श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1345 प्रभाती महला १ ॥ राम नामु जपि अंतरि पूजा ॥ गुर सबदु वीचारि अवरु नही दूजा ॥१॥ एको रवि रहिआ सभ ठाई ॥ अवरु न दीसै किसु पूज चड़ाई ॥१॥ रहाउ ॥ मनु तनु आगै जीअड़ा तुझ पासि ॥ जिउ भावै तिउ रखहु अरदासि ॥२॥ सचु जिहवा हरि रसन रसाई ॥ गुरमति छूटसि प्रभ सरणाई ॥३॥ करम धरम प्रभि मेरै कीए ॥ नामु वडाई सिरि करमां कीए ॥४॥ सतिगुर कै वसि चारि पदारथ ॥ तीनि समाए एक क्रितारथ ॥५॥ सतिगुरि दीए मुकति धिआनां ॥ हरि पदु चीन्हि भए परधाना ॥६॥ मनु तनु सीतलु गुरि बूझ बुझाई ॥ प्रभु निवाजे किनि कीमति पाई ॥७॥ कहु नानक गुरि बूझ बुझाई ॥ नाम बिना गति किनै न पाई ॥८॥६॥ {पन्ना 1345} पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। वीचारि = अपने सोच मंडल में रख।1। रहि रहिआ = व्यापक है। ठाई = जगह में।1। रहाउ। जीअड़ा = छोटी सी जिंद।2। सचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। रसन = जीभ। रसाई = एक सार कर लिया।3। प्रभि मेरै = मेरे प्रभू ने। सिरि करमां = कर्मों के सिर पर।4। तीनि = तीन पदार्थ (धर्म, अर्थ और काम)। क्रितारथ = कृतार्थ, सफल।5। सतिगुरि = गुरू ने। मुकति = माया के मोह से खलासी। चीनि् = पहचान के।6। गुरि = गुरू ने। निवाजे = आदर दिया है। किनि = किस ने? गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।8। अर्थ: (हे पंडित!) एक परमात्मा सब जगहों में व्यापक है। मुझे (उसके बिना कहीं) कोई और नहीं दिखता। मैं और किस की पूजा करूँ? मैं और किस को (फूल आदि) भेटा करूँ? ।1। (हे पंडित!) परमात्मा का नाम जप, (यही) अंतरात्मा में (परमातम देव की) पूजा है। गुरू के शबद को अपने सोच-मण्डल में टिकाए रख (तुझे समझ आ जाएगी कि) परमात्मा के बिना कोई (देवी-देवता) नहीं है (जिसकी पूजा की जाए)।1। (हे पण्डित! ये फूलों की भेटा किस अर्थ? मैं तो ऐसे परमात्मा के दर पर) अरदास करता हूँ - ( हे प्रभू!) मेरा यह मन मेरा यह शरीर तेरे आगे हाजिर है मेरी यह तुच्छ से प्राण भी तेरे हवाले हैं, जैसे तेरी रज़ा है मुझे वैसे रख।2। जो मनुष्य गुरू की मति ले के प्रभू की शरण पड़ता है, अपनी जीभ से सदा-स्थिर प्रभू का नाम सिमरता है और अपनी जीभ को प्रभू के नाम-रस में रसा लेता है वह माया के बँधनों से मुक्त हो जाता है।3। (परमात्मा सभी जीवों में व्यापक है, इस दृष्टि-कोण से) मेरे परमात्मा ने ही कर्म-काण्ड बनाए हैं, पर प्रभू ने ही नाम-सिमरन को सब कर्मों से उक्तम रखा है।4। (लोग दुनियावी पदार्थों की खातिर देवी-देवताओं की पूजा करते-फिरते हैं, पर) गुरू के अधिकार में (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) चारों ही पदार्थ हैं। (गुरू की) शरण पड़ने से, (पहले) तीन पदार्थों की वासना ही खत्म हो जाती है, और, मनुष्य को एक में सफलता मिल जाती है (अर्थात, माया के मोह से मोक्ष की प्राप्ति मुक्ति मिल जाती है)।5। जिन मनुष्यों को गुरू ने माया के मोह से खलासी बख्शी, प्रभू-चरणों में सुरति जोड़ने की दाति दी, उन्होंने परमात्मा के साथ मेल-अवस्था पहचान ली और वे (लोक-परलोक में) जाने-माने हो गए।6। जिन मनुष्यों को सतिगुरू ने आत्मिक जीवन की समझ बख्शी उनका मन उनका शरीर (भाव, ज्ञान-इन्द्रियां विकारों की तपश से बच के) ठंडे-ठार शीतल हो गए, प्रभू ने उनको आदर दिया, (उनका आत्मिक जीवन इतना ऊँचा हो गया कि) कोई आदमी उस जीवन का मूल्य नहीं आँक सकता।7। हे नानक! कह-गुरू ने (मुझे) ये सूझ बख्श दी है कि परमात्मा का नाम सिमरन के बिना किसी ने (कभी) ऊँची अवस्था हासिल नहीं की।8।6। प्रभाती महला १ ॥ इकि धुरि बखसि लए गुरि पूरै सची बणत बणाई ॥ हरि रंग राते सदा रंगु साचा दुख बिसरे पति पाई ॥१॥ झूठी दुरमति की चतुराई ॥ बिनसत बार न लागै काई ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुख कउ दुखु दरदु विआपसि मनमुखि दुखु न जाई ॥ सुख दुख दाता गुरमुखि जाता मेलि लए सरणाई ॥२॥ मनमुख ते अभ भगति न होवसि हउमै पचहि दिवाने ॥ इहु मनूआ खिनु ऊभि पइआली जब लगि सबद न जाने ॥३॥ भूख पिआसा जगु भइआ तिपति नही बिनु सतिगुर पाए ॥ सहजै सहजु मिलै सुखु पाईऐ दरगह पैधा जाए ॥४॥ दरगह दाना बीना इकु आपे निरमल गुर की बाणी ॥ आपे सुरता सचु वीचारसि आपे बूझै पदु निरबाणी ॥५॥ जलु तरंग अगनी पवनै फुनि त्रै मिलि जगतु उपाइआ ॥ ऐसा बलु छलु तिन कउ दीआ हुकमी ठाकि रहाइआ ॥६॥ ऐसे जन विरले जग अंदरि परखि खजानै पाइआ ॥ जाति वरन ते भए अतीता ममता लोभु चुकाइआ ॥७॥ नामि रते तीरथ से निरमल दुखु हउमै मैलु चुकाइआ ॥ नानकु तिन के चरन पखालै जिना गुरमुखि साचा भाइआ ॥८॥७॥ {पन्ना 1345} पद्अर्थ: इकि = कई लोग, जो लोग। गुरि = गुरू ने। धुरि = धुर से प्रभू की रज़ा के अनुसार। सची = सदा स्थिर रहने वाली, सदा स्थिर प्रभू की याद की ओर प्रेरणा करने वाली। बणत = बनावट, मन की बनावट। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। पति = इज्जत।1। झूठी = नाशवंत, नाशवान पदाथों की ओर प्रेरणा करने वाली। चतुराई = समझदारी। बिनसत = नाश होते हुए, आत्मिक मौत आते हुए। बार = समय।1। विआपसि = व्यापता है, जोर डालता है।2। ते = से। अभ = हृदय। अभ भगति = दिल से की गई भगती। पचहि = ख्वार होते हैं। दिवाने = पागल। ऊभि = आकाश में। पइआलि = पाताल में। जब लगि = जब तक।3। तिपति = संतोख। सहजु = आत्मिक अडोलता। पैधा = सिरोपा ले के, बाइज्जत।4। दाना = (सबके दिलों की) जानने वाला। बीना = सबके कामों को देखने वाला। सुरता = सुरति जोड़ने वाला, सुनने वाला। निरबाणी = वासना रहित।5। तरंग = लहर। पवन = हवा। हुकमी = हुकम में ही।6। खजानै = खजाने में। ते = से। अतीता = निर्लिप, अलग।7। से = वे मनुष्य। नामि = नाम में। पखालै = धोता है। साचा = सदा स्थिर प्रभू।8। अर्थ: दुर्मति से पैदा हुई समझदारी मनुष्य को नाशवंत पदार्थों की तरफ ही प्रेरित करती रहती है, इस समझदारी के कारण मनुष्य को आत्मिक मौत मरते हुए थोड़ी सी भी देर नहीं लगती।1। रहाउ। जो लोग धुर से ही प्रभू की रज़ा के अनुसार पूरे गुरू ने बख्शे हैं (जिन पर गुरू ने मेहर की है) गुरू ने उनकी मानसिक बनावट ऐसी बना दी है कि (जो) उनको सदा-स्थिर प्रभू के सिमरन की ओर प्रेरित करती है। वे सदा परमात्मा के नाम-रंग में रंगे रहते हैं, उन (के मन) को सदा-स्थिर रहने वाला प्रेम-रंग चढ़ा रहता है। उनके दुख दूर हो जाते हैं और वे (लोक-परलोक में) शोभा कमाते हैं।1। अपने मन के पीछे चलने वाले व्यक्तियों को (कई तरह के) दुख-कलेश दबाए रखते हैं, अपने मन की अगुवाई में उनका दुख कभी दूर नहीं होता। जो लोग गुरू की शरण पड़ते हैं वे सुख देने वाले परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालते हैं, परमात्मा उनको अपनी शरण में रख के अपने साथ मिला लेता है।2। मनमुखों द्वारा चिक्त की एकाग्रता से परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती क्योंकि वे अहंकार में पागल होए हुए अंदर-अंदर से दुखी होते रहते हैं। जब तक मनुष्य गुरू के शबद के साथ सांझ नहीं डालता, तब तक इसका ये मन (माया के मोह के कारण) कभी आकाश में जा पहुँचता है कभी पाताल में जा गिरता है।3। जगत माया की भूख माया की प्यास के कारण घबराया हुआ है, सतिगुरू की शरण आए बिना तृष्णा नहीं मिटती संतोष नहीं आता, गुरू की शरण पड़ने से आत्मिक अडोलता प्राप्त होती है, आत्मिक आनंद मिलता है, और परमात्मा की हजूरी में मनुष्य आदर से जाता है।4। सतिगुरू की पवित्र बाणी में जुड़ने से यह समझ आती है कि परमात्मा स्वयं ही सब जीवों के दिल की जानता है, स्वयं ही सबके कर्म देखता है, सदा-स्थिर प्रभू स्वयं ही सबकी अरदासें सुनता है और विचारता है, स्वयं ही जीवों की आवश्यक्ताओं को समझता है, स्वयं ही वासना-रहित आत्मिक आनंद का मालिक है।5। गुरू के द्वारा ये समझ आ जाती है कि परमात्मा ने खुद ही पानी आग हवा (आदि) तत्व पैदा किए, प्रभू के हुकम में ही इन तीनों ने मिल के जगत पैदा किया। परमात्मा ने इन तत्वों को बेअंत शक्ति दी हुई है, पर अपने हुकम से इनको (बेवजही ताकत बरतने से) रोक भी रखा है।6। जगत में ऐसे लोग विरले हैं जिनके जीवन को परख के (और प्रवान करके) परमात्मा ने अपने खजाने में डाल लिया, ऐसे लोग जाति और (ब्राहमण, खत्री आदि) वर्ण के गुमान से निर्लिप रहते हैं, और माया की ममता और माया का लोभ दूर कर लेते हैं।7। हे नानक! (कह-) गुरू की शरण पड़ कर जिन लोगों को सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा प्यारा लगता है मैं उनके चरण धोता हूँ। परमात्मा के नाम-रंग में रंगे हुए व्यक्ति असली तीर्थ हैं, उन्होंने अहंकार का दुख अहंकार की मैल अपने मन में से समाप्त कर ली होती है।8।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |