श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1344 प्रभाती महला १ दखणी ॥ गोतमु तपा अहिलिआ इसत्री तिसु देखि इंद्रु लुभाइआ ॥ सहस सरीर चिहन भग हूए ता मनि पछोताइआ ॥१॥ कोई जाणि न भूलै भाई ॥ सो भूलै जिसु आपि भुलाए बूझै जिसै बुझाई ॥१॥ रहाउ ॥ तिनि हरी चंदि प्रिथमी पति राजै कागदि कीम न पाई ॥ अउगणु जाणै त पुंन करे किउ किउ नेखासि बिकाई ॥२॥ करउ अढाई धरती मांगी बावन रूपि बहानै ॥ किउ पइआलि जाइ किउ छलीऐ जे बलि रूपु पछानै ॥३॥ राजा जनमेजा दे मतीं बरजि बिआसि पड़्हाइआ ॥ तिन्हि करि जग अठारह घाए किरतु न चलै चलाइआ ॥४॥ गणत न गणीं हुकमु पछाणा बोली भाइ सुभाई ॥ जो किछु वरतै तुधै सलाहीं सभ तेरी वडिआई ॥५॥ गुरमुखि अलिपतु लेपु कदे न लागै सदा रहै सरणाई ॥ मनमुखु मुगधु आगै चेतै नाही दुखि लागै पछुताई ॥६॥ आपे करे कराए करता जिनि एह रचना रचीऐ ॥ हरि अभिमानु न जाई जीअहु अभिमाने पै पचीऐ ॥७॥ भुलण विचि कीआ सभु कोई करता आपि न भुलै ॥ नानक सचि नामि निसतारा को गुर परसादि अघुलै ॥८॥४॥ {पन्ना 1344} पद्अर्थ: लुभाइआ = मस्त हो गया। सहस = हजार। चिहन = निशान। मनि = मन में।1। जाणि = जान बूझ के, सोच समझ के। भूलै = गलत रास्ते पर पड़ता है। भाई = हे भाई!।1। रहाउ। तिनि हरी चंद राजे = उस राजे हरी चंद ने। कागदि = कागज़ पर। कीम = कीमत! नेखासि = मंडी में।2। करउ अढाई = ढाई करम (लम्बी)। बावन रूपि = बौने रूप में। बहानै = बहाने से। पइआलि = पाताल में। छलीअै = ठगा जाता है। रूपु = बौने रूप को।3। दे = दे के। मती = शायद। बरजि = वरज के, रोक के। बिआसि = ब्यास ने। तिनि = उस (राजा जनमेजा) ने। घाऐ = मार दिए। किरतु = किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।4। न गणीं = मैं नहीं गिनता। बोली = मैं बोलता हूँ। भाइ = भाय, प्रेम में। तुधै = तुझे ही, हे प्रभू! सलाहीं = मैं सलाहता हूं।5। अलिपतु = निर्लिप। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। आगै = पहले, समय सिर। दुखि लागै = दुख लगने पर, जब दुख में फसता है।6। जिनि = जिस (करतार) ने। हरि = हे हरी! जीअहु = दिल में से। पै = पड़ कर।7। सभु कोई = हरेक जीव। निसतारा = विकारों से निजात। परसादि = कृपा से। अघुलै = खलासी प्राप्त करता है, मुक्ति मिलती है।8। अर्थ: हे भाई! कोई भी जीव जान-बूझ के गलत राह पर नहीं पड़ता (जीव के वश की बात नहीं)। वही मनुष्य कुमार्ग पर पड़ता है जिसको परमात्मा स्वयं कुमार्ग पर डालता है। वही मनुष्य (सही जीवन राह को) समझता है, जिसको परमात्मा स्वयं समझ बख्शता है।1। रहाउ। गौतम (एक प्रसिद्ध) तपस्वी (था), अहिल्या (उसकी) स्त्री (थी), उसका रूप देख के (देवताओं का राजा कहलवाने वाला) इन्द्र मोहित हो गया। (गौतम के श्राप से) (उसके इन्द्र के) शरीर पर हजार भगों के निशान बन गए, तब इन्द्र अपने मन में (उस कुकर्म पर) पछताया।1। धरती के राजे उस राजा हरी चंद ने (इतने दान-पुन्य किए कि उनका) मूल्य कागज़ पर नहीं पड़ सकता। अगर (राजा हरी चंद उन दान-पुन्यों को) बुरा काम समझता तो दान-पुन्य करता ही क्यों? (ना वह दान पुन्य करता) और ना ही मंडी में बिकता।2। (विष्णू ने) बौने रूप में (आ के) बहाने से राजा बलि से ढाई करम धरती (का दान अपनी कुटिया बनाने के लिए) माँगा। अगर बलि राजा बौने रूप को पहचान लेता, तो ना ही ठगा जाता और ना ही पाताल में जाता।3। ब्यास ऋषि ने राजा जनमेजा को खूब समझाया और मना किया (कि उस अप्सरा को अपने घर ना लाना। पर, परमात्मा ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट की हुई थी। उसने ऋषि का कहना नहीं माना। अप्सरा को ले आया। फिर) उसने अठारह यज्ञ करके अठराह ब्राहमण मार दिए (क्योंकि वह बहुत ही बारीक कपड़ों में आई अर्ध-नग्न अप्सरा देख के हॅस पड़े थे)। किए कर्मों के फल को कोई मिटा नहीं सकता।4। हे प्रभू! मैं और कोई सोचें नहीं सोचता, मैं तो तेरी रज़ा को समझने का यतन करता हूँ, और तेरे प्रेम में (मगन हो के) तेरे गुण उचारता हूँ। मैं तो तेरी ही सिफतसालाह करता हूँ। जो कुछ जगत में हो रहा है तेरी ताकत का जहूर हो रहा है।5। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह जगत में निर्लिप रहता है, उस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता, वह सदा परमात्मा की ओट पकड़ता है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (जिंदगी में) समय सिर परमात्मा को याद नहीं करता, जब (अपनी इस मूर्खता के कारण) दुख में फसता है तो हाथ मलता है।6। जिस परमात्मा ने यह जगत रचना रची है वह स्वयं ही सब कुछ करता है वह स्वयं ही जीवों से सब कुछ कराता है। हे प्रभू! (हम जीव मूर्ख हैं, हम यह गुमान करते हैं कि हम ही सब कुछ करते हैं और कर सकते हैं) हमारे दिलों में से अहंकार दूर नहीं होता। अहंकार में पड़ कर दुखी होते हैं।7। ईश्वर स्वयं कभी गलती नहीं करता। पर, हरेक जीव जो उसने पैदा किया है भूलों में फसता रहता है। हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से इन भूलों से बचा जा सकता है। गुरू की कृपा से ही कोई विरला जीव कुमार्ग पर पड़ने से बचता है।8।4। प्रभाती महला १ ॥ आखणा सुनणा नामु अधारु ॥ धंधा छुटकि गइआ वेकारु ॥ जिउ मनमुखि दूजै पति खोई ॥ बिनु नावै मै अवरु न कोई ॥१॥ सुणि मन अंधे मूरख गवार ॥ आवत जात लाज नही लागै बिनु गुर बूडै बारो बार ॥१॥ रहाउ ॥ इसु मन माइआ मोहि बिनासु ॥ धुरि हुकमु लिखिआ तां कहीऐ कासु ॥ गुरमुखि विरला चीन्है कोई ॥ नाम बिहूना मुकति न होई ॥२॥ भ्रमि भ्रमि डोलै लख चउरासी ॥ बिनु गुर बूझे जम की फासी ॥ इहु मनूआ खिनु खिनु ऊभि पइआलि ॥ गुरमुखि छूटै नामु सम्हालि ॥३॥ आपे सदे ढिल न होइ ॥ सबदि मरै सहिला जीवै सोइ ॥ बिनु गुर सोझी किसै न होइ ॥ आपे करै करावै सोइ ॥४॥ झगड़ु चुकावै हरि गुण गावै ॥ पूरा सतिगुरु सहजि समावै ॥ इहु मनु डोलत तउ ठहरावै ॥ सचु करणी करि कार कमावै ॥५॥ अंतरि जूठा किउ सुचि होइ ॥ सबदी धोवै विरला कोइ ॥ गुरमुखि कोई सचु कमावै ॥ आवणु जाणा ठाकि रहावै ॥६॥ भउ खाणा पीणा सुखु सारु ॥ हरि जन संगति पावै पारु ॥ सचु बोलै बोलावै पिआरु ॥ गुर का सबदु करणी है सारु ॥७॥ हरि जसु करमु धरमु पति पूजा ॥ काम क्रोध अगनी महि भूंजा ॥ हरि रसु चाखिआ तउ मनु भीजा ॥ प्रणवति नानकु अवरु न दूजा ॥८॥५॥ {पन्ना 1344-1345} पद्अर्थ: अधारु = आसरा। वेकारु = व्यर्थ। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै = प्रभू के बिना किसी और आसरे की झाक में। पति = इज्जत।1। मन गवार = हे गवार मन! लाज नही लागै = शर्म नहीं आती। बारो बार = बार बार।1। रहाउ। मोहि = मोह में। बिनासु = आत्मिक मौत। कासु = किस को? चीनै = पहचानता है।2। भ्रमि = भटक के। ऊभि = ऊँचा, आकाश में। पइआल = पाताल में।3। सहिला = आसान।4। सहिज = आत्मिक अडोलता में। सचु = सदा स्थिर परमात्मा का नाम सिमरन।5। सुचि = पवित्रता। कोइ = कोई विरला। ठाकि = रोक के।6। भउ = डर अदब। सारु = श्रेष्ठ। पारु = परला छोर।7। जसु = यश, सिफत सालाह। भूंजा = भूना है, जला दिया है।8। अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए मन! हे मूर्ख मन! हे गवार मन! सुन (जो व्यक्ति माया के मोह में अंधा हो जाता है, और बार-बार माया के मोह में फंसने से बाज़ नहीं आता, उसको सिर्फ) माया की खातिर दौड़-भाग करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। गुरू की शरण से वंचित रह के वह बार-बार माया के मोह में ही डूबता है (हे मन! याद रख कि तू भी ऐसा ही निर्लज हो जाएगा)।1। रहाउ। जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम सुनने व सुनाने को अपने आत्मिक जीवन का सहारा बना लिया है, उसकी माया की खातिर हर वक्त की व्यर्थ दौड़-भाग समाप्त हो जाती है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला बँदा परमात्मा के बिना और-और आसरे की झाक में (दौड़-भाग करता) है और इज्जत गवा लेता है। (हे मेरे मन!) मुझे तो परमात्मा के नाम के बिना कोई और आसरा नहीं सूझता।1। (हे भाई!) माया के मोह में (फस के) इस मन की आत्मिक मौत हो जाती है (पर, जीव के क्या वश?) जब धुर से ही यह हुकम चला आ रहा है तो किसी और के आगे पुकार नहीं की जा सकती (भाव, माया का मोह आत्मिक मौत का कारण बनता है- ये नियम अटल है, कोई इसकी उलंघना नहीं कर सकता)। कोई विरला व्यक्ति ही गुरू की शरण में पड़ कर समझता है कि प्रभू के नाम के बिना माया के मोह से खलासी नहीं हो सकती।2। माया के मोह में भटक-भटक के जीव चौरासी लाख जूनियों के चक्करों में धक्के खाता फिरता है। गुरू के बिना सही जीवन-राह को नहीं समझता और जम का फंदा (इसके गले में पड़ा रहता है)। (माया के असर में) यह मन कभी आकाश में जा चढ़ता है और कभी पाताल में गिर जाता है। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है वह परमात्मा का नाम सिमर के इस चक्कर में से बच निकलता है।3। जिस मनुष्य को प्रभू स्वयं ही (अपने चरणों में जुड़ने के लिए) बुलाता है उसको मिलते हुए समय नहीं लगता, वह मनुष्य गुरू के शबद से माया के मोह से उपराम हो जाता है (भाव, माया उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती) और वह बड़ा आसान जीवन बिताता है। गुरू की शरण पड़े बिना किसी को आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती (गुरू से भी प्रभू स्वयं ही मिलाता है) प्रभू स्वयं ही ये सब कुछ करता है और जीवों से करवाता है।4। जिस मनुष्य का माया के मोह का लंबा चक्र प्रभू खत्म कर देता है वह मनुष्य प्रभू के गुण गाता है, पूरा गुरू उसके सिर पर रखवाला बनता है और वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। तब मनुष्य का यह मन माया के पीछे भटकने से हट जाता है, तब मनुष्य सदा-स्थिर-नाम के सिमरन को अपना कर्तव्य जान के सिमरन की कार करता है।5। पर जिस मनुष्य का मन (विकारों से) मैला हो चुका हो उसके अंदर (बाहरी स्नान आदि से) पवित्रता नहीं आ सकती। कोई विरला मनुष्य गुरू के शबद के साथ ही (मन को) साफ करता है। कोई विरला ही गुरू की शरण पड़ कर सदा-स्थिर-हरी-नाम को सिमरने का कार्य करता है और अपने मन की भटकना को रोक के रखता है।6। जिस मनुष्य ने परमात्मा के डर-अदब को अपने आत्मिक जीवन का आसरा बना लिया है जैसे खाने-पीने को शरीर का सहारा बनाया जाता है, वह मनुष्य गुरमुखों की संगति में रह के (माया के मोह के समुंद्र का) परला छोर मिल जाता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू का नाम सिमरता है, प्रभू-चरणों का प्यार उसको सिमरने की ओर ही प्रेरित करता रहता है। गुरू के शबद को हृदय में टिकाना ही वह मनुष्य सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य समझता है।7। उस मनुष्य ने यह निश्चय कर लिया होता है कि परमात्मा की सिफतसालाह ही मेरे लिए कर्म-काण्ड है, यही मेरे लिए (लोक-परलोक की) इज्जत है और यही मेरे वास्ते देव-पूजा है। वह मनुष्य काम-क्रोध आदि विकारों को (ज्ञान की) आग में जला देता है। नानक विनती करता है कि जब मनुष्य (एक बार) परमात्मा के नाम का रस चख लेता है तो उसका मन (सदा के लिए उस रस में) भीग जाता है, फिर उसको कोई और रस अच्छा नहीं लगता।8।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |