श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1336 प्रभाती महला ४ ॥ इकु खिनु हरि प्रभि किरपा धारी गुन गाए रसक रसीक ॥ गावत सुनत दोऊ भए मुकते जिना गुरमुखि खिनु हरि पीक ॥१॥ मेरै मनि हरि हरि राम नामु रसु टीक ॥ गुरमुखि नामु सीतल जलु पाइआ हरि हरि नामु पीआ रसु झीक ॥१॥ रहाउ ॥ जिन हरि हिरदै प्रीति लगानी तिना मसतकि ऊजल टीक ॥ हरि जन सोभा सभ जग ऊपरि जिउ विचि उडवा ससि कीक ॥२॥ जिन हरि हिरदै नामु न वसिओ तिन सभि कारज फीक ॥ जैसे सीगारु करै देह मानुख नाम बिना नकटे नक कीक ॥३॥ घटि घटि रमईआ रमत राम राइ सभ वरतै सभ महि ईक ॥ जन नानक कउ हरि किरपा धारी गुर बचन धिआइओ घरी मीक ॥४॥३॥ {पन्ना 1336} पद्अर्थ: प्रभि = प्रभू के। रसक रसीक = हरी नाम के रस के रसीआ ने। दोऊ = दोनों ही। मुकते = विकारों से बचे हुए। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। हरि पीक = हरी नाम रस पीता है।1। मेरै मनि = मेरे मनि में। टीक = टिका हुआ है। गुरमुखि = गुरू से। सीतल = ठंढा। हरि रसु = हरी नाम रस। झीक = डीक लगा के।1। जिन हिरदै = जिन के हृदय में। मसतकि = माथे पर। टीक = टीका। ऊजल = रौशन, चमकता। ऊपरि = ऊपर। उडवा = तारे। ससि = चंद्रमा। कीक = किया हुआ है।2। सभि = सारे। फीक = फीके, कोरे, रूखे, बेस्वादे। सीगारु = सजावट। देह = शरीर। करै = करता है (एक वचन)। नकटे = नाक कटे। कीक = क्या?।3। घटि घटि = हरेक शरीर में। रमईआ = सुंदर राम। रमता = व्यापक है। राम राइ = प्रभू पातशाह। सभ वरतै = सारी सृष्टि में मौजूद है। ईक = एक स्वयं ही। कउ = को, के ऊपर। गुर बचन = गुरू के वचनों से (बहुवचन)। घरी मीक = एक घड़ी।4। अर्थ: हे भाई! (गुरू की कृपा से) मेरे मन में हर वक्त परमात्मा का नाम-रस टिका रहता है। (जिस मनुष्य को) गुरू के सन्मुख हो के (आत्मिक) ठंढ डालने वाला नाम-जल मिल जाता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम-रस डीक लगा के पीता रहता है।1। रहाउ। हे भाई! (जिन मनुष्यों पर) प्रभू ने एक छिन भर भी मेहर की, उन्होंने नाम-रस के रसिए बन के परमात्मा के गुण गाने शुरू कर दिए। हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू की शरण पडत्र कर छिन-छिन हरी-नाम-रस पीना शुरू कर दिया, वह हरी-गुण गाने वाले और सुनने वाले दोनों ही विकारों से बच गए।1। हे भाई! (गुरू ने) जिन मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा कर दिया (लोक-परलोक में) उनके माथे पर (शोभा का) रौशन टीका लगा रहता है। हे भाई! परमात्मा के भक्तों की शोभा सारे जहान में बिखर जाती है; जैसे (आकाश के) तारों में चँद्रमा (सुंदर) बनाया हुआ है।2। पर, हे भाई! जिन मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम नहीं बसता, उनके (दुनियावी) सारे ही काम फीके होते हैं (उनके जीवन को रूखा बनाए रखते हैं), जैसे (कोई नाक-कटा मनुष्य अपने) मनुष्य शरीर की सजावट करता है, पर नाक के बिना ('बिना नाक' के) वह सजावट किस अर्थ? परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य नाक-कटे ही हैं।3। हे भाई! (वैसे तो) सुंदर राम प्रभू पातशाह हरेक शरीर में व्यापक है, सारी सृष्टि में सारे जीवों में वह स्वयं ही मौजूद है, (पर), हे नानक! जिन सेवकों पर उसने मेहर की, वह गुरू के चरणों पर चल के घड़ी-घड़ी (हर वक्त) उसका नाम सिमरने लग पड़े।4।3। प्रभाती महला ४ ॥ अगम दइआल क्रिपा प्रभि धारी मुखि हरि हरि नामु हम कहे ॥ पतित पावन हरि नामु धिआइओ सभि किलबिख पाप लहे ॥१॥ जपि मन राम नामु रवि रहे ॥ दीन दइआलु दुख भंजनु गाइओ गुरमति नामु पदारथु लहे ॥१॥ रहाउ ॥ काइआ नगरि नगरि हरि बसिओ मति गुरमति हरि हरि सहे ॥ सरीरि सरोवरि नामु हरि प्रगटिओ घरि मंदरि हरि प्रभु लहे ॥२॥ जो नर भरमि भरमि उदिआने ते साकत मूड़ मुहे ॥ जिउ म्रिग नाभि बसै बासु बसना भ्रमि भ्रमिओ झार गहे ॥३॥ तुम वड अगम अगाधि बोधि प्रभ मति देवहु हरि प्रभ लहे ॥ जन नानक कउ गुरि हाथु सिरि धरिओ हरि राम नामि रवि रहे ॥४॥४॥ {पन्ना 1336} पद्अर्थ: अगम = अपहुँच। प्रभि = प्रभू ने। मुखि = मुँह से। हम = हम जीवों ने। कहे = उचारा। पतित = पापों में गिरे हुए। पतित पावन = विकारों को पवित्र करने वाला। सभि = सारे। किलबिख = पाप।1। जपि = जपा कर। मन = हे मन! रवि रहे = (जो सब जगह) व्यापक है। दुख भंजनु = दुखों का नाश करने वाला प्रभू। पदारथु = कीमती वस्तु। लहे = पा लिया है।1। रहाउ। नगरि = नगर में। नगरि नगरि = हरेक नगर में। सहे = सही किया, निश्चय लाए। सरोवरि = सरोवर में। घरि = (हृदय) घर में। मंदरि = (शरीर-) मन्दिर में। लहे = पा लिया।2। भरमि भरमि = भटक भटक के। उदिआने = (संसार-) जंगल में। ते = वह (बहुवचन)। साकत = परमात्मा से टूटे हुए। मूढ़ = मूर्ख। मुहे = ठगे गए। म्रिग नाभि = हिरन की नाभि में। बासु = कस्तूरी। भ्रमि भ्रमिओ = भटकता फिरा। झार = झाड़ियां। गहे = पकड़ता है, ढूँढता है।3। अगाधि बोधि = बोध में अगाध, मनुष्य की समझ से परे। प्रभ = हे प्रभू! लहे = पा सकें। गुरि = गुरू ने। सिरि = सिर पर। नामि = नाम में। रवि रहे = लीन हो गए।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! जो परमात्मा सबमें व्यापक है उसका नाम जपा कर। जिस मनुष्य ने दीनों पर दया करने वाले दुखों का नाश करने वाले परमात्मा की सिफतसालाह की, गुरू की मति से उसने बहु-मूल्य हरी-नाम पा लिया।1। रहाउ। हे भाई! अपहुँच और दया के श्रोत प्रभू ने (जब हम जीवों पर) मेहर की, तब हमने मुँह से उसका नाम जपा। हे भाई! जिन मनुष्यों ने पापियों को पवित्र करने वाले परमात्मा का नाम सिमरा, उनके सारे ही पाप दूर हो गए।1। हे भाई! (वेसे तो) हरेक शरीर-शहर में परमात्मा बसता है, पर गुरू की मति की बरकति से ही यह निश्चय बनता है। जिस शरीर-सरोवर में परमात्मा का नाम प्रकट होता है, उस हृदय-घर में परमात्मा मिल जाता है।2। पर, हे भाई! जो मनुष्य (माया की खातिर ही इस संसार) जंगल में भटक के (उम्र गुजारते हैं) वे मनुष्य परमात्मा से टूटे रहते हैं, (वह अपना आत्मिक जीवन) लुटा बैठते हैं; जैसे कस्तूरी की सुगंधि (तो) हिरन की नाभि में बसती है, पर वह (बाहर भटक- भटक के) झाड़ियाँ सूँघता फिरता है।3। हे हरी! हे प्रभू! तू बहुत अपहुँच है, तू जीवों की समझ से परे है। यदि तू स्वयं ही बुद्धि बख्शे, तब ही तुझे जीव मिल सकते हैं। हे नानक! जिस सेवक के सिर पर गुरू ने (अपना मेहर भरा) हाथ रखा वह मनुष्य सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।4।4। प्रभाती महला ४ ॥ मनि लागी प्रीति राम नाम हरि हरि जपिओ हरि प्रभु वडफा ॥ सतिगुर बचन सुखाने हीअरै हरि धारी हरि प्रभ क्रिपफा ॥१॥ मेरे मन भजु राम नाम हरि निमखफा ॥ हरि हरि दानु दीओ गुरि पूरै हरि नामा मनि तनि बसफा ॥१॥ रहाउ ॥ काइआ नगरि वसिओ घरि मंदरि जपि सोभा गुरमुखि करपफा ॥ हलति पलति जन भए सुहेले मुख ऊजल गुरमुखि तरफा ॥२॥ अनभउ हरि हरि हरि लिव लागी हरि उर धारिओ गुरि निमखफा ॥ कोटि कोटि के दोख सभ जन के हरि दूरि कीए इक पलफा ॥३॥ तुमरे जन तुम ही ते जाने प्रभ जानिओ जन ते मुखफा ॥ हरि हरि आपु धरिओ हरि जन महि जन नानकु हरि प्रभु इकफा ॥४॥५॥ {पन्ना 1336} पद्अर्थ: मनि = मन में। वडफा = बड़ा। सुखाने = प्यारे लगे। हीअरै = हृदय में। क्रिपफा = कृपा।1। मन = हे मन! निमखफा = हर निमख (आँख झपकने जितना समय)। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। मनि = मन में। तनि = तन में। बसफा = बस गया।1। रहाउ। काइआ = काया, शरीर। नगरि = नगर में। घरि = (हृदय) घर में। मंदरि = मन्दिर में। जपि = जप के। करपफा = करते हैं। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में (परत्र)। सुहेले = सुखी। ऊजल = रौशन। तरफा = तैरते हैं। अनभउ = जिसको कोई डर छू नहीं सकता। उर = हृदय। उरधारिओ = हृदय में बसाया। गुरि = गुरू से। कोटि = करोड़ों। कोटि कोटि के = करोड़ों (जन्मों) के। दोख = ऐब, पाप। पलफा = पल में।3। तुम ही ते = तुझसे ही, तेरी ही मेहर से। जाने = प्रकट होते हैं। प्रभ = हे प्रभू! जानिओ = (जिन्होंने तुझे) जाना, तेरे साथ सांझ डाली। जन ते = ते जन, वे मनुष्य (बहुवचन)। मुखफा = मुखी, इज्जत वाले। आपु = अपना आप। जन नानकु = (प्रभू का) दास (गुरू) नानक (है)। इकफा = एक रूप।4। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम हर निमख (हर वक्त) जपा कर। जिस मनुष्य को पूरे गुरू ने परमातमा का नाम जपने की दाति दे दी, उसके मन में उसके हृदय में हरी-नाम बस पड़ा।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य पर हरी-प्रभू ने मेहर की, उसके हृदय में गुरू के बचन प्यारे लगने लगे, उसके मन में परमात्मा के नाम की प्रीति पैदा हो गई, उसने सबसे बड़े हरी-प्रभू का नाम जपना शुरू कर दिया।1। हे भाई! (वैसे तो) हरेक शरीर-नगर में, शरीर-घर में, शरीर-मन्दिर में परमात्मा बसता है, पर गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (ही उसका नाम) जप के उसकी सिफत-सालाह करते हैं। प्रभू के सेवक इस लोक में परलोक में (नाम की बरकति से) सुखी रहते हैं, उनके मुख (लोक-परलोक में) रौशन रहते हें, वह (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं।2। हे भाई! परमात्मा पर कोई डर-भय प्रभाव नहीं डाल सकता। गुरू से जिस मनुष्य ने उस परमात्मा में सुरति जोड़ी, उस परमात्मा को एक निमख वास्ते भी हृदय में बसाया, परमात्मा ने उस सेवक के करोड़ों जन्मों के पाप एक पल में दूर कर दिए।3। हे प्रभू! तेरे भगत तेरी ही मेहर से (जगत में) प्रकट होते हें। हे प्रभू! जिन्होंने तेरे साथ सांझ डाली, वह सेवक इज्जत वाले हो जाते हैं। हे भाई! परमात्मा ने अपना आप अपने भक्तों के अंदर रखा होता है। (तभी, हे भाई! परमात्मा का) सेवक (गुरू) नानक और हरी-प्रभू एक-रूप है।4।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |