श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा महला ४ ॥ मनु हरि रंगि राता गावैगो ॥ भै भै त्रास भए है निरमल गुरमति लागि लगावैगो ॥१॥ रहाउ ॥ हरि रंगि राता सद बैरागी हरि निकटि तिना घरि आवैगो ॥ तिन की पंक मिलै तां जीवा करि किरपा आपि दिवावैगो ॥१॥ दुबिधा लोभि लगे है प्राणी मनि कोरै रंगु न आवैगो ॥ फिरि उलटिओ जनमु होवै गुर बचनी गुरु पुरखु मिलै रंगु लावैगो ॥२॥ इंद्री दसे दसे फुनि धावत त्रै गुणीआ खिनु न टिकावैगो ॥ सतिगुर परचै वसगति आवै मोख मुकति सो पावैगो ॥३॥ {पन्ना 1310}

पद्अर्थ: रंगि = प्रेम रंग में। राता = रति हुआ, रंगा हुआ। गावैगो = गावै, गाता रहता है। भै = (शब्द 'भउ' का बहुवचन) सारे डर। त्रास = डर, सहम। निरमल = मल रहित, पवित्र। लागि = पाह (कपड़े को रंग चढ़ाने से पहले 'पाह' दी जाती है, नमक व सोडे के घोल में डुबोया जाता है)। लगावैगो = लगाता है।1। रहाउ।

सद = सदा। बैरागी = विरक्त, माया के मोह से उपराम। निकटि = नजदीक। घरि = (हृदय-) घर में। पंक = चरण धूड़। जीवा = मैं जी उठता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल कर लेता हूँ। करि = कर के।1।

दुबिधा = मेर तेर। लोभि = लोभ में। मनि कोरै = कोरे मन पर। रंगि = प्रेम रंग। फिरि = दोबारा। उलटिओ = (जब जरूरत आदि से मन) पलटता है। जनमु = नया जनम। बचनी = बचनों से। लावैगो = लगाता है, चढ़ाता है।2।

फुनि = बार बार। धावत = भटकती हैं। त्रैगुणीआ = तीन गुणों में फसा हुआ मन। परचै = पतीजता है, प्रसन्न होता है। वसगति = वश में। मोख मुकति = विकारों से निजात। सो = वह मनुष्य।3।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य अपने मन को परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगने के लिए मन को) गुरू की मति की 'पाह' (लाग) देता है, (उसका) मन प्रभू के प्रेम-रंग में रंगा जाता है (इस रंग में रंगीज़ के वह मनुष्य सदा परमात्मा के गुण) गाता रहता है, उसके सारे (मलीन) डर और सहम पवित्र (अदब-सत्कार) बन जाते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा के प्यार रंग में रंगा हुआ मनुष्य माया के मोह के प्रति उपराम रहता है, प्रभू (प्रेम-रंग में रंगे मनुष्यों के सदा) नजदीक बसता है, उनके (हृदय-) घर में आ टिकता है। हे भाई! अगर मुझे उन (भाग्यशाली मनुष्यों) की चरण-धूल मिले, तो मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता हूँ। (पर ये चरण-धूल प्रभू) स्वयं ही कृपा करके दिलवाता है।1।

हे भाई! जो मनुष्य मेर-तेर में लोभ में फसे रहते हैं, उनके कोरे मन पर (प्रभू का प्यार-) रंग नहीं चढ़ सकता। फिर जब गुरू के वचनों के द्वारा (उनका मन दुबिधा-लोभ आदि से) पलटता है, (तब उन्हें नया आत्मिक) जनम मिलता है। हे भाई! (जिस मनुष्य को) गुरू पुरख मिल जाता है (उसके मन को प्रभू-प्यार का) रंग चढ़ा देता है।2।

हे भाई! मनुष्य की ये दसों इन्द्रियां मुड़-मुड़ के भटकती-फिरती हें। (माया के) तीन गुणों में ग्रसित मन रक्ती भर समय के लिए भी (एक जगह पर) नहीं टिकता। जब गुरू (किसी मनुष्य पर) प्रसन्न होता है तो उसका मन वश में आ जाता है, वह मनुष्य विकारों से मुक्ति हासिल कर लेता है।3।

ओअंकारि एको रवि रहिआ सभु एकस माहि समावैगो ॥ एको रूपु एको बहु रंगी सभु एकतु बचनि चलावैगो ॥४॥ गुरमुखि एको एकु पछाता गुरमुखि होइ लखावैगो ॥ गुरमुखि जाइ मिलै निज महली अनहद सबदु बजावैगो ॥५॥ जीअ जंत सभ सिसटि उपाई गुरमुखि सोभा पावैगो ॥ बिनु गुर भेटे को महलु न पावै आइ जाइ दुखु पावैगो ॥६॥ अनेक जनम विछुड़े मेरे प्रीतम करि किरपा गुरू मिलावैगो ॥ सतिगुर मिलत महा सुखु पाइआ मति मलीन बिगसावैगो ॥७॥ हरि हरि क्रिपा करहु जगजीवन मै सरधा नामि लगावैगो ॥ नानक गुरू गुरू है सतिगुरु मै सतिगुरु सरनि मिलावैगो ॥८॥४॥ {पन्ना 1310}

पद्अर्थ: ओअंकारि = आअंकार में, सर्व व्यापक प्रभू में। सभु = सारा जगत। ऐकस माहि = एक (प्रभू) में ही। ऐकसु बचनि = एक (अपने ही) हुकम में। बचनि = हुकम में।4।

गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। लखावैगो = लखावै, लखै,? समझ लेता है। जाइ = जा जा के। निज महली = अपने (असल) ठिकाने में। अनहद = (अन+आहत। बिना बजाए बज रहा) एक रस। सबदु बजावैगो = शबद का प्रबल प्रभाव (अपने अंदर) टिकाए रखता है।5।

सभ सिसिट = सारी सृष्टि। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बिन गुर भेटे = गुरू को मिले बिना। को = कोई मनुष्य। महलु = प्रभू चरणों में जगह। आइ जाइ = आ के जा के, जनम मरण के चक्कर में पड़ के।6।

मेरे प्रीतम = हे मेरे प्रीतम प्रभू! करि = कर के। सतिगुर मिलत = गुरू के मिलने पर। मलीन = विकारों से मैली हो चुकी। बिगसावैगो = खिला देता है।7।

जगजीवन = हे जगत के जीवन प्रभू! मै सरधा = मेरी श्रद्धा। नामि = (तेरे) नाम में। मै = मुझे। सरनि = प्रभू की शरण में।8।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा एक स्वयं ही सब जगह व्यापक है, उस एक सर्व-व्यापक में ही सारा जगत लीन हो जाता है। वह परमात्मा (कभी) एक स्वयं ही स्वयं होता है, वह खुद ही (जगत रच के) अनेकों रंगों वाला बन जाता है। सारे जगत को वह प्रभू एक अपने ही हुकम में चला रहा है।4।

हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (हर जगह) एक परमात्मा को ही (बसता) पहचानता है। हे भाई! गुरू के सन्मुख हो के (मनुष्य) यह भेद समझ लेता है। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभू-चरणों में जा पहुँचता है, वह (अपने अंदर) गुरू के शबद का निरंतर प्रबल प्रभाव डाले रखता है।5।

हे भाई! (वैसे तो) सारे जीव-जंतु (प्रभू के पैदा किए हुए हैं), सारी सृष्टि (प्रभू ने ही) पैदा की है, (पर) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह (लोक-परलोक में) वडिआई हासिल करता है। हे भाई! गुरू को मिले बिना कोई भी मनुष्य प्रभू के चरणों में जगह नहीं ले सकता (बल्कि) जनम-मरन के चक्करों में पड़ कर दुख ही भोगता है।6।

हे मेरे प्रीतम प्रभू! (जीव) अनेकों ही जनम (तेरे चरणों से) विछुड़े रहते हैं। गुरू (ही) मेहर कर के (उनको तेरे साथ) मिलाता है। हे भाई! गुरू को मिलते (ही मनुष्य) बहुत आनंद प्राप्त कर लेता है। (मनुष्य की विकारों में) मैली हो चुकी मति को (गुरू) खुशी उल्लास में ले आता है।7।

हे जगत के जीवन हरी! मेहर कर, (गुरू) मेरी श्रद्धा (तेरे) नाम में बनाए रखे। हे नानक! (कह- प्रभू-चरणों में जुड़ने के लिए) गुरू ही (वसीला) है, गुरू ही (विचोलिया) है। गुरू ही मुझे प्रभू की शरण में टिकाए रख सकता है।8।4।

कानड़ा महला ४ ॥ मन गुरमति चाल चलावैगो ॥ जिउ मैगलु मसतु दीजै तलि कुंडे गुर अंकसु सबदु द्रिड़ावैगो ॥१॥ रहाउ ॥ चलतौ चलै चलै दह दह दिसि गुरु राखै हरि लिव लावैगो ॥ सतिगुरु सबदु देइ रिद अंतरि मुखि अम्रितु नामु चुआवैगो ॥१॥ बिसीअर बिसू भरे है पूरन गुरु गरुड़ सबदु मुखि पावैगो ॥ माइआ भुइअंग तिसु नेड़ि न आवै बिखु झारि झारि लिव लावैगो ॥२॥ सुआनु लोभु नगर महि सबला गुरु खिन महि मारि कढावैगो ॥ सतु संतोखु धरमु आनि राखे हरि नगरी हरि गुन गावैगो ॥३॥ पंकज मोह निघरतु है प्रानी गुरु निघरत काढि कढावैगो ॥ त्राहि त्राहि सरनि जन आए गुरु हाथी दे निकलावैगो ॥४॥ {पन्ना 1310}

पद्अर्थ: मन = हे मन! गुरमति = गुरू की शिक्षा (ही)। चाल = (सही जीवन की) चाल। मैगलु = हाथी। दीजै = रखा जाता है। तलि कुंडे = कुंडे के नीचे। अंकसु = (हाथी को चलाने वाला) कुंडा, अंकुश। द्रिढ़ावैगो = दृढ़ाए, हृदय में पक्का करे।1। रहाउ।

चलतै चलै चलै = बार बार भटकता है। दह दिसि = दसों दिशाओं में। दिसि = दिशाएं। राखै = रक्षा करता है। लिव = लगन। लावैगो = लगाता है। देइ = देता है। रिद अंतरि = हृदय में। मुखि = मुँह में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल।1।

बिसीअर = साँप। बिसू = जहर। गरुड़ = गारुड़ मंत्र। भुइअंग = सपनी। बिखु = जहर। झारि = झाड़ के।2।

सुआन = कुक्ता। नगर = शरीर नगर। सबला = स+बला, बलवान। मारि = मार के। आनि = ला के। हरि नगरी = हरी की नगरी में, साध-संगति में।3।

पंकज = कीचड़। निघरतु है = धसता जाता है। काढि = निकाल के। कढावैगो = किनारे लगा देता है। त्राहि त्राहि = बचा ले बचा ले। हाथी = हाथ। दे = दे के।4।

अर्थ: हे मन! (तुझे) गुरू की शिक्षा (ही सही जीवन की) चाल चला सकती है। हे भाई! गुरू का शबद (जैसे, वह) अंकुश है (जिससे हाथी को नियंत्रित किया जाता है)। जैसे मस्त हाथी को अंकुश के तले रखा जाता है (वैसे ही गुरू अपना) शबद (मनुष्य के) हृदय में दृढ़ कर देता है।1। रहाउ।

हे भाई! (मनुष्य का मन) मुड़-मुड़ के दसों-दिशाओं में भटकता फिरता है, गुरू (इसको) भटकने से बचाता है (इसके अंदर) परमात्मा के प्रति प्यार पैदा करता है। गुरू (अपना) शबद (मनुष्य के) हृदय में टिका देता है, और उस के मुँह में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल चुआता है।1।

हे भाई! साँप जहर से लबा-लब भरे होते हैं (उनके असर से बचाने के लिए) गारुड़ मंत्र है (इसी तरह) गुरू (अपना) शबद (-मंत्र जिस मनुष्य के) मुँह में डाल देता है, माया-रूपी सर्पनी उसके नजदीक भी नहीं फटकती। (गुरू-शबद-मंत्र की बरकति से उसका) जहर झाड़-झाड़ के (उसके अंदर) परमात्मा की लगन पैदा कर देता है।2।

हे भाई! लोभ-कुक्ता (मनुष्य के) शरीर-नगर में बलवान हुआ रहता है, पर, गुरू एक छिन में (इस कुत्ते को) मार के (उसके अंदर से) निकाल देता है। (गुरू ने) सत-संतोख-धर्म (ये गुण) साध-संगति-नगरी में ला के रखे हुए हैं (लोभ-कुत्ते से बचने के लिए मनुष्य) साध-संगति में परमात्मा के गुण गाता रहता है।3।

हे भाई! मनुष्य (माया के) मोह के दल-दल में धंसता जाता है, गुरू (इस गारे में) धंस रहे मनुष्य को (दल-दल में से) निकाल के किनारे लगा देता है। 'बचा ले, बचा ले'-ये कहते हुए (जो) मनुष्य (गुरू की) शरण आते हैं, गुरू अपना हाथ पकड़ा के उनको (माया के मोह के कीचड़ में से) बाहर निकाल लेता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh