श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1339 प्रभाती महला ५ ॥ सिमरत नामु किलबिख सभि नासे ॥ सचु नामु गुरि दीनी रासे ॥ प्रभ की दरगह सोभावंते ॥ सेवक सेवि सदा सोहंते ॥१॥ हरि हरि नामु जपहु मेरे भाई ॥ सगले रोग दोख सभि बिनसहि अगिआनु अंधेरा मन ते जाई ॥१॥ रहाउ ॥ जनम मरन गुरि राखे मीत ॥ हरि के नाम सिउ लागी प्रीति ॥ कोटि जनम के गए कलेस ॥ जो तिसु भावै सो भल होस ॥२॥ तिसु गुर कउ हउ सद बलि जाई ॥ जिसु प्रसादि हरि नामु धिआई ॥ ऐसा गुरु पाईऐ वडभागी ॥ जिसु मिलते राम लिव लागी ॥३॥ करि किरपा पारब्रहम सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ आठ पहर अपुनी लिव लाइ ॥ जनु नानकु प्रभ की सरनाइ ॥४॥५॥ {पन्ना 1339} पद्अर्थ: सिमरत = सिमरते हुए। किलबिख = पाप। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुरि = गुरू ने। रासे = राशि, सरमाया, पूँजी। सेवि = सेवा कर के, भगती कर के। सोहंते = सुंदर लगते हैं।1। भाई = हे भाई! दोख = ऐब, पाप। सभि = सारे। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझ। ते = से। जाई = दूर हो जाता है।1। रहाउ। गुरि = गुरू ने। राखे = समाप्त कर दिए, रख दिए, ठहरा दिए। मीत = हे मित्र! सिउ = साथ। कोटि = करोड़ों। तिसु भावै = उस परमात्मा को अच्छा लगता है। भल = भला। होस = होगा।2। हउ = मैं। सद = सदा। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। प्रसादि = कृपा से। धिआई = मैं ध्याता हूँ। लिव = लगन।3। पारब्रहम = हे पारब्रहम! घर = शरीर, हृदय। अंतरजामी = हे अंदर की जानने वाले! लिव लाइ = प्यार बनाए रख। जनु = दास।4। अर्थ: हे मेरे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा करो। (सिमरन की बरकति से साथ मन के) सारे रोग दूर हो जाते हैं, सारे पाप नाश हो जाते हैं, आत्मिक जीवन से बेसमझी का अंधेरा मन से दूर हो जाता है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरते हुए सारे पाप नाश हो जाते हैं। (जिन को) गुरू ने सदा-स्थिर हरी-नाम की राशि-पूँजी बख्शी, परमात्मा की दरगाह में वे इज्जत वाले बने। हे भाई! परमात्मा के भगत (परमात्मा की) भगती कर के सदा (लोक-परलोक में) सुंदर लगते हैं।1। हे मित्र! (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा के नाम में (जिन मनुष्यों का) प्यार बना, गुरू ने (उनके) जनम-मरण (के चक्कर) समाप्त कर दिए। (हरी-नाम जल प्रीति की बरकति से उनके) करोड़ों जन्मों के दुख-कलेश दूर हो गए। (उनको) वह कुछ भला प्रतीत होता है जो परमात्मा को अच्छा लगता है।2। हे भाई! मैं उस गुरू से सदा सदके जाता हूँ, जिसकी मेहर से मैं परमात्मा का नाम सिमरता रहता हूँ। हे भाई! ऐसा गुरू बड़ी किस्मत से ही मिलता है, जिसके मिलने से परमात्मा के संग प्यार बनता है।3। हे पारब्रहम! हे स्वामी! हे सब जीवों के दिल की जानने वाले! मेहर कर। (मेरे अंदर) आठों पहर अपनी लगन लगाए रख, (तेरा) दास नानक तेरी शरण पड़ा रहे।4।5। प्रभाती महला ५ ॥ करि किरपा अपुने प्रभि कीए ॥ हरि का नामु जपन कउ दीए ॥ आठ पहर गुन गाइ गुबिंद ॥ भै बिनसे उतरी सभ चिंद ॥१॥ उबरे सतिगुर चरनी लागि ॥ जो गुरु कहै सोई भल मीठा मन की मति तिआगि ॥१॥ रहाउ ॥ मनि तनि वसिआ हरि प्रभु सोई ॥ कलि कलेस किछु बिघनु न होई ॥ सदा सदा प्रभु जीअ कै संगि ॥ उतरी मैलु नाम कै रंगि ॥२॥ चरन कमल सिउ लागो पिआरु ॥ बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ प्रभ मिलन का मारगु जानां ॥ भाइ भगति हरि सिउ मनु मानां ॥३॥ सुणि सजण संत मीत सुहेले ॥ नामु रतनु हरि अगह अतोले ॥ सदा सदा प्रभु गुण निधि गाईऐ ॥ कहु नानक वडभागी पाईऐ ॥४॥६॥ {पन्ना 1339} पद्अर्थ: करि = कर के। प्रभि = प्रभू ने। कीए = बना दिए। कउ = वास्ते, को। गाइ = गाया कर। भै = सारे डर (शब्द 'भउ' का बहुवचन)। चिंद = चिंता।1। उबरे = (विकारों से) बच गए। लागि = लग के। कहै = कहता है। भल = भला। तिआगि = त्याग के।1। रहाउ। मनि = मन में। तनि = तन में। कलि = झगड़े। कलेश = दुख। बिघनु = रुकावट। जीअ कै संगि = जिंद के साथ। कै रंगि = के (प्रेम-) रंग में।2। सिउ = साथ। मारगु = रास्ता। जानां = समझ लिया। भाइ = प्रेम में। मानां = पतीज गया, रीझ गया।3। सजण = हे सज्जन! स्ंत = हे संत जनो! अगह = अपहुँच। अगह नामु = अपहुँच हरी का नाम। गुणनिधि = गुणों का खजाना प्रभू। गाईअै = गाना चाहिए, सिफत सालाह करनी चाहिए। पाईअै = प्राप्त होती है।4। अर्थ: हे भाई! सतिगुरू के चरणों में लग के (अनेकों प्राणी डूबने से) बच जाते हैं। अपने मन की चतुराई छोड़ के (गुरू की शरण पड़ने) जो कुछ गुरू बताता है, वह अच्छा और प्यारा लगता है।1। रहाउ। हे भाई! (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़े) प्रभू ने (उनको) मेहर करके अपना बना लिया (क्योंकि गुरू ने) परमात्मा का नाम जपने के लिए उनको दे दिया। हे भाई! (गुरू की शरण पड़ कर) आठों पहर परमात्मा के गुण गाया कर (इस तरह) सारे डर नाश हो जाते हैं, सारी चिंता दूर हो जाती है।1। हे भाई! (गुरू की शरण पड़ने से) मन में तन में वह परमात्मा ही बसा रहता है, कोई दुख-कलेश (आदि जिंदगी के रास्ते में) रुकावट नहीं बनते। परमात्मा हर समय ही जिंद के साथ (बसता प्रतीत होता है), परमात्मा के नाम के प्यार-रंग में टिके रहने से (विकारों की) सारी मैल (मन से) उतर जाती है।2। हे भाई! (गुरू की शरण पड़ने से) परमात्मा के सुंदर चरणों के साथ प्यार बन जाता है, काम क्रोध अहंकार (आदि विकार अंदर से) समाप्त हो जाते हैं। हे भाई! (जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा के मिलाप का रास्ता समझ लिया, प्यार की बरकति से भक्ति की बरकति से उसका मन प्रभू की याद में गिझ जाता है।3। हे सज्जन! हे संत! हे मित्र! सुन (गुरू की शरण में पड़ कर जिन्होंने) अपहुँच और अतोल हरी का कीमती नाम हासिल कर लिया, वे सदा सुखी जीवन वाले हो गए। हे भाई! सदा ही गुणों के खजाने प्रभू की सिफत-सालाह करनी चाहिए, पर, हे नानक! कह- ये दाति बहुत बड़ी किस्मत से मिलती है।4।6। प्रभाती महला ५ ॥ से धनवंत सेई सचु साहा ॥ हरि की दरगह नामु विसाहा ॥१॥ हरि हरि नामु जपहु मन मीत ॥ गुरु पूरा पाईऐ वडभागी निरमल पूरन रीति ॥१॥ रहाउ ॥ पाइआ लाभु वजी वाधाई ॥ संत प्रसादि हरि के गुन गाई ॥२॥ सफल जनमु जीवन परवाणु ॥ गुर परसादी हरि रंगु माणु ॥३॥ बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ नानक गुरमुखि उतरहि पारि ॥४॥७॥ {पन्ना 1339} पद्अर्थ: से = वे मनुष्य (बहुवचन)। सेई = वही मनुष्य (बहुवचन)। सचु = यकीनी तौर पर। साहा = शाहूकार। विसाहा = खरीदा, विहाजा।1। मन = हे मन! मीत = हे मित्र! निरमल = पवित्र करने वाली। रीति = मर्यादा।1। रहाउ। वजी = बज पड़ी, तगड़ीहो गई। वाधाई = उत्साह वाली अवस्था, चढ़दीकला। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। गाई = गाता है।2। सफल = कामयाब। परवाणु = कबूल। परसादी = कृपा से। रंगु = आत्मिक आनंद। माणु = माणता रह, भोगता रह, आनंद लेता रह।3। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। उतरहि पारि = पार लांघ जाते हैं।4। अर्थ: हे मित्र! हे मन! (गुरू की शरण पड़ के) सदा परमात्मा का नाम जपा कर। (पर नाम जपने वाली) पवित्र और संपूर्ण मर्यादा (चलाने वाला) पूरा गुरू बड़ी किस्मत से (ही) मिलता है।1। रहाउ। हे भाई! (गुरू की शरण पड़ कर जिन्होंने यहाँ) परमात्मा के नाम का सौदा खरीदा, परमात्मा की हजूरी में (वे) मनुष्य धनी (गिने जाते हैं), वही मनुष्य यकीनी तौर पर शाहूकार (समझे जाते हैं)।1। हे भाई! (जो मनुष्य) गुरू की कृपा से परमात्मा के गुण गाता है (वह यहाँ असल) लाभ कमाता है, (उसके अंदर) आत्मिक उत्साह वाली अवस्था प्रबल बनी रहती है।2। हे भाई! गुरू की कृपा से परमात्मा के नाम का आनंद लेता रह (नाम जपने वाले का) मानस जनम सफल है, जीवन (प्रभू की हजूरी में) कबूल है।3। हे नानक! गुरू की शरण पड़ कर (नाम जपने वाले मनुष्य संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं, (उनके अंदर से) काम क्रोध अहंकार (आदि विकार) नाश हो जाते हैं।4।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |