श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1343

प्रभाती महला १ ॥ निवली करम भुअंगम भाठी रेचक पूरक कु्मभ करै ॥ बिनु सतिगुर किछु सोझी नाही भरमे भूला बूडि मरै ॥ अंधा भरिआ भरि भरि धोवै अंतर की मलु कदे न लहै ॥ नाम बिना फोकट सभि करमा जिउ बाजीगरु भरमि भुलै ॥१॥ खटु करम नामु निरंजनु सोई ॥ तू गुण सागरु अवगुण मोही ॥१॥ रहाउ ॥ माइआ धंधा धावणी दुरमति कार बिकार ॥ मूरखु आपु गणाइदा बूझि न सकै कार ॥ मनसा माइआ मोहणी मनमुख बोल खुआर ॥ मजनु झूठा चंडाल का फोकट चार सींगार ॥२॥ झूठी मन की मति है करणी बादि बिबादु ॥ झूठे विचि अहंकरणु है खसम न पावै सादु ॥ बिनु नावै होरु कमावणा फिका आवै सादु ॥ दुसटी सभा विगुचीऐ बिखु वाती जीवण बादि ॥३॥ ए भ्रमि भूले मरहु न कोई ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु होई ॥ बिनु सतिगुर मुकति किनै न पाई ॥ आवहि जांहि मरहि मरि जाई ॥४॥ एहु सरीरु है त्रै गुण धातु ॥ इस नो विआपै सोग संतापु ॥ सो सेवहु जिसु माई न बापु ॥ विचहु चूकै तिसना अरु आपु ॥५॥ जह जह देखा तह तह सोई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न होई ॥ हिरदै सचु एह करणी सारु ॥ होरु सभु पाखंडु पूज खुआरु ॥६॥ दुबिधा चूकै तां सबदु पछाणु ॥ घरि बाहरि एको करि जाणु ॥ एहा मति सबदु है सारु ॥ विचि दुबिधा माथै पवै छारु ॥७॥ करणी कीरति गुरमति सारु ॥ संत सभा गुण गिआनु बीचारु ॥ मनु मारे जीवत मरि जाणु ॥ नानक नदरी नदरि पछाणु ॥८॥३॥ {पन्ना 1343}

पद्अर्थ: निवली करम = आँतों को चक्कर में घुमाना। भुअंगम = कुण्डलनी नाड़ी। भाठी = दसम द्वार। रेचक = श्वास उतारने। पूरक = श्वास ऊपर चढ़ाने। कुंभ = श्वास सुखमना में टिकाए रखने (रेचक, पूरक, कुंभक = ये तीनों प्राणायाम के साधन हैं)। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। फोकट = फोके, व्यर्थ। सभि = सारे।1।

खटु करम = शास्त्रों में बताए गए छह किस्म के धार्मिक कर्म। मोही = मेरे में ही।1। रहाउ।

धावणी = दौड़ भाग, भटकना। बिकार = व्यर्थ। आपु = अपने आप को। गणाइदा = अच्छा कहलवाता है। मनसा = कामना, ख्वाहिश। मजनु = स्नान। चार = सुंदर।2।

बादि = व्यर्थ। बिबाद = झगड़ा। अहंकरणु = अहंकार। सादु = स्वाद, आनंद। विगुचीअै = दुखी होते हैं। बिखु = जहर। वाती = वात में, मुँह में।3।

ऐ = हे! भ्रमि = भटकना में। मरि जाई = आत्मिक मौत मर जाता है।4।

धातु = माया। अरु = और। आपु = आपा भाव, स्वै भाव, अहंकार।5।

देखा = मैं देखता हूँ। सारु = श्रेष्ठ।6।

दुबिधा = प्रभू के बिना अन्य आसरे की झाक। पछाणु = पहचानने योग्य। माथै = माथे पर, सिर पर। छारु = राख।7।

करणी = करतब। कीरति = कीर्ति, सिफतसालाह। नदरी = मेहर की निगाह करने वाला परमात्मा।8।

अर्थ: हे प्रभू! शास्त्रों में बताए गए छह धार्मिक कर्म (मेरे लिए) तेरा नाम ही है, तेरा नाम माया की कालिख से रहित है। हे प्रभू! तू गुणों का खजाना है, पर (पर तेरे नाम से टूट के और अन्य कर्म-काण्डों में पड़ कर) मेरे अंदर अवगुण पैदा हो जाते हैं।1। रहाउ।

(अज्ञानी अंधे मनुष्य प्रभू का नाम बिसार के) निवली कर्म करता है, कुण्डलनी नाड़ी से दसम द्वार में प्राण चढ़ाता है, श्वास उतारता है, श्वास चढ़ाता है, श्वास (सुखमना में) टिकाता है। पर इस भटकना में गलत रास्ते पर पड़ कर (इन कर्मों के चक्करों में) फस के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। सतिगुरू की शरण पड़े बिना सही जीवन की इसको समझ नहीं पड़ती। अंधा मनुष्य विकारों की मैल से भरा रहता है, बार-बार गलत रास्ते पर पड़ कर और विकारों की मैल से लिबड़ता है (निवली कर्म आदि के द्वारा) यह मैल धोने का यत्न करता है, पर (इस तरह) मन की मैल कभी नहीं उतरती। (ये रेचक, पूरक आदि) आरे ही कर्म परमात्मा के नाम के बिना व्यर्थ हैं। जैसे किसी मदारी को देख के (अंजान मनुष्य) भुलेखे में पड़ जाता है (कि जो जो कुछ मदारी दिखाता है सचमुच उसके पास मौजूद है, वैसे ही कर्म-काण्डी मनुष्य इन नाटकों-चेटकों में भुलेखा खा जाता है)।1।

अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के मन की दौड़-भाग तो माया के धंधों में ही रहती है; मूर्ख सही रास्ते के काम को तो समझता नहीं, (इन निवली कर्म आदि के कारण) अपने आप को बड़ा जाहिर करने का प्रयत्न करता है; उस मनमुख की ख्वाहिशें मोहनी माया में ही बनी रहती हैं (ऊपर-ऊपर से धर्म के) बोल से (बल्कि) ख्वार होता है। (अंतरात्मे उसका जीवन चण्डाल जैसा है) उस चण्डाल का किया हुआ तीर्थ-स्नान भी निरी ठॅगी ही होती है, (निवली कर्म आदि वाले उसके सारे) सुंदर श्रृंगार व्यर्थ जाते हैं।

उसका यह सारा उद्यम इस प्रकार है जैसे किसी ब्राहमण के लिए किसी चण्डाल का तीर्थ-स्नान निरी ठॅगी है और उसका सुंदर श्रृंगार भी फोका है।2।

मनमुख के मन की मति झूठ की ओर ले जाती है, उसके कर्तव्य भी निरे झगड़े का मूल हैं और व्यर्थ जाते हैं। उस झूठ विहाजने वाले के अंदर अहमं् अहंकार टिका रहता है उसको पति-प्रभू के मिलाप का आनंद नहीं आ सकता। परमात्मा के नाम को छोड़ के (निवली कर्म आदि) जो कर्म भी किए जाते हैं उनका स्वाद फीका होता है (वह जीवन को फीका ही बनाते हैं) ऐसी बुरी संगति में (बैठने से) ख्वार हुआ जाता है क्योंकि ऐसे लोगों के मुँह में (फीके बोल-रूप) जहर होता है और उनका जीवन व्यर्थ जाता है।3।

(न्योली कर्म आदि की) भटकना में भूले हुए, हे लोगो! (इस राह पर पड़ कर) आत्मिक मौत ना सहेड़ों। सतिगुरू की शरण पड़ने से ही सदा का आत्मिक आनंद मिलता है। गुरू की शरण के बिना कभी किसी को (माया के मोह से) निजात नहीं मिलती। वे सदा पैदा होते हैं और आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। (जो भी मनुष्य गुरू की शरण से और सिमरन से वंचित रहता है) वह आत्मिक मौत सहेड़ता है।4।

यह शरीर है ही त्रै-गुणी माया का स्वरूप (भाव, इन्द्रियाँ सहज ही माया के मोह में फस जाती है, जिसका नतीजा यह निकलता है कि) शरीर को चिंता-फिक्र और दुख-कलेश सताए रखता है। (हे भाई!) उस परमात्मा का सिमरन करो, जिसका ना कोई पिता है ना कोई माता है, (सिमरन की बरकति से) अंदर से माया की तृष्णा अहम्ं व अहंकार मिट जाता है।5।

(गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जप के अब) मैं जिधर-जिधर निगाह मारता हूँ मुझे वही परमात्मा बसता दिखता है (और मुझे माया गलत राह पर नहीं डालती)। पर गुरू की शरण के बिना माया के बँधनों से आजादी नहीं मिल सकती। (हे भाई!) सदा-स्थिर परमात्मा का नाम हृदय में बसाना - यह कर्तव्य सबसे श्रेष्ठ है (यह छोड़ के निवली आदि कर्म करना) यह सब कुछ पाखण्ड है (इन कर्मों के द्वारा लोगों से करवाई) पूजा-सेवा (आखिर) दुखी करती है।6।

हे भाई! गुरू के शबद से सांझ बनाओ, अपने अंदर और बाहर सारे संसार में सिर्फ एक परमात्मा को बसता समझो। तब ही अन्य आसरों की आस खत्म होगी। यही सद्-बुद्धि है। गुरू का शबद (हृदय में बसाना ही) श्रेष्ठ (उक्तम) है। जो मनुष्य गुरू का शबद बिसार के प्रभू का नाम भुला के अन्य आसरों की झाक में पड़ता है, उसके सिर राख ही पड़ती है (वह दुखी ही होता है)।7।

(हे भाई!) परमात्मा की सिफतसालाह करनी श्रेष्ठ करनी है, गुरू की शिक्षा पर चलना श्रेष्ठ उद्यम है। साध-संगति में जा के परमात्मा के गुणों के साथ सांझ डालनी सीख। ये बात पक्की समझ कि जो मनुष्य अपने मन को मारता है वह दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही (विकारों की चोट से बचा रहता है) माया के मोह से उपराम रहता है। हे नानक! वह मनुष्य मेहर की निगाह करने वाले परमात्मा की नजर में आ जाता है (परमात्मा को जच जाता है)।8।3।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh