श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ४ ॥ गोविंदु गोविदु गोविदु हरि गोविदु गुणी निधानु ॥ गोविदु गोविदु गुरमति धिआईऐ तां दरगह पाईऐ मानु ॥ गोविदु गोविदु गोविदु जपि मुखु ऊजला परधानु ॥ नानक गुरु गोविंदु हरि जितु मिलि हरि पाइआ नामु ॥२॥ {पन्ना 1313}

पद्अर्थ: गुणी निधानु = गुणों का खजाना। गुरमति = गुरू की शिक्षा पर चलना। मानु = आदर। जपि = जप के। ऊजला = रौशन। परधानु = जाना माना। जितु = जिस (गुरू) में। मिलि = मिल के।2।

अर्थ: (हे भाई!) सिर्फ परमात्मा ही सारे गुणों का खजाना है। जब गुरू की शिक्षा पर चल कर परमात्मा को सिमरा जाए तो परमात्मा की हजूरी में आदर मिलता है। (हे भाई!) सदा प्रभू का नाम जप-जप के (लोक-परलोक में) सुर्खरू हुआ जाता है और प्रधानता मिलती है। हे नानक! (कह- हे भाई!) गुरू परमात्मा (का रूप) है; उस (गुरू) में मिल के (गुरू के बताए हुए राह पर चल के) परमात्मा का नाम प्राप्त होता है।2।

पउड़ी ॥ तूं आपे ही सिध साधिको तू आपे ही जुग जोगीआ ॥ तू आपे ही रस रसीअड़ा तू आपे ही भोग भोगीआ ॥ तू आपे आपि वरतदा तू आपे करहि सु होगीआ ॥ सतसंगति सतिगुर धंनु धनुो धंन धंन धनो जितु मिलि हरि बुलग बुलोगीआ ॥ सभि कहहु मुखहु हरि हरि हरे हरि हरि हरे हरि बोलत सभि पाप लहोगीआ ॥१॥ {पन्ना 1313}

पद्अर्थ: सिध = (योग साधना में) सिद्धस्थ योगी, निपुण योगी। साधिको = साधिकु, योग साधना करने वाला। जुग जोगीआ = जोग जोगीआ, जोग में जुड़ने वाला। रसीअड़ा = रस लेने वाला। भोग = मायावी पदार्थ। वरतदा = मौजूद। जितु मिलि = जिस (सत्संगति) में मिल के। बुलग = (सिफतसालाह के) बोल। सभि = सारे।1।

अर्थ: हे प्रभू! तू स्वयं ही (जोग साधना में) सिद्धस्थ योगी है, तू स्वयं ही साधना करने वाला साधक है, तू स्वयं ही जोग में जुड़ने वाला है, तू स्वयं ही (मायावी पदार्थों के) रस चखने वाला है, तू स्वयं ही (मायावी पदार्थों के) भोग-भोगने वाला है, (क्योंकि जोगियों में भी और गृहस्थियों में भी हर जगह) तू स्वयं ही स्वयं मौजूद है, जो कुछ तू करता है, वही होता है।

हे भाई! गुरू की साध-संगति धन्य है धन्य है जिसमें मिल के परमात्मा की सिफतसालाह के बोल बोले जा सकते हैं। (हे भाई! साध-संगति में बैठ के) सारे (अपने मुँह से सदा हर वक्त परमात्मा का नाम जपने से सारे पिछले किए) पाप दूर हो जाते हैं।1।

सलोक मः ४ ॥ हरि हरि हरि हरि नामु है गुरमुखि पावै कोइ ॥ हउमै ममता नासु होइ दुरमति कढै धोइ ॥ नानक अनदिनु गुण उचरै जिन कउ धुरि लिखिआ होइ ॥१॥ {पन्ना 1313}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। कोइ = कोई विरला मनुष्य। ममता = अपनत्व। धोइ = धो के। अनदिनु = हर रोज। धुरि = धुर दरगाह से।

अर्थ: ( हे भाई!) सदा ही परमात्मा का नाम (सिमरन की दाति) कोई विरला मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल कर हासिल करता है, (जो मनुष्य यह दाति प्राप्त करता है, उसके अंदर से) अहंकार और ममता का नाश हो जाता है (वह मनुष्य अपने अंदर से नाम की बरकति से) दुर्मति (की मैल) धो के निकाल देता है; हे नानक! (वह मनुष्य) हर वक्त (परमात्मा के) गुण उचारता है (पर, हे भाई! वही मनुष्य परमात्मा के गुण उचारते हैं) जिनके भाग्यों में धुर-दरगाह से (किए कर्मों के अनुसार नाम-सिमरन के संस्कारों का लेख) लिखा होता है।1।

मः ४ ॥ हरि आपे आपि दइआलु हरि आपे करे सु होइ ॥ हरि आपे आपि वरतदा हरि जेवडु अवरु न कोइ ॥ जो हरि प्रभ भावै सो थीऐ जो हरि प्रभु करे सु होइ ॥ कीमति किनै न पाईआ बेअंतु प्रभू हरि सोइ ॥ नानक गुरमुखि हरि सालाहिआ तनु मनु सीतलु होइ ॥२॥ {पन्ना 1313}

पद्अर्थ: दइआलु = (दया = आलय) दया का घर, दया का श्रोत। आपै = आप ही। वरतदा = मौजूद। जेवडु = बराबर का। अवरु = और, अन्य। प्रभ भावै = प्रभू को अच्छा लगता है। थीअै = होता है। किनै = किसी ने भी। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के। सीतलु = (विकारों) ठंढक (विकार अग्नि से उलट गुणों की शीतलता)।

अर्थ: ( हे भाई! ) परमात्मा स्वयं ही दया का श्रोत है (जगत में) वही कुछ होता है जो वह परमात्मा स्वयं ही करता है। (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही (हर जगह) मौजूद है, कोई और उसके बराबर का नहीं है। जो कुछ प्रभू को अच्छा लगता है वही होता है, जो कुछ वह प्रभू करता है वही होता है। हे भाई! उस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, किसी (मनुष्य) ने उसका मूल्य नहीं पाया।

हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के परमात्मा की सिफतसालाह की है, उसका तन उसका मन (विकारों से पलट के गुणों की शीतलता से) ठंडा-ठार हो जाता है।2।

पउड़ी ॥ सभ जोति तेरी जगजीवना तू घटि घटि हरि रंग रंगना ॥ सभि धिआवहि तुधु मेरे प्रीतमा तू सति सति पुरख निरंजना ॥ इकु दाता सभु जगतु भिखारीआ हरि जाचहि सभ मंग मंगना ॥ सेवकु ठाकुरु सभु तूहै तूहै गुरमती हरि चंग चंगना ॥ सभि कहहु मुखहु रिखीकेसु हरे रिखीकेसु हरे जितु पावहि सभ फल फलना ॥२॥ {पन्ना 1313}

पद्अर्थ: सभ = सारी सृष्टि में। जोति = नूर। जगजीवना = हे जगत के जीवन दाते! घटि घटि = हरेक शरीर में। रंग रंगना = (प्रेम की) रंगत चढ़ाने वाला। सभि = सारे जीव। सति = सदा कायम रहने वाला। पुरख = हे सर्व व्यापक! निरंजन = हे निर्लिप! सभु = सारा। जाचहि = मांगते हैं। सभ मंग = हरेक माँग, हरेक जरूरत। चंग चंगना = बहुत ही अच्छा, बहुत ही प्यारा। रिखीकेसु = (रिखीक+ईश, ऋषिक+ईश) इन्द्रियों का मालिक प्रभू। जितु = जिस (हरी नाम) से।

अर्थ: हे जगत के जीवन प्रभू! सारी सृष्टि में तेरा ही नूर (प्रकाश है), तू हरेक शरीर में (मौजूद है, और अपने नाम की) रंगत चढ़ाने वाला है। हे मेरे प्रीतम! सारे जीव तुझे (ही) सिमरते हैं। हे सर्व-व्यापक (और फिर भी) निर्लिप प्रभू! तू सदा कायम रहने वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है। हे प्रभू! तू ही दातें देने वाला है, सारा जगत (तेरे दर का) मंगता है। हे हरी! हरेक माँग (जीव तुझसे ही) माँगते हैं। तू स्वयं ही मालिक है। हे हरी! गुरू की मति पर चलने से तू बहुत प्यारा लगता है।

हे भाई! परमात्मा (सारे) इन्द्रियों का मालिक है, तुम सभी अपने मुँह से उसकी सिफतसालाह करो, उसका नाम जपो, उसके नाम की बरकति से ही (जीव) सारे फल प्राप्त करते हैं।2।

सलोक मः ४ ॥ हरि हरि नामु धिआइ मन हरि दरगह पावहि मानु ॥ जो इछहि सो फलु पाइसी गुर सबदी लगै धिआनु ॥ किलविख पाप सभि कटीअहि हउमै चुकै गुमानु ॥ गुरमुखि कमलु विगसिआ सभु आतम ब्रहमु पछानु ॥ हरि हरि किरपा धारि प्रभ जन नानक जपि हरि नामु ॥१॥ {पन्ना 1313}

पद्अर्थ: मन = हे मन! पावहि = तू हासिल करेगा। इछहि = तू चाहेगा। पाइसी = देगा। सबदी = शबद से। किलविख = पाप। सभि = सारे। कटीअहि = काटे जाते हैं। चूकै = समाप्त हो जाता है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने से। कमलु = (हृदय का) कमल फूल। विगसिआ = खिल उठता है। सभु = हर जगह। पछानु = पहचान योग्य। जपि = मैं जपूँ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा परमात्मा का नाम सिमरा कर, परमात्मा की हजूरी में आदर हासिल करेगा। (परमात्मा से) जो तू माँगेगा वही फल (वह) देगा। (पर) गुरू के शबद से (प्रभू में) सुरति जुड़ सकती है। (जिस मनुष्य की जुड़ती है, उसके) सारे पाप-विकार काटे जाते हैं; (उसके अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है, अहम् दूर हो जाता है। हे मेरे मन! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का हृदय-कमल-फूल खिल उठता है, वह हर जगह परमात्मा को बसता पहचानने-योग्य हो जाता है।

हे नानक! (अरदास कर और कह-) हे प्रभू दास (नानक) पर मेहर कर, (मैं तेरा दास भी) नाम जपता रहूँ।1।

मः ४ ॥ हरि हरि नामु पवितु है नामु जपत दुखु जाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन मनि वसिआ आइ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै तिन दालदु दुखु लहि जाइ ॥ आपणै भाणै किनै न पाइओ जन वेखहु मनि पतीआइ ॥ जनु नानकु दासन दासु है जो सतिगुर लागे पाइ ॥२॥ {पन्ना 1313}

पद्अर्थ: पवितु = (आत्मिक जीवन को) स्वच्छ (बनाने वाला)। पूरबि = पहले जनम में। मनि = मन में। आइ = आ के। कै भाणै = की रजा में। दालदु = दलिद्र, गरीबी। जन = हे जनों! पतीआइ = तसल्ली कर के। लागे पाऐ = चरणों में लगे हुए हैं।

अर्थ: ( हे भाई!) परमात्मा का नाम (आत्मिक जीवन को) पवित्र बनाने योग्य है, नाम जपने से (हरेक) दुख दूर हो जाता है। (पर यह नाम) उन (मनुष्यों) के मन में आ के बसता है जिनके भाग्यों में शुरू से (पिछले किए कर्मों के अनुसार नाम जपने के संस्कारों का लेखा) लिखा होता है। (हे भाई!) जो जो मनुष्य गुरू की रजा में चलता है उनका दुख-दरिद्र दूर हो जाता है। पर, हे भाई! अपने मन में तसल्ली कर के देख लो, अपने मन की मर्जी में चल के किसी ने भी हरी-नाम प्राप्त नहीं किया।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के चरणों में पड़े रहते हैं, दास नानक उनके दासों का दास है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh