श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः ४ ॥ भगति सरोवरु उछलै सुभर भरे वहंनि ॥ जिना सतिगुरु मंनिआ जन नानक वड भाग लहंनि ॥१॥ {पन्ना 1316}

पद्अर्थ: उछलै = उछाला आ रहा है। सुभर भरे = नाको नाक भरे हुए। वहंनि = बह रहे हैं। मंनिआ = श्रद्धा लाए। लहंनि = पा रहे हैं, ढूँढ रहे हैं।

अर्थ: हे भाई! गुरू (एक ऐसा) सरोवर है जिसमें भक्ति उछाले मार रही है, (गुरू एक ऐसी नदी है जिसमें परमात्मा की सिफत-सालाह के) लबा-लब भरे हुए बहाव चल रहे हैं। हे दास नानक! (कह- हे भाई!) जो मनुष्य गुरू में श्रद्धा बनाते हैं वे बहुत भाग्यों से (परमात्मा के गुणों के मोती) ढूँढ लेते हैं।1।

मः ४ ॥ हरि हरि नाम असंख हरि हरि के गुन कथनु न जाहि ॥ हरि हरि अगमु अगाधि हरि जन कितु बिधि मिलहि मिलाहि ॥ हरि हरि जसु जपत जपंत जन इकु तिलु नही कीमति पाइ ॥ जन नानक हरि अगम प्रभ हरि मेलि लैहु लड़ि लाइ ॥२॥ {पन्ना 1316}

पद्अर्थ: असंख = अनगिनत। कथनु न जाइ = बयान नहीं किए जा सकते। अगमु = अपहुँच। अगाधि = अथाह (समुंद्र)। कितु बिधि = किस तरीके से? मिलहि = मिलते हैं। मिलाहि = (औरों को) मिलाते हैं। जसु = सिफॅतसालाह का गीत। जपतु = जपते हुए। जपंत = (औरों से) जपाते हुए। न पाइ = नहीं पड़ सकती। अगम = हे अपहुँच! लड़ि लाइ = (अपने) पल्ले से लगा के।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम अनगिनत हैं, परमात्मा के गुण (भी बेअंत हैं), बयान नहीं किए जा सकते, परमात्मा अपहुँच है, (मानो) अथाह (समुंद्र) है। उसके सेवक भगत उसको कैसे मिलते हैं? (औरों को) कैसे मिलाते हैं? हे भाई! (परमात्मा के सेवक) परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाते हुए (स्वयं भी उसको मिलते हैं, और औरों को भी) जपाते हुए (उनकी भी उससे मुलाकात करवाते हैं)। (पर, परमात्मा के गुणों की) कीमत रक्ती भर भी नहीं पड़ सकती। (हे भाई! उसके दर पर अरदास ही करनी चाहिए कि) हे अपहुँच हरी प्रभू! अपने दास नानक को अपने लड़ लगा के (अपने चरणों में) मिला ले।2।

पउड़ी ॥ हरि अगमु अगोचरु अगमु हरि किउ करि हरि दरसनु पिखा ॥ किछु वखरु होइ सु वरनीऐ तिसु रूपु न रिखा ॥ जिसु बुझाए आपि बुझाइ देइ सोई जनु दिखा ॥ सतसंगति सतिगुर चटसाल है जितु हरि गुण सिखा ॥ धनु धंनु सु रसना धंनु कर धंनु सु पाधा सतिगुरू जितु मिलि हरि लेखा लिखा ॥८॥ {पन्ना 1316}

पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। किउ करि = कैसे? पिखा = मैं देखूँ। वखरु = (रूप = रेखा वाली कोई) चीज़। सु = वह। वरनीअै = वर्णन किया जा सकता है। रिखा = रेखा। बुझाए = समझाऐ। बुझाइ = समझ। देइ = दे के। दिखा = देखता है। चटसाल = पाठशाला। जितु = जिस में। सिखा = सीखे जा सकते हैं। रसना = जीभ। कर = हाथ (बहुवचन)। पाधा = अध्यापक। जितु = जिससे। मिलि हरि = हरी को मिल के। लिखा = लिखा जा सकता है।

अर्थ: हे भाई! मैं परमात्मा के दर्शन कैसे कर सकता हूँ? वह तो अपहुँच है, उसतक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। अगर कोई खरीदे जा सकने वाला पदार्थ हो तो (उसकी रूप-रेखा) बयान की जा सकती है, पर उस परमात्मा का ना कोई रूप है ना रेखा है। वही मनुष्य उसके दर्शन कर सकता है जिसको प्रभू स्वयं मति दे के समझाता है। (और, यह मति मिलती है साध-संगति में) साध-संगति सतिगुरू की पाठशाला है जिसमें परमात्मा के गुण सीखे जा सकते हैं। हे भाई! धन्य है वह जीभ (जो परमात्मा का नाम जपती है) धन्य हैं वह हाथ (जो साध-संगति में पंखे आदि की सेवा करते हैं) धन्य है वह पांधा (शिक्षक) गुरू जिसके माध्यम से परमात्मा को मिल के उसकी सिफत-सालाह की बातें की जाती हैं।8।

सलोक मः ४ ॥ हरि हरि नामु अम्रितु है हरि जपीऐ सतिगुर भाइ ॥ हरि हरि नामु पवितु है हरि जपत सुनत दुखु जाइ ॥ हरि नामु तिनी आराधिआ जिन मसतकि लिखिआ धुरि पाइ ॥ हरि दरगह जन पैनाईअनि जिन हरि मनि वसिआ आइ ॥ जन नानक ते मुख उजले जिन हरि सुणिआ मनि भाइ ॥१॥ {पन्ना 1316}

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। भाइ = प्रेम में। सतिगुर भाइ = गुरू के अनुसार (रह के)। पवितु = (जीवन को) पवित्र करने वाला। जाइ = दूर हो जाता है। मसतकि = माथे पर। जिन पाइ = जिन्होंने प्राप्त किया। लिखिआ धुरि = धुर से लिखे लेख। पैनाईअनि = (वर्तमान काल, करम वाच, अॅनपुरख, बहुवचन) पहनाए जाते हैं, सत्कार दिया जाता है। मनि = मन में। आइ = आ के। ते = वे लोग। मुख उजले = उज्जवल मुख वाले, सुर्खरू। भाइ = प्यार से।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है, (पर यह नाम) गुरू के अनुसार रह के जपा जा सकता है। प्रभू का नाम जीवन को पवित्र करने वाला है, इसको जपते हुए-सुनते हुए (हरेक) दुख दूर हो जाता है, (पर यह) हरी-नाम उन मनुष्यों ने ही सिमरा है जिन्होंने (पिछले किए कर्मों के अनुसार) माथे पर धुर दरगाह से लिखे हुए लेख प्राप्त किए हैं। जिनके मन में परमात्मा आ बसता है, परमात्मा की हजूरी में उनको आदर मिलता है। हे दास नानक! (कह- हे भाई!) जिन मनुष्यों ने प्रेम से अपने मन में परमात्मा (का नाम) सुना है वह (लोक-परलोक में) सुर्खरू होते हैं।1।

मः ४ ॥ हरि हरि नामु निधानु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ जिन धुरि मसतकि लिखिआ तिन सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ तनु मनु सीतलु होइआ सांति वसी मनि आइ ॥ नानक हरि हरि चउदिआ सभु दालदु दुखु लहि जाइ ॥२॥ {पन्ना 1316}

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। मसतकि = माथे पर। सीतलु = ठंडा ठार। मनि = मन में। चउदिआ = उचारते हुए, सिमरते हुए, जपते हुए। दालदु = दरिद्र।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे सुखों का) खजाना है, (पर) यह मिलता है गुरू की शरण पड़ने से। और, गुरू मिलता है उन मनुष्यों को, जिनके माथे पर (पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार गुरू-मिलाप का) लेख लिखा होता है। उनके मन में शांति बनी रहती है उनका मन उनका तन ठंडा-ठार टिका रहता है (उनके अंदर विकारों की तपश नहीं होती)।

हे नानक! (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपते हुए हरेक दरिद्र दूर हो जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ हउ वारिआ तिन कउ सदा सदा जिना सतिगुरु मेरा पिआरा देखिआ ॥ तिन कउ मिलिआ मेरा सतिगुरू जिन कउ धुरि मसतकि लेखिआ ॥ हरि अगमु धिआइआ गुरमती तिसु रूपु नही प्रभ रेखिआ ॥ गुर बचनि धिआइआ जिना अगमु हरि ते ठाकुर सेवक रलि एकिआ ॥ सभि कहहु मुखहु नर नरहरे नर नरहरे नर नरहरे हरि लाहा हरि भगति विसेखिआ ॥९॥ {पन्ना 1316}

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारिआ = कुर्बान, सदके। धुरि = धुर से। मसतकि = माथे पर। लेखिआ = लिखा। अगमु = अपहुँच। अगमु = अपहुँच। गुरमती = गुरू की मति से। रेखिआ = रेखा, चिन्ह, निशान। गुर बचनि = गुरू के बचन से, गुरू के हुकम में चल के। ते ठाकुर सेवक = ठाकुर के वह सेवक। रलि = (ठाकुर में) मिल के। सभि = सारे। नरहरे = जीवों के मालिक। लाहा = लाभ, नफा। विसेखिआ = विशेष, बढ़िया।

अर्थ: हे भाई! मैं सदके जाता हूँ सदा ही उन (मनुष्यों) पर से, जिन्होंने मेरे प्यारे गुरू का दर्शन (सदा) किया है, (पर) प्यारा गुरू उनको ही मिलता है, जिनके माथे पर (उनके पिछले किए कर्मों के अनुसार) धुर-दरगाह से (गुरू मिलाप का) लेख लिखा होता है। वह मनुष्य गुरू की शिक्षा पर चल कर उस अपहुँच परमात्मा का सिमरन करते रहते हैं जिसकी कोई रूप-रेखा बयान नहीं की जा सकती। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के हुकम में चल के उस अपहुँच परमात्मा का ध्यान करते हैं, परमात्मा के वह सेवक (परमात्मा में) मिल के (उसके साथ) एक-रूप हो जाते हैं।

हे भाई! तुम सभी (अपने) मुँह से सदा परमात्मा का नाम उचारते रहो। परमात्मा का नाम जपने का यह फायदा और सारे फायदों से बढ़िया है।9।

सलोक मः ४ ॥ राम नामु रमु रवि रहे रमु रामो रामु रमीति ॥ घटि घटि आतम रामु है प्रभि खेलु कीओ रंगि रीति ॥ हरि निकटि वसै जगजीवना परगासु कीओ गुर मीति ॥ हरि सुआमी हरि प्रभु तिन मिले जिन लिखिआ धुरि हरि प्रीति ॥ जन नानक नामु धिआइआ गुर बचनि जपिओ मनि चीति ॥१॥ {पन्ना 1316}

पद्अर्थ: रमु = सिमर। रवि रहे = जो (हर जगह) व्यापक है। रमीति = जो रमा हुआ है। घटि घटि = हरेक शरीर में। आतम रामु = परमात्मा। प्रभि = प्रभू ने। खेलु = जगत तमाशा। रंगि = (अपनी) मौज में। रीति = (अपने ही) ढंग से। निकटि = नजदीक। जगजीवना = जगत की जिंदगी (का सहारा)। परगासु = प्रकाश, सूझ बूझ। मीति = मित्र ने। धुरि = धुर से। गुर बचनि = गुरू के वचन से। मनि = मन मे। चीति = चिक्त में।

अर्थ: हे भाई! जिस प्रभू ने अपनी मौज में अपने ही ढंग से यह जगत खेल बनाई है, जो परमात्मा हरेक शरीर में मौजूद है, जो हर जगह रमा हुआ है, उसका नाम सदा सिमर, सदा सिमर। (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर) मित्र-गुरू ने सूझ-बूझ पैदा की (उसको समझ आ जाती है कि) जगत का जीवन प्रभू (हरेक के) नजदीक बसता है। (पर) स्वामी प्रभू उनको ही मिलता है जिनके माथे पर (पिछले किए कर्मों के अनुसार) धुर से ही परमात्मा के साथ प्यार का लेख लिखा होता है। हे दास नानक! जिन मनुष्यों ने गुरू के वचनों से (गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के) मन में चिक्त में नाम जपा है (दरअसल उन्होंने ही) नाम सिमरा है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh