श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1338

प्रभाती महला ५ ॥ प्रभ की सेवा जन की सोभा ॥ काम क्रोध मिटे तिसु लोभा ॥ नामु तेरा जन कै भंडारि ॥ गुन गावहि प्रभ दरस पिआरि ॥१॥ तुमरी भगति प्रभ तुमहि जनाई ॥ काटि जेवरी जन लीए छडाई ॥१॥ रहाउ ॥ जो जनु राता प्रभ कै रंगि ॥ तिनि सुखु पाइआ प्रभ कै संगि ॥ जिसु रसु आइआ सोई जानै ॥ पेखि पेखि मन महि हैरानै ॥२॥ सो सुखीआ सभ ते ऊतमु सोइ ॥ जा कै ह्रिदै वसिआ प्रभु सोइ ॥ सोई निहचलु आवै न जाइ ॥ अनदिनु प्रभ के हरि गुण गाइ ॥३॥ ता कउ करहु सगल नमसकारु ॥ जा कै मनि पूरनु निरंकारु ॥ करि किरपा मोहि ठाकुर देवा ॥ नानकु उधरै जन की सेवा ॥४॥२॥ {पन्ना 1338}

पद्अर्थ: सेवा = भगती। जन कै भंडारि = सेवकों के खजाने में। गावहि = गाते हैं (बहु वचन)। दरस पिआरि = दर्शन की तमन्ना में।1।

प्रभ = हे प्रभू! तुमहि = तू (खुद) ही। जनाई = समझाई, बताई। काटि = काट के। जेवरी = मोह की रस्सी।1। रहाउ।

कै रंगि = के (प्रेम-) रंग में। राता = रंगा हुआ। कै संगि = के साथ। रसु = स्वाद। पेखि = देख के। हैरानै = विस्माद की हालत में।2।

ते = से। सोइ = वह ही। कै ह्रिदै = हृदय में। निहचलु = अडोल चिक्त। आवै न जाइ = ना आता है ना जाता है, भटकता नहीं। अनदिनु = हर रोज।3।

कउ = को। सगल = सारे। जा कै मनि = जिस के मन में। मोहि = मुझे, मेरे पर। ठाकुर = हे ठाकुर! देवा = हे देव! उधरै = (विकारों से) बचा रहे।4।

अर्थ: हे प्रभू! अपनी भगती (अपने सेवकों को) तूने स्वयं ही समझाई है, (उनके मोह का) फंदा काट के आपने सेवकों को तूने स्वयं ही (माया के मोह से) बचाया है।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा की भगती से परमात्मा के भगत की वडिआई (लोक-परलोक में) होती है, उसके अंदर से काम क्रोध लोभ (आदि विकार) मिट जाते हैं। हे प्रभू! तेरा नाम-धन तेरे भगतों के खजाने में (भरपूर रहता है)। हे प्रभू! तेरे भगत तेरे दीदार की तमन्ना में तेरे गुण गाते रहते हैं।

हे भाई! जो जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम रंग में रंगा गया, उन्होंने परमात्मा के (चरणों) से (लग के) आत्मिक आनंद प्राप्त किया, (पर उस आनंद को बयान नहीं किया जा सकता) जिस मनुष्य को वह आनंद आता है, वही उसको जानता है, वह मनुष्य (परमात्मा का) दर्शन कर-कर के (अपने) मन में वाह-वाह कर उठता है।2।

हे भाई! जिस (मनुष्य) के हृदय में वह परमात्मा आ बसता है, वह सुखी हो जाता है, वह और सभी से श्रेष्ठ जीवन वाला हो जाता है। वह मनुष्य हर समय परमात्मा के गुण गाता रहता है, वह सदा अडोल चिक्त रहता है, वह कभी भटकता नहीं फिरता।3।

हे भाई! जिस (मनुष्य) के मन में परमात्मा आ बसता है, उसके आगे सारे अपना सिर झुकाया करो। हे ठाकुर प्रभू! हे प्रकाश-रूप प्रभू! मेरे ऊपर मेहर कर, (तेरा सेवक) नानक तेरे भगत की शरण में रह के (विकारों से) बचा रहे।4।2।

प्रभाती महला ५ ॥ गुन गावत मनि होइ अनंद ॥ आठ पहर सिमरउ भगवंत ॥ जा कै सिमरनि कलमल जाहि ॥ तिसु गुर की हम चरनी पाहि ॥१॥ सुमति देवहु संत पिआरे ॥ सिमरउ नामु मोहि निसतारे ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि गुरि कहिआ मारगु सीधा ॥ सगल तिआगि नामि हरि गीधा ॥ तिसु गुर कै सदा बलि जाईऐ ॥ हरि सिमरनु जिसु गुर ते पाईऐ ॥२॥ बूडत प्रानी जिनि गुरहि तराइआ ॥ जिसु प्रसादि मोहै नही माइआ ॥ हलतु पलतु जिनि गुरहि सवारिआ ॥ तिसु गुर ऊपरि सदा हउ वारिआ ॥३॥ महा मुगध ते कीआ गिआनी ॥ गुर पूरे की अकथ कहानी ॥ पारब्रहम नानक गुरदेव ॥ वडै भागि पाईऐ हरि सेव ॥४॥३॥ {पन्ना 1338}

पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। मनि = मन में। सिमरउ = मैं सिमरता हूँ। जा कै = जिस (गुरू की कृपा) से। कलमल = (सारे) पाप। जाहि = दूर हो जाते हैं (बहुवचन)। हम पाहि = हम पड़ते हैं, मैं पड़ता हूँ। सिमरनि = नाम सिमरन से।1।

संत पिआरे = हे प्यारे गुरू! सिमरउ = मैं सिमरता हूँ। मोहि = मुझे। निसतारे = (संसार समुंद्र से) पार लंघाता है।1। रहाउ।

जिनि = जिस ने। गुरि = गुरू ने। जिनि गुरि = जिस गुरू ने। मारगु = (जीवन-) राह। तिआगि = त्याग के। नामि = नाम में। गीधा = गिझ गया, परच गया। कै बलि जाईअै = से सदके जाना चाहिए। ते = से। पाईअै = प्राप्त होता है।2।

बूडत = (विकारों में) डूबता। जिनि गुरहि = जिस गुरू ने। जिसु प्रसादि = जिस की कृपा से। मोहै नही = मोह नहीं सकती। हलतु = यह लोक। पलतु = परलोक। सवारिआ = सुंदर बना दिया। हउ = मैं। वारिआ = कुर्बान।3।

मुगध = मूर्खं। ते = से। गिआनी = समझदार, ज्ञानवान, आत्मिक जीवन की सूझ वाला। अकथ = (अ+कथ) जो बयान ना की जा सके। नानक = हे नानक! भागि = किस्मत से।4।

अर्थ: हे प्यारे सतिगुरू! (मुझे) सद्-बुद्धि बख्श (जिससे) मैं परमात्मा का नाम सिमरता रहूँ (जो नाम) मुझे (संसार-समुंद्र से) पार लंघा ले।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा के गुण गाते हुए मन में आनंद पैदा होता है, (तभी तो) मैं आठों पहर भगवान (का नाम) सिमरता हूं। जिस गुरू की कृपा से परमातमा का नाम सिमरने से (सारे) पाप दूर हो जाते हैं, मैं उस गुरू के (सदा) चरणों में लगा रहता हूँ।1।

हे भाई! जिस गुरू ने (आत्मिक जीवन का) सीधा रास्ता बताया है (जिसकी बरकति से मनुष्य) और सारे (मोह) छोड़ के परमात्मा के नाम में रति रहता है, जिस गुरू से परमात्मा के नाम सिमरन (की दाति) मिलती है, उस गुरू से सदा कुर्बान जाना चाहिए।2।

हे भाई! जिस गुरू ने (संसार-समुंद्र में) डूब रहे प्राणियों को पार लंघाया, जिस (गुरू) की मेहर से माया ठॅग नहीं सकती, जिस गुरू ने (शरण पड़े मनुष्य का) यह लोक और परलोक सुंदर बना दिए, मैं उस गुरू से सदा सदके जाता हूँ।3।

हे भाई! पूरे गुरू की सिफत-सालाह पूरी तरह से बयान नहीं की जा सकती (बयान से परे है), (गुरू ने) महा मूर्ख मनुष्य से आत्मिक जीवन की सूझ वाला बना दिया। हे नानक! (कह- गुरू की शरण पड़ के) बहुत किस्मत से पारब्रहमि गुरदेव हरी की सेवा-भगती प्राप्त होती है।4।3।

प्रभाती महला ५ ॥ सगले दूख मिटे सुख दीए अपना नामु जपाइआ ॥ करि किरपा अपनी सेवा लाए सगला दुरतु मिटाइआ ॥१॥ हम बारिक सरनि प्रभ दइआल ॥ अवगण काटि कीए प्रभि अपुने राखि लीए मेरै गुर गोपालि ॥१॥ रहाउ ॥ ताप पाप बिनसे खिन भीतरि भए क्रिपाल गुसाई ॥ सासि सासि पारब्रहमु अराधी अपुने सतिगुर कै बलि जाई ॥२॥ अगम अगोचरु बिअंतु सुआमी ता का अंतु न पाईऐ ॥ लाहा खाटि होईऐ धनवंता अपुना प्रभू धिआईऐ ॥३॥ आठ पहर पारब्रहमु धिआई सदा सदा गुन गाइआ ॥ कहु नानक मेरे पूरे मनोरथ पारब्रहमु गुरु पाइआ ॥४॥४॥ {पन्ना 1338}

पद्अर्थ: दीऐ = दिए। सगले = सारे। करि = कर के। सेवा = भगती। दुरतु = पाप।1।

प्रभ दइआल = हे दया के घर प्रभू! बारिक = बच्चे। काटि = काट के। प्रभि = प्रभू ने। मेरै गोपालि = मेरे गोपाल ने, मेरे प्रभू ने। गोपालि = गोपाल ने, सृष्टि के रक्षक ने।1। रहाउ।

ताप = दुख कलेश। भीतरि = में। गुसाई = गोसाई, धरती का पति। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। सासि = साँस से। अराधी = मैं अराधता हूँ। कै बलि जाई = (गुरू) से मैं सदके जाता हूँ।2।

अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। न पाईअै = नहीं पाया जा सकता। खटि = कमा के। होईअै = हुआ जाता है। धिआईअै = ध्याना चाहिए।3।

धिआई = मैं ध्यान धरता हूँ। पाइआ = पा लिया है, पाया।4।

अर्थ: हे दया के श्रोत प्रभू! हम (जीव तेरे) बच्चे (तेरी) शरण में हैं। हे भाई! धरती के रक्षक प्रभू ने (जिनकी) रक्षा की, (उनके अंदर से) अवगुण दूर कर के (उनको उस) प्रभू ने अपना बना लिया।1। रहाउ।

हे भाई! (प्रभू ने) मेहर कर के (जिनको) अपनी भगती में जोड़ा, (उनके अंदर से उसने) सारा पाप दूर कर दिया। जिनको उसने अपना नाम जपने की प्रेरणा की, उनको उसने सारे सुख बख्श दिए, (उनके अंदर से) सारे दुख दूर हो गए।1।

हे भाई! धरती के पति प्रभू जी (जिन पर) दयावान हुए, (उनके) सारे दुख-कलेश सारे पाप एक छिन में नाश हो गए। हे भाई! मैं अपने गुरू से सदके जाता हूँ, (उसकी मेहर से) मैं अपनी हरेक साँस से परमात्मा का नाम सिमरता हूँ।2।

हे भाई! मालिक-प्रभू अपहुँच है, उस तक (जीवों की) इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, वह बेअंत है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे भाई! अपने उस प्रभू का सिमरन करना चाहिए, (उसका नाम ही असल धन है, यह) लाभ कमा के धनवान बना जाता है।3।

हे नानक! कह- (हे भाई!) मुझे गुरू मिल गया है (गुरू की कृपा से) मुझे परमात्मा मिल गया है, मेरी सारी मनोकानाएं पूरी हो गई हैं। अब मैं आठों पहर उसका नाम सिमरता हूँ, सदा ही उसके गुण गाता रहता हूँ।4।4।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh