श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सुपनंतरु संसारु सभु बाजी सभु बाजी खेलु खिलावैगो ॥ लाहा नामु गुरमति लै चालहु हरि दरगह पैधा जावैगो ॥५॥ हउमै करै करावै हउमै पाप कोइले आनि जमावैगो ॥ आइआ कालु दुखदाई होए जो बीजे सो खवलावैगो ॥६॥ संतहु राम नामु धनु संचहु लै खरचु चले पति पावैगो ॥ खाइ खरचि देवहि बहुतेरा हरि देदे तोटि न आवैगो ॥७॥ राम नाम धनु है रिद अंतरि धनु गुर सरणाई पावैगो ॥ नानक दइआ दइआ करि दीनी दुखु दालदु भंजि समावैगो ॥८॥५॥ {पन्ना 1311}

पद्अर्थ: सुपनंतरु = (सुपन+अंतर) अंदरूनी सपना, मन का सपना, मन की भटकना। सभु = सारा (संसार)। खिलावैगो = खिलावै, (परमात्मा स्वयं) खेला रहा है। लाहा = लाभ, कमाई। लै = ले के। चालहु = (जगत से) चलो। पैधा = इज्जत से। जावैगो = जाता है।5।

(नोट: शब्द 'अंतर' और 'अंतरि' में फर्क है, देखें बंद नं:8 में 'रिद अंतरि')

करै करावै = करता कराता, हर वक्त करता। आनि = ला के। जमावैगो = जमाता है, बीजता है। कालु = मौत। जो = जो। कोइले = पाप। बीजे = बीजे होते हैं। खवलावैगो = फल भुगताता है।6।

संतहु = हे संत जनो! संचहु = संचित करो, इकट्ठा करो। लै = ले के। चले = चलते हैं। पति = इज्जत। पावैगो = पल्ले डालता है, देता है। खाइ = (स्वयं) खा के। खरचि = खर्च के, (औरों को) बाँट के। देवहि = (संत जन) देते हैं। देदे = देते हुए। तोटि = कमी।7।

रिद अंतरि = हृदय में। दीनी = (नाम धन की दाति) दी। करि = कर के। दालदु = गरीबी। भंजि = तोड़ के, नाश करके, समाप्त कर के।8।

अर्थ: हे भाई! यह संसार (मनुष्य के) मन की भटकना (का मूल) है, (जीवों को परचाने के लिए) सारा जगत (एक) खेल (सी ही) है। यह खेल (जीवों को परमात्मा स्वयं) खेला रहा है। (इस खेल में परमात्मा का) नाम (ही) लाभ है। हे भाई! गुरू की मति से ये लाभ कमा के जाओ। (जो मनुष्य ये लाभ कमा के यहाँ से जाता है, वह) परमात्मा की हजूरी में इज्जत से जाता है।5।

हे भाई! जो मनुष्य सारी उम्र 'हउ हउ' ही करता रहता है, वह मनुष्य (अपनी मानसिक खेती में) खुद ला-ला के पाप बोता (बीजता) रहता है। जब मौत आती है; (वे बीजे हुए कमाए हुए पाप) दुखदाई बन जाते हैं (पर उस वक्त क्या हो सकता है?) जो कोयले-पाप बीजे हुए होते हैं (सारी उम्र किए होते हैं) उनका फल खाना पड़ता है।6।

हे संत जनो! परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा करते रहो, (जो मनुष्य जीवन-यात्रा में उपयोग के लिए नाम-) खर्च ले के चलते हैं (नाम की राशि ले कर चलते हैं) (परमात्मा उनको) आदर-सत्कार देता है। वे मनुष्य (ये नाम-धन खुद) खुला बरत के (औरों को भी) बहुत बाँटते हैं, इस हरी-नाम-धन के बाँटने से इसमें कमी नहीं होती।7।

हे नानक! (कह- हे भाई!) ये नाम-धन गुरू की शरण पड़ने से मिलता है, जिस मनुष्य के हृदय में ये नाम-धन बसता है, जिस मनुष्य को परमात्मा नाम-धन की दाति मेहर कर के देता है, वह अपना हरेक दुख दूर कर के (आत्मिक) गरीबी को खत्म कर के नाम में लीन रहता है।8।5।

कानड़ा महला ४ ॥ मनु सतिगुर सरनि धिआवैगो ॥ लोहा हिरनु होवै संगि पारस गुनु पारस को होइ आवैगो ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरु महा पुरखु है पारसु जो लागै सो फलु पावैगो ॥ जिउ गुर उपदेसि तरे प्रहिलादा गुरु सेवक पैज रखावैगो ॥१॥ सतिगुर बचनु बचनु है नीको गुर बचनी अम्रितु पावैगो ॥ जिउ अ्मबरीकि अमरा पद पाए सतिगुर मुख बचन धिआवैगो ॥२॥ सतिगुर सरनि सरनि मनि भाई सुधा सुधा करि धिआवैगो ॥ दइआल दीन भए है सतिगुर हरि मारगु पंथु दिखावैगो ॥३॥ सतिगुर सरनि पए से थापे तिन राखन कउ प्रभु आवैगो ॥ जे को सरु संधै जन ऊपरि फिरि उलटो तिसै लगावैगो ॥४॥ {पन्ना 1311}

पद्अर्थ: मनु = (जिस मनुष्य का) मन। धिआवैगो = (हरी नाम का) सिमरन करता है। हिरनु = (हिरण्य) सोना। संगि पारस = पारस के साथ (छू के)। गुनु पारस को = पारस का गुण।1। रहाउ।

जा लागै = जो मनुष्य छूता है। उपदेसि = उपदेश से। तरे प्रहिलादा = प्रहलाद आदि कई तैर गए। पैज = इज्जत।2।

नीको = अच्छा, श्रेष्ठ, उक्तम। गुर बचनी = गुरू के वचनों से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अंबरीकि = अंबरीक ने। अमरापद = अमर पद, वह दर्जा जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती। मुख बचन = मुँह के वचन। सतिगुर मुख बचन = गुरू के मुँह के वचन। धिआवैगो = ध्यावे, उचार रहा है।2।

मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। सुधा = अमृत। सुधा सुधा करि = आत्मिक जीवन दाता निश्चय कर के। दइआल दीन = दीनों पर दया करने वाले। मारगु पंथु = आत्मिक जीवन का रास्ता।3।

से = वह लोग। थापे = थापना दी गई, आदर दिया गया। को = कोई। सरु = तीर। संधै = निशाना बाँधता है। उलटो = पलटा हुआ।4।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) मन गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम सिमरता रहता है (वह प्रभू-चरणों की छोह से ऊँचे जीवन वाला हो जाता है, जैसे) पारस से (छू के) लोहा सोना बन जाता है, पारस की छूह का गुण उसमें आ जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू (भी) बहुत बड़ा पुरख है, (गुरू भी) पारस है। जो मनुष्य (गुरू के चरणों में) लगता है वह (श्रेष्ठ) फल प्राप्त करता है, जैसे गुरू के उपदेश की बरकति से प्रहलाद (आदि कई) पार लांघ गए। हे भाई! गुरू अपने (सेवक) की इज्जत (अवश्य) रखता है।1।

हे भाई! यकीन जान कि गुरू का वचन (बहुत) श्रेष्ठ है। गुरू के बचनों की बरकति से (मनुष्य) आत्मिक जीवन देने वाला नाम हासिल कर लेता है। (जो भी मनुष्य) गुरू का उचारा हुआ शबद हृदय में बसाता है (वह ऊँचा आत्मिक जीवन प्राप्त करता है) जैसे अंबरीक ने वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती।2।

हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू की शरण पड़े रहना (अपने) मन में पसंद आ जाता है, वह (गुरू के बचन को) आत्मिक-जीवन-दाता निश्चय करके (उसको) अपने अंदर बसाए रखता है। हे भाई! गुरू दीनों पर दया करने वाला है, गुरू परमात्मा के मिलाप का रास्ता दिखा देता है।3।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, उनको आदर मिलता है, परमात्मा उनकी रक्षा करने के लिए स्वयं पहुँचता है। अगर कोई मनुष्य उन सेवकों पर तीर चलाता है, वह तीर पलट के उसी को ही आ लगता है।4।

हरि हरि हरि हरि हरि सरु सेवहि तिन दरगह मानु दिवावैगो ॥ गुरमति गुरमति गुरमति धिआवहि हरि गलि मिलि मेलि मिलावैगो ॥५॥ गुरमुखि नादु बेदु है गुरमुखि गुर परचै नामु धिआवैगो ॥ हरि हरि रूपु हरि रूपो होवै हरि जन कउ पूज करावैगो ॥६॥ साकत नर सतिगुरु नही कीआ ते बेमुख हरि भरमावैगो ॥ लोभ लहरि सुआन की संगति बिखु माइआ करंगि लगावैगो ॥७॥ राम नामु सभ जग का तारकु लगि संगति नामु धिआवैगो ॥ नानक राखु राखु प्रभ मेरे सतसंगति राखि समावैगो ॥८॥६॥ छका १ ॥ {पन्ना 1311}

पद्अर्थ: सरु = सरोवर, तालाब। हरि सरु = वह सरोवर जिसमें हरी-नाम-जल का प्रवाह चल रहा है, साध-संगति। हरि सरु सेवहि = (जो मनुष्य) साध-संगति की सेवा करते हैं। मानु = आदर। गुरमति = गुरू की मति ले के। गलि = गले से। मिलि = मिल के। मेलि = मेल में, अपने साथ।5।

गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य, गुरू की शरण। गुर परचै = गुरू की प्रसन्नता से। रूपो = रूप ही। होवै = हो जाता है। पूज = पूजा, आदर।6।

साकत नर = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। कीआ = बनाया। ते = वे मनुष्य (बहुवचन)। बेमुख = गुरू से मुँह घुमा के रखने वाले मनुष्य। भरमावैगो = भटकना में डाले रखता है। सुआन = कुक्ता। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। करंगि = करंग पर, मुर्दे पर।7।

तारकु = तैराने वाला। लगि = लग के। प्रभ मेरे = हे मेरे प्रभू! राखि = रख के। समावैगो = (अपने आप में) लीन किए रखता है।8।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा ही साध-संगति का आसरा लिए रखते हैं, परमात्मा उनको अपनी हजूरी में आदर दिलवाता है। जो मनुष्य सदा ही गुरू की शिक्षा पर चल के परमात्मा का नाम सिमरते हैं, परमात्मा उनके गले से मिल के उनको अपने साथ एक-मेक कर लेता है।5।

हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के लिए गुरू की शरण ही नाद है गुरू की शरण ही वेद है। गुरू की शरण पड़े रहने वाला मनुष्य गुरू की प्रसन्नता प्राप्त करके हरी-नाम सिमरता है। वह मनुष्य परमात्मा का ही रूप हो जाता है, परमात्मा (भी हर जगह) उसकी इज्जत कराता है।6।

हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य गुरू को (अपना आसरा) नहीं बनाते, वे गुरू से मुँह घुमाए रखते हैं, प्रभू उनको भटकना में डाले रखता है, (उनके अंदर) लोभ की लहर चलती रहती है, (यह लहर) कुत्ते के स्वभाव जैसी है, (जैसे कुक्ता) मुर्दे पर जाता है (मुर्दे को खुश हो के खाता है, वैसे ही लोभ-लहर का प्रेरा हुआ मनुष्य) आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर को चिपका रहता है।7।

हे भाई! परमात्मा का नाम सारे जगत का पार लंघाने वाला है। (जो मनुष्य) साध-संगति में टिक के हरी-नाम सिमरता है (वह संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है)। हे नानक! (अरदास कर और कह-) हे मेरे प्रभू! (मुझे भी साध-संगति में) रखे रख। हे भाई! (परमात्मा प्राणी को) साध-संगति में रख के (अपने में) लीन करे रखता है।8।6। छका1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh