श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1317 मः ४ ॥ हरि प्रभु सजणु लोड़ि लहु भागि वसै वडभागि ॥ गुरि पूरै देखालिआ नानक हरि लिव लागि ॥२॥ {पन्ना 1317} पद्अर्थ: लोड़ि लहु = ढूँढ लो। भागि = किस्मत से। वडभागि = बड़ी किस्मत से। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। लिव = लगन, सुरति। अर्थ: ( हे भाई!, गुरू की शरण पड़ के) मित्र प्रभू को ढूँढ लो, (वह मित्र प्रभू) किस्मत से बड़ी किस्मत से (हृदय में आ) बसता है। हे नानक! (कह- हे भाई!) जिस मनुष्य को पूरे गुरू ने (उसके) दर्शन करवा दिए, उसकी सुरति (हर वक्त) हरी-प्रभू में लगी रहती है।2। पउड़ी ॥ धनु धनु सुहावी सफल घड़ी जितु हरि सेवा मनि भाणी ॥ हरि कथा सुणावहु मेरे गुरसिखहु मेरे हरि प्रभ अकथ कहाणी ॥ किउ पाईऐ किउ देखीऐ मेरा हरि प्रभु सुघड़ु सुजाणी ॥ हरि मेलि दिखाए आपि हरि गुर बचनी नामि समाणी ॥ तिन विटहु नानकु वारिआ जो जपदे हरि निरबाणी ॥१०॥ {पन्ना 1317} पद्अर्थ: धनु धनु = धन्य धन्य, भाग्यशाली। सुहावी = सुखावीं, सुलक्षणी, सुंदर। जितु = जिस (घड़ी) में। मनि = मन में। भाणी = प्यारी लगी। प्रभ अकथ कहाणी = अकथ प्रभू की सिफत सालाह की बात। पाइअै = मिलता है। किउ = कैसे? सुघड़ ु = सुंदर घाड़त वाला। नामि = नाम में। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान। निरबाणी = वासना रहित, निर्लिप। अर्थ: (हे भाई! मनुष्य के लिए वह) घड़ी भाग्यशाली होती है मनुष्य जीवन का मनोरथ पूरा करने वाली होती है। जिस में (मनुष्य को अपने) मन में परमात्मा की सेवा-भक्ति अच्छी लगती है। हे मेरे गुरू के सिखो! तुम मुझे भी अकथ प्रभू की सिफत-सालाह की बातें सुनाओ (और बताओ कि) वह सुंदर समझदार प्रभू कैसे मिल सकता है कैसे उसका दर्शन हो सकता है। हे भाई! गुरू के वचनों पर चल के जिन मनुष्यों की सुरति परमात्मा के नाम में लीन होती है उनको परमात्मा स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ के अपना दर्शन करवाता है। हे भाई! नानक उनसे सदके जाता है जो निर्लिप परमात्मा (का नाम हर वक्त) जपते हैं।10। सलोक मः ४ ॥ हरि प्रभ रते लोइणा गिआन अंजनु गुरु देइ ॥ मै प्रभु सजणु पाइआ जन नानक सहजि मिलेइ ॥१॥ {पन्ना 1317} पद्अर्थ: रते = रंगे हुए। लोइणा = आँखें। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अंजनु = सुरमा। देइ = देता है। मै प्रभु = मेरा प्रभू, प्यारा प्रभू। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अर्थ: हे नानक! (कह- हे भाई! जिन मनुष्यों को) गुरू आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा देता है, उनकी आँखें प्रभू के प्यार में रंगी जाती हैं, उनको प्यारा प्रभू मिल जाता है, वे मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। मः ४ ॥ गुरमुखि अंतरि सांति है मनि तनि नामि समाइ ॥ नामु चितवै नामो पड़ै नामि रहै लिव लाइ ॥ नामु पदारथु पाईऐ चिंता गई बिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ नामु ऊपजै त्रिसना भुख सभ जाइ ॥ नानक नामे रतिआ नामो पलै पाइ ॥२॥ {पन्ना 1317} पद्अर्थ: गुरमुखि = जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है। अंतरि = अंदर। मनि तनि = मन से तन से, तन मन से। नामि = नाम में। चितवै = चेते करता है। लिव = लगन। लाइ = लगा के। पाईअै = मिलता है। गई बिलाइ = दूर हो जाती है। सतिगुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। नामे = नाम में ही। नामो = नाम ही। पलै पाइ = मिलता है। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है उसके अंदर शांति बनी रहती है वह मन से तन से (हर वक्त परमात्मा के) नाम में लीन रहता है, वह (सदा) नाम चेते करता है वह सदा नाम ही पढ़ता है, वह हरी-नाम में सुरति जोड़े रखता है। (हे भाई! अगर गुरू मिल जाए तो परमात्मा का) कीमती नाम हासिल हो जाता है (जिसको हासिल होता है उसके अंदर से) चिंता दूर हो जाती है। अगर गुरू मिल जाए तो (मनुष्य के अंदर) नाम (का बूटा) उग पड़ता है (जिसकी बरकति से माया की) प्यास (माया की) भूख सारी दूर हो जाती है। हे नानक! अगर परमात्मा के नाम में रंगे रहें तो ही नाम मिलता है।2। पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै तुधु आपे वसगति कीता ॥ इकि मनमुख करि हाराइअनु इकना मेलि गुरू तिना जीता ॥ हरि ऊतमु हरि प्रभ नामु है गुर बचनि सभागै लीता ॥ दुखु दालदु सभो लहि गइआ जां नाउ गुरू हरि दीता ॥ सभि सेवहु मोहनो मनमोहनो जगमोहनो जिनि जगतु उपाइ सभो वसि कीता ॥११॥ {पन्ना 1317} पद्अर्थ: उपाइ कै = पैदा करके। वसगति = वश में। इकि = कई जीव। मनमुख = (अपने) मन के मुरीद। करि = कर के। हाराइअनु = उस ने (जीवन बाजी में) हरा दिए। मेलि = मिला के। ऊतमु = (जीवन को) ऊँचा करने वाला। गुरबचनि = गुरू के उपदेश से। सभागै = भाग्यशाली (मनुष्य) ने। सभि = सारे। जिनि = जिस (प्रभू) ने। वसि = (अपने) वश में। अर्थ: हे प्रभू! तूने स्वयं ही जगत पैदा करके (इसको) स्वयं ही तूने (अपने) वश में रखा हुआ है। हे भाई! कई जीवों को मन का मुरीद बना के उस (परमात्मा) ने (जीवन-खेल में) हार दे दी है, पर कईयों को गुरू मिला के (उसने ऐसा बना दिया है कि) उन्होंने (जीवन की बाज़ी) जीत ली है। हे भाई! परमात्मा का नाम (मनुष्य के जीवन को) ऊँचा करने वाला है, पर किसी भाग्यशाली ने (ही) गुरू के उपदेश से (यह नाम) सिमरा है। जब गुरू ने परमात्मा का नाम (किसी भाग्यशाली को) दिया, तो उसका सारा दुख सारा दरिद्र दूर हो गया। हे भाई! तुम सभी उस मन-मोहन प्रभू का जग-मोहन प्रभू का नाम सिमरा करो, जिसने जगत पैदा करके यह सारा अपने वश में रखा हुआ है।11। सलोक मः ४ ॥ मन अंतरि हउमै रोगु है भ्रमि भूले मनमुख दुरजना ॥ नानक रोगु वञाइ मिलि सतिगुर साधू सजना ॥१॥ मः ४ ॥ मनु तनु तामि सगारवा जां देखा हरि नैणे ॥ नानक सो प्रभु मै मिलै हउ जीवा सदु सुणे ॥२॥ {पन्ना 1317} पद्अर्थ: भ्रमि = (माया की) भटकना में पड़ के। भूले = गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। वञाए = दूर कर। मिलि = मिल के।1। नोट: वारां ते वधीक सलोक महला ४ में नंबर 29 पर यह शलोक मिलता है, थोड़ा सा फर्क है। तामि = तब ही। सगारवा = गौरा, आदर योग। देखा = मैं देख सकूँ। नैणे = आँखों से। मै = मुझे। हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। सदु = (उसकी) आवाज़, सिफत सालाह की बात। सुणे = सुन के।2। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले दुराचारी मनुष्य भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं (क्योंकि) उनके मन में अहंकार (का) रोग (टिका रहता) है। हे नानक! (कह- हे भाई!) साधू-सज्जन गुरू को मिल के (ही यह) रोग दूर (दूर किया जा सकता है)।1। महला ४। हे भाई! (मेरा यह) मन और शरीर तब ही आदर-योग हो सकता है, जब मैं (अपनी) आँखों से परमात्मा के दर्शन कर सकूँ। हे नानक! (कह- हे भाई! जब) वह प्रभू मुझे मिलता है, तब मैं उसकी सिफत-सालाह की बात सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।2। पउड़ी ॥ जगंनाथ जगदीसर करते अपर्मपर पुरखु अतोलु ॥ हरि नामु धिआवहु मेरे गुरसिखहु हरि ऊतमु हरि नामु अमोलु ॥ जिन धिआइआ हिरदै दिनसु राति ते मिले नही हरि रोलु ॥ वडभागी संगति मिलै गुर सतिगुर पूरा बोलु ॥ सभि धिआवहु नर नाराइणो नाराइणो जितु चूका जम झगड़ु झगोलु ॥१२॥ {पन्ना 1317} पद्अर्थ: जगंनाथ = हे जगत के नाथ! जगदीसर = हे जगत के ईश्वर! करते = हे करतार! अपरंपरु = हे बेअंत! पुरख = सर्व व्यापक। अतोलु = जिसकी हस्ती का अंदाजा ना लग सके। ऊतमु = जीवन को ऊँचा बनाने वाला। अमोलु = जो किसी (माया आदि की) कीमत से ना मिल सके। हिरदै = हृदय में। रोलु = शक। मिलै = मिलता है। पूरा बोलु = पूरन उपदेश। सभि = सारे। जितु = जिस (सिमरन) से। झगड़ ु झगोलु = झगड़ा रगड़ा। अर्थ: हे जगत के नाथ! हे जगत के मालिक! हे बेअंत करतार! तू सर्व-व्यापक है, तेरी हस्ती का अंदाजा नहीं लग सकता। हे मेरे गुरू के सिखो! परमात्मा का नाम सिमरा करो, परमात्मा का नाम जीवन को ऊँचा करने वाला है (पर) वह नाम किसी मूल्य से नहीं मिलता। जिन मनुष्यों ने दिन-रात (हर वक्त) अपने हृदय में हरी-नाम सिमरा, वे मनुष्य परमात्मा के साथ एक-रूप हो गए, इसमें कोई शक नहीं है। (पर) बड़े भाग्यों से मनुष्य गुरू की संगति में मिलता है (और संगति में से उसको) गुरू का पूर्ण उपदेश मिलता है (जिसकी बरकति से वह हरी-नाम सिमरता है)। (सो, हे भाई! गुरू की संगति में मिल के) सभी परमात्मा का नाम सिमरा करो जिसकी बरकति से जम का रगड़ा-झगड़ा समाप्त हो जाता है।12। सलोक मः ४ ॥ हरि जन हरि हरि चउदिआ सरु संधिआ गावार ॥ नानक हरि जन हरि लिव उबरे जिन संधिआ तिसु फिरि मार ॥१॥ मः ४ ॥ अखी प्रेमि कसाईआ हरि हरि नामु पिखंन्हि ॥ जे करि दूजा देखदे जन नानक कढि दिचंन्हि ॥२॥ {पन्ना 1317-1318} पद्अर्थ: चउदिआ = उचारते हुओं को। सरु = तीर। संधिआ = चलाया, निशाना साधा। गावार = मूर्खों ने। लिव = सुरति। उबरे = बच गए। जिनि = जिस (मूर्ख) ने। फिरि = पलट के। मार = मौत, आत्मिक मौत।1। प्रेमि = प्रेम ने। कसाईआ = कसक डाली, खींच डाली। पिखंनि् = देखते हैं। दूजा = प्रभू के बिना कुछ और। कढि दिचंनि् = निकाल दिए जाते हैं।2। अर्थ: हे नानक! मूर्ख मनुष्य ही परमात्मा का नाम जपने वाले संत-जनों पर तीर चलाते हैं। पर, वे संत-जन तो परमात्मा में सुरति जोड़ के बच निकलते हैं। जिस (मूर्ख) ने (तीर) चलाया होता है, उसको ही पलट के मौत आती है (भाव, संत से वैर करने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं)।1। म: ४। (हे भाई! वही लोग हर जगह) परमात्मा का नाम देखते हैं, जिनकी आँखों को प्रेम ने कसक डाली होती है। पर, हे नानक! जो मनुष्य (प्रभू को छोड़ के) और-और को देखते हैं वे प्रभू की हजूरी में से निकाल दिए जाते हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |