श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1349 मंगल सूख कलिआण तिथाईं ॥ जह सेवक गोपाल गुसाई ॥ प्रभ सुप्रसंन भए गोपाल ॥ जनम जनम के मिटे बिताल ॥५॥ होम जग उरध तप पूजा ॥ कोटि तीरथ इसनानु करीजा ॥ चरन कमल निमख रिदै धारे ॥ गोबिंद जपत सभि कारज सारे ॥६॥ ऊचे ते ऊचा प्रभ थानु ॥ हरि जन लावहि सहजि धिआनु ॥ दास दासन की बांछउ धूरि ॥ सरब कला प्रीतम भरपूरि ॥७॥ मात पिता हरि प्रीतमु नेरा ॥ मीत साजन भरवासा तेरा ॥ करु गहि लीने अपुने दास ॥ जपि जीवै नानकु गुणतास ॥८॥३॥२॥७॥१२॥ {पन्ना 1349} पद्अर्थ: मंगल = खुशियां। कलिआण = सुख शांत। तिथाई = उस जगह में ही। जह = जहाँ। सेवक गोपाल = गोपाल के सेवक। गोपाल = सृष्टि को पालने वाला प्रभू। बिताल = (जीवन यात्रा में) ताल से भटके हुए।5। उरध तप = उल्टे लटक के किए हुए तप। कोटि = करोड़ों। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। रिदै = हृदय में। जपत = जपते हुए। सभि = सारे। सारे = सँवार लेता है।6। प्रभ थानु = प्रभू का ठिकाना। लावहि = लाते हें। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बाछउ = मैं माँगता हूं। कला = ताकत।7। नेरा = नजदीक। करु = हठ। गहि = पकड़ के। जपि = जप के। गुणतास = गुणों का खजाना है।8। अर्थ: हे भाई! जहाँ (साध-संगति में) सृष्टि के रक्षक पति-प्रभू के भगत-जन (रहते हैं), वहीं सारे सुख सारी खुशियाँ सारे आनंद होते हैं। (वहाँ साध-संगति में जो मनुष्य टिकते हैं, उन पर) जगत-रक्षक प्रभू जी बहुत प्रसन्न होते हैं, (उनके) अनेकों जन्मों के बेताले-पन समाप्त हो जाते हैं।5। हे भाई! (साध-संगति की बरकति से जो मनुष्य) परमात्मा के सुंदर चरण निमख-निमख (हर वक्त) अपने हृदय में बसाए रखता है, वह मनुष्य गोबिंद का नाम जपते हुए (अपने) सारे काम सँवार लेता है, (उसने मानो,) करोड़ों तीर्थों का स्नान कर लिया, (उसने, मानो, अनेकों) हवन-यज्ञ (कर लिए। उसने जैसे,) उल्टे लटक के तप (कर लिए। उसने, मानो, देव-) पूजा (कर ली)।6। हे भाई! (साध-संगति की बरकति से ये समझ आ जाती है कि) परमात्मा का ठिकाना बहुत ही ऊँचा है (बहुत ही ऊँचा आत्मिक जीवन ही उसके चरणों के साथ मिला सकता है)। प्रभू के भगत आत्मिक अडोलता में (उस प्रभू में) सुरति जोड़ी रखते हैं। हे भाई! जो प्रभू-प्रीतम सारी ताकतों का मालिक है जो सब जगह मौजूद है, उसके दासों के दासों की चरण-धूल मैं (भी) लोचता रहता हूँ।7। हे प्रभू! तू ही मेरी माँ है मेरा पिता है प्रीतम है मेरे हर वक्त नज़दीक रहता है। हे प्रभू! तू ही मेरा मित्र है, मेरा सज्जन है, मुझे तेरा ही सहारा है। हे प्रभू! अपने दासों को (उनका) हाथ पकड़ कर के तू अपने बना लेता है। हे गुणों के खजाने प्रभू! (तेरा दास) नानक (तेरा नाम) जप के (ही) आत्मिक जीवन हासिल कर रहा है।8।3। बिभास प्रभाती बाणी भगत कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मरन जीवन की संका नासी ॥ आपन रंगि सहज परगासी ॥१॥ प्रगटी जोति मिटिआ अंधिआरा ॥ राम रतनु पाइआ करत बीचारा ॥१॥ रहाउ ॥ जह अनंदु दुखु दूरि पइआना ॥ मनु मानकु लिव ततु लुकाना ॥२॥ जो किछु होआ सु तेरा भाणा ॥ जो इव बूझै सु सहजि समाणा ॥३॥ कहतु कबीरु किलबिख गए खीणा ॥ मनु भइआ जगजीवन लीणा ॥४॥१॥ {पन्ना 1349} नोट: ये शबद विभास और प्रभाती दोनों मिश्रित रोगों में गाने के लिए हैं। पद्अर्थ: संका = सहसा, फिक्र, शक। आपन रंगि = अपनी मौज में, अपनी रज़ा में। सहज = अडोल अवस्था का।1। करत बीचारा = विचार करते करते, सुरति जोड़ते जोड़ते।1। रहाउ। जह = जिस मन में। पइआना = चला जाता है। मानकु = मोती। ततु = सारे जगत का मूल प्रभू। लुकाना = छुपा लेता है, बसा लेता है। लिव = सुरति जोड़ के।2। इव = इस तरह। इव बूझै = यह समझ आ जाती है। सहजि = सहज अवस्था में।3। खीणा = कमजोर। गऐ खीणा = कमजोर हो के नाश हो जाते हैं। भइआ लीणा = लीन हो जाता है, मगन हो जाता है।4। अर्थ: (प्रभू के नाम में) सुरति जोड़ते-जोड़ते जिस मनुष्य को नाम-रत्न मिल जाता है (उसके अंदर) प्रभू की जोति जाग उठती है, और (उसके अंदर से विकारों आदि का) अंधेरा मिट जाता है।1। रहाउ। (उस मनुष्य का) की यह शंका समाप्त हो जाती है कि जनम-मरण के चक्कर में पड़ना पड़ेगा, क्योंकि परमात्मा अपनी मेहर से (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता का प्रकाश कर देता है।1। जिस मन में (प्रभू के मेल का) आनंद बन जाए और (दुनिया वाला) दुख-कलेश नाश हो जाए, वह मन (प्रभू-चरणों में) जुड़ने की बरकति से मोती (जैसा कीमती) बन के प्रभू को अपने अंदर बसा लेता है।2। (हे प्रभू! तेरे नाम में सुरति जोड़ते-जोड़ते) जिस मनुष्य को यह सूझ पड़ जाती है कि जगत में जो कुछ हो रहा है तेरी रज़ा हो रही है, वह मनुष्य सदा अडोल अवस्था में टिका रहता है (उसे कभी कोई शंका व संशय नहीं रहता)।3। कबीर कहता है- उस मनुष्य के पाप नाश हो जाते हैं, उसका मन जगत-के-जीवन प्रभू में मगन रहता है।4।1। शबद का भाव: मिलाप अवस्था-मन में से विकार दूर हो जाते हैं, जगत में जो कुछ हो रहा है प्रभू की रज़ा ही दिखती है। प्रभाती ॥ अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा ॥ हिंदू मूरति नाम निवासी दुह महि ततु न हेरा ॥१॥ अलह राम जीवउ तेरे नाई ॥ तू करि मिहरामति साई ॥१॥ रहाउ ॥ दखन देसि हरी का बासा पछिमि अलह मुकामा ॥ दिल महि खोजि दिलै दिलि खोजहु एही ठउर मुकामा ॥२॥ ब्रहमन गिआस करहि चउबीसा काजी मह रमजाना ॥ गिआरह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना ॥३॥ कहा उडीसे मजनु कीआ किआ मसीति सिरु नांएं ॥ दिल महि कपटु निवाज गुजारै किआ हज काबै जांएं ॥४॥ एते अउरत मरदा साजे ए सभ रूप तुम्हारे ॥ कबीरु पूंगरा राम अलह का सभ गुर पीर हमारे ॥५॥ कहतु कबीरु सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना ॥ केवल नामु जपहु रे प्रानी तब ही निहचै तरना ॥६॥२॥ {पन्ना 1349} पद्अर्थ: केरा = का। दुह महि = (हिन्दू और मुसलमान) दोनों में से। हेरा = देखा।1। जीवउ = मैं जीऊँ। नाई = नाम की बरकति से, नाम सिमर के, नाम से।1। रहाउ। दखन देस = जगन्नाथपुरी जो कबीर जी के वतन बनारस से दक्षिण की ओर है। पछिमि = पश्चिम की ओर। अलह = अल्लाह का, रॅब का। दिलि = दिल में। दिलै दिलि = दिल ही दिल में। ठउर = जगह।2। गिआस = एकादसी। चउबीसा = 24 (हर महीने दो एकादशियां, साल में चौबीस)। मह रमजाना = रमजान का महीना। मास = महीने। पास कै = अलग करके।3। उडीसे = उड़ीसा प्रांत का तीर्थ जगन्नाथपुरी। मजनु = तीर्थ स्नान। नांऐं = झुकाया।4। अउरत = औरतें। मरदा = मर्दों। पूंगरा = छोटा सा बच्चा, अंजान बच्चा।5। नरवै = हे नारियो! निहचै = निश्चय से, अवश्य।6। अर्थ: हे अल्लाह! हे राम! हे साई! तू मेरे पर मेहर कर, (मैं तुझे एक ही जान के) तेरा नाम सिमर के जीऊँ (आत्मिक जीवन हासिल करूँ)।1। रहाउ। अगर (वह) ख़ुदा (सिर्फ) काबे में बसता है तो बाकी का मुल्क किस का (कहा जाए) ? (सो, मुसलमानों का यह अकीदा ठीक नहीं है)। हिन्दू परमात्मा का निवास मूर्ति में समझता है; (इस तरह हिन्दू-मुसलमान) दोनों में से किसी ने परमात्मा को नहीं देखा।1। (हिन्दू कहता है कि) हरी का निवास दक्षिण देश में (जगन्नाथपुरी में) है, मुसलमान कहता है कि ख़ुदा का घर पश्चिम की ओर (काबे में) है। (पर, हे सज्जन!) अपने दिल में (ईश्वर को) तलाश, सिर्फ दिल में ही ढूँढ, यह दिल ही उसका निवास स्थान है, उसका मुकाम है।2। ब्राहमण चौबीस एकादशियों (के व्रत रखने की आज्ञा) करते हैं, काज़ी रमज़ान के महीने (रोज़े रखने की हिदायत) करते हैं। ये लोग (बाकी के) ग्यारह महीने एक तरफ़ ही रख देते हैं, और (कोई) खजाना एक ही महीने में से ढूँढते हैं।3। (दरअसल बात यह है कि) अगर दिल में ठॅगी-फरेब बसता है तो ना तो उड़ीसा जगन्नाथपुरी में स्नान करने का कोई लाभ है, ना ही मस्जिद में जा के सजदा करने का कोई फायदा है, ना नमाज़ पढ़ने का लाभ है, ना ही काबे का हज करने का कोई गुण है।4। हे प्रभू! ये सारे स्त्री-मर्द जो तूने पैदा किए हैं, ये सब तेरा ही रूप हैं (तू ही स्वयं इनमें बसता है)। तू ही, हे प्रभू! अल्लाह है और राम है। मैं कबीर तेरा अंजान बच्चा हूँ, (तेरे भेजे हुए) अवतार पैग़ंबर मुझे सब अपने दिखते हैं।5। कबीर कहता है- हे नर-नारियो! सुनो, एक परमात्मा की ही शरण पड़ो (वही अल्लाह है, वही राम है)। हे लोगो! सिर्फ नाम जपो, यकीन से जानो, तब ही (संसार-जगत से) तैर सकोगे।6।2। शबद का भाव: सर्व-व्यापक- ना विशेष तौर पर काबे में बैठा है, ना जगन्नाथपुरी में। उसको अपने हृदय में बसाओ, मज़हबी पक्ष-पात दूर हो जाएंगे। प्रभाती ॥ अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥ एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥ लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥ खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥१॥ रहाउ ॥ माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥ ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कु्मभारै ॥२॥ सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥ हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥३॥ अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥ कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥४॥३॥ {पन्ना 1349-1350} पद्अर्थ: अवलि = सबसे पहले, शुरू में, सबका मूल। अलह नूर = अल्लाह का नूर, परमात्मा की ज्योति। उपाइआ = (जिसने जगत) पैदा किया। कुदरति के = खुदा की कुदरति के (पैदा किए हुए)। नूर = जोति। ते = से। का = कौन?।1। लोगा = हे लोगो! भाई = हे भाई! खालकु = (जगत को) पैदा करने वाला प्रभू। स्रब ठांई = सब जगहों पर।1। रहाउ। भांति = किस्म। साजी = पैदा की, बनाई। पोच = ऐब, कमी।2। सोई = वही मनुष्य।3। अलखु = जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान नहीं हो सकता। गुड़ु = (परमात्मा के गुणों की सूझ रूपी) गुड़। गुरि = गुरू ने। संका = शक, भुलेखा। सरब = सारों में।4। अर्थ: हे लोगो! हे भाई! (रॅब की हस्ती के बारे) किसी भूलेखे में पड़ कर दुखी मत होवो। वह रॅब सारी ख़लकत को पैदा करने वाला है और सारी ख़लकत़ में मौजूद है वह सब जगह भरपूर है।1। रहाउ। सबसे पहले ख़ुदा का नूर ही है जिसने (जगत) पैदा किया है, यह सारे जीव-जंतु रॅब के ही बनाए हुए हैं। एक प्रभू की ही जोति से सारा जगत पैदा होया हुआ है। (तो फिर किसी जाति-मज़हब के भुलेखे में पड़ कर) किसी को अच्छा और किसी को बुरा ना समझो।1। सृजनहार ने एक ही मिट्टी से (भाव, एक जैसे तत्वों से) अनेकों किस्मों के जीव-जन्तु पैदा कर दिए हैं। (जहाँ तक जीवों की अस्लियत का खरे होने का सम्बंध है) ना इन मिट्टी के बर्तनों (भाव, जीवों) में कोई कमी है, और ना (इन बर्तनों के बनाने वाले) कुम्हार में।2। वह सदा कायम रहने वाला प्रभू सब जीवों में बसता है। जो कुछ जगत में हो रहा है, उसी का किया हुआ हो रहा है। वही मनुष्य रॅब का (प्यारा) बँदा कहा जा सकता है, जो उसकी रज़ा को पहचानता है और उस एक के साथ सांझ डालता है।3। वह रॅब ऐसा है जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान से परे है, उसके गुण कहे नहीं जा सकते। कबीर कहता है- मेरे गुरू ने (प्रभू के गुणों की सूझ रूपी) मीठा गुड़ मुझे दिया है (जिसका स्वाद तो मैं नहीं बता सकता, पर) मैंने उस माया-रहित प्रभू को हर जगह देख लिया है, मुझे इस में कोई शक नहीं रहा (मेरा अंदर किसी जाति अथवा मज़हब के लोगों की उच्चता व नीचता का कर्म नहीं रहा)।4।3। शबद का भाव: सर्व-व्यापक प्रभू ही सारे जीवों का सृजनहार है। सबकी अस्लियत एक ही है, किसी को बुरा मत कहो। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |