = नाम में ही। त्रिपतावैगो = तृपत रहता हैं4। अर्थ: हे (मेरे) मन! (परमात्मा का) नाम (सदा) जपा कर (जो मनुष्य जपता है, वह) सुख पाता है। ज्यों-ज्यों (मनुष्य हरी-नाम) जपता है, त्यों-त्यों आनंद पाता है, और गुरू की शरण पड़ कर (हरी-नाम में) लीन रहता है।1। रहाउ। हे मन! भगत जनों की हर वक्त (नाम जपने की) चाहत बनी रहती है, (परमात्मा का भगत) हरी-नाम जपते हुए आनंद प्राप्त करता है। (उसके अंदर से) और सारे रसों के स्वाद निकल जाते हैं, हरी-नाम के बिना (भक्त को) और कुछ अच्छा नहीं लगता।1। हे मन! गुरू की मति की बरकति से (भगत को) परमात्मा का नाम प्यारा लगने लग जाता है, गुरू (उसके मुँह से सिफत-सालाह के) मीठे वचन (ही) निकलवाता है। गुरू की बाणी के द्वारा श्रेष्ठ पुरख परमात्मा को (मिल जाता है, इसलिए भगत सदा) गुरू की बाणी के साथ (अपना) चिक्त लगाता है।2। मेरा मन (नाम-रस में) भीग जाता है, (बाहर भटकने की जगह) अपने असल स्वरूप में टिका रहता है। हृदय में इस तरह आनंद बना रहता है, (मानो) उसके दिल में एक-रस सुर में बाजे बजते रहते हैं, (मानो) चश्मे (के पानी) की धार चलती रहती है।3। हे मन! (परमात्मा का भगत) हर वक्त हरेक सांस के साथ परमात्मा का नाम जपता रहता है, गुरू की मति ले के (भगत का) मन (सदा) नाम में लीन रहता है। भगत (हर वक्त परमात्मा का) नाम सुनता है, नाम ही (उसके) मन में प्यारा लगता है, नाम के द्वारा ही (भगत माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है।4। कनिक कनिक पहिरे बहु कंगना कापरु भांति बनावैगो ॥ नाम बिना सभि फीक फिकाने जनमि मरै फिरि आवैगो ॥५॥ माइआ पटल पटल है भारी घरु घूमनि घेरि घुलावैगो ॥ पाप बिकार मनूर सभि भारे बिखु दुतरु तरिओ न जावैगो ॥६॥ भउ बैरागु भइआ है बोहिथु गुरु खेवटु सबदि तरावैगो ॥ राम नामु हरि भेटीऐ हरि रामै नामि समावैगो ॥७॥ अगिआनि लाइ सवालिआ गुर गिआनै लाइ जगावैगो ॥ नानक भाणै आपणै जिउ भावै तिवै चलावैगो ॥८॥१॥ {पन्ना 1308} पद्अर्थ: कनिक = सोना। कापरु = कपड़ा। भांति = कई किस्मों का। बनावैगो = बनावै, बनाता है। सभि = सारे। फीक फिकानै = बहुत ही फीके। जनमि = पैदा हो के।5। पटल = पर्दा। घूमनि घेरि = घुम्मनघेरी, चक्रवात। घुलावैगो = घुलता है, दुखी होता है। मनूर = जला हुआ जंग लगा लोहा। बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर। दुतरु = दुष्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल होता है।6। भउ = डर, अदब। बैरागु = प्यार, लगन। बोहिथु = जहाज। खेवटु = मल्लाह। सबदि = शबद से। तरावैगो = तरावै, पार लंघा देता है। भेटीअै = मिल सकते हैं। रामै नामि = परमात्मा के मान में।7। अगिआनि = अज्ञानता में। लाइ = लगा के, जोड़ के। गुर गिआनै = गुरू के बताए हुए ज्ञान में। भाणै = रज़ा में। भावै = अच्छा लगता है।8। अर्थ: (हे मेरे मन! माया-ग्रसित मनुष्य) सोने (आदि कीमती धातुओं) के अनेकों कँगन (आदि गहने) पहनता है (अपने शरीर को सजाने के लिए) कई किस्म का कपड़ा बनाता है, (परमात्मा के) नाम के बिना (ये) सारे (उद्यम) बिल्कुल बे-स्वादे हैं। (ऐसा मनुष्य सदा) पैदा होने-मरने के चक्करों में पड़ा रहता है।5। हे मेरे मन! माया (के मोह) का पर्दा बड़ा कड़ा परदा है, (इस मोह के पर्दे के कारण मनुष्य के लिए उसका) घर (समुंद्री) चक्रवात बन जाता है, (इसमें डूबने से बचने के लिए मनुष्य सारी उम्र) मुशक्कत करता है। (मोह में फंस के किए हुए) पाप विकार जले हुए लोहे जैसे भारे (बोझ) बन जाते हैं, (इनके कारण) आत्मिक मौत लाने वाले जहर-रूप (संसार-समुंद्र से) पार लांघना मुश्किल हो जाता है, (माया-ग्रसित मनुष्य द्वारा उसमें से) पार नहीं लांघा जा सकता।6। हे मेरे मन! (हृदय में परमात्मा का) अदब और प्यार (संसार-समुंद्र में से पार लांघने के लिए) जहाज़ बन जाता है (जिस मनुष्य के अंदर प्यार है डर है, उसको) गुरू मल्लाह (अपने) शबद के द्वारा पार लंघा लेता है। हे भाई! परमात्मा का नाम (जप के) परमात्मा को मिला जा सकता है; (जिस मनुष्य के अंदर अदब और प्यार है, वह) सदा प्रभू के नाम में लीन रहता है।7। पर, हे नानक! जैसे परमात्मा की रज़ा होती है वैसे ही (जीव को जीवन राह पर) चलाता है, (कभी जीव को) अज्ञानता में फसा के (माया के मोह की नींद में) सुलाए रखता है, कभी गुरू की बख्शी हुई आत्मिक सूझ में टिका के (उस नींद में से) जगा देता है।8।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |