श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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प्रभाती महला ३ ॥ निरगुणीआरे कउ बखसि लै सुआमी आपे लैहु मिलाई ॥ तू बिअंतु तेरा अंतु न पाइआ सबदे देहु बुझाई ॥१॥ हरि जीउ तुधु विटहु बलि जाई ॥ तनु मनु अरपी तुधु आगै राखउ सदा रहां सरणाई ॥१॥ रहाउ ॥ आपणे भाणे विचि सदा रखु सुआमी हरि नामो देहि वडिआई ॥ पूरे गुर ते भाणा जापै अनदिनु सहजि समाई ॥२॥ तेरै भाणै भगति जे तुधु भावै आपे बखसि मिलाई ॥ तेरै भाणै सदा सुखु पाइआ गुरि त्रिसना अगनि बुझाई ॥३॥ जो तू करहि सु होवै करते अवरु न करणा जाई ॥ नानक नावै जेवडु अवरु न दाता पूरे गुर ते पाई ॥४॥२॥ {पन्ना 1333}

पद्अर्थ: कउ = को। सुआमी = हे स्वामी! आपे = (तू) स्वयं ही। सबदे = (गुरू के) शबद में (जोड़ के)। बुझाई = (आत्मिक जीवन की) सूझ।1।

बलि जाइ = कुर्बान जाता हूं। अरपी = मैं भेट करता हूँ। राखउ = मैं रखता हूँ।1। रहाउ।

सुआमी = हे स्वामी! नामो = नाम ही। वडिआई = इज्जत। ते = से, के द्वारा। जापै = प्रतीत होता है, समझ में आता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाई = लीनता।2।

भाणै = रजा में, (ईश्वर) की मर्जी में। तुधु = तुझे। भावै = अच्छा लगे। गुरि = गुरू ने।3।

करते = हे करतार! जेवडु = बराबर। ते = से। पाई = प्राप्त होता है।4।

अर्थ: हे प्रभू जी! मैं तुझसे सदके जाता हूँ। मैं (अपना) तन (अपना) मन भेटा करता हूँ, तेरे आगे रखता हूँ (मेहर कर,) मैं सदा तेरी शरण पड़ा रहूँ।1। रहाउ।

हे मेरे स्वामी! (मुझ) गुण-हीन को बख्श ले, तू स्वयं ही (मुझे अपने चरणों से जोड़े रख। तू बेअंत है, तेरे गुणों का किसी ने अंत नहीं पाया। (हे स्वामी! गुरू के) शबद में (जोड़ के) मुझे (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श।1।

हे मेरे स्वामी! मुझे सदा अपनी रज़ा में रख, मुझे अपना नाम ही दे (यह ही मेरे वास्ते) इज्जत (है)। हे भाई! पूरे गुरू से (परमात्मा की) रज़ा की समझ आती है, और हर वक्त आत्मिक अडोलता में लीनता हो सकती है।2।

हे मेरे स्वामी! अगर तुझे अच्छा लगे तो तेरी रज़ा में ही तेरी भगती हो सकती है, तू स्वयं ही मेहर करके अपने चरणों में जोड़ता है। (जिस मनुष्य के अंदर से) गुरू ने तृष्णा की आग बुझा दी, उसने (हे प्रभू!) तेरी रज़ा में रह के सदा आत्मिक आनंद पाया।3।

हे करतार! (जगत में) वही कुछ होता है जो कुछ तू (स्वयं) करता है (तेरी मर्जी के उलट) और कुछ नहीं किया जा सकता। हे नानक! परमात्मा के नाम के बराबर का और कोई दातें देने वाला नहीं है। यह नाम गुरू से (ही) मिलता है।4।2।

प्रभाती महला ३ ॥ गुरमुखि हरि सालाहिआ जिंना तिन सलाहि हरि जाता ॥ विचहु भरमु गइआ है दूजा गुर कै सबदि पछाता ॥१॥ हरि जीउ तू मेरा इकु सोई ॥ तुधु जपी तुधै सालाही गति मति तुझ ते होई ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि सालाहनि से सादु पाइनि मीठा अम्रितु सारु ॥ सदा मीठा कदे न फीका गुर सबदी वीचारु ॥२॥ जिनि मीठा लाइआ सोई जाणै तिसु विटहु बलि जाई ॥ सबदि सलाही सदा सुखदाता विचहु आपु गवाई ॥३॥ सतिगुरु मेरा सदा है दाता जो इछै सो फलु पाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई गुर सबदी सचु पाए ॥४॥३॥ {पन्ना 1333}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। सालाहिआ = सिफत सालाह की। सलाहि जाता = सिफत सालाह करने की जाच आई। भरमु दूजा = माया वाली भटकना। कै सबदि = के शबद से।1।

सोई = सार लेने वाला। जपी = मैं जपता हूँ। तुधै = तुझे ही। सालाही = मैं सराहना करता हूँ। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। तुझ ते = तेरे से।1। रहाउ।

सालाहनि = सराहना करते हैं (बहुवचन)। से = वे (बहुवचन)। सादु = स्वाद। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सारु = श्रेष्ट। गुर सबदी = गुरू के शबद से। आपु = स्वै भाव। गवाई = गवा के, दूर करके।3।

इछै = माँगता है (एकवचन)। सचु = सदा कायम रहने वाला हरी।4।

अर्थ: हे प्रभू जी! मेरी सार लेने वाला सिर्फ एक तू ही है। मैं (सदा) तुझे (ही) जपता हूँ, मैं (सदा) तुझे ही सलाहता हूँ। ऊँची आत्मिक अवस्था और ऊँची अक्ल तुझसे ही मिलती है।1। रहाउ।

हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा की सिफत सालाह की, उन्होंने ही सिफतसालाह करनी सीखी। उनके अंदर से माया वाली भटकना दूर हो जाती है, गुरू के शबद से वे परमात्मा के साथ सांझ डाल लेते हैं।1।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा की सिफत-सालाह करते हैं, वे (उसका) आनंद पाते हैं। आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल उनको मीठा लगता है (और सब पदार्थों से) श्रेष्ठ लगता है। वे मनुष्य गुरू के शबद से (परमात्मा के नाम का) विचार (करते हैं, उसका स्वाद उनको) सदा मीठा लगता है, कभी बेस्वादा नहीं लगता।2।

पर, हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (अपना नाम) मीठा महसूस करवाया है, वह स्वयं ही (इस भेद को) जानता है। मैं उससे सदा सदके जाता हूँ। मैं (गुरू के) शबद से (अपने अंदर से) स्वै-भाव दूर करके उस सुख-दाते परमात्मा की सदा सिफत-सालाह करता हूँ।3।

हे भाई! प्यारा गुरू सदा (हरेक) दाति देने वाला है जो मनुष्य (गुरू से) माँगता है, वह फल हासिल कर लेता है। हे नानक! (गुरू से परमात्मा का) नाम मिलता है (यही है असल) इज्जत। गुरू के शबद से (मनुष्य) सदा-स्थिर प्रभू को मिल जाता है।4।3।

प्रभाती महला ३ ॥ जो तेरी सरणाई हरि जीउ तिन तू राखन जोगु ॥ तुधु जेवडु मै अवरु न सूझै ना को होआ न होगु ॥१॥ हरि जीउ सदा तेरी सरणाई ॥ जिउ भावै तिउ राखहु मेरे सुआमी एह तेरी वडिआई ॥१॥ रहाउ ॥ जो तेरी सरणाई हरि जीउ तिन की करहि प्रतिपाल ॥ आपि क्रिपा करि राखहु हरि जीउ पोहि न सकै जमकालु ॥२॥ तेरी सरणाई सची हरि जीउ ना ओह घटै न जाइ ॥ जो हरि छोडि दूजै भाइ लागै ओहु जमै तै मरि जाइ ॥३॥ जो तेरी सरणाई हरि जीउ तिना दूख भूख किछु नाहि ॥ नानक नामु सलाहि सदा तू सचै सबदि समाहि ॥४॥४॥ {पन्ना 1333-1334}

पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभू जी! तिन = उनको (बहुवचन)। राखन जोगु = रक्षा करने की ताकत वाला। जेवडु = बराबर का। अवरु = कोई और। को = कोई (सर्वनाम)। होगु = (भविष्य में) होगा।1।

भावै = (तुझे) अच्छा लगे। सुआमी = हे स्वामी! वडिआई = बड़प्पन, समर्थता।1। रहाउ।

करहि = तू करता है। प्रतिपाल = पालना, सहायता। करि = कर के। पोहि न सकै = (अपना) प्रभाव नहीं डाल सकता, डरा नहीं सकता।2।

सची = सदा कायम रहने वाली। न जाइ = खत्म नहीं होती, नाश नहीं होती। छोडि = छोड़ के। दूजै भाइ = किसी और प्यार में। तै = और। मरि जाइ = मर जाता है।3।

नानक = हे नानक! सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह में। समाहि = तू लीन रहेगा।4।

अर्थ: हे प्रभू जी! (मेहर कर, मैं) सदा तेरी शरण पड़ा रहूँ। हे मेरे स्वामी! जैसे तुझे अच्छा लगे (मेरी) रक्षा कर (हम जीवों की रक्षा कर सकना) यह तेरी ही समर्थता है।1। रहाउ।

हे प्रभू जी! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ते हैं, तू उनकी रक्षा करने के समर्थ है। हे प्रभू जी! तेरे बराबर का मुझे और कोई नहीं सूझता। (अभी तक तेरे बराबर का) ना कोई हुआ है (और भविष्य में) ना कोई होगा।1।

हे प्रभू जी! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ते हैं, तू (स्वयं) उनकी पालना करता है। मेहर करके तू स्वयं उनकी रक्षा करता है, उनको (फिर) मौत का डर छू नहीं सकता।1।

हे प्रभू जी! तेरी ओट सदा कायम रहने वाली है, ना वह घटती है ना वह खत्म होती है। पर, हे भाई! जो मनुष्य प्रभू (की ओट) छोड़ के माया के प्यार में लग जाता है, वह जनम-मरण के चक्करों में पड़ जाता है।3।

हे प्रभू जी! जो मनुष्य तेरी शरण पड़ते हैं उनको कोई दुख नहीं दबा सकता, उनको (माया की) भूख नहीं व्यापती। हे नानक! परमात्मा का नाम सदा सलाहते रहा कर, इस तरह तू सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह में लीन रहेगा।4।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh