श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1314 पउड़ी ॥ तूं थान थनंतरि भरपूरु हहि करते सभ तेरी बणत बणावणी ॥ रंग परंग सिसटि सभ साजी बहु बहु बिधि भांति उपावणी ॥ सभ तेरी जोति जोती विचि वरतहि गुरमती तुधै लावणी ॥ जिन होहि दइआलु तिन सतिगुरु मेलहि मुखि गुरमुखि हरि समझावणी ॥ सभि बोलहु राम रमो स्री राम रमो जितु दालदु दुख भुख सभ लहि जावणी ॥३॥ {पन्ना 1314} पद्अर्थ: थनंतरि = थान अंतरि। थान थनंतरि = थान थान अंतरि हरेक जगह। करते = हे करतार! रंग परंग = कई रंगों की। सिसटि = सृष्टि। साजी = पैदा की। बहु बिधि = कई किस्म की। जोति = रौशनी। वरतहि = तू मौजूद है। तुधै = तू ही। मुखि गुरमुखि = गुरू के मुँह से। सभि = सारे। अर्थ: हे करतार! तू हरेक जगह में व्यापक है, संसार की सारी रचना तेरा ही रची हुई है। सारी सृष्टि तूने कई रंगों में बनाई है, कई किस्मों की पैदा की है। हे करतार! सारी सृष्टि में तेरा ही नूर है, और नूर में तू खुद ही मौजूद है। तू स्वयं ही (जगत के जीवों को) गुरू की शिक्षा में जोड़ता है। जिन पर तू दयावान होता है, उनको तू गुरू मिलाता है, और, गुरू के मुँह से तू उन्हें अपना ज्ञान देता है। हे भाई! तुम सब सुंदर राम का नाम जपो, सुंदर राम का नाम जपो, जिसकी बरकति से सारे दुख-भूख-दरिद्रता दूर हो जाती है।3। सलोक मः ४ ॥ हरि हरि अम्रितु नाम रसु हरि अम्रितु हरि उर धारि ॥ विचि संगति हरि प्रभु वरतदा बुझहु सबद वीचारि ॥ मनि हरि हरि नामु धिआइआ बिखु हउमै कढी मारि ॥ जिन हरि हरि नामु न चेतिओ तिन जूऐ जनमु सभु हारि ॥ गुरि तुठै हरि चेताइआ हरि नामा हरि उर धारि ॥ जन नानक ते मुख उजले तितु सचै दरबारि ॥१॥ {पन्ना 1314} पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। रसु = स्वाद। उर = हृदय। धारि = टिकाए रख। वीचारि = विचार से। मनि = मन में। बिखु हउमै = (आत्मिक जीवन को खत्म करने वाला) अहंकार जहर। मारि = मार के। जूअै = जूए (की खेल) में। हारि = हारा, हरा दिया, व्यर्थ गवा लिया। गुरि तुठै = च्रसन्न हुए गुरू ने। ते = वह लोग। मुख उजले = उज्जवल मुख वाले। तितु दरबारि = उस दरबार में। सचै दरबारि = सदा कायम रहने वाले दरबार में। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है; इस नाम-जल को इसके स्वाद को अपने हृदय में संभाले रख। (पर) गुरू के शबद के विचार से (ये बात) समझ लो (कि) परमात्मा साध-संगति में बसता है। (जिस मनुष्य ने अपने) मन में परमात्मा का नाम सिमरना शुरू कर दिया, (उसने अपने अंदर से आत्मिक मौत लाने वाले) अहंकार-जहर को मार के निकाल दिया। (हे भाई!) जिन लोगों ने परमात्मा का नाम याद नहीं किया, उन्होंने (अपना) सारा (मनुष्य-) जीवन (मानो) जूए (की खेल) में हार दिया। हे दास नानक! उस सदा कायम रहने वाले दरबार में वे मनुष्य सुर्ख-रू होते हैंजिन्होंने परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाया, जिन पर गुरू ने मेहर करके हरी-नाम का सिमरन सिखाया।1। मः ४ ॥ हरि कीरति उतमु नामु है विचि कलिजुग करणी सारु ॥ मति गुरमति कीरति पाईऐ हरि नामा हरि उरि हारु ॥ वडभागी जिन हरि धिआइआ तिन सउपिआ हरि भंडारु ॥ बिनु नावै जि करम कमावणे नित हउमै होइ खुआरु ॥ जलि हसती मलि नावालीऐ सिरि भी फिरि पावै छारु ॥ हरि मेलहु सतिगुरु दइआ करि मनि वसै एकंकारु ॥ जिन गुरमुखि सुणि हरि मंनिआ जन नानक तिन जैकारु ॥२॥ {पन्ना 1314} पद्अर्थ: कीरति = कीर्ति, सिफत सालाह। करणी = (करणीय) करने योग्य काम। सारु = श्रेष्ठ। विचि कलिजुग = कलियुगी संसार में, विकारों ग्रसित जगत में। पाईअै = मिलती है। उरि = हृदय में। भंडारु = खजाना। जि = जो। करम = (निहित) धार्मिक कर्म। होइ = होता है। जलि = पानी में। मलि = मल मल के। सिरि = सिर पर। छारु = राख। करि = कर के। मनि = मन में। मंनिआ = गहरी सांझ डाल ली। जैकारु = सदा शोभा। अर्थ: हे भाई! इस विकार-ग्रसित जगत में परमात्मा का नाम जपना, परमात्मा की सिफत सालाह करनी ही सबसे श्रेष्ठ करने-योग्य काम है। पर गुरू की मति पर चलने से ही यह सिफत सालाह मिलती है यह हरी-नाम हृदय में (परोए रखने के लिए) हार मिलता है। हे भाई! बड़े भाग्यशाली हैं वे मनुष्य जिन्होंने परमात्मा का नाम सिमरा है, (गुरू ने) उनको हरी-नाम खजाना सौंप दिया है। हे भाई! परमात्मा का नाम छोड़ के जो और-और (निहित धार्मिक) कर्म किए जाते हैं (उनके कारण पैदा हुए) अहंकार में (फस के मनुष्य) सदा दुखी होता रहता है। (देखो) हाथी को पानी में मल-मल के नहलाया जाता है, फिर भी वह (अपने) सिर पर राख (ही) डाल लेता है। हे प्रभू! मेहर करके (जीवों को) गुरू से मिला। (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू मिल जाता है, उसके) मन में परमात्मा आ बसता है। हे दास नानक! (कह- हे भाई!) जिन मनुष्यों ने गुरू की शरण पड़ कर प्रभू का नाम सुन कर (उसके साथ) गहरी सांझ डाली है उनको हर वक्त (लोक-परलोक में) शोभा मिलती है।2। पउड़ी ॥ राम नामु वखरु है ऊतमु हरि नाइकु पुरखु हमारा ॥ हरि खेलु कीआ हरि आपे वरतै सभु जगतु कीआ वणजारा ॥ सभ जोति तेरी जोती विचि करते सभु सचु तेरा पासारा ॥ सभि धिआवहि तुधु सफल से गावहि गुरमती हरि निरंकारा ॥ सभि चवहु मुखहु जगंनाथु जगंनाथु जगजीवनो जितु भवजल पारि उतारा ॥४॥ {पन्ना 1314} पद्अर्थ: वखरु = सौदा, खरीदने की चीज़। नाइकु = सरदार। वरतै = मौजूद है। करते = हे करतार! सचु = अस्तित्व वाला। पासारा = जगत खिलारा। सभि = सारे जीव। सफल = कामयाब। चवहु = बोलो। मुखहु = मुँह से। जगजीवनो = जगत का जीवन। जितु = जिससे। भवजल = संसार समुंद्र। अर्थ: हे भाई! (जगत का यह) खेल परमात्मा ने खुद बनाया है, (और इसमें) परमात्मा स्वयं ही (हर जगह) मौजूद है। (यह जगत-खेल में) परमात्मा का नाम (खरीदने के लिए सबसे) बढ़िया सौदा है, सारा जगत (हरेक जीव इस सौदे का) व्यापार करने वाला है। परमात्मा स्वयं हम बणजारों का सरदार है। हे करतार! यह सारा तेरा (बनाया हुआ जगत-) पसारा सचमुच अस्तित्व वाला है, इसमें हर जगह तेरा ही नूर है, और उस नूर में तू स्वयं ही है। हे निरंकार! सारे जीव तेरा ही ध्यान धरते हैं। जो गुरू की शिक्षा पर चल के (तेरी सिफत-सालाह के गीत) गाते हैं वे मानस-जीवन का मनोरथ हासिल कर लेते हैं। हे भाई! वह परमात्मा ही जगत का खसम है जगत का नाथ है जगत की जिंदगी (का सहारा) है सारे (अपने) मुँह से (उसका नाम) बोलो। उस (का नाम उचारने) से संसार-समुंद्र से पार लांघा जाया जाता है।4। सलोक मः ४ ॥ हमरी जिहबा एक प्रभ हरि के गुण अगम अथाह ॥ हम किउ करि जपह इआणिआ हरि तुम वड अगम अगाह ॥ हरि देहु प्रभू मति ऊतमा गुर सतिगुर कै पगि पाह ॥ सतसंगति हरि मेलि प्रभ हम पापी संगि तराह ॥ जन नानक कउ हरि बखसि लैहु हरि तुठै मेलि मिलाह ॥ हरि किरपा करि सुणि बेनती हम पापी किरम तराह ॥१॥ {पन्ना 1314} पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! हरि के गुण = हे हरी! तेरे गुण। अथाह = (ऐसा समुंद्र) जिसकी थाह ना पड़ सके। अगम = (इतने बेअंत कि उनके अंत तक) पहुँचा ना जा सके। किउ करि = कैसे? जपह = हम जपें। इआणिआ = अंजाने। अगाह = अगाध, (वह समुंद्र) जिसकी गहराई को ना मापा जा सके। कै पगि = के कदम पर। पाह = हम पड़ जाएं। हम तराह = हम तैर सकें। कउ = को। तुठै = अगर तू प्रसन्न हो। मेलि मिलाह = (तेरे) मिलाप में हम मिल सकते हैं। किरम = कीड़े। अर्थ: हे प्रभू! हे हरी! हम जीवों की (सिर्फ) एक जीभ है, पर तेरे गुण बेअंत हैं (एक ऐसा समुंद्र है) जिसकी थाह नहीं पाई जा सकती। हे प्रभू! तू बहुत अपहुँच है और गहरा है हम अंजान जीव तुझे कैसे जप सकते हैं? हे हरी! हमें कोई श्रेष्ठ बुद्धि बख्श जिसके सदका हम गुरू के चरणों पर गिर जाएं। हे प्रभू! हे हरी! हमें साध-संगति मिला कि (सत्संगियों की) संगति में हम पापी (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाएं। हे हरी! (अपने) दास नानक पर मेहर कर, अगर तू मेहर करे तो ही हम तेरे चरणों में मिल सकते हैं। हे हरी! कृपा कर, (हमारी) विनती सुन, हम पापी हम कीड़े (इस संसार-समुंद्र से) पार लांघ सकें।1। मः ४ ॥ हरि करहु क्रिपा जगजीवना गुरु सतिगुरु मेलि दइआलु ॥ गुर सेवा हरि हम भाईआ हरि होआ हरि किरपालु ॥ सभ आसा मनसा विसरी मनि चूका आल जंजालु ॥ गुरि तुठै नामु द्रिड़ाइआ हम कीए सबदि निहालु ॥ जन नानकि अतुटु धनु पाइआ हरि नामा हरि धनु मालु ॥२॥ {पन्ना 1314-1315} पद्अर्थ: जगजीवना = हे जगत के जीवन! हे जगत की जिंदगी के आसरे! दइआलु = दया का घर। हरि = हे हरी! भाईआ = अच्छी लगी। किरपालु = दयावान। मनसा = मन का फुरना। मनि = मन में (टिका हुआ)। आल = (आलय) घर। आल जंजाल = घर के बूँधन, घर का मोह। गुरि = गुरू ने। गुरि तुठै = प्रसन्न हुए गुरू ने। द्रिढ़ाइआ = (हृदय में) दृढ़ कर दिया। हम = हमें। सबदि = शबद से। नानकि = नानक ने। अतुटु = कभी ना खत्म होने वाला। पाइआ = ढॅँढ लिया, पा लिया। अर्थ: हे जगत के जिंदगी के आसरे हरी! मेहर कर (हमें) दया का श्रोत गुरू मिला। हे भाई! जब हरी स्वयं (हम पर) दयावान हुआ, तब गुरू की (बताई हुई) सेवा हमें अच्छी लगने लगी, सारी आशा और तृष्णा बिसर गई, मन में (टिका हुआ) घर का मोह (भी) खत्म हो गया। हे भाई! प्रसन्न हुए गुरू ने परमात्मा का नाम (हमारे मन में) पक्का कर दिया, अपने शबद से हमें (उसने) निहाल कर दिया। (गुरू की कृपा से) दास नानक ने परमात्मा का नाम-धन हासिल कर लिया है जो कभी खत्म होने वाला नहीं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |