श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1335 प्रभाती महला ३ ॥ मेरे मन गुरु अपणा सालाहि ॥ पूरा भागु होवै मुखि मसतकि सदा हरि के गुण गाहि ॥१॥ रहाउ ॥ अम्रित नामु भोजनु हरि देइ ॥ कोटि मधे कोई विरला लेइ ॥ जिस नो अपणी नदरि करेइ ॥१॥ गुर के चरण मन माहि वसाइ ॥ दुखु अन्हेरा अंदरहु जाइ ॥ आपे साचा लए मिलाइ ॥२॥ गुर की बाणी सिउ लाइ पिआरु ॥ ऐथै ओथै एहु अधारु ॥ आपे देवै सिरजनहारु ॥३॥ सचा मनाए अपणा भाणा ॥ सोई भगतु सुघड़ु सुोजाणा ॥ नानकु तिस कै सद कुरबाणा ॥४॥७॥१७॥७॥२४॥ {पन्ना 1335} पद्अर्थ: मन = हे मन! सालाहि = उपमा किया कर, वडिआई किया कर। भागु = भाग्य। मुखि = मुँह पर। मसतकि = माथे पर। गाहि = डुबकी लगाया कर। गुण गाहि = गुणों में डुबकी लगाया कर।1। रहाउ। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। देइ = देता है। कोटि मधे = करोड़ों में से। लेइ = लेता है। नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = करता है।1। जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। वसाइ = बसाए रख। जाइ = दूर हो जाता है। अनेरा = अंधेरा, आत्मिक जीवन से बेसमझी का अंधेरा। आपे = स्वयं ही। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभू।2। सिउ = साथ। अैथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। अधारु = (जिंदगी का) आसरा।3। भाणा = रज़ा, मर्जी। मनाऐ = मानने के लिए मदद करता है। सुघड़ ु = सुंदर मानसिक घाड़त वाला, सुचॅजा। सुोजाणा = समझदार। तिस कै = उस से। सद = सदा।4। 'सुोजाणा' अक्षर 'स' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'सुजाणा', यहां 'सोजाणा' पढ़ना है। 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'कै' के कारण हटा दी गई है । अर्थ: हे मेरे मन! (सदा) अपने गुरू की शोभा किया कर, (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा के गुणों में डुबकी लगाया कर। तेरे माथे पर पूरी किस्मत जाग उठेगी।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है, (उसको उसकी जिंद के लिए) खुराक (अपना) आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्शता है, (पर) करोड़ों में से कोई विरला मनुष्य ही (यह दाति) हासिल करता है।1। हे भाई! गुरू के (सुंदर) चरण (अपने) मन में टिकाए रख (इस तरह) मन में से (हरेक) दुख दूर हो जाता है, (आत्मिक जीवन का) बेसमझी का (अज्ञानता भरा) अंधेरा हट जाता है (और) सदा कायम रहने वाला (प्रभू) स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिला लेता है।2। हे भाई! सतिगुरू की बाणी से प्यार जोड़। (यह बाणी ही) इस लोक और परलोक में (जिंदगी का) आसरा है (पर यह दाति) जगत को पैदा करने वाला प्रभू स्वयं ही देता है।3। हे भाई! सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा (गुरू की शरण में डाल के) अपनी रज़ा मीठी कर के मानने के लिए (मनुष्य की) सहायता करता है। (जो मनुष्य रज़ा को मान लेता है) वही है सुंदर-सदाचारी-समझदार भगत। (ऐसे मनुष्य से) नानक सदा सदके जाता है।4।7।17।7।24। वेरवा अंकों का: प्रभाती महला ४ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रसकि रसकि गुन गावह गुरमति लिव उनमनि नामि लगान ॥ अम्रितु रसु पीआ गुर सबदी हम नाम विटहु कुरबान ॥१॥ हमरे जगजीवन हरि प्रान ॥ हरि ऊतमु रिद अंतरि भाइओ गुरि मंतु दीओ हरि कान ॥१॥ रहाउ ॥ आवहु संत मिलहु मेरे भाई मिलि हरि हरि नामु वखान ॥ कितु बिधि किउ पाईऐ प्रभु अपुना मो कउ करहु उपदेसु हरि दान ॥२॥ सतसंगति महि हरि हरि वसिआ मिलि संगति हरि गुन जान ॥ वडै भागि सतसंगति पाई गुरु सतिगुरु परसि भगवान ॥३॥ गुन गावह प्रभ अगम ठाकुर के गुन गाइ रहे हैरान ॥ जन नानक कउ गुरि किरपा धारी हरि नामु दीओ खिन दान ॥४॥१॥ {पन्ना 1335} पद्अर्थ: रसकि = स्वाद से। रसकि सरकि = बार बार स्वाद से। गावह = आओ हम गाया करें। उनमनि = (प्रभू मिलाप की) तमन्ना में। नामि = नाम में। लगान = लग जाती है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। विटहु = से।1। जगजीवन हरि = जगत के जीवन प्रभू जी। प्रान = जिंद जान। रिद = हृदय। भाइआ = प्यारा लग जाता है। गुरि = गुरू ने। मंतु = उपदेश। कान = कानों में!। रहाउ। संत = हे संत जनो! भाई = हे भाईयो! मिलि = मिल के। वखान = उचारें। कितु = किस से? कितु बिधि = किसी बिधि से? किउ = कैसे? मो कउ = मुझे।2। हरि गुन जान = प्रभू के गुणों के साथ सांझ बनती है। भागि = किस्मत से। परसि = छू के।3। गावह = आओ हम गाएँ। अगम = अपहुँच। गाइ = गा के। हैरान = विस्माद अवस्था में। गुरि = गुरू ने।4। अर्थ: हे भाई! जगत के जीवन प्रभू जी ही हम जीवों की जिंद-जान हैं (फिर भी हम जीवों को यह समझ नहीं आती)। (जिस मनुष्य के) कानों में गुरू ने हरी-नाम का उपदेश दे दिया, उस मनुष्य को उक्तम हरी (अपने) हृदय में प्यारा लगने लग जाता है।1। रहाउ। हे भाई! गुरू की मति पर चल के, आओ हम बार-बार स्वाद से परमात्मा के गुण गाया करें, (इस तरह) परमात्मा के नाम में लगन लग जाती है (प्रभू मिलाप की) तमन्ना में सुरति टिकी रहती है। हे भाई! गुरू के शबद की बरकति से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीया जा सकता है। हे भाई! मैं तो परमात्मा के नाम से सदके जाता हूँ।1। हे संत जनो! हे मेरे भाईयो! आओ, मिल बैठो। मिल के परमात्मा का नाम जपें। हे संत जनो! प्रभू-मिलाप का उपदेश मुझे बतौर दान देवो (और मुझे बताओ कि) प्यारा प्रभू कैसे किस ढंग से मिल सकता है।2। हे भाई! परमात्मा साध-संगति में सदा बसता है। साध-संगति में मिल के परमात्मा के गुणों की सांझ पड़ सकती है। जिसको बड़ी किस्मत से साध-संगति प्राप्त हो गई, उसने गुरू सतिगुरू (के चरण) छूह के भगवान (का मिलाप हासिल कर लिया)।3। हे भाई! आओ, अपहुँच ठाकुर प्रभू के गुण गाया करें। उसके गुण गा-गा के (उसकी वडिआई आँखों के सामने ला-ला के) हैरत में गुंम हुआ जाता है। हे नानक! जिस दास पर गुरू ने मेहर की, उसको (गुरू ने) एक छिन में परमात्मा का नाम दान दे दिया।4।1। प्रभाती महला ४ ॥ उगवै सूरु गुरमुखि हरि बोलहि सभ रैनि सम्हालहि हरि गाल ॥ हमरै प्रभि हम लोच लगाई हम करह प्रभू हरि भाल ॥१॥ मेरा मनु साधू धूरि रवाल ॥ हरि हरि नामु द्रिड़ाइओ गुरि मीठा गुर पग झारह हम बाल ॥१॥ रहाउ ॥ साकत कउ दिनु रैनि अंधारी मोहि फाथे माइआ जाल ॥ खिनु पलु हरि प्रभु रिदै न वसिओ रिनि बाधे बहु बिधि बाल ॥२॥ सतसंगति मिलि मति बुधि पाई हउ छूटे ममता जाल ॥ हरि नामा हरि मीठ लगाना गुरि कीए सबदि निहाल ॥३॥ हम बारिक गुर अगम गुसाई गुर करि किरपा प्रतिपाल ॥ बिखु भउजल डुबदे काढि लेहु प्रभ गुर नानक बाल गुपाल ॥४॥२॥ {पन्ना 1335} पद्अर्थ: सूरु = सूरज। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बोलहि = बोलते हैं। रैनि = रात। समालहि = संभालते हें, याद करते हें। हरि गाल = हरी की (सिफॅत-सालाह की) बातें। हमरै प्रभि = हमारे प्रभू ने, मेरे प्रभू ने। लोच = तमन्ना। हम = मुझे, हमें। हम करह = हम करते हैं, मैं करता हूं। भाल = तलाश।1। साधू = गुरू। रवाल = चरण धूल। द्रिढ़ाइओ = हृदय में पक्का कर दिया है। गुरि = गुरू ने। गुर पग = गुरू के पैर। झारह हम = हम झाड़ते हैं। बाल = केसों से।1। रहाउ। साकत कउ = प्रभू से टूटे हुए लोगों को। अंधारी = अंधेरी। मोहि = मोह में। जाल = फंदे। रिदै = हृदय में। रिनि = कर्जे से (ऋण = करज़ा)। बाल बाधे = बाल बाल बचे रहते हैं।2। मिलि = मिल के। हउ = अहंकार। ममता जाल = अपनत्व के फंदे। गुरि = गुरू ने। सबदि = शबद से। निहाल = प्रसन्न, शांत।3। हम = हम जीव। बारिक = बच्चे। गुर = बड़ा। अगम = अपहुँच। गुसाई = धरती का पति। (गो = धरती। सांई = पति)। गुर = हे गुरू! प्रतिपाल = रक्षा कर। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। भउजल = संसार समुंद्र। प्रभ = हे प्रभू! गुपाल = हे गुपाल! हे सृष्टि के रखवाले!।4। अर्थ: हे भाई! गुरू ने परमात्मा का मीठा नाम मेरे हृदय में पक्का कर दिया है। मैं (अपने) केसों से गुरू के चरण झाड़ता हूं। मेरा मन गुरू के चरणों की धूड़ हुआ रहता है।1। रहाउ। हे भाई! (जब) सूर्य उदय होता है गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा का नाम जपने लग जाते हैं, सारी रात भी वे परमात्मा की सिफतसालाह की बातें ही करते हैं। मेरे प्रभू ने भी मेरे अंदर ये लगन पैदा कर दी है, (इसलिए) मैं भी प्रभू की तलाश करता रहता हूँ।1। हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों के लिए (सारा) दिन (सारी) रात घोर अंधेरा होता है, (क्योंकि वह) माया के मोह में, माया (के मोह) के फंदों में फसे रहते हैं। उनके हृदय में परमात्मा एक छिन भर भी एक पल भर भी नहीं बसता। वह कई तरीकों से (विकारों के) करज़े में बाल-बाल बँधे रहते हैं।2। हे भाई! जिन मनुष्यों ने साध-संगति में मिल के (ऊँची) मति (ऊँची) बुद्धि प्राप्त कर ली, (उनके अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है, माया के मोह के फंदे टूट जाते हैं। उनको प्रभू का नाम प्यारा लगने लग जाता है। गुरू ने (उनको अपने) शबद की बरकति से निहाल कर दिया होता है।3। हे गुरू! हे अपहुँच मालिक! हम जीव तेरे (अंजान) बच्चे हैं। हे गुरू! मेहर कर, हमारी रक्षा कर। हे नानक! (कह-) हे गुरू! हे प्रभू! हे धरती के रखवाले! ळम तेरे (अंजान) बच्चे हैं, आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के समुंद्र में हम डूबते हुओं को बचा ले।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |