श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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प्रभाती महला १ ॥ बारह महि रावल खपि जावहि चहु छिअ महि संनिआसी ॥ जोगी कापड़ीआ सिरखूथे बिनु सबदै गलि फासी ॥१॥ सबदि रते पूरे बैरागी ॥ अउहठि हसत महि भीखिआ जाची एक भाइ लिव लागी ॥१॥ रहाउ ॥ ब्रहमण वादु पड़हि करि किरिआ करणी करम कराए ॥ बिनु बूझे किछु सूझै नाही मनमुखु विछुड़ि दुखु पाए ॥२॥ सबदि मिले से सूचाचारी साची दरगह माने ॥ अनदिनु नामि रतनि लिव लागे जुगि जुगि साचि समाने ॥३॥ सगले करम धरम सुचि संजम जप तप तीरथ सबदि वसे ॥ नानक सतिगुर मिलै मिलाइआ दूख पराछत काल नसे ॥४॥१६॥ {पन्ना 1332}

पद्अर्थ: बारह = जोगियों के बारह पंथ (हेतु, पाव, आई, गम्य, पागल, गोपाल, कंथड़ी, बन, ध्वज, चोली, रावल और दास)। रावल = जोगी जो अलख अलख की धुनि करके भिक्षा माँगते हैं। जोगियों का एक खास फिरका जिसमें मुसलमान और हिन्दू दोनों हैं। चहु छिअ महि = दस (फिरकों) में (सन्यासियों के दस फिरके = तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, परवत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी)। कापड़ीआ = टाकी लगे हुई गोदड़ी अथवा चोला पहनने वाला। सिरखूथा = जैन मत का एक फिरका जो सिर के बाल जड़ से उखाड़ देता है, ढूँढीआ। गलि = गले में।1।

सबदि = गुरू के शबद में। बैरागी = विरक्त। अउहठ = (अवघट्ट) हृदय। अउहठि हसत = (अवघट्टस्थ) हृदय में टिका हुआ। भीखिआ = भिक्षा, दान। जाची = मांगी। ऐक भाइ = एक (परमात्मा) के प्यार में।1। रहाउ।

वादु = झगड़ा, चर्चा, बहस। करि = कर के। किरिआ करम = कर्म काण्ड। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला। विछुड़ि = प्रभू से विछुड़ के।2।

सूचा चारी = पवित्र आचरण वाले। नामि रतनि = नाम रतन में, श्रेष्ट नाम में। जुग जुग = हरेक युग में, सदा ही।3।

सुचि = पवित्रता। संजम = इन्द्रियों को वश में रखने के उद्यम। सतिगुर मिलै = (जो मनुष्य) गुरू को मिल जाता है। पराछत = पाप। काल = मौत का डर।4।

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की सिफत-सालाह की बाणी में रंगे रहते हैं, वे (माया के मोह से) पूरी तरह से उपराम रहते हैं। उन्होंने अपने दिल में टिके परमात्मा (के चरणों) में (जुड़ के सदा उसके नाम की) भिक्षा माँगी है, उनकी सुरति सिर्फ परमात्मा के प्यार में टिकी रहती है।1।

परमात्मा की सिफतसालाह से टूट के बारह फिरकों के जोगी और दसों फिरकों के सन्यासी खपते फिरते हैं। टाकी लगे चोले पहनने वाले जोगी और सिर के बालों को जड़ों से उखड़वाने वाले ढूँढिए जैनी भी (ख्वार ही होते रहते हैं)। गुरू के शबद के बिना इन सभी के गले में (माया के मोह का) फंदा पड़ा रहता है।1।

ब्राहमण ऊँचे आचरण (पर बल देने की जगह) कर्म-काण्ड कराता है, यह कर्म-काण्ड करके (इसी के आधार पर शास्त्रों में से) चर्चा पढ़ते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य परमात्मा की याद से टूट के आत्मिक दुख सहता है, क्योंकि (गुरू के शबद को) ना समझने के कारण इसको जीवन का सही रास्ता सूझता नहीं है।2।

पवित्र कर्तव्य वाले सिर्फ वही लोग हैं जो (मन से) गुरू के शबद में जुड़े हुए हैं, परमात्मा की सदा कायम रहने वाली दरगाह में उनको आदर मिलता है। उनकी लिव हर रोज प्रभू के श्रेष्ठ नाम में लगी रहती है, वे सदा ही सदा-स्थिर (की याद) में लीन रहते हैं।3।

(सिरे की बात) कर्म-काण्ड के सारे धर्म, (बाहरी) स्वच्छता, (बाहरी) संयम, जप तप और तीर्थ-स्नान- यह सारे ही गुरू के शबद में बसते हैं (भाव, प्रभू की सिफत सालाह की बाणी में जुड़ने वाले को इन कर्मों-धर्मों की आवश्यक्ता नहीं रह जाती)।

हे नानक! जो मनुष्य प्रभू की मेहर से गुरू को मिल जाता है। (गुरू की शरण आ जाता है) उस के सारे दुख-कलेश, पाप और मौत आदि के डर दूर हो जाते हैं।4।16।

प्रभाती महला १ ॥ संता की रेणु साध जन संगति हरि कीरति तरु तारी ॥ कहा करै बपुरा जमु डरपै गुरमुखि रिदै मुरारी ॥१॥ जलि जाउ जीवनु नाम बिना ॥ हरि जपि जापु जपउ जपमाली गुरमुखि आवै सादु मना ॥१॥ रहाउ ॥ गुर उपदेस साचु सुखु जा कउ किआ तिसु उपमा कहीऐ ॥ लाल जवेहर रतन पदारथ खोजत गुरमुखि लहीऐ ॥२॥ चीनै गिआनु धिआनु धनु साचौ एक सबदि लिव लावै ॥ निराल्मबु निरहारु निहकेवलु निरभउ ताड़ी लावै ॥३॥ साइर सपत भरे जल निरमलि उलटी नाव तरावै ॥ बाहरि जातौ ठाकि रहावै गुरमुखि सहजि समावै ॥४॥ सो गिरही सो दासु उदासी जिनि गुरमुखि आपु पछानिआ ॥ नानकु कहै अवरु नही दूजा साच सबदि मनु मानिआ ॥५॥१७॥ {पन्ना 1332}

पद्अर्थ: रेणु = चरण धूड़। कीरति = सिफत सालाह। तरु तारी = तारी तैर, (पार लांघने के लिए) ऐसा तैरो। कहा करै = क्या कर सकता है? कुछ बिगाड़ नहीं सकता। बपुरा = बेचारा। डरपै = डरता है। रिदै = हृदय में। मुरारी = परमात्मा।1।

जलि जाउ = जल जाए। जपउ = मैं जपता हूं। जपमाली = माला। सादु = स्वाद, रस। मना = हे मन!।1।

गुर उपदेस सुखु = गुरू के उपदेश का आनंद। जा कउ = जिस (मनुष्य) को। उपमा = वडिआई। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के।2।

चीनै = पहचानता है, समझता है। गिआनु = (परमात्मा से) गहरी सांझ। साचौ = सदा कायम रहने वाला। सबदि = शबद में। निरालंबु = (निर+आलंबु) जिसको किसी और आसरे की आवश्यक्ता नहीं। निहकेवलु = जिसको कोई वासना छूह नहीं सकती। ताड़ी लावै = अपनी सुरति में टिकाता है।3।

साइर = समुंद्र, सागर। सपत = सात। साइर सपत = सात समुंद्र, सात सरोवर (पाँच ज्ञानेन्द्रियां, मन और बुद्धि)। जल निरमलि = निर्मल जल से। उलटी = माया से पलटी हुई। नाव = बेड़ी, जीवन नईया। जातौ = जाता। ठाकि = रोक के। सहजि = सहज (अवस्था) में।4।

गिरही = गृहस्ती। उदासी = विरक्त। जिनि = जिस ने। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। आपु = अपने आप को। सबदि = शबद में।5।

अर्थ: प्रभू के नाम सिमरन के बिना (मनुष्य का) जीवन (विकारों की आग में जलता है तो) जलता रहे (सिमरन के बिना कोई और उद्यम इसको जलने से नहीं बचा सकता)। (इसलिए) हे (मेरे) मन! मैं परमात्मा का नाम जप के जपता हूँ (भाव, बार-बार परमात्मा का नाम ही जपता हूं), मैंने परमात्मा के जाप को ही माला (बना लिया है)। गुरू की शरण पड़ के (जपने से इस जाप का) आनंद आता है।1। रहाउ।

(हे मेरे मन!) संत जनों की चरण-धूल (अपने माथे पर लगा), साध-जनों की संगति कर, (सत्संग में) परमात्मा की सिफत-सालाह कर (संसार-समुंद्र की लहरों में से पार लांघने के लिए इस तरह) तैर। गुरू की शरण पड़ कर (जिस मनुष्य के) हृदय में परमात्मा (आ बसता) है, बेचारा जमराज (भी) उसका कुछ नहीं बिगाड़ नहीं सकता, बल्कि जमराज (उससे) डरता है।1।

जिस मनुष्य को सतिगुरू के उपदेश का सदा कायम रहने वाला आत्मिक आनंद आ जाता है, उसकी वडिआई बयान नहीं की जा सकती। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह (गुरू के उपदेश में से) खोजता-खोजता लाल हीरे रतन (आदि पदार्थों जैसे कीमती आत्मिक गुण) हासिल कर लेता है।2।

जो मनुष्य एक (प्रभू की सिफत) के शबद में सुरति जोड़ता है वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालनी समझ जाता है, परमात्मा में जुड़ी सुरति उसका सदा-स्थिर धन बन जाता है। वह मनुष्य अपनी सुरति में उस परमात्मा को टिका लेता है जिसको किसी अन्य आसरे की जरूरत नहीं जिसको किसी खुराक की जरूरत नहीं जिसको कोई वासना छू नहीं सकती।3।

(पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सातों ही जैसे, चश्मे हैं जिनसे हरेक इन्सान को आत्मिक जीवन की प्रफुल्लता वास्ते अच्छी-बुरी प्रेरणा का पानी मिलता रहता है) जिस मनुष्य के यह सातों ही सरोवर नाम-सिमरन के पवित्र जल से भरे रहते हैं (उसको इन से पवित्र प्रेरणा का जल मिलता है और) वह विकारों से उलट अपनी जिंदगी की बेड़ी नाम-जल में तैराता है। (नाम की बरकति से) वह बाहर भटकते मन को रोके रखता है, और गुरू की शरण पडत्र के अडोल अवस्था में लीन रहता है।4।

(यदि मन विकारों की तरफ़ भटकता ही रहे तो गृहस्थ अथवा विरक्त कहलवाने में कोई फर्क नहीं पड़ता) जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर अपने आप को पहचान लिया है वही (असल) गृहस्थी है और वही (प्रभू का) सेवक विरक्त है।

नानक कहता है जिस मनुष्य का मन सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की सिफत-सालाह) के शबद में गिझ जाता है, उसको प्रभू के बिना (कहीं भी) कोई और दूसरा नहीं दिखता।5।17।

रागु प्रभाती महला ३ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुरमुखि विरला कोई बूझै सबदे रहिआ समाई ॥ नामि रते सदा सुखु पावै साचि रहै लिव लाई ॥१॥ हरि हरि नामु जपहु जन भाई ॥ गुर प्रसादि मनु असथिरु होवै अनदिनु हरि रसि रहिआ अघाई ॥१॥ रहाउ ॥ अनदिनु भगति करहु दिनु राती इसु जुग का लाहा भाई ॥ सदा जन निरमल मैलु न लागै सचि नामि चितु लाई ॥२॥ सुखु सीगारु सतिगुरू दिखाइआ नामि वडी वडिआई ॥ अखुट भंडार भरे कदे तोटि न आवै सदा हरि सेवहु भाई ॥३॥ आपे करता जिस नो देवै तिसु वसै मनि आई ॥ नानक नामु धिआइ सदा तू सतिगुरि दीआ दिखाई ॥४॥१॥ {पन्ना 1332-1333}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रह के। बूझै = समझता है (एक वचन)। सबदे = गुरू के शबद से। रहिआ समाई = (सबमें) व्यापक है। नामि = नाम में। पावै = हासिल करता है। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। रहै लिव लाई = लगाए रखता है।1।

जन भाई = हे जनो! हे भाईयो! प्रसादि = कृपा से। असथिरु = स्थिर, अडोल। अनदिनु = हर रोज। रसि = रस से। रहिआ अघाई = तृप्त रहता है, अघाया रहता है।1।

सीगारु = गहना, (आत्मिक जीवन के लिए) गहना। अखुट = कभी ना खत्म होने वाले। भंडार = खजाने।3।

आपे = स्वयं ही। तिसु मनि = उस (मनुष्य) के मन में। सतिगुरि = सतिगुरू ने।4।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई जनो! सदा परमात्मा का नाम जपा करो। (नाम जपने से) गुरू की कृपा से (मनुष्य का) मन (माया के हमलों के मुकाबले के वक्त) अडोल रहता है। हरी-नाम के स्वाद की बरकति से (मनुष्य) हर वक्त (माया की लालच से) तृप्त रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! कोई विरला मनुष्य गुरू के सन्मुख रह के गुरू के शबद से (यह) समझ लेता है कि परमात्मा सब जगह व्यापक है। परमात्मा के नाम में रति रह के (मनुष्य) सदा आत्मिक आनंद माणता है, सदा कायम रहने वाले प्रभू में सुरति जोड़े रखता है।1।

हे भाई! दिन-रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करते रहो। यही है इस मानस जीवन का लाभ। (भगती करने वाले) मनुष्य सदा पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। जो मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम में चिक्त जोड़ता है (उसके मन को विकारों की) मैल नहीं लगती।2।

हे भाई! आत्मिक आनंद (मनुष्य जीवन के लिए एक) गहना है। (जिस मनुष्य को) गुरू ने (यह गहना) दिखा दिया, उसने हरी-नाम में जुड़ के (लोक-परलोक की) इज्जत कमा ली। हे भाई! सदा प्रभू की सेवा-भगती करते रहो (सदा भगती करते रहने से यह) कभी ना खत्म होने वाले खजाने (मनुष्य के अंदर) भरे रहते हैं, (इन खजानों में) कभी कमी नहीं आती।

पर, हे भाई! यह नाम-खजाना जिस मनुष्य को करतार स्वयं ही देता है, उसके मन में आ बसता है। हे नानक! तू सदा हरी-नाम सिमरता रह। (भगती-सिमरन का ये रास्ता) गुरू ने (ही) दिखाया है (ये रास्ता गुरू के माध्यम से ही मिलता है)।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh