श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुरमति अंग संग्रहि

परमात्मा

(अ) सर्व-व्यापक

सिरी रागु महला १– आपे रसीआ आपि रसु– पन्ना23

सिरी रागु महला १– तू दरीआउ दाना बीना– पन्ना25

सलोक महला ३ (वारां ते वधीक) –हरहट भी तूं तूं करहि– पन्ना 1420

पउड़ी महला ४ (सिरी राग की ‘वार’) –सपत दीप सपत सागरा–पन्ना 84

पउड़ी महला ४ (सिरी राग की ‘वार’) –तूं आपे जलु मीना है आपे–पन्ना 85

माझ महला ४– आवहु भैणे तुसी मिलहु पिआरीआ– पन्ना 601

गउड़ी माझ म: ४–चोजी मेरे गाविंदा, चोजी मेरे पिआरिआ– पन्ना174–175

बिहागड़ा म: ४ छंत–सभि जीअ तेरे, तूं वरतदा– पन्ना 541

सोरठि महला ४– आपे सेवा लाइदा पिआरा– पन्ना 606

सोरठि महला ४– आपे अंडज जेरज सेतज उतभुज– पन्ना 605

सोरठि महला ४– आपे कंडा आपि तराजी– पन्ना 605

तिलंग महला ४– सभि आऐ हुकमि खसमाहु– पन्ना 723

बसंत महला ४– जिउ पसरी सूरजि किरणि जोति– पन्ना 1177

गउड़ी महला ५– ओहु अबिनासी राइआ– पन्ना 206

गउड़ी सुखमनी म: ५–सो अंतरि सो बाहरि अनंत– पन्ना293

गउड़ी सुखमनी म: ५–बेद पुरान सिंम्रिति महि देखु– पन्ना 294

गउड़ी सुखमनी म: ५–सरब भूत आपि वरतारा– पन्ना 294

आसा महला ५–आपे पेड बिसथारी साख– पन्ना387

आसा महला ५–आठ पहर उदक इसनानी– पन्ना 393

पउड़ी म: ५ (गूजरी की वार म: ५) –जिउ जिउ तेरा हुकमु– पन्ना523

सोरठि म: ५–सगल बनसपति महि बैसंतरु– पन्ना617

धनासरी म: ५– करि किरपा दीओ मोहि नामा– पन्ना 54

जैतसरी म: ५–देहु संदेसरे कहीअउ प्रिअ कहीअउ– पन्ना 700

सलोक म: ५ (मारू की वार) – डूंगरि जला थला– पन्ना 1101

भैरउ म: ५– निकटि बूझै सो बुरा किउ करै– पन्ना 1139

धनासरी म: ९– काहे रे बन खोजन जाई– पन्ना 684

सोरठि कबीर जी– दुइ दुइ लोचन पेखा– पन्ना 655

बसंत कबीर जी– मउली धरती मउलिआ आकासु– पन्ना1193

प्रभाती कबीर जी– अवलि अलह नूरु उपाइआ– पन्ना 1349

आसा नामदेउ जी– ऐक अनेक बिआपक पूरक– पन्ना 485

आसा नामदेउ जी– आनीले कुंभ भराईअले ऊदक– पन्ना 485

माली गउड़ा नामदेव जी– सभै घट रामु बोलै– पन्ना 988

कानड़ा नामदेव जी– अैसो राम राइ अंतरजामी– पन्ना 1318

सोरठि रविदास जी–जब हम होते तब तूं नाही– पन्ना 657

सलोक फरीद जी के– इकु फिका ना गालाइ– पन्ना 1384

भाव:

परमात्मा सारी सृष्टि में पूर्ण तौर पर व्यापक है। वह स्वयं ही रस भरा पदार्थ है, स्वयं ही उसमें रस है, और स्वयं ही उसका स्वाद लेता है। खुद ही मछली है, खुद ही मछलियां पकड़ने वाला है, खुद ही जाल है। स्वयं ही सुख देने वाला है, स्वयं ही सुख-दुख भोग रहा है।

परमात्मा स्वयं ही हरेक जीव के अंदर मौजूद है, सारे जगत में मौजूद है। सर्व-व्यापक होते हुए भी निर्लिप है। आप ही हरेक जीव की संभाल करता है, आप ही हरेक की आरजू सुनता है। जो हुक्म उसको अच्छा लगता है वही हरेक जीव को स्वीकार करना पड़ता है।

माया की नींद में से जिनकी जाग खुल जाती है, उनकी आँखें हर तरफ विधाता का ही दीदार करती हैं, उनके कान इस तरह अनुभव करते हैं कि पशू पक्षियों बंदों हरेक किस्म के जीव-जन्तुओं में प्रभु स्वयं ही बोल रहा है। सारी कुदरति का एक-एक अंग उनको विधाता द्वारा मिले हुए काम करता दिखता है। जगत में हो रही हरेक किस्म की आवाज़ में से उन्हें ‘तूं है तूं’ सुनाई दे रहा है।

यह जगत, जगत में अनेक किस्मों रंग-तमाशे, हरेक किस्म की रचना- सब में प्रभु का अपना ही हाथ है।

सारे जगत में कोई एक भी चीज़ ऐसी नहीं, जिसको विधाता से भिन्न कहा जा सके। पानी भी खुद, पानी में तैरने वाली मछली भी खुद ही है। मछली को पकड़ने के लिए बनाया हुआ जाल भी खुद, और जाल लगाने वाला भी खुद है।

सुख-दुख देने वाला भी आप है, और सहने वाला भी आप ही है।

सारे जगत में हर जगह प्रभु की ज्योति ही व्यापक है।

यह जगत-तमाशा विधाता ने स्वयं रचा हुआ है। स्वयं ही तमाशा कर रहा है, स्वयं ही देख रहा है। खुद ही बाजा है, खुद ही बजाने वाला है, खुद ही सुन-सुन के खुश होता है।

हरेक जीव के अंदर मौजूद है, दिखते संसार में हर जगह है।

इस जगत-अखाड़े में अनेक जीव आए और चले गए, आ रहे हैं और चलते जा रहे हैं। हरेक के गले में विधाता ने जीवन-जुगति की, मानो, रस्सी डाली हुई है; जैसे चलाता है वैसे जीव चलते हैं। हरेक जीव में स्वयं ही बैठा प्रेरणा करता जाता है। स्वयं ही सेवा करने वाला, स्वयं ही करवाने वाला। खुद ही गोपियाँ, खुद ही कान्हा, और खुद ही गऊएं चराने वाला।

हरेक जगह, हरेक जीव में कर्तार स्वयं ही व्यापक है।

अंडे, ज्योर, पसीना, धरती- इनसे सृष्टि में अनेक किस्मों के जीव और फल-फूल बूटीयां आदि पैदा हुए हैं। जैसे मनियार सूत्र के धागे में रंग-बिरंगे मणके परो के सुंदर माला बना देता है, परमात्मा ने अपने आप से यह रंग-बिरंगी रचना रच के अपनी सत्ता के धागे में परोई हुई है। जीवों को रिज़क देने वाला भी स्वयं और खेलों में परचाने वाला भी स्वयं ही है।

बेअंत है यह कुदरति। कोई जीव इसका अंदाजा नहीं लगा सकता। पर, विधाता कर्तार की ये बाएं हाथ की खेल समझो। विरोधी तत्व इकट्ठे कर दिए हैं। क्या मजाल, कोई एक तत्व दूसरे को तबाह कर सके। जीवित भी खुद रखता है और मारता भी खुद ही है। सारे जीव उसके बनाए हुए बाजे हैं बाजों में भी आप है, बजाने वाला भी आप ही है।

हवा पानी धरती आकाश आदि जो कुछ भी दिखाई दे रहा है यह सब कर्तार के हुक्म में पैदा हुआ है। सभ उसके हुक्म में ही काम कर रहे हैं। कोई उससे आकी नहीं हो सकता। सबके अंदर वह स्वयं हर जगह मौजूद है इस में रक्ती भर भी शक नहीं।

सूरज की किरणें हर तरफ हर जगह पहुँच के रौशनी पैदा करती हैं। वैसे ही प्रभु की ज्योति किनके-किनके में रुमक रही है।

कठपुतलियों का तमाशा बच्चे बड़े चाव से देखते हैं। काठ की पुतलियों की डोर पुतलीगर के अपने हाथ में होती है। जिस-जिस पुतली को जैसे-जैसे वह चाहता है डोर खींच के नचाता है।

सारे जीव-जन्तु नट-प्रभु की पुतलियां हैं। गरीब में, अमीर में, मूर्ख में, विद्वान में; हरेक जीव के अंदर स्वयं बैठा प्रेरणा करता जा रहा है।

आग पानी हवा धरती आकाश बनस्पति हरेक चीज़ में परमात्मा की ज्योति है। कोई जगह ऐसी नहीं जहाँ प्रभु की ज्योति ना हो।

जैसे ताने और पेटे के धागे आपस में उने और परोए हुए होते हैं, वैसे ही परमात्मा की ज्योति हरेक जगह है। हरेक जीव के अंदर प्रभु स्वयं ही बोल रहा है।

यह सारा दिखाई देता आकार प्रभु का शरीर समझो। बेअंत जीव-जन्तुओं की आँखों में से अकाल-पुरख स्वयं ही यह सारा खेल देख रहा है। जीव में बैठा स्वयं ही अपनी शोभा कर रहा है, और स्वयं ही सुन रहा है।

अदृष्य और दिखाई देते जगत के किनके किनके में परमात्मा स्वयं मौजूद है। गुरु की शरण पड़ के जिस के भ्रम के बंधन काटे जाते हैं, उनको हर जगह बसता प्रभु प्रत्यक्ष दिखता है।

मछलियां आदि जीव सदा पानी में रहते हैं, इन जीवों में प्रभु सवयं मौजूद है। इस तरह प्रभु-देव आठों पहर जल में स्नान कर रहा है। बनस्पति के फूल हर वक्त सुगंधि दे रहे हैं। फूलों में बैठा प्रभु हर वक्त सुगंधि ले रहा है। हरेक जीव के अंदर प्रभु खुद व्यापक है। सब जीवों के शरीर प्रभु-देव के संपुट (डब्बे) हैं।

जो भाग्यशाली बंदों को प्रभु अस्लियत देख सकने वाली आँखें बख्शता है, उनको दिखाई दे जाता है कि इस जगत के अंदर बाहर हर जगह इसका रचनहार कर्तार खुद बस रहा है, और उसी का हुक्म चल रहा है।

गाय, भैंस, बकरी भेड़ आदि हरेक का दूध सफेद रंग का है, हरेक को मथने से मक्खन निकल आता है। पशू अलग-अलग श्रेणियों के हैं, पर मक्खन सबके दूध में है।

धरती पर अनेक किस्मों के पेड़ हैं, देखने को अलग-अलग श्रेणियां हैं। आग हरेक पेड़ में मौजूद है।

इस बहु-रंगे जगत में परमात्मा की ज्योति हर जगह मौजूद है।

जल थल धरती आकाश हर जगह प्रभु व्यापक है। यह यकीन उनको बनता है जो सत्संग में जाने के अभ्यासी होते हैं। उनको सारा जगत अपना मित्र ही दिखाई देता है।

विधाता सब जगह व्यापक है। पर यह माया उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।

जल, थल, पर्वत, बनस्पति, आकाश, पाताल- सारी ही सृष्टि का तिनका-तिनका माला के मणकों की तरह प्रभु की ज्योति के धागे में परोए हुए हैं।

माया-ग्रसित मनुष्य को ही जगत में मेर-तेर दिखती है। पर गुरु के शब्द की इनायत से जिस मनुष्य की आँखें खुल गई हैं, उसको विधाता हर जगह दिखता है, इसलिए वह कभी किसी का बुरा नहीं चितवता।

फूल में सुगंधी बसती है, पर हम उस सुगंधि को देख नहीं सकते। शीशे में मनुष्य अपना प्रतिबिंब देखता है, परन्तु शीशे को देखने वाला उस शीशे में जकड़ा नहीं गया। विधाता प्रभु इस सारी कुदरति के अंदर भी बसता है, और इससे निर्लिप भी है।

जब बाजीगर किसी किसी गाँव नगर जा के तमाशे का ढोल बजाते हैं, तो गाँव के लोग तमाशा देखने के लिए आ जाते हैं। कुछ समय खूब रौनक बनी रहती है। बाज़ीगर खेल समेट लेते हैं, तब मेला उजड़ जाता है।

प्रभु ने यह सारी खेल रचाई है। हरेक स्वांग में वह स्वयं मौजूद है। जिस मनुष्य की आँखों में प्रभु-प्यार की झलक पैदा होती है; उसको हर जगह प्रभु के ही दीदार होते हैं।

बसंत ऋतु आती है, तो सारी धरती की बनस्पति खिल उठती है। जगत की यह सारी रचना प्रभु की अपनी ही हस्ती का प्रकाश है।

गरीब-अमीर, ऊँची जाति और नीच जाति के -सारे ही जीव परमात्मा की ज्योति से पैदा हुए हैं। सारी ही सृष्टि में वह प्रभु स्वयं मौजूद है। कुम्हार एक ही मिट्टी से कई किस्मों के बर्तन घड़ देता है।

रंग-बिरंगी रचना देख के मनुष्य भुलेखा खा जाता है पर असल में विधाता स्वयं अनेक रंगों-रूपों में अपना प्रकाश कर रहा है। हजारों-लाखों मणके धागे में परो लिए जाते हैं। प्रभु की सक्तिया के धागे ये रंग-बिरंगी रचना परोई हुई है। लहरें, झाग, बुलबुले पानी से अलग नहीं हैं। यह सारा जगत उस अथाह समुंदर प्रभु का अनेक किस्मों का प्रगटावा है।

समुंदर के असगाह पानियों में बेअंत जूनियों के जीव बसते हैं, हरेक जीव के अंदर प्रभु स्वयं मौजूद है। फूल में स्वयं है, भौरे में भी स्वयं है। दूध में आप है, बछड़े में भी आप ही है। जिधर देखो, प्रभु आप ही आप है। कोई जगह ऐसी नहीं, जहाँ प्रभु मौजूद नहीं है।

सारे जगत में व्यापक हो के तमाशा कर रहा है और देख रहा है।

सृष्टि के सब जीवों में परमात्मा खुद ही बोल रहा है। हाथी से ले के कीड़ी तक सब जीव परमात्मा ने खुद ही घड़े हैं, और सब जीवों में खुद मौजूद है।

ठहरे हुए साफ पानी में अगर देखें, तो अपना मुँह दिखाई देता है। शीशे में देखने वाले को अपना प्रतिबिंब दिखता है। पर हमारा प्रतिबिंब ना पानी में जकड़ा हुआ है, ना ही शीशे में।

विधाता प्रभु सारी रचना में मौजूद है, पर उस पर इस रचना का इस माया का प्रभाव नहीं पड़ता।

तेज़ हवा के चलने से दरिया में समुंदर में पानी की लहरें उठतीं हैं, फिर उस समुंदर में ही मिल जाती हें। समुंदर से ये लहरें अलग नहीं हें। माया के मोह में फस के जीव इस जगत को परमात्मा से अलग भिन्न हस्ती समझ लेता है।

गरीब है चाहे धनाढ है, प्रभु हरेक मनुष्य के अंदर बसता है।

हरेक प्राणी को प्रभु का अंश समझो। किसी का दिल ना दुखाओ। किसी बँदे का दिल दुखाना प्रभु की निरादरी करने के बराबर है।

परमात्मा

(आ) राज़क अर्थात रिज़क देने वाला

(माझ की वार) म: १–न रिजकु दसत आं कसे – पन्ना143

(वार रामकली) सलोक म: २–नानक चिन्ता मत करहु– पन्ना 955

गउड़ी सुखमनी म: ५–मानुख की टेक ब्रिथी सभ जान– पन्ना 281

गुजरी म: ५– काहे रे मन चितवहि– पन्ना 495

गुजरी म: ५– जिसु मानुख पहि करउ – पन्ना 497

सोरठि म: ५– किसु हउ जाची– पन्ना 608

धनासरी म: ५– जिस का तनु मनु धनु सभु तिस का– पन्ना 671

धनासरी म: ५– अपनी उकति खलावै भोजन– पन्ना 680

धनासरी म: ५– मांगउ राम ते सभि थोक– पन्ना 682

तिलंग म: ५– मिहरवानु साहिबु मिहरवानु– पन्ना 724

पउड़ी म: ५ (रामकली की वार) – देवणहार दातारु – पन्ना 957

मलार म: ५– खीर अधारि– पन्ना 1266

गूजरी कबीर जी–मुसि मुसि रोवै कबीर की माई– पन्ना524

सोरठि कबीर जी– भूखे भगति न कीजै– पन्ना 656

आसा धंना जी– रे चित चेतसि की न– पन्ना 488

धनासरी धंना जी– गोपाल तेरा आरता– पन्ना 695

सलोक कबीर जी– कबीर थोरै जलि माछुली– पन्ना 1367

स्लोक फरीद जी– फरीदा हउ बलिहारी तिन् कउ– पन्ना1383

भाव:

जीवों का रिज़क परमात्मा के बिना किसी और के हाथ में नहीं है। देखो! पंछियों के पल्ले धन नहीं है, वे प्रभु के बनाए हुए वृक्षों और पानी का आसरा ही लेते हैं। उनको रोजी देने वाला परमात्मा ही है। सब जीवों को, बस, एक प्रभु की ही आस है।

समुंद्रों के गहरे पानियों में विधाता ने बेअंत जीव पैदा किए हुए हैं। वहाँ कोई हाट नहीं, कोई काम-काज नहीं हो रहा, कोई व्यापार नहीं चल रहे। फिर भी सब जीवों की रोजी-रोटी का प्रबंध कर्तार ने कर दिया है। वहाँ छोटे जीवों को बड़े जीव खा जाते हैं।

इतनी बेअंत रचना में कर्तार ने सबके रिज़क का प्रबंध भी किया हुआ है।

विधाता स्वयं ही राज़क है, वही मारता है वही जीवित रखता है। वही रिज़क देने के समर्थ है।

रिज़क की खातिर दर-दर की अधीनता छोड़ो। प्रभु को राज़क मान के उद्यम करो।

पत्थर में कीड़ा पैदा हो जाता है। बाहर से किसी भी तरफ से उसे खुराक नहीं पहुँच सकती। पत्थर के अंदर ही उसको जीवित रखने का प्रबंध है।

कूँजें अण्डे दे के सैकड़ों कोसों दूर उड़ आती हैं। कूँजों के बच्चों को वहाँ कोई चोगा चुगाने वाला नहीं होता। फिर भी, वे पल जाते हैं।

राज़क-प्रभु ने हरेक जीव के रिज़क का प्रबंध किया हुआ है।

किसी से भी बात करके देखो, हर कोई अपने-अपने दुख फोल देता है।

एक परमात्मा पर डोरी रख कर उद्यम करो। सबका राज़क प्रभु खुद ही है।

परमात्मा की दी हुई दातों से ही मनुष्य तृप्त हो सकता है, परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है। उसको विसार के उसके पैदा किए हुए बँदों की अधीनता करते फिरना जीवन का सही रास्ता नहीं। सारे सुख परमात्मा ही देने वाला है।

जिस प्रभु ने यह शरीर दिया है, यह जिंद दी है, रोज़ी का प्रबंध भी वही करता है।

माँ अपने बच्चे को खिलाती भी है, और वक्त सिर दूध भी पिलाती है। उसको बच्चे का हर समय फिक्र रहता है।

राज़क-प्रभु सब जीवों की माँ है।

मनुष्यों से माँग के हल्के पड़ जाया जाता है। अपनी जरूरतें राज़क-प्रभु के दर पर पेश करने से आवश्यक्ताएं भी पूरी होती हैं, शर्म-सार भी नहीं होना पड़ता, और माया की खातिर भटकना भी नहीं रहती।

परमात्मा सब जीवों को पैदा करने वाला है, वही सबकी रक्षा करता है, वही सबकी संभाल करता है पालना करता है। सब जीवों को शरीर और प्राण देने वाला परमात्मा आसरा भी सबका खुद ही है।

माता-पिता अपने बच्चों को बहुत ध्यान से बहुत प्यार से पालते हैं।

विधाता सब जीवों का माता-पिता है।

जब तक बच्चा सिर्फ दूध पर पलता है, माँ बड़े ध्यान से उसको अपने थनों का दूध पिलाती है। थोड़ा सा समझदार हो के बच्चा कभी जलती आग को अपने हाथ में पकड़ने का प्रयत्न करता है, कभी कोई सुंदर साँप देख के उसको पकड़ने लगता है, माता-पिता उसको इन खतरों से हमेशा बचाते हैं।

हम बच्चे हैं। परमात्मा हमारी माँ है, हमारा पिता है।

राज़क-प्रभु ने माता-पिता बच्चों की पालना के लिए बहाना बनाए हुए हैं।

उसको हरेक की पालना का फिक्र है।

तृष्णा की बाढ़ आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी को बहा के ले जाती है। नहीं तो, रोजाना शारीरिक जरूरतें उस राज़क प्रभु के दर से हरेक को मिलती और मिल सकती हैं।

माँ के पेट में परमात्मा बच्चे का शरीर बनाता है, माँ के पेट की आग में उसकी रक्षा भी करता है।

मादा कछुआ पानी में रहती है, उसके बच्चे बाहर रेत पर रहते हैं। ना बच्चों के पंख हैं कि वे उड़ के खा सकें, ना मादा कछुए के थन हैं कि बच्चों को दूध पिलाए।

पत्थर में कीड़ा छुपा रहता है। पत्थर में से बाहर जाने के लिए कोई रास्ता नहीं। पत्थरों में ही परमात्मा उसको पालता है।

एैसा है राज़क परमात्मा।

हर रोज़ की शारीरिक आवश्यक्ताओं के लिए राज़क-प्रभु के दर पर ही अरदास करो।

अपने सेवक को प्रभु खाली नहीं रहने देता।

छप्पड़ों के छोटे पानियों में रहती मछली बहुत जल्दी मछुआरे के जाल में फंस जाती है। समुंद्रों तारी भी खुली, और माछी के जाल का खतरा भी कम।

राज़क-प्रभु के दर पर आस रखने से औरों की अधीनता नहीं रहती।

देखो सिदक पंछियों का! जंगलों के वृक्षों पर बसेरा है, वहीं ज़मीन पर गिरे दाने चुग के गुजारा कर लेते हैं।

मनुष्य को तृष्णा मारती है।

परमात्मा

(इ) सृजनहार

पउड़ी म: ३ (गूजरी की वार) –आपणा आपु उपाइओनु – पन्ना 509

पउड़ी म: ३ (गूजरी की वार) – आपे जगतु उपाइओनु – पन्ना517

पउड़ी म: ३ (वार रामकली) – सचै तखतु रचाइआ – पन्ना947

पउड़ी म: ४ (वार सिरी राग) – तुधु आपे धरती साजीअै – पन्ना83

पउड़ी म: ४ (वार बिहागड़ा) – जदहु आपे थाटु कीआ बहि करतै– पन्ना551

पउड़ी म: ४ (वार बिहागड़ा) – आपे सभ घट अंदरे – पन्ना555

पउड़ी म: ४ (वार सोरठि) – तुधु आपे जगतु उपाइ कै – पन्ना643

पउड़ी म: ४ (वार सारंग) – आपे आपि निरंजना– पन्ना1237

सूही म: ५ – बाजीगरि जैसे बाजी पाई – पन्ना736

आसा कबीर जी– कोरी को काहू मरमु न जानां – पन्ना 484

प्रभाती कबीर जी– अवलि अलह नूरु उपाइआ – पन्ना1349

भाव:

जब परमात्मा ने अपने आप को कुदरत के रूप में प्रकट किया, तब और कोई हस्ती मौजूद नहीं थी। कोई उसका सलाहकार नहीं था। इस सृष्टि में प्रत्यक्ष रूप में आने से पहले परमात्मा स्वयं ही स्वयं मौजूद था।

बड़े बड़े शाह-व्यापारी दूर-दूर देशों में वणज-व्यापर करने जाते हैं। समुंद्रों को पार करने के लिए जहाज़ तैयार किए हुए हैं, और जहाजों को चलाने के लिए मल्लाह हैं, कप्तान हैं।

ये जगत-रचना प्रभु ने खुद की है, पूरी गिनी मिथी बिउंत से। वह स्वयं, मानो, बड़ा शाह है, जगत व्यापार की मण्डी है। जीव-वणजारे यहाँ भले गुणों का व्यापार करने आए हैं। सारी रचना उसका अपने-आप का प्रकाश है। सो, वह खुद ही शाह है, खुद ही व्यापारी, खुद ही समुंदर, खुद ही जहाज और खुद ही मल्लाह है।

विधाता कर्तार इस रची कुदरति का, मानो, बादशाह है। यह कुदरति, मानो, तख़्त है जो उसने अपने बैठने के लिए बनाया है। चाँद और सूरज इस तख़्त को रौशनी दे रहे हैं।

कर्तार ने यह धरती यह सूरज चाँद आकाश पाताल आदि सभ खुद ही पैदा किए हैं। मनुष्य वणजारे को यहाँ शुभ गुणों का वणज करने के लिए उसने पैदा किया है।

जब विधाता ने सृष्टि रची तो उसने किसी से भी कोई सलाह नहीं ली। कोई और हस्ती है ही नहीं थी। सलाह किससे लेता? उसने खुद ही जगत रचा, खुद ही जीव पैदा किए, और खुद ही काम पर लगाया।

जगत की रचना से पहले विधाता स्वयं ही स्वयं था। उस वक्त उसके अस्तित्व का क्या रूप था- इस विचार पर कोई जीव रौशनी नहीं डाल सकता। कितना समय वह खुद ही खुद टिका रहा-जीव की समझ ये अंत नहीं पा सकती। जगत बना के अब वह प्रभु इस दिखाई देते आकार में स्वयं ही स्वयं है, और गुप्त रूप में भी स्वयं ही स्वयं है।

जगत की खेल कर्तार ने खुद ही बनाई है। माया का मोह भी वह खुद ही बनाने वाला है। इस मोह में उसके पैदा किए हुए जीव फसते जाते हैं। अहंकार में दुखी होते हैं, और जनम-मरण के चक्करों में पड़ जाते हैं।

जिस पर मेहर करता है, उन्हें उसका भेजा हुआ गुरु मिलता है। गुरु की कृपा से उनको मोह के खेल की समझ पड़ जाती है।

अदृश्य परमात्मा ने अपने आप को इस दिखते जगत के रूप में प्रकट किया है। उसकी रची माया कई तरीकों से जगत के जीवों को मोह रही है, पर इस माया का जोर रचनहार कर्तार पर नहीं पड़ सकता।

नट, बाज़ी डालने के समय नाटक करते समय कई भेस बदलता है। पानी में से अनेक लहरें उठती हैं। पानी से भरे हजारों घड़ों में से एक ही आकाश का प्रतिबिंब दिखता है। भेस उतार के बाजीगर अपने असल रूप में दिखाई दे जाता है। लहरें पानी में ही मिल के पानी हो जाती हैं। घड़ों के टूट जाने पर आकाश के अलग-अलग प्रतिबिंब भी नहीं रहते।

यह बहुरंगी कुदरति कर्तार ने खुद रची है, और खुद ही इसमें हर जगह मौजूद है।

जुलाहा कपड़ा उनने के लिए पहले ताना तानता है। ताने की तंदें कंघी में से गुजारता है। ताणे में पेचा उनने के लिए नालें प्रयोग करता है। खड्डी की थड़ी पर बैठ के, पैर खड्डी में लटका के, दोनों खड़ाऊओं को क्रमवार एक-एक पैर से दबाता है, और इस तरह ताणे में बनी खाली जगह से पेटे वाली नाल गुजुर-गुजार के, साथ-साथ ही कंघी को आगे-पीछे खींच के, कपड़ा तैयार करता जाता है।

कर्तार ने भी भक्त का यही ताना तना हुआ है। धरती आकाश उसकी कंघी समझो, चाँद और सूरज दो नालें हैं। उसके हुक्म की ताकत जुलाहे की खड़ावें हैं।

कुम्हार एक ही मिट्टी के कई शक्लों के बर्तन बना देता है। परमात्मा स्वयं ज्योति-स्वरूप है, नूर ही नूर है। अपने नूर से उसने रंग-बिरंगी सृष्टि और लोग पैदा किये हैं। सारी रचना में सारी सृष्टि में वह ज्योति-रूप प्रभु स्वयं मौजूद है।

फिर किसी से कोई नफरत क्यों करे?

परमात्मा

(ई) रखवाला

सलोक म: २ (वार सोरठि की) –नकि नथ, खसम हथि – पन्ना 653

सूही म: ४–तेरे कवन कवन गुण कहि कहि गावा– पन्ना 734

बिलावल म: ४–उदम मति प्रभ अंतरजामी – पन्ना 798

मालीगउड़ा म: ४–मेरे मन, भजु हरि हरि नामु गुपाला – पन्ना 985

कलिआन म: ४–रामा राम रामै अंतु न पाइआ – पन्ना 1319

कलिआन म: ४–प्रभ कीजै क्रिपा निधान, हम हरि गुण गावहगे– पन्ना1321

सिरी राग म: ५–तेरै भरोसै पिआरे, मै लाड लडाइआ– पन्ना 51

गउड़ी म: ५ छंत–मोहन मेरे ऊचे मंदर, महल अपारा– पन्ना 247

पउड़ी म: ५ (वार गउड़ी) –तिसै सरेवहु प्राणीहो– पन्ना 320

सलोक म: ५ (वार गूजरी) –जिमी वसंदी पाणीअै– पन्ना 520

बिहागड़ा म: ५ छंत–सुनहु बेनंतीआ, सुआमी मेरे राम– पन्ना 547

सोरठि म: ५–हमरी गणत न गणीआ काई– पन्ना 619

मलार म: ५–खीर अधारि बारिकु जब होता– पन्ना 1266

भाव:

जवानी मस्तानी होती है। जवान बछड़ों और सांडों को लोग नकेल डाल लेते हैं। वह नकेल मालिक के हाथ में होती है। नाथा हुआ बैल व सांड अपने मालिक के इशारे पर चलता है।

विधाता प्रभु स्वयं ही जीवों का प्रेरक है। उसकी रज़ा की नाथ हरेक के नाक में है।

कुदरति की ओर ध्यान मार के देखो। असथाह समुंद्रों के बीच धरती टिकी हुई है, लकड़ी टिकी हुई है, लकड़ी में आग छिपी हुई है। विधाता ने विरोधी तत्व एक-दूसरे के पास बैठा दिए हैं, जैसे शेर और बकरी।

विधाता स्वयं ही सबका रखवाला है।

प्रभु सदा अपने भक्तों को संकट से बचाता आया है। प्रहलाद और हर्णाकश्यप की कथा जगत-प्रसिद्ध है।

लोग नीच जाति वालों को दुत्कारते आए हैं। पर नीच जाति में से भी जिसने प्रभु का आसरा लिया, उच्च-जातिए भी उसके चरणों में लगने लगे।

माया की तृष्णा निरी आग है, आत्मिक जीवन को जला के राख कर देती है। जीव सदा ही इस आग की ओर ही भागता है।

प्रभु स्वयं तृष्णा-आग से बचाता है।

प्रभु-पिता अंजान जीव-बच्चों को अपना पल्ला पकड़ा के विकारों के उजाड़ से सदा बचाता ही रहता है।

पुत्र बार-बार गलती करता है, पिता बार-बार बख्शता है, और भविष्य के लिए सद्बुद्धि देता है।

प्रभु-पिता हमारी भूलों को पल्ले से नहीं बाँध के रखता।

बच्चे भूलें करते ही रहते हैं, पर माता-पिता कुमापे नहीं बनते।

हम बार-बार गलतियां करते हैं, प्रभु-पिता बार-बार प्यार से समझाता है।

संसार-समुंदर की विकार लहरों से बचने के लिए प्रभु का आसरा ही समर्थ है।

बड़ी छतों और शतीरों (बल्लियों) को सहारा देने के लिए उनके नीचे खंभे खड़े करने पड़ते हैं, वरना छत के गिरने का खतरा बना रहता है।

उच्च जीवन के महल को विकारों के भार तले गिरने से बचाने के लिए यह जरूरी है कि धरम के स्तम्भ (खंभे) पर खड़ा किया जाए।

प्रभु का नाम पक्का स्तम्भ है, पक्का सहारा है।

धरती एक हिस्सा है, पानी तीन हिस्से ज्यादा है। फिर भी धरती पानी में बची हुई है। हरेक लकड़ी के अंदर आग है, पर लकड़ी सुरक्षित है।

प्रभु का आसरा लो। विकार नजदीक नहीं फटकेंगे।

जिस विधाता ने जगत-रचना की है उसी ने माया पैदा की है। उसी के हुक्म के अनुसार माया अपना हुक्म जीवों पर चला रही है।

जो मनुष्य प्रभु के दर पर गिरता है, माया के विकार उसके नजदीक नहीं आते।

प्रभु सदा बख्शिंद है। अपने सेवकों को विकारों से खुद हाथ दे के बचाता है।

पुत्र अनेक भूलें करता है, पिता कई बार झिड़कता है। फिर भी, भूलों को भुला के पिता सदा अपने पुत्र को गले से लगाता है।

पिता-प्रभु सदा बख्शिंद है, और जीवों को दुष्कर्मों से बचाता है।

जब तक बच्चा अंजान है और सिर्फ दूध के आसरे है, माँ पूरा ध्यान रखती है, और उसको अपने थनों का दूध चुँघाती है।

अंजान बच्चा जलती-चमकती आग देख के उस तरफ अपना हाथ आगे करता है; सुंदर डिजाइन वाले साँप को देख के उसको पकड़ने का प्रयत्न करता है। बालक बेसमझ है, उसको खतरे की समझ नहीं। माता-पिता बचा लेते हैं।

प्रभु हमारा पिता है, हम अंजानों को विकारों से खुद हाथ देकर बचाता है।

परमात्मा

(उ) बेअंत गुणों का मालिक

सिरी राग म: १–कोटि कोटी मेरी आरजा – पन्ना 14

आसा म: १–पउणु उपाइ धरी सभ – पन्ना 350

बिलावल म: १– तूं सुलतानु, कहा हउ मीआ – पन्ना 795

सूही म: ४– तेरे कवन कवन गुण – पन्ना 734

गउड़ी म: ५– मोहन तेरे ऊचे मंदर – पन्ना 247

धनासरी म: ५– तुम दाते ठाकुर प्रतिपालक – पन्ना 674

सूही म: ५– किआ गुण तेरे सारि – पन्ना 738

बसंत म: ५– तेरी कुदरति तूं है जाणहि – पन्ना 1185

भाव:

अगर करोड़ों साल अटूट समाधि लगा के, बड़े-बड़े तप सह-सह के दिव्य-दृष्टि हासिल कर लें, अगर उड़ने की शक्ति हासिल कर के परमात्मा की रची रचना की आखिरी छोर तलाशने के लिए सैकड़ों आसमानों तक हो आएं; अगर ना खत्म होने वाली स्याही से लाखों मन कागज़ों पर परमात्मा की महिमा का लेखा निरंतर लिखते जाएं, तो भी कोई जीव उसकी बड़ाई का अंत पाने के योग्य नहीं है। वह परमात्मा अपने सहारे आप कायम है, उसको सहारा देने लायक कोई उसका श्रीक नहीं है।

सृष्टि के सारे जीव पैदा करके सबकी जीवन-जु्रगति परमात्मा ने अपने हाथ में रखी हुई है, उसने सभी को नाथा हुआ है। कोई बड़े से बड़ा माना हुआ देवता भी परमात्मा की प्रतिभा का अंत नहीं पा सका।

परमात्मा की महानताएं उसकी रची हुई कुदरति में से जर्रे-जर्रे में से दिखाई दे रही हैं। वह भले ही अपनी कुदरति में छुपा हुआ है, पर छुपा नहीं रह सकता। प्रत्यक्ष-रूप से उसकी बेअंत कुदरति बता रही है कि वह बहुत शक्तियों का मालिक है।

बड़े से बड़े माने हुए देवताओं और अवतारों के बड़े-बड़े निहित हुए कारनामे भी उस परमात्मा के वास्ते साधारण सी खेल हैं।

कोई भी जीव परमात्मा के सारे गुण बयान नहीं कर सकता। यह उद्यम करना यूँ ही है जैसे कोई मनुष्य अपनी ओर से किसी बादशाह की तारीफ़ करने के लिए उसको ‘मीयाँ जी’ कहे।

परमात्मा बेअंत गुणों का खजाना है, कोई भी जीव उसके गुणों का अंत नहीं पा सकता। परमात्मा के बिना जीव का और कोई सहारा आसरा है ही नहीं। देखो, उसकी आश्चर्यजनक कुदरति! पानी में ही धरती है, धरती में ही पानी है; लकड़ी में उसने आग संभाल के रखी हुई है। उसने, मानो, शेर और बकरी एक ही जगह रखे हुए हैं। देखो, उसकी ताकत के करिश्मे! वह उनको भी आदर दिलवाता है जिनकी कोई इज्जत नहीं करता था।

परमात्मा के मन्दिर महल ऐसे हैं कि उनका परला छोर नहीं दिखता। सिर्फ परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है, और सारी सृष्टि नाशवान है। जो मनुष्य सदा परमात्मा को याद रखते हैं, आत्मिक मौत उन पर अपना असर नहीं डाल सकती।

मनुष्य की एक जीभ, और परमात्मा के बेअंत गुण! कहाँ है इसकी ताकत कि यह सारे गुण बयान कर सके? परमात्मा एक-एक छिन अपने पैदा किए हुए बेअंत जीवों की पालना करता है, अनेक ही तरीकों से जीवों को जीवन-जुगति समझाता है। जीव आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित, फिर भी परमात्मा अपना आदि-कदीमी प्यार वाला स्वभाव कायम रखता है।

परमात्मा की हस्ती का माप नहीं पाया जा सकता, परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। गलत रास्ते जा रहे मनुष्य को वह स्वयं ही गुरु से मिलाता है, और इस तरह उसके सिर पर हाथ रख के उसको विकारों-भरे संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।

परमात्मा कितनी ताकत का मालिक है; यह सच्चाई वह स्वयं ही जानता है। वही मनुष्य उससे जान-पहचान डालता है जिस पर वह स्वयं मेहर करे। बेअंत हैं करिश्मे उसके! मनुष्य को अपने नाम का प्यार वह स्वयं ही बख्शता है। जीवों को वह अनेक दातें बख्शता रहता है, हरेक के दिल की आवश्यक्ता वह हमेशा जानता है। बस! उसके दर पर सदा अरदास करते रहना चाहिए।

जगत

(अ) समुंदर

बिहागड़ा म: ४–अंम्रितु हरि हरि नामु है मेरी जिंदुड़ीऐ – पन्ना 538

सलोक म: ४ (वार मारू) –सागरु देखउ डरि मरउ – पन्ना 1087

कानड़ा म: ४–जपि मन राम नाम जगंनाथ – पन्ना 1296

सिरी रागु म: ५ छंत–मन पिआरिआ जीउ मित्रा, गोबिंद नामु समाले–पन्ना 78

गउड़ी म: ५–दय गुसाई मीतुला तूं संगि हमारै बासु जीउ– पन्ना 203

गउड़ी म: ५–अउध घटै दिनसु रैनारे। मन, गुर मिलि, काज सवारे –पन्ना 205

सलोक म: ५ (वार गउड़ी) – चेता ई तां चेति – पन्ना 318

आसा म: ५–तुझ बिनु अवरु नाही मै दूजा – पन्ना 378

आसा म: ५–किआ सोवहि नामु विसारि – पन्ना 398

सलोक म: ५ (वार गूजरी) –लगड़ी सु थानि जोड़नहारै जोड़ीआ–पन्ना519

सलोक म: ५ (वार गूजरी) –नदी तरंदड़ी मैडा खोजु न खुंभै– पन्ना520

देवगंधारी म: ५–अपुने हरि पहि बिनती कहीअै – पन्ना 531

देवगंधारी म: ५–करत फिरे बन भेख, मोहन रहत निरार–पन्ना 538

मारू म: ५–फूटो आंडा भ्रम का – पन्ना 1002

मारू म: ५–जिनी नामु विसारिआ – पन्ना 1006

सवईऐ महले पंजवें के– भवजलु साइरु – (भाट कल्य) पन्ना 1408

बसंतु नामदेव जी–लोभ लहरि अति नीझर बाजै – पन्ना 1195

भाव:

कबूतर बड़ा भोला पक्षी है। बिल्ली आए तो उससे बचने के लिए उड़ने की जगह आँखें बंद कर लेता है।

मूर्ख मनुष्य विकारों के हमलों से बचने का उद्यम करने की जगह इनके आगे हथियार फेंक देता है। नतीजा यह निकलता है कि विकारों के समुंदर-संसार में गोते खाने लग जाता है।

परमात्मा का नाम जहाज़ है। गुरु मल्लाह अपने शब्द का चप्पू लगा के पार लंघाता है।

कोई मनुष्य पहली-पहली बार समुंदर के किनारे चला जाए, बेअंत पानी ही पानी देख के उसके होश गुंम हो जाते हैं। समुंदर में बड़ी भारी लहरें भी उठती हैं। इन लहरों में से जहाज़ गुज़रते देख के यह घबराता है कि जहाज़ कहीं डूब ना जाए। जब उसे जहाज़ की मज़बूती और कप्तान की होशियारी का पता चलता है, तब उसे धैर्य बँध जाता है।

संसार एक समुंदर के समान है जिसमें विकारों की लहरें उठ रही हैं। इन्सानी जिंदगी की छोटी सी बेड़ी के डूबने का भारी ख़तरा बना रहता है। जो मनुष्य गुरु-मल्लाह के नाम-सत्संग-जहाज़ में सवार हो जाता है, उसकी आत्मा को ये विकार डुबा नहीं सकते।

दरिया में बाढ़ आई हुई हो, चक्रवात और लहरें उठ रही हों, बड़े-बड़े तैराक भी उधर मुँह करने की हिम्मत नहीं करते। पर समझदार मल्लाह मुसाफिरों को अपनी बेड़ी में बैठा के, उन घुम्मन-घेरियों बवंडरों लहरों में से बचा के बेड़ी को पार लंघा ले जाता है। लोहा भी बेड़ी के संग पार हो जाता है।

संसार-नदी में माया की घुम्मण-घेरियां चक्रवात बवंडरों में से प्रभु की याद सही सलामत पार लेती है।

संसार समुंदर है जिसमें विकारों की लहरें उठ रही हैं। प्रभु की याद को इस समुंदर में से पार लंघाने के लिए जहाज़ बनाओ। डूबने का खतरा नहीं रहेगा।

संसार विकारों के ज़हरीले पानियों से भरा हुआ समुंदर है। प्रभु के दर पर अरदास करो कि हमारा हाथ पकड़ ले। बस! डूबने का डर नहीं रहेगा।

समुंदर में तुफानी लहरें उठ रही हों, और उसमें मल्लाह के बगैर जहाज़ हो। जहाज की सवारियों को हर वक्त यह सहम रहेगा कि अब भी डूबे अब भी डूबे।

संसार में विकारों के तूफान झूल रहे हैं। गुरु से टूटे हुए मनुष्य गोते खाते हैं, हर वक्त चिन्ता फिक्र सहिम उनको चिपके रहते हैं।

जिस भाग्यशाली ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली वह इस समुंदर में बच के पार लांघ गया।

संसार-समुंदर में से पार लांघने के लिए गुरु की बताई हुई जीवन-जुगति जहाज़ का काम देती है।

विकारों की आग के समुंदर में से आत्मिक जीवन को जलने से बचाने के लिए प्रभु का ओट-आसरा ही समर्थ है।

इस भयानक संसार-समुंदर में विकारों की अनेक नदियाँ आ के गिर रही हैं (समा रही हैं)। गाफिल डूबते हें। जो प्रभु की याद के जहाज़ में बैठ गए, वे सही सलामत पार लांघ गए।

विकारों की अनेक लहरें उठ रही हैं। जिसकी तवज्जो को प्रभु ने अपने चरणों में जोड़ लिया, उसको डूबने नहीं देता।

दरियाओं के किनारों पर कई जगह दल-दल होता है। राही मुसाफिर के लिए जो काफी खतरनाक जगह होती है। अगर उस में मनुष्य धंस जाए, तब ज्यों-ज्यों निकलने का प्रयत्न करे, त्यों-त्यों और भी ज्यादा धंसता जाता है।

दुनिया के विकार एक ऐसा दल-दल हैं, जिसमें से मनुष्य अपने उद्यम अक्ल का आसरा रख के बल्कि ज्यादा ही फसता है। प्रभु-चरणों का प्यार सहजे ही बचा लेता है।

इस धरती पर पुरातन काल में जादू का बहुत जोर था। हमारे देश में भी यही हाल था। जोगी लोग कई करामातें दिखाते थे। आग को बाँध लेना एक साधारण सा करतब हो गया था। आग को बाँधने से आग में सेक नहीं था रहता। लकड़ियों डालते जाओ, वे जलती जाएंगी। पर उसमें अपना हाथ रख दो, हाथ को सेक नहीं लगेगा। कई आदमी तो धधकते कोयलों पर ही नंगे पैर गुजर जाते थे। अब यह बातें कहीं कहीं रह गई हैं।

संसार, समुंदर है आग का। विकारों की ज्वाला धधक रही है। जीव के आत्मिक जीवन इसमें जल के राख हो रहे हैं। पर जिस मनुष्य ने इन विकारों को कील लिया है, उसके आत्मिक जीवन को इनका रक्ती भर भी सेक नहीं लगता।

संसार-समुंदर में से अपनी बुद्धि विद्या के बल पर पार नहीं लांघा जा सकता। अहंकार मोह मेर-तेर त्यागना -इस मुश्किल खंडे की धार से ज्यादा तेज़ बारीक धार से लांघा जा सकता है। प्रभु की कृपा होने पर सत्संग की इनायत से पार लांघा जा सकता है।

कड़ाहे में तेल डाल के उसके नीचे आग के शोले भड़का दो, तेल तप के आग सा लाल हो जाएगा। उस तपते कड़ाहे में किसी को हाथ-पैर बाँध के फेंक दो, बेचारा पल में जल के राख हो जाएगा।

आग का समुंदर ठाठें मार रहा है मोह में जकड़े हुए जीव विकारों की आग में जल रहे हैं। पर, गुरु-मल्लाह आग को कील के, जलते हुओं की तपश मिटा के पार लंघा देता है।

पेड़ की छाया का क्या भरोसा? कभी बढ़ती, कभी घटती। बादलों की छाया भी कैसी छाया? हवा का झोंका आया और उड़ गया।

मायावी पदार्थों की भी इतनी ही पायां है। फिर भी तृष्णा की आग में जगत जल रहा है।

प्रभु की याद ही इस आग को बुझाती है।

बड़े-बड़े दरियाओं में तैर के लांघना किसी विरले तैराक का ही काम होता है। पर अगर दरिया के ऊपर पक्का पुल बन जाए, तो हर कोई आसानी से ही पार कर सकता है। जहाज भी पार लंघा देते हैं।

संसार दरिया है। प्रभु की याद उस के ऊपर पुल है, दरिया में जहाज है।

तूफान झूले, तूफान आ जाए, तो समुंदर में बड़ी ऊँची लहरें उठती हैं। उन लहरों में से कोई विरला समझदार कप्तान ही जहाज को सही सलामत लंघा सकता है।

संसार-समुंदर में माया के मोह का तूफान आया हुआ है, लोभ की लहरें उठ रही हैं। गुरु परमात्मा का आसरा लेकर ही मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय डूबने से बच सकती हैं।

जगत

(अ) जंगल

मलार म: ३–हउमै बिखु मनु माकहिआ लदिआ अजगर भारी–पन्ना 1260

सलोक म: ५ (वार गूजरी) –बनि भीहावले हिकु साथी लधमु – पन्ना 519

सलोक म: ५ (वार गूजरी) –बारि बिडानड़ै हुंमस धुंमस – पन्ना 520

बिलावल म: ५–नदरी आवै तिसु सिउ मोहु – पन्ना 801

भैरउ म: ५–दस मिरगी सहजे बंधि आनी – पन्ना 1136

भाव:

कोई बेगाना परदेसी किसी सघन जंगल में राह से भटक जाए, और जंगल में उसका किसी बड़े भारी अजगर से सामना हो जाए, अजगर को देख के उसको सारी सुध-बुध भूल जाती है। अजगर निहथे मनुष्य को अपने बड़े मुँह में हड़प कर जाता है। पर जिस मनुष्य को गरूड़ मंत्र आता हो, कोई भी साँप उस पर वार नहीं कर सकता।

संसार-जंगल में अहंकार का अजगर मुँह खोल के खड़ा है। जिस मनुष्य ने गुरु-शब्द का गारुड़ मंत्र अपने हृदय में बसाया होता है, उसको अहंकार-अजगर नहीं निगल सकता।

(गुरुड़ मंत्र-साँप को वश में करने वाला मंत्र)

जंगल में कोई बाहरी मुसाफिर रास्ता भूल जाए, उसकी घबराहट वही जानता है। कदम-कदम पर उसको डर लगता है कि कहीं कोई जान का दुश्मन ना टकर जाए। संसार एक भयानक जंगल है। कामादिक यहाँ अनेक ही आत्मिक जीवन पर घात लगाए हुए हैं। जिसको हरि-नाम साथी मिल गया, वह सही सलामत पार हो गया।

बेगाने जंगल में राही राह भूल जाए, भादों की कड़कती धूप में दोपहर का वक्त हो, हवा बिल्कुल ना चल रही हो, हुंम बना हुआ हो, राही का दम घुटता है। सहम भी है कि कोई जंगली जानवर ना आ जाए।

संसार-जंगल में विकारों की तपश है। अगर किसी भी तरफ से शांति-ठंढ का झोका ना आए, तो इस तपश के हुंम में आत्मिक जीवन घुटता जाता है। जिन्होंने कर्तार का पल्ला पकड़ा, वे यहाँ आसान जीवन गुजार गए।

कोई परदेसी मुसाफिर किसी जंगल में किसी बड़े नाग के काबू में आ जाए, नाग उसके पैरों से लिपटता हुआ सिर तक पहुँच के माथे पर आ के डंग मारता है। लपेट में जकड़े हुए मनुष्य की कोई पेश नहीं चलती।

शाम के वक्त दीए जलते हैं, बरखा ऋतु में पतंगे धरती में से निकल के दीपक की लाट में आ जलते हैं।

तृष्णा की आग पर मनुष्य अपना आत्मिक जीवन जला रहे हैं। माया नागिनी लपेट के आत्मिक जीवन का गला घोट रही है।

मोह का समुंदर है यह जगत। माया के तेज़ तूफान से विकारों की लहरें उठ रही हैं, और जीवों के आत्मिक जीवन गोते खा रहे हैं।

जगत

(आ) रणभूमि

सलोक म: ३ (सिरी राग की वार) –नानक सो सूरा वरीआमु–पन्ना 86

सलोक म: ३ (वार सोरठि) –हसती सिरि जिउ अंकसु है–पन्ना 647

पउड़ी म: ३ (वार मारू) –जो जन लूझहि मनै सिउ–पन्ना 1088

पउड़ी म: ३ (मारू की वार) –सूरे ऐहि न आखीअहि–पन्ना 1089

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –माइआ मोहि जगु भरमिआ–पन्ना 1414

पउड़ी म: ४ (सोरठि की वार) –गुरि सचै बधा थेहु–पन्ना 653

कानड़ा म: ४–मेरे मन हरि हरि राम नामु जपि चीति–पन्ना 1295

गउड़ी बावनअखरी म: ५–णाणा रण ते सीझीअै, आतम जीतै कोइ–पन्ना 322

पउड़ी म: ५ (वार गउड़ी म: ५) –रसना उचरै, हरि स्रवनी सुणै, सो उधरै पिता–पन्ना322

आसा म: ५–चारि बरन, चउहा के मरदन–पन्ना 404

आसा म: ५ छंत–वंञु मेरे आलसा, हरि पास बेनंती –पन्ना 460

सलोक म: ५ (वार गूजरी) –पापड़िआ पछाड़ि, बाणु सचावा संनि् कै–पन्ना 521

पउड़ी म: ५ (गूजरी की वार) –सूरबीर वरीआम, किनै न होड़ीअै–पन्ना 522

सोरठि म: ५–गरीबी गदा हमारी–पन्ना 628

धनासरी म: ५–जा कउ हरि रंगु लागो इसु जुग महि–पन्ना 680

सारंग म: ५–हरि काटी कुटिलता कुठारि–पन्ना 1224

फुनहे म: ५–धावउ दसा अनेक, प्रेम प्रभ कारणे–पन्ना 1363

गउड़ी बावनअखरी, कबीर जी–यया जउ जानहि तउ दुरमति हनि–पन्ना 342

सलोक कबीर जी (मारू) –गगन दमामा बाजिओ–पन्ना 1105

भैरउ कबीर जी–किउ लीजै गढु बंका भाई–पन्ना 1161

रामकली की वार (राय बलवंड) –नाउ करता कादरु करे–पन्ना 966

रामकली की वार (सत्ता डूम) –सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु–पन्ना 967

सवैये महले तीजे के–पहिरि समाधि सनाहु–।1।21। भाट सल्य पन्ना1396

सवैये महले चौथे के–मोहु मलि बिवसि कीअउ–।1।59। भाटसल् पन्ना 1406

भाव:

अहंकार मनुष्य का बहुत बड़ा वैरी है। जिसने अहंकार को मार लिया, वह सूरमा है वह वरियाम है। उसी का जगत में आना मुबारक है।

राजसी ताकत हासिल करने के लिए इस धरती पर काफी पुराने समय से रजवाड़ों के परस्पर युद्ध होते चले आ रहे हैं। ज्यों-ज्यों विज्ञान उन्नति कर रहा है त्यों-त्यों ज्यादा मारू हथियार बनने के कारण जंगों में ज्यादा जाने जा रही हैं।

आत्मिक जगत में भी सदा जंग हो रहा है। कामादि मनुष्य की आत्मा पर राज कायम करने का प्रयत्न करते रहते हैं।

हाथी को महावत कुंडे के अंकुश के तले रखता है। अहिरण लोहार के हथोड़ों की चोटें सहती है। जो मनुष्य इस तरह अपना मन गुरु के हवाले कर देता है, वह आत्मिक जगत में कामादिकों पर बली हो जाता है।

असल सूरमे वे हैं जो अपने मन से युद्ध करते हैं। जिन्होंने मन को जीत लिया, उन्होंने, मानो, जगत जीत लिया। जगत का कोई पदार्थ उनको मोह नहीं सकता।

ताकत हकूमत के गुमान में मस्त जरवाणे फौजें इकट्ठी करके दूसरों पर हमले करते हैं। उनको सूरमें शूरवीर नहीं कहा जाता। परमात्मा को यह अहंकार अकड़ पसंद नहीं।

माया के मोह में दुनिया सोई हुई है। कामादिक चोर शुभ गुणों की राशि-पूंजी लूटे जा रहे हैं।

जिस किसी विरले ने ज्ञान की तलवार से इन पाँचों का सिर उतार दिया वह जाग उठा समझो।

कामादिक माया के अनेक शूरवीर मनुष्य पर हमले करते रहते हैं।

गुरु ने सत्संग रूप एक किला तैयार कर दिया है। सत्संगी इस किले के रखवाले हैं। इस किले की ओट लेने वाला मनुष्य माया के सूरमों की मार से बच जाता है।

इस शरीर की पायां तो इतनी ही है जितनी वृक्ष की छाया की। पर माया ने इसको पक्का किला बना के इसमें हरि-नाम-धन को अपने काबू में किया हुआ है।

ये किला वही भाग्यशाली सर कर सकता है जो गुरु के शब्द का आसरा लेता है।

संसार-रण-भूमि में उसी मनुष्य को शूरवीर समझो जिसने मन को जीत लिया, जिसने अहंकार को पछाड़ दिया।

इस शरीर-किले को सर करना बड़ा कठिन काम है। जिसने सर कर लिया, उसका आना सफल हो गया है।

मनुष्य किसी भी जाति वर्ण का हो, किसी भी भेस का हो, माया के ये पाँचों कामादिक सूरमे सबको अपनी तलियों पर नचाते हैं। इनकी इस फौज से बचने के लिए साधु-संगत ही एक-मात्र ठिकाना है।

जिस हृदय में ईश्वर की याद आ बसे, वहाँ से पाप-विकार भाग जाते हैं। वह मनुष्य इस मानसिक आत्मिक जंग को जीत लेता है।

कामादिक विकार मनुष्य के मन पर बार-बार हमला करते हैं। जिस मनुष्य ने गुरु की शिक्षा पर चल कर परमात्मा की महिमा के तीर चला, उसके नजदीक नहीं फटकते।

पहले समय में राजे-बादशाह अपनी राजधानी की रक्षा के लिए किलों का निर्माण करवाते थे, किलों के चारों तरफ चौड़ी और गहरी खाई बनाई जाती थी, जो सदा पानी से भरी रहती थी, ता कि वैरी-दल किसी भी तरफ से किले की फसील के नजदीक ना आ सकें।

मनुष्य का माया-ग्रसित मन भी शरीर-नगर में बाग़ी हो बैठता है, भ्रम के किले में अपने आप को सुरक्षित समझ लेता है। माया का मोह उस किले के चारों तरफ खाई है। कामादिक सूरमे भी इसकी मदद करते हैं। बड़े-बड़े तपियों को भी ये चिक्त कर देते हैं।

गुरु की शरण पड़ के प्रभु का नाम स्मरण करने से ही जीत हासिल की जा सकती है।

पुराने समय में दुनियावी ताकत हासिल करने के लिए किए जंग में गुरज, तलवारें, खंडे, तीर आदि शस्त्रों का उपयोग होता था।

जहाँ भी कब्ज़ा करने की तमन्ना होगी, वहाँ ही खहि-खहि होती ही रहती है, और होती ही रहेगी। कब्ज़ा करने की खातिर जितने ही दिल सख्त और दया-हीन होंगे, उतने ही झगड़े बढ़ेंगे।

जो मनुष्य गरीबी स्वभाव वाला है, जो किसी के साथ अकड़ता नहीं, उसके सिर पर कोई सवार नहीं हो सकता।

संसार एक रण-भूमि है। काम क्रोध लोभ मोह अहंकार आदि अनेक विकार जगत के सुंदर मन-मोहने पदार्थों से मनुष्य के मन को जीतने की कोशिश करते रहते हैं। यह जंग सदा ही लगी रहती है।

गुरु की सहायता से जो मनुष्य प्रभु-प्यार अपने अंदर बसाता है, उसका मन ठिकाने-सिर रहता है, और इस आत्मिक जंग में हार नहीं खाता।

प्रभु की याद एक ऐसा कोहाड़ा है जिससे सांसारिक जीवन में से कुटिलता काटी जा सकती है। परमात्मा के नाम की चोट से मन की भटकना काम क्रोध निंदा को दूर किया जा सकता है।

प्रभु की भक्ति के तेज़ तीर चलाओ, पाँचों वैरी चारों खाने चिक्त हो जाते हैं।

शूरवीर वही कहलवाता है जो मैदान ना छोड़े।

इस संसार-रणभूमि में उसी को मनुष्य समझो, जो इस शरीर नगर को जीत ले।

जब रणजीत नगारे पर चोट बजे, रणभूमि में खड़ा सूरमा पैर पीछे नहीं करता। वह आगे बढ़ के या तो जीतता है या लड़ के शहीद होता है। दुनिया उसे सूरमा कहती है।

गरीबों-दीनों की बाँह पकड़नी भी किसी विरले सूरमे का काम होता है। ऐसा सूरमा भी बाँह पकड़े की इज्जत रखता है।

पक्का किला हो, चारों तरफ दोहरी फसीलें और तेहरी खाईयाँ हों। किले का दरवाजा बहुत करड़ा और मज़बूत हो, उसके ऊपर बहुत ही माहिर योद्धे शूरबीर बैठाए हों। ऐसे किले में बैठे आकी वैरी को जीतना कोई खेल नहीं है।

ये शरीर किला है। दैत्य (मेर-तेर) की फसीलें, माया के तीन गुणों की खाईयाँ हैं। काम और क्रोध दरबान हैं। किले-शरीर के अंदर मन आक़ी हुआ बैठता है। ममता की टोपी पहने बैठता है। कुबुद्धि की उसने कमान कसी हुई है, अंदर से बैठा तृष्णा के तीर चला रहा है।

जिसने गुरु की सहायता से ज्ञान का गोला चलाया, प्रेम का पलीता लगाया, तवज्जो की हवाई चढ़ाई, सत्-संतोख शस्त्र पकड़े, साधु-संगत की फौज कर आसरा लिया, उसने इस गढ़-शरीर के राजे मन को जीत लिया।

बलवंड रबाबी कहता है: गुरु नानक ने ईश्वरीय राज कायम किया। उस राज ने गुरु अंगद ने गुरमति का खंडा पकड़ के विकारों का नाश करके लोगों को आत्मिक जीवन बख्शा।

सत्ता रबाबी कहता है: धरती पर अन्याय का जोर था। गुरु अमरदास जी सहज-अवस्था के घोड़े पर सवार हुए, उसके ऊपर जत की काठी डाली है, हाथ में ऊँचे आचरण की कमान ले के प्रभु की महिमा का तीर कस लिया है। इस तरह जगत में से घोर अंधकार को दूर कर दिया।

भाट सल्य कहता है कि गुरु अमरदास जी ने संसार रण-भूमि में कामादिक वैरियों के दल को जीत लिया। गुरु अमरदास जीने समाधि की संजोअ पहन ली, ज्ञान के घोड़े पर सवार हुए, धरम का धनुष हाथ में पकड़ लिया, मीठे स्वभाव का तीर मारा, गुरु-शब्द का नेज़ा वैरियों पर चलाया। इस तरह पाँचों ही वैरी टुकड़े-टुकड़े हो गए।

भाट सल्य की नज़रों में गुरु रामदास जी एक बली सूरमा है, जिसने मोह को वश में कर लिया, जिसने काम को जमीन पर दे पटका, जिसने क्रोध के टुकड़े कर डाले और जिसने लोभ को फटकार के परे दुत्कार दिया।

जगत

(इ) फुलवाड़ी

माझ म: ३ –सतिगुर साची सिख सुणाई –पन्ना117

सलोक म: ५ (वार रामकली) –फरीदा भूमि रंगावली –पन्ना 966

सलोक म: ५ (वार मारू) –किआ गालाइओ भूछ –पन्ना1095

भाव:

जंगल में अनेक किस्म के पेड़-पौधे अपने आप ही उग जाते हैं, और बरखा के सिर पर खुद ही पल जाते हैं। पर फुलवाड़ियों और बगीचियों के बूटे बहुत कोमल होते हैं। उनकी पालना करने के लिए मालिक को खास ध्यान देना पड़ता है जो उनकी गोड़ाई आदि हरेक किस्म की संभाल करता है। फालतू हानिकारक घास-बूट को उखाड़ना होता है, और पौधों को कई रोगों से बचाना होता है। समय सिर पानी देने की आवश्यक्ता होती है।

यह जगत फुलवाड़ी है। विधाता स्वयं ही इसका माली है। सबकी संभाल करता है। फूलों की अलग-अलग सुगन्धियां, जीवों के भिन्न-भिन्न स्वभाव।

इस सुंदर धरती पर विकारों का विषौला बगीचा भी है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलते हैं, उनको ये विकार छू नहीं सकते।

शहरों की सघन आबादी में शहरियों को ना कहीं खुली हवा और ना ही कहीं सैर के लिए जगह। शहरियों की इस मुश्किल को दूर करने के लिए मियूँस्पल कमेटी द्वारा शहर में जगह-जगह पर फूलों बगीचों और फुलवाड़ियों का प्रबंध किया जाता है। पर ये फूल तोड़ने की मनाही होती है, वरना फुलवाड़ियों में कहीं एक भी फूल नहीं रह जाएगा। समझदार शहरी का ये फर्ज बनता है कि किसी फूल की तरफ टेढ़ी आँख से ना देखे।

जगत फुलवाड़ी है। स्त्री इस फुलवाड़ी का सुंदर फूल है। मनुष्य ने पराए फूल की तरफ बुरी निगाह से नहीं देखना।

जगत

(ई) अखाड़ा

सिरी राग म: ५ –पै पाइ मनाई सोइ जीउ –पन्ना73

माझ म: ५ –तूं मेरा पिता तूं है मेरा माता –पन्ना103

भाव:

दंगल का ढोल कई दिन पहले ही बजने लग जाता है, लोग देखने को आ इकट्ठे होते हैं। अखाड़े मैदान में अपने-अपने धड़े के पहलवान मिल के फेरी लेते हैं। उनके सुडोल शरीर देख-देख के लोग वाह-वाह करते हैं। जीतने वाले को साथी थापी देते हैं; अखाड़े के चौधरियों द्वारा माली इनाम भी मिलते हैं।

संसार-अखाड़े में जिसने पाँच कामादिकों की पीठ लगा दी, उसको गुरु थापी देता है।

सिर पर तुर्रेदार पगड़ी पहनने वाले चौधरी गाँव में दंगल का आयोजन करवाते हैं। आस-पास के पहलवान कुश्तियाँ लड़ने आते हैं। अखाड़ा जमता है। पहलवाने कुश्ती लड़ते हैं। जीतने वाले को इनाम दिया जाता है।

यह जगत अखाड़ा है, प्रभु का रचा हुआ। सभी जीव इस अखाड़े के पहलवान हैं। कामादिकों के साथ कुश्तियाँ हो रही हैं। जो व्यक्ति इनको पछाड़ लेता है, उसको अखाड़े के मालिक से आदर मिलता है।

जगत

(उ) चौपड़

बसंत म: ५ –होइ इकत्र मिलहु मेरे भाई –पन्ना 1185

सूही कबीर जी –थाकै नैन, स्रवन सुनि थाके –पन्ना 793

भाव:

चौपड़ की खेल हमारे देश में बहुत प्रसिद्ध है। आम तौर पर वृद्ध लोग खेलते हैं जिनके पास दुनिया का और कोई काम नहीं रह जाता। कपड़े के चार पट जुड़े होते हैं। हरेक पट पर एक जितने ही चौरस खाने होते हैं। आमने-सामने चार मनुष्य बैठ के खेल सकते हैं। चारों पटों के बीच मिलान पर एक बड़ा सा चौरस खाना होता है। पुगी हुई नरदें उस खाने में जा पहुँचती हें। इस खाने में पहुँचने से पहले एक की नर्द को दूसरे की नर्द को मार सकती है। पर, अगर एक पक्ष की दो नर्दें इकट्ठी एक ही खाने में पहुँच जाएं, तो जब तक वे इकट्ठी हैं विरोधी की नरद की मार से बच सकती हैं।

यह जगत चौपड़ की खेल हैं अनेक विकार मनुष्य के मन पर चोटें मारते रहते हैं। सत्संगि में पहुँचने वाला मनुष्य इनकी मार से बच जाता है।

जिस मनुष्य ने परमात्मा की रज़ा को समझ लिया, जिसने चौपड़ की ये खेल खेली, उसका मन अपने वश में आ गया। वह कामादिकों की मार से बच निकला।

जगत

(ऊ) रंग–भूमि

आसा म: ५ छंतु–अनदो अनदु घणा मै सो प्रभु डीठा राम –पन्ना 452

बिहागड़ा म: ५ छंत– हरि का ऐकु अचंभउ देखिआ –पन्ना 541

भाव:

पैदा होने से मरने तक मनुष्य के जीवन-नाट में कई झाँकियां आती हैं: बाल अवस्था की खेलें, थोड़ी सी समझदार उम्र में विद्या और मेहनत-कमाई की सिखलाई, जवानी के वक्त विवाह, बुढ़ापा आदि। विवाह की झाकी बहुत मजेदार होती है; मेल एकत्र होना, सुहाग गाने, बारात आनी, लावां-फेरे, लड़की का ससुराल जाना आदि।

इस संसार-अखाड़े में जीव-स्त्री और पति-परमात्मा के मिलाप की जीवन-झाकी एक अद्भुत झाकी है। सत्संगी जाजीं-मांजी की मदद से जीव-स्त्री पति-परमात्मा को मिलती है। इस शरीर-घर के सारी ज्ञान-इंद्रिय को वश कर लेती है, और पाँचों कामादिक दुष्ट भाग जाते हैं।

नाटक का इतिहास इस धरती पर बहुत पुराना चला आ रहा है। कलाकार लोग किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के जीवन में से कोई एक झाकी ले के संबन्धित व्यक्तियों के स्वांग धार के दर्शकों को दिखाया करते थे। उस प्रसिद्ध व्यक्ति का जीवन नाट दिखाने के लिए एक विशेष रंग-भूमि तैयार की जाती थी। सूत्रधार खुद आ के नाटक का आरंभ करवाता था। फिर नट आ-आ के अपने हिस्से का खेल खेलते थे। जो नट बढ़िया खेल खेलता था, उसको दर्शक वाह-वाह कहते थे, उसको सूत्रधार से भी आदर-मान मिलता था।

यह जगत एक रंग-भूमि है। सब जीव अपने हिस्से का जीवन-नाट्य कर रहे हैं। उत्तम जीव-नट को यहाँ भी शोभा और प्रभु के दर पर भी आदर।

माया

(अ) अहंकार, अहम्

गउड़ी पूरबी म: ४–कामि करोधि नगरु बहु भरिआ –पन्ना 171

सूही म: ४–मारेहि सु वे जन हउमै बिखिआ –पन्ना 776

गउड़ी गुआरेरी म: ५–अगले मुऐ सि पाछै परे –पन्ना 178

गउड़ी म: ५–जन की धूरि मन मीठ खटानी –पन्ना 199

गउड़ी म: ५–है कोई अैसा हउमै तोरै –पन्ना212

गउड़ी बावनअखरी म: ५–जजा जानै हउ कछु हूआ –पन्ना 254

गउड़ी बावनअखरी म: ५–ढढा ढूझत कह फिरहु –पन्ना 256

आसा म: ५–हरि बिसरत सो मूआ –पन्ना407

मारू म: ५–वित नवित भ्रमिओ बहु भाती –पन्ना 999

मारू म: ५–कवन थान धीरिओ है नामा –पन्ना 999

भैरउ म: ५–हउमै रोगु मानुख कउ दीना –पन्ना 1140

सलोक कबीर जी (वार गूजरी) –कबीर मुकति दुआरा संकुड़ा–पन्ना509

भाव:

पैर में काँटा चुभ जए, चलने पर पीड़ा होगी। पैरों में मख़मली जूती भी पहन लो, फिर भी चलने से काँटा दर्द ही करेगा।

अहंकार भी एक काँटा ही है। जिस मनुष्य के मन में चुभा हो, वह गले तक दुखी होता रहेगा। फलाने ने मुझे सलाम नहीं की, फलाने ने मुझे ‘जी’ कह के नहीं बुलाया। कदम-कदम पर इस तरह की चुभन उसके अहंकारी मन को लगती रहती हैं।

अहंकार को अपने अंदर से दूर करो। यही दूरी पैदा करता है ईश्वर से और ख़लकत् से भी।

‘कोई हमारी जमीन’ पर पैर ना रखे, मैं उसको कैद करवा दूँगा। मैं बड़ा विद्वान हूँ, कौन मेरी बराबरी कर सकता है? - माया के प्रभाव में मनुष्य कई ऐसी अहंकार भरी ऊल-जलूल बातें करता और हसी का कारण बनता है। इसको याद ही नहीं रहता कि ऐसी अकड़ दिखाने वाले इस धरती पर अनेक आए और चले गए, कहीं उनका नामो-निशान नहीं रह गया।

प्रभु की याद ही सबसे श्रेष्ठ वस्तु है।

बर्तन तेल घी आदि चिकना हो जाए, तो फिसलने लगता है, हाथों में से जल्दी फिसल जाता है और चिप-चिप करने लगता है। ये चिकनापन पानी से नहीं उतर सकता। बर्तन को राख से माँजना पड़ता है।

जब तक मनुष्य के मन पर अहंकार की चिकनाई टिकी रहती है, किसी और की सेवा भलाई का ख्याल मन में असर नहीं कर सकता। साधु-संगत में मन को माँजो।

अंधेरा हो सवेरा हो, जरनैली सड़क पर जा रहे मुसाफिर को राह भूलने का डर नहीं होता। पर रात हो अंधेरी, किसी खुली जूह में पग-डंडी पर जा रहा राही सहजे ही राह से भटक जाता है। भटकना हुआ बेचारा उस जूह में ही टक्करें मारता फिरता है। रास्ता खत्म होने को ही नहीं आता, कहीं नजदीक कोई आबादी नजर नहीं आती। उस वक्त उसकी दुआ यही होती है कि दिन चढ़े और यह बिपता खत्म हो।

अहंकार की काली अंधेरी रात में भटकते मनुष्य को सत्संग में पहुँच के ही आत्मिक जीवन का राह दिखाई देता है।

तोतों को पकड़ने वाले मनुष्य एक छोटा सा यंत्र बना लेते हैं, जिसे नलिनी कहा जाता है। दो डंडों के सहारे एक छोटी चरखड़ी खड़ी की जाती है। उसके नीचे खुले मुँह वाला एक बर्तन पानी से भर के रख देते हैं। तोता चोगे की खातिर चरखड़ी पर आ बैठता है। तोते के भार से चरखी उलट जाती है। तोता चरखी के भार के साथ ही नीचे की ओर उलट जाता है। नीचे पानी देख के तोता डरता है कि पानी में गिर ना जाऊँ। चरखी को कस के पकड़े रखता है। फंदा लगाने वाला आ के आसानी से तोते को पकड़ लेता है। अहंकार के फंदे में फसा मनुष्य भी सदा दुखी होता है।

अहंकार चाहे धन-पदार्थ का हो, चाहे विद्या का, कोई फर्क नहीं पड़ता। फंदा फंदा ही है चाहे वह सन का है चाहे रेशम का।

मैं बड़ा बन जाऊँ- यह बड़ी भयानक मानसिक दशा है। मनुष्य अपनी ये ‘मैं’ ‘मैं’ पर से बड़े-बड़े अज़ीज़ प्यारों को भी कुर्बान कर देता है। रहता स्वयं भी सदा दुखी है।

भाग्य अच्छे हों, मनुष्य को सत्संग नसीब हो, तब इस बला से निजात मिलती है।

तोता नलिनी की चरखी को छोड़ता नहीं कि कहीं चरखी के तले रखे पानी में गिर ना जाऊँ। इसलिए जान बचाने के भुलेखे में सदा के लिए पिंजरे में कैद हो जाता है।

हकूमत के नशे में मनुष्य अहंकार भरे काम करता है। इस मौज-बहार को छोड़ने का जी नहीं करता। आत्मिक जीवन की मौत होती जाती है।

अच्छा-भला मनुष्य शराब आदि का नशा करके बहक जाता है, और मुँह से ऊल-जलूल बोलता है। उसकी सब हरकतें हास्यास्पद दिखती हैं।

माया एक नशा है। कोई विरला होता है, जिसकी, धनवान हो के, गर्दन किरले की तरह नहीं अकड़ती। धन की खातिर ही दिन-रात दौड़-भाग कर के वह सारी उम्र गुजार जाता है।

कड़वा बोल तलवार से भी ज्यादा तेज़ और गहरा जख़्म कर जाता है। एक कड़वे बोल से तलवारे चल जाती हैं, जंग छिड़ जाते हैं, कौमें तबाह हो जाती हैं। कोई विरला ही धैर्यवान सोचता है कि गाली से सचमुच कोई शारीरिक जख़्म तो नहीं हो जाता।

पर अहंकार और धैर्य दोनों का एक जगह ठिकाना नहीं हो सकता। अहंकार से अकड़ा हुआ मन थोड़ा सा भी कड़वा वचन सह नहीं सकता।

अहंकार मनुष्य की मति पर पर्दा डाल देता है।

रोग कोई भी अच्छा नहीं। काम-वासना का रोग इतने बड़े जानवर हाथी को मनुष्य का गुलाम बना देता है। दीपक की लाट देखने का इश्क पतंगे को जला के राख करता है। नाद सुनने की लालसा हिरन को कैद करा देती है। जीभ का चस्का मछली की मौत का कारण बनता है। सुगंधि लेने का चस्का भौरे के लिए जानलेवा साबित होता है।

यही हाल है इन्सान का। अहंकार का रोग इसके आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है।

कहाँ हाथी और कहाँ छोटी सी सूई का नका। हाथी कैसे लांघे सुई के नके में से?

माया के बंधनो से मुक्त हुआ मन विनम्र स्वभाव धारण करता है, सबके चरणों की ख़ाक बनता है, बड़ा हल्का फूल रहता है, इतना सूक्ष्म हो जाता है कि, मानो, सूई के नके में से भी निकल जाता है।

पर, अहंकार में अफरा हुआ मन हाथी समान हो जाता है। वह कैसे गुजरे सूई के नके में से? वहाँ विनम्रता कहाँ?

माया

(आ) तृष्णा

सिरी रागु म: ५ –मिठा करि कै खाइआ, कउड़ा उपजिआ सादु –पन्ना 50

गउड़ी गुआरेरी म: ५ –प्राण जाणै इहु तनु मेरा –पन्ना 179

गउड़ी म: ५ –त्रिसना विरले की ही बुझी हे –पन्ना 213

धनासरी म: ५ –वडे वडे राजन अरु भूमन, ता की त्रिसन न बूझी–पन्ना672

सारग म: ५ –आतुरु नाम बिनु संसार –पन्ना 1224

बसंत कबीर जी –सुरह की जैसी तेरी चाल –पन्ना 1196

सलोक कबीर जी –कबीर भली मधूकरी –पन्ना 1373

सूही ललित फरीद जी –बेड़ा बंधि न सकिओ –पन्ना 794

सलोक फरीद जी –फरीदा ऐ विसु गंदला –पन्ना 1379

भाव:

हलकाया हुआ कुक्ता बेचैन हो के चार-चुफेरे दौड़ता फिरता है। चोगे के लालच में फसा तोता सारी उम्र पिंजरे में ही गुजारता है।

माया की तृष्णा बुरी। इसके चुँगल में फसा मनुष्य कभी इसके पंजे से निकलने के लायक नहीं रहता। तृष्णा का ऐसा हलक चढ़ता है कि दिन-रात माया की खातिर एक कर देता है।

चिड़ीमार पंछियों को पकड़ने के लिए जाल तानता है, और उस पर चोगा बिखेर देता है। भोले पंछी चोगा चुगने आ बैठते हैं, जाल की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। मौज से चोगा चुगते हैं, और खुश हो-हो के आपस में बोलियाँ बोलते हैं। चिड़ीमार अचानक जाल खींच लेता है, और सारे पंछी बीच में फस जाते हैं।

माया के मोह का जाल बिखरा हुआ है। सभ जीव पंछी खुशी-खुशी इसमें फंसते जा रहे हैं।

तृष्णा बुरी बला। धन जोड़ने का चस्का पड़ जाए, तो लाखों-करोड़ों रुपए इकट्ठा कर लेने पर भी मन नहीं भरता। अगर पराए घर ताकने की बुरी आदत पड़ जाए, तो कोई शर्म-हया ही नहीं रह जाती, भले-बुरे की कोई तमीज़ ही नहीं रहती।

जिस पर प्रभु की मेहर हो, उसको सत्संग में जा के इस फाही से खलासी मिलती है।

जलती आग में लकड़ियां डालते जाओ, वे जलती जाएंगी। आग ने कभी भी लकड़ियाँ जलाने से ना नहीं करनी।

यही हाल है तृष्णा का, चस्कों का। मनुष्य को अच्छे खाना खाने का चस्का पड़ जाए, नित्य-नित्य स्वादिष्ट भोजन खाने से भी कभी खाने की तृष्णा खत्म नहीं होगी। मनुष्य काम-वासना का शिकार हो जाए, पराए घर देखता फिरता है, वासना खत्म नहीं होती।

माया के जाल में फसा कभी कोई तृप्त नहीं हुआ।

तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती, जैसे कुत्ते की घर-घर भटकना खत्म नहीं होती।

रोटी के टुकड़े की खातिर कुक्ता घर-घर जाता है। कभी किसी घर का दरवाजा खुला हुआ हो, मालिक घर में ना हो, कुक्ता अंदर जा के चक्की को चाटने लग जाता है। आटा चाट के भी कुत्ते की तृष्णा खत्म नहीं होती, जाता-जाता चक्की का परोला भी मुँह में पकड़ के ले दौड़ता है।

यही हाल तृष्णा मारे मनुष्य का होता है। देखने में चाहे बहुत ही साऊ सा लगे, पर मन की दशा कुत्ते जैसी ही होती है। तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती।

कचहरियों में जा के देखो; मुकदमें करने वालों से भरी पड़ी होती हैं; कहीं दीवानी दावे, कहीं फौजदारी झगड़े। यही सब झगड़े जायदादों की मल्कियत के कारण भी होते हैं। नित्य कई खून-खराबे होते रहते हैं। मुकदमों में फंसे घरों का कोई जीवन की दशा नहीं रह जाती।

ऐसी मल्कियत से तो माँग के खाना बेहतर। ना किसी से वैर-विरोध, ना किसी के साथ जलन-ईश्या, मन सदा निष्चिंत और बेफिक्र।

सर्दियों की बहार में दरियाओं में पानी कम होता है कई जगहों से लोग दरिया में से पैदल ही गुजर जाते हैं। पर बरखा की ऋतु में जब बाढ़ का पानी किनारों से बाहर उछलता है, कभी बड़े तैराक भी पार लांघने का हौसला नहीं करते।

कुसंभ के फूल जैसी शोख़-रंग माया को मनुष्य ज्यों-ज्यों हाथ डालता है, त्यों-त्यों इसके मन में माया के मोह की लहरें और भी ज्यादा उठनी शुरू हो जाती हैं। सैकड़ों-हजारों, लाखों और फिर करोड़ों रुपए जोड़ने की लालसा बनती जाती है। मोह की बाढ़ उफान बन के सिर चढ़ जाती है।

तृष्णा की बाढ़ में से इन्सानी जिंदगी की कोई विरली नईया ही सही-सलामत पार लंघती है।

सर्दियों की ऋतु में किसान अपने खेतों में सरसों बीजते हैं। सरसों का साग इस बहार की खास बढ़िया सब्जी है। पक्तों को इतना पसंद नहीं किया जाता, जितना गंदलों को कोमल डंठलों को। खेतों में उगी हुई लंबी नरम सुडोल गंदलें राहगीरों के मन को आकर्षित करती हैं।

मायावी पदार्थ इन गंदलों के समान मनुष्य के मन को भरमाते हैं। दिन-रात मनुष्य इनकी खातिर दौड़-भाग करता है, और आत्मिक जीवन का चेता ही भुला देता है। ज्यों-ज्यों इन पदार्थों के लिए तृष्णा बढ़ती है, कई तरह के सहम-दुख-कष्ट की चोटें मनुष्य के मन पर इस प्रकार बजती रहती हैं जैसे किसी लख-पति के दरवाजे पर खड़ा पहरेदार घड़ियाल को एक-एक घंटे के बाद चोट मारता है।

माया

(इ) प्रबल

गउड़ी म: ३ –इसु जुग का धरमु पढ़हु तुम भाई –पन्ना 203

गउड़ी म: ३ छंत –माइआ सरु सबलु वरतै जीउ –पन्ना 245.46

सलोक म: ३ (वार गूजरी) –माइआ होई नागनी –पन्ना 510

सलोकु म: ३ (वार सोरठि) –जनम जनम की इसु मन कउ मलु लागी–पन्ना 650

सलोकु म: ३ (वारां ते वधीक) –माइआ भुइअंगमु सरपु है –पन्ना 1415

गउड़ी गउड़ी गुआरेरी म: ५ –नैनहु नीद पर द्रिसटि विकार –पन्ना 182

गउड़ी म: ५ –जीवत छाडि जाहि देवाने –पन्ना 199

गउड़ी माला म: ५ –पाइओ बाल बुधि सुखु रे –पन्ना 214

गउड़ी माला म: ५ –उबरत राजा राम की सरणी –पन्ना 215

गउड़ी माझ म: ५ असटपदी –खोजत फिरे असंख, अंतु न पारीआ –पन्ना 240

गउड़ी बावनअखरी म: ५ – ठठा मनूआ ठाहहि नाही–पन्ना 255

गउड़ी बावनअखरी म: ५ –ऐऊ जीअ बहुतु ग्रभ वासे –पन्ना 251

आसा म: ५ –जिनि लाई प्रीति सोई फिरि खाइआ –पन्ना 370

आसा म: ५ –अनदिनु मूसा लाजु टुकाई –पन्ना 390

आसा म: ५ –इन् सिउ प्रीति करी घनेरी –पन्ना 392

आसा म: ५ –माथै त्रिकुटी द्रिसटि करूरि –पन्ना 394

गूजरी म: ५–ब्रहम लोक अरु रुद्र लोक, आई इंद्र लोक ते धाइ–पन्ना 500

धनासरी म: ५ –जिह करणी होवहि सरमिंदा –पन्ना 673

धनासरी म: ५ –जिनि कीने वसि अपुनै त्रै गुण –पन्ना 673

रामकली म: ५ –गहु करि पकरी न आई हाथि –पन्ना 891

सलोक म: ५ (वार रामकली) –मित्र पिआरा नानक जी मै छडि गवाइआ–पन्ना 963

मारू म: ५ – मोहनी मोहि लीऐ त्रै गुनीआ–पन्ना 1008

मारू म: ५ –जिसु गिहि बहुतु तिसै ग्रिहि चिन्ता –पन्ना 1019

डखणे म: ५ (वार मारू) –कुरीऐ कुरीऐ वैदिआ तलि गाढ़ा–पन्ना 1095

सलोक म: ५ (मारू की वार) –ढहदी जाइ करारि –पन्ना 1097

सारग म: ५ (वार मारू) –गिली गिली रोडड़ी –पन्ना 1097

सारग म: ५ – माखी राम की तू माखी –पन्ना 1227

सलोक म: ५ (वारां ते वधीक) –खुभड़ी कुथाइ –पन्ना 1424

सलोक म: ५ (वारां ते वधीक) –म्रिग त्रिसना पेखि भुलाणे–पन्ना 1424

सलोक म: ५ (वारां ते वधीक) –दूजी छोडि कुवाटड़ी –पन्ना 1426

गउड़ी कबीर जी –कालबूत की हसतनी –पन्ना 335–36

गउड़ी बावनअखरी कबीर जी –ठठा इहै दूरि ठगनीरा –पन्ना 341

आसा कबीर जी –सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ –पन्ना 480

आसा कबीर जी –सासु की दुखी, ससुर की पिआरी –पन्ना 482

आसा कबीर जी –जगि जीवनु अैसा सुपने जैसा –पन्ना 482

रामकली कबीर जी –दुनीआ हुसीआर बेदार –पन्ना 912

सलोक कबीर जी –कबीर माइआ डोलनी –पन्ना 1365

सलोक कबीर जी –कबीर माइआ चोरटी –पन्ना 1365

सलोक कबीर जी –कबीर चुगै चितारै भी चुगै –पन्ना 1371

सारंग नामदेव जी –काऐं रे मन बिखिआ बन जाइ –पन्ना 1252

गउड़ी रविदास जी –कूपु भरिओ जैसे दादरा –पन्ना 346

सूही फरीद जी –तपि तपि लुहि लुहि हाथु मरोरउ –पन्ना 794

सलोक फरीद जी –फरीदा दर दरवेसी गाखड़ी –पन्ना 1377

भाव:

आम तौर पर पंजाब के हरेक गाँव के बाहर साथ ही बोहड़ (बरगद) आदि का छाया दार कोई बड़ा पेड़ होता है। किसान हलों को जोत वगैरा लगा के मवेशियों के लिए चारे का प्रबंध करके दोपहर की रोटी खा के गर्मी के मौसम में इस बरगद के नीचे आ के इकट्ठे होते हैं। इस खुली बहार में कभी-कभी बाजीगर भी आ पहुँचते हैं। बाज़ी का ढोल बजते ही गाँव के और बालक-जवान-बुड्ढे सब इकट्ठे हो जाते हैं। नट कई किस्मों के करतब दिखाते हैं। कई घंटे सारे गाँववासियों का दिल खासा मस्त लगा रहता है। बाजीगर को चोखा दाना-फक्का मिल जाता है।

माया के नट मोह ने जगत में सारी बाज़ी रचाई हुई है। सब जीव इस बाज़ी में परच रहे हैं और जीवन-समय व्यर्थ हँसी में गवा रहे हैं।

माया, मानो, एक समुंदर है जिसमें मोह की लहरें बहुत जोरों से उठ रही हैं। आत्मिक जीवन की बेड़ी इसमें बहुत डोलती है, बहुत खतरा होता है डूबने का। प्रभु का भजन जहाज है, और गुरु का शब्द इस जहाज का मल्लाह है।

जंगलों पहाड़ों में कई जगह बड़े-बड़े अजगर और नाग रहते हैं। कोई परदेसी मनुष्य राह से भटक के किसी नाग के सामने आ जाए, तो नाग तुरंत उसके पैरों से लिपटता हुआ उसको पूरी तरह से अपनी लपेट में ले लेता है। इस लपेट में से अभागे को सिर्फ मौत ही छुड़ाती है।

माया बहुत भयानक नागिनि। निंदा ईष्या तृष्णा कोम क्रोध आदि इस माया के अनेक ही लपेटे हैं। इस लपेट में से आत्मिक जीवन को बचाना बहुत ही मुश्किल है।

साँप डरता है गरुड़-मंत्र से, माया वश आती है साधु-संगत की शरण पड़ने से।

तेली का काम है कोल्हू में तिल पीढ़ के तेल निकालना और बेचना। वह सारा दिन यही काम करता है। उसके हाथ-पैर उसकी लातें-बाहें हर वक्त तेल से भीगी हुई रहती हैं। कपड़े के एक टुकड़े से वह दिन में कई बार अपने शरीर से चिकनाई पौंछता रहता है। उसके बर्तन भी तेल से लिबड़ते रहते हैं, उनको भी तेली उस टाकी से पौंछ लेता है, और उस टाकी को कोल्हू पर रख देता हैं तेली की यह टाकी सूखने से भी निखरती नहीं। हर वक्त जो तेल से चिकनी होती रहती है।

मनुष्य के मन को जन्मों-जन्मांतरों से माया की मैल लगती आती है। यह मैल धुलनी कोई आसान बात नहीं। गुरु की मेहर से किसी विरले भाग्यशाली का मन पलटता है।

साँप इन्सान का बड़ा खतरनाक वैरी है। इस धरती पर हर साल साँपों के डंक मारे हुए हजारों ही मर जाते हैं। पुराने समय में लोग सांपों के काटे का इलाज मंत्रों द्वारा ही करते थे।

माया का मोह मनुष्य के आत्मिक जीवन के लिए बड़ा खतरनाक जहर है। जिस किसी को भी यह मोह डंक मारता है, उसके अंदर से मानवता गायब हो जाती है। गुरु का शब्द ही इसके विष से बचा लेता है।

गाफल हो के सोने वालों के घर चोरों का भी अच्छा दाँव लगा जाता है। चोर कोई ना कोई रास्ता ढूँढ ही लेते हैं। पर, अगर दरवाजे ही खुले रह जाएं, तो चोरों को मजे ही मजे।

इस शरीर घर का मालिक माया की नींद में सोया रहे, तो घर के दरवाजे ज्ञान-इंद्रिय चौड़-चपट खुले ही रह जाते हैं, कामादिक चोर इन रास्तों से अपना दाँव लगा जाते हैं।

कोई मोटी सामी ताड़ के ठग उसको मिठाई आदि में धतूरा अथवा कोई और नशीली चीज़ खिला देते हैं। जब वह बेतवज्जो हो जाता है, तब उसका सारा धन-माल लूट के ले जाते हैं। माया जीवों को मोह की ठग-बूटी खिला के सबका आत्मिक धन लूटती जा रही है।

मनुष्य का दिमाग़ हिल जाए, तब वह कई हास्यास्पद बातें करता है। कोई पागल ऐसा देखने में आता है कि वह गलियों-बाजारों में गंदी कपड़े की लीरें इकट्ठी करता रहता है, और छोटी सी गठड़ी बाँध के सिर पर उठाए घूमता है। गली-मुहल्ले के बालक छेड़खानी करते हुए उसकी पोटली को हाथ लगा दें, तो वह सारा सारा दिन गालियां निकालता रहता है।

मोह की पोटली मनुष्य के सिर पर सरेश की तरह चिपक जाती है। ‘मैं’ और ‘ममता’ का बँधा हुआ मनुष्य बात-बात में हरेक के साथ खहि उठता है। सुख मिले चाहे दुख, ‘ममता’ की पोटली फेंकने के लिए तैयार नहीं होता।

गर्मी की ऋतु में कई बार धूल भरे बवंडर आते हैं। कपड़ा-कागज़ आदि कोई हल्की चीज़ उस बवंडर में फस के दूर ऊँची उड़ जाती है, और उस बवंडर में ही फसी रहती है। दरियाओं में भी कई जगह बवंडर आते हैं। कोई लकड़ी-शतीरी उसमें फस के वहीं पर चक्कर लगाती रहती है, उसके चक्करों से बाहर नहीं निकल सकती। मेदे में किसी नुक्स के कारण कई लोगों को चक्कर आने लग जाते हैं। जब भी चलने-फिरने का प्रयत्न करें, चक्करों के कारण जमीन पर गिर जाते हैं।

माया का चक्कर भी बहुत ताकतवर। धन का जोड़ना, विषियों का भोगना, यह ऐसे चक्कर हैं कि इनमें फंसा मनुष्य बाहर नहीं निकल सकता। बार-बार वहीं चक्कर खाता है और गिरता है। दुखी भी होता है, पर चक्करों में पड़ा रहता है।

कई इलाकों में पानी की बहुत कमी होती है, कूएँ बहुत ही गहरे खोदने पड़ते हैं। गाँव के कूएँ में हर अंजाना-समझदार जाता रहता है, कभी ना कभी किसी ना किसी की कूएँ में गिरने की घटना होती रहती है। नजदीक पानी वाले साधारण कूएँ में से निकालना कोई मुश्किल काम नहीं। ऐसे कूएँ होते भी चौड़े हैं। पर गहरे कूएँ आम तौर पर सँकरे होते हैं। ऐसे कूएँ में गिरे हुए को बचाना आसान नहीं होता।

माया का मोह एक गहरा संकरा कूआँ है। इसमें अनेक आत्मिक जीवन गोते खा-खा के समाप्त हो जाते हैं। जिसकी बाँह गुरु पकड़ ले, वह बच निकलता है।

समझदार कुम्हार मिट्टी के बर्तन बना के बड़ी जुगति से एक-एक कतार में रखता है, और एक दूसरे के ऊपर टीनें लगा-लगा के संभालता है। बे-जुगति रखे बर्तन दिन में कई बार ठहकने, टूट जाने पर कुम्हार द्वारा की हुई मेहनत व्यर्थ जाए।

माया के प्रभाव में मनुष्य का मन बे-जुगता हो जाता है, दूसरों से झगड़ता है, ठहकता है, ठहकता है, और कईयों के दिल दुखाता है। खुद भी दुखी और-और भी दुखी।

माया का मोह एक पक्का फंदा है। पर ये फंदा बड़ा ही मीठा और स्वादिष्ट। जगत के सारे ही जीव इस फंदे में फसे हुए हैं।

सारी सृष्टि पर माया ही का बोल-बाला है। गृहस्थी तो प्रत्यक्ष ही माया की खातिर आपस में झगड़ते रहते हैं। भाई-भाई का मारू बन जाता है। पर जो अपनी ओर से गुहस्त त्याग के जंगलों में चले जाते हैं, उनको काम-वासना के द्वारा ही जा के तड़पाती है। नित्य धर्म-ग्रंथ पढ़ने वाले विद्वानों को लोभ की शक्ल में आ ग्रसती है।

माया के असर से केवल वही बचता है जो परमात्मा से जान-पहचान बनाता है।

दरिया के आस-पास काही पिलछी कानों का संघन बेला होता है, पर दरिया का किनारा आम तौर पर साफ और समतल होता है, रेत और मिट्टी मिला हुआ। फिर भी कोई मनुष्य यह दलेरी नहीं कर सकता कि आराम करने के लिए उस किनारे पर लेट जाए। क्या पता, दरिया का पानी कब नीचे-नीचे से मिट्टी को गला के सारी जगह अपने में समा ले। जिस कूओं में से पीने के लिए पानी भरा जाता है, उस पर चरखी से रस्सी लगाई होती है। अगर कूँए में किसी मनुष्य को उतरने की जरूरत पड़े, तो खास पक्की रस्यिाँ ले कर दो-चार मनुष्य मदद करते हैं। ऐसा कोई मूर्ख नहीं हो सकता कि चरखी की रस्सी के रास्ते कूएँ में उतर जाए, रस्सी को चरखी वाले सिरे को चूहा कुतर रहा हो, पर वह मनुष्य बे-फिक्र हो के उस रस्सी का आसरा ले के मिठाई खाता रहे।

मनुष्य की उम्र की रस्सी को जम चूहा कुतरता जा रहा है, जिंदगी के दिन तेजी से गुजरते जा रहे हैं, पर यह मजे से मोह के कूएँ में उतर के विषौ-विकारों में मस्त है। उम्र दाँव पर लगी हुई है पर मनुष्य मोह की नींद में सो रहा है।

जंगलों में भाग जाओ चाहे घरों में रहो, माया मनुष्य को ऐसी चुड़ेल हो के चिपकती है कि खलासी करती ही नहीं। कामादिक इसके सरदार ऐसे ठग हैं कि जिससे यारी डाल लेते हैं उसी के हाथ-पैर बाँध लेते हैं।

गुरु ही बचाता है इसकी मार से।

धतूरा आदि नशीली बूटी मिठाई में खिला के ठग भोले-भाले राही मुसाफिरों का माल लूट के ले पत्रा वाच जाते हैं। माया बहुत ठगनी है।

मोह की ठग-बूटी खिला के सबका आत्मिक-धन लूटती जाती है। इसकी मार से केवल वही बचता है जो गुरु की शरण पड़े।

आग से मकानों और कारखानों के जलने की दुर्घटनाएं नित्य होती रहती हैं। किसी की कोताही से कहीं रक्ती सी चिंगारी लकड़ी-काठ आदि में पड़ जाती है। वह धीरे-धीरे ही बेमालूम असर करती जाती है। घर के लोग रात को सो जाते हैं, उतने समय तक वह आग काफी भड़क उठती है। पता तब लगता है जब सारा घर भड़क उठता है।

तृष्णा की आग भी अंदर अंदर से ही मार करती है। बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों के आसन जला के राख कर देती है। ये छुपी हुई आग बहुत जालिम!

कुम्हार जब गधे पर से भारी थैली उतार लोता है, तब थकावट उतारने के लिए गधा धूल में राख में अच्छी तरह लेटता है। मिट्टी-धूल में लेटना गधे की मन-भाती हरकत है। रूड़ियों पर चुगना और राख में लेटना-गधे की सबसे अच्छी रुचि यही है। मनुष्य चँदन के पौधे की बड़ी कद्र करता हैं इसका लेप सुगंधि देता है, तपश हटाता है। पर गधे को चँदन के लेप से क्या लेना-देना? गधा धूल में ही लेटेगा।

माया के प्रभाव में फस के मनुष्य वही हरकतें करता है जिनसे इसका मजाक उड़े और परलोक में भी शर्मिन्दा हो।

ठग धतूरा आदि नशीली चीज़ मिठाई में खिला के भोले राही मुसाफिरों को लूट लेता है।

माया मनुष्य को धन जोड़ने की इतनी चेष्टा लगाती है कि माता-पिता-पुत्र-भाई साक-संग सबमें द्वैत पड़वा देती है। घर-घर यही हाल हो रहा है। जप-तप तीर्थ-स्नान सब कुछ चाहे करते रहो, माया के आगे किसी की पेश नहीं चलती। अंदर-अंदर से गहरी मार मारती है। बचता केवल वह है जो गुरु की शरण आ के प्रभु का नाम याद रखता है।

सूरज की ओर पीठ करके खड़े हो जाओ, अपनी परछाई सामने दिखेगी। मनुष्य ज्यों-ज्यों इस परछाई को पकड़ने के लिए दौड़ेगा, परछाई आगे-आगे दौड़ती जाएगी। पर, अब परछाई की तरफ पीठ करके दौड़ो, परछाई भी पीछे-पीछे दौड़ी आएगा।

माया भी जीवों के साथ कुछ ऐसी खेल करती रहती है। मनुष्य सारी उम्र इस माया के पीछे ही दौड़-भाग करता है। जोड़ता है, अघाता नहीं। चिन्ता की आह बनी ही रहती है। विश्वास भी कोई नहीं। कभी लाख और कभी तिनका।

जो कोई भाग्यवान माया से बेपरवाह हो के प्रभु की याद में जुड़ता और लोगों की सेवा करता है, उसकी यह सेविका बनती है।

चालाक लोग नकली वस्तु को असल से ज्यादा चमकीला बना देते हैं। गाहक को दो चार दिन बाद पता चलता है कि लूटा गया। शोख़-रंगों वाले नकली गुलाब असली गुलाब को मात दे देते हैं। कुसंभ के फूलों से लोग कपड़े रंगा करते थे, रंग बड़ा शोख़ होता था, पर दो-चार दिनों में ही खराब हो जाता था।

माया की शोख़ी मनुष्य का मन भरमा लेती है, पर आत्मिक जीवन गायब हो जाता है।

कौआ बड़ा समझदार पक्षी है। कभी इसको मिठाई का मोटा दाना मिल जाए, और उस वक्त इसको भूख ना हो, तो उस दाने को छुपाता फिरता है। उस वक्त ये किसी पर विश्वास नहीं करता। अगर उसे शक हो जाए कि उसे कोई देख रहा है, तब उस दाने को किसी और जगह ले जाता है, और छुपा देता है। पर, देखो तमाशा! इतना समझदार पंछी, छुपाने के वक्त भी इतनी ऐहतियात! फिर भी छुपाई हुई चीज़ को कौआ कभी वापस ढूँढ नहीं सकता।

माया की कसक बुरी! बहन-भाई माता-पिता सबसे छुपा-छुपा के संभालता है, कोई बैंकों में जमा करवाता है, कोई मूर्ख अंजान घर में ही दबा के रखता है। पर, दबी ही रह जाती है, और ख़ुद ख़ाली हाथ उठ चलता है।

छोटी हो, बड़ी हो, हरेक मछली पानी से विछुड़ के तड़पती है। पानी उसके प्राणों का आसरा जो हुआ।

रब की याद भुला के जिसने भी माया को जिंद का आसरा बनाया, उसी को माया की तड़फनी लग गई। अतीत हो चाहे गृहस्थी, गरीब हो चाहे धनाड, सबका हाल एक जैसा होता है। गरीब की ओर देखो, उसे हर वक्त रोटी के लाले। धनाड को जोड़े हुए की हर वक्त रखवाली की चिन्ता। गृहस्थ छोड़ के तीर्थों के किनारे बैठे हुए शिला की मल्कियत पर ही लड़ पड़ते हैं। गृहस्थी को चिन्ता खाती है, साधु को क्रोध नचाता है। जिसने भी प्रभु का पल्ला छोड़ा, माया उसको अपने पीछे लगा के ख्वार करती है।

बरखा की ऋतु में नदियां-नाले-छप्पड़-टोए टिब्बे सभ पानी से भर जाते हें। राहियों के राह रुक जाते हैं, हर तरफ कीचड़ और पानी ही पानी। बरसात रुकती हैं, धूप लगती हैं, तो राहियों के पैरों से निशान से रास्तों में छोटी सी पग-डंडी बनती हैं। उस पगडंडी से भी मुसाफिर को यही डर रहता है कि कहीं थोड़ा सा भी कोताही से पैर फिसल गया, तो दोनों तरफ के कीचड़ में गिर के कपड़े गंदे हो जाएंगे। माया की बाढ़ में भी आत्मिक रास्ते के राहियों का यही हाल होता है। चुफेरे मोह की फिसलन, विकारों का कीचड़।

दरियाओं के साथ-साथ काही पिलछी और काने बहुत उगते हैं। इस वास्ते राही मुसाफिर काही पिलछी आदि की रुकावट से बचने के लिए आम तौर पर दरिया के किनारे के सिरे पर पगडंडी बना लेते हैं। किनारा समतल होता है और देखने को पक्का भी लगता है।

पर, ये किनारा कई बार बहुत खतरनाक साबित हो जाता है। ऊपर से तो ये पक्का दिखाई देता है, वैसे दरिया का पानी किनारे को नीचे-नीचे से खोरता जाता है ओर बड़े-बड़े हिस्से को बिरा लेता है। कई अंजान मुसाफिर गिरते हिस्सों के साथ ही दरिया के गहरे बहाव में गिर जाते हैं और जान गवा लेते हैं।

माया के मोह का तेज प्रवाह भी अंदर-अंदर से चोट करके मनुष्य के आत्मिक जीवन को अपने अंदर ग़रक कर लेता है।

सावन-भाद्रों में बरखा के कारण हरेक खुली पड़ी चीज़ सीलन पकड़ लेती है। अंदर-बाहर हर तरफ सीलन ही सीलन होती है। मक्खी का नाक बड़ा तेज़। नंगी पड़ी सीली हुई गुड़ की रोड़ी पर मक्खियां भिण-भिण करती आ बैठती हैं, और चिप-चिप करते गुड़ से उनके पंख चिपक जाते हैं। वहीं पर मर जाती हैं।

माया को चिपचिपे गुड़ की भेली के समान ही समझो। तृष्णा के मारे हुए आते हैं, फसते जाते हें, और आत्मिक मौत मरते जाते हैं।

घर में जहाँ कहीं भी टट्टी आदि का गंद हो, घरेलू मक्खी तुरंत उड़ कर उस गंदगी पर जा बैठती है। गंदगी की तरफ इस मक्खी की बहुत ज्यादा खिच होती है। उस गंदगी से इस मक्खी के छोटे-छोटे पैरों से अनेक बिमारियों के सूक्ष्म किटाणु चिपक जाते हैं। वहाँ से उड़ के यह रसोई में भी जा पहुँचती है, और रोटी आदि पर बैठ के खाने वालों के लिए कई बिमारियों का कारण बनती है।

माया को मक्खी समान समझो। जहाँ मन रक्ती भर भी मलीन हो जाए, तुरंत उस पर जा के प्रभाव डालती है। उस मन को और गिराती है, ओर नीचे ले जाती है, और उसकी गिरावट का असर अनेक और मनुष्यों के मनों पर डाल देती है।

कोई विरले मनुष्य इससे बचते हैं।

बरखा ऋतु में दरियाओं में बाढ़ से बह के आई चिकनी मिट्टी और रेत कहीं किनारों के नज़दीक खूब सारी इकट्ठी हो जाती है, और दल-दल सी बन जाती है। यह दल-दल ऊपर से तो देखने पर साधारण सी पक्की रेतीली जगह ही लगती है, पर अंदर से बहुत नरम होती है। परदेसी राही मुसाफिर इसके ऊपर पैर धरता है। पहले ये बढ़िया नर्म रेतीली धरती लगती है। पर धीरे-धीरे पैर धंसने लग जाता है। फिर ज्यों-ज्यों राही पैर निकालने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों और भी ज्यादा धंसने लग जाता है। पशू तो कई बार इतने धंस जाते हैं कि फस के बीच में मर जाते हैं।

माया-मोह की दल-दल बहुत भयानक! धीरे-धीरे मनुष्य का मन अभोल ही धँसता जाता है। इतना धँसता है कि आत्मिक जीवन की साँसे ही दम तोड़ जाती हैं।

गर्मी की बहार में प्यासा हिरन पड़ोस के किसी दरिया से पानी पीने चल पड़ता है। दरिया के किनारे रेत सूरज की किरणों से चमकती है। दूर से हिरन को ऐसा लगता है जैसे नितरा हुआ बहुत सारा पानी ठाठा मार रहा है। प्यास से घबराया हुआ हिरन उस दिखते चमकते पानी की तरफ दौड़ता है। नजदीक आ के पैरों के नीचे की रेत तो रेत ही दिख्ती है, भुलेखा डालती है दूर की चमकती रेत। सो, वह उस मृगतृष्णा की ओर दौड़ता है, और मारीचिका भी आगे से आगे बढ़ती जाती है। हिरन बेचारा तपती रेत में दौड़-दौड़ के प्राण गवा लेता है।

माया की भी चमक बुरी! आत्मिक जीवन को ऐसे जलाती है जैसे फागुन के बादलों की चमक चनों की फसल को राख कर देती है।

सर्दियों की ऋतु में जब नदियों का पानी कम होने के कारण नदियाँ सूख जाती हैं, तो राही यात्री नाँव में चढ़ने की बजाय खुद ही बीच में से गुजर जाते हैं। पर तब भी खास-खास ठिकाने ही बरते जाते हैं, जहाँ राहियों का लांघने का रास्ता कुछ पक्का हो जाता है। क्योंकि कई बार मन-मर्जी वाले राह से गुजरने पर डर बना रहता है कि मनुष्य किसी गहरे गड्ढें वगैरा में ना गिर जाए, फस जाए।

बरसाती नालों में गुजरने के वक्त तो इस बात का खास ख्याल रखना पड़ता है।

माया के मोह की नदी में से उसी रास्ते में से गुजरो, जहाँ से इस नदी के जानकार और तैराक लंघे हैं; वरना फसने का बहुत ज्यादा खतरा है।

काम-वासना के अधीन हाथी कागजों की बनी हथनी पर मोहित हो के सदा के लिए पराधीन हो जाता है। चनों की एक मुठ कुज्जे में से निकालने का प्रयत्न करता बंदर पराधीन हो के घर-घर नाचता फिरता है। चोगे के लालच में तोता नलिनी में फंस के सदा के लिए पिंजरे में कैद हो जाता है।

कामादिक विकारों के तले दब के मनुष्य का आत्मिक जीवन सदा के लिए दबा रहता है।

प्यास से घबराए हुए हिरन को सूरज की तपश में चमकती रेत पानी से भरा हुआ सरोवर प्रतीत होती है। इस मारीचिका के पीछे दौड़-दौड़ के हिरन जान गवा लेता है।

विषियों की तृष्णा माया-ग्रसित मनुष्य को भटका-भटका के उसके आत्मिक जीवन को खत्म कर देती है।

अजायब-घरों में शीशे की अल्मारियों में बंद रखे हुए साँप देखो, कई रंगों के, कई किस्मों के। बड़े ही सुंदर होते हैं। साँप की सुंदरता जगत-प्रसिद्ध है। पर साँप मनुष्य का बहुत ही खतरनाक वैरी है। कलराठी धरती पर साँप इतना जहरीला होता है कि उसका डंक मारा हुआ व्यक्ति वहीं ढेरी हो जाता है।

माया देखने को ये बहुत सुंदर। इसके अनेक स्वरूप, धन, स्त्री, पुत्र, एैश्वर्य आदि। पर, मोह का ऐसा तेज़ डंक मारती है कि आत्मिक जीवन वहीं ढहि-ढेरी हो जाता है।

नव-युवती ब्याही जा के ससुराल पहुँचती है। वहाँ सास-ससुर, जेठ, दियोर, जिठानियां, दिओरानियां, ननदें आदि कई नए साक-संबन्धियों से उसका वास्ता पड़ता है। यह सारे नए साक उसका तब ही आदर-सत्कार करते हैं, अगर वह अपने पति की प्रसन्नता की पात्र बन सके, वरना ये सारे साक बेगाने लगने लगते हैं।

जिस जिंद-दुल्हन ने पति-प्रभु को बिसार दिया, उसका अपना शरीर ही हर वक्त बेचैन रहता है, हर वक्त नए-नए भोग माँगता रहता है, उसकी सारी उम्र पाँचों से झगड़ते हुए ही गुजरती है। माया का दबाव हमेशा उस पर बना रहता है।

पतंगे को दीपक की लाट देखने का चस्का है। सावन के महीने पतंगे धरती में से निकलते हैं। शाम के वक्त दीए जलते ही अनेक पतंगे उड़-उड़ के दीए की लाट के नजदीक हो-हो के देखते हैं। मूर्ख पतंगे को यह समझ नहीं कि आग के नजदीक जाने से आग जला देगी। आँखों के विषौ में फसा पतंगा जान गवा लेता है।

मनुष्य, धन और स्त्री के मोह में ग़लतान हो जाता है। मूर्ख को ये सोच नहीं आती कि इस रस के कारण आत्मिक जीवन की मौत होती जा रही है। माया का प्रभाव बड़ा प्रबल!

चोरी का इतिहास शायद मनुष्य के जन्म से ही शुरू होया हुआ है। ज्यों-ज्यों मनुष्य होशियार होता जा रहा है, त्यों-त्यों चोरी ठगी भी कमाल की होशियारी के साथ होने लग पड़ी है। रात को सोए हुए लोगों के घरों में सेंध लग जानी तो साधारण सी बात है। होशियार ठग चुस्त चालाक लोगों से भी दिन-दिहाड़े उनके हाथों से माल ले जाते हैं। कहीं पीतल को सोना बना के दिखाया जाता है, कहीं रुपए दुगने करने की लालसा दी जाती है, कहीं कोरे कागजों से नोट बनाने का चकमा दिया जाता है।

धर्म-पुस्तकें पढ़ के मनुष्य अपनी ओर से पंडित-ज्ञानी बन जाता है, और लोगों को धर्म का रास्ता दिखाता है। पर उसका अपना मन विद्या के गुमान में हाथी के समान हो जाता है। रब को मिलना था विनम्रता धार के, वह कहीं नजदीक नहीं होती। अपन आप को जागा हुआ समझता हुआ आत्मिक राशि-पूंजी लुटा लेता है।

पंजाब में खाते-पीते घरों के लोग अपने घरों में लवेरा रखते हैं। औरतें सवेरे उठ के रात का जमाया दही मटके में डाल के जिसे चाटी कहते हैं, मथानी से मथते हैं और मक्खन निकाल के परिवार में बाँटती हैं। पड़ोस के गरीब लोग उनके घरों से लस्सी माँग के ले जाते हैं। बेचारे गरीब लस्सी ले के भी सौ-सौ शुक्र करते हैं। जिन्होंने दही मथा उनको मक्खन भी मिला और लस्सी भी। पर पानी को मथने से क्या मिलेगा?

जिस सौभाग्यशालियों ने दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए श्वास-श्वास विधाता प्रभु को याद रखा, उन्होंने मानव जनम का असल उद्देश्य भी हासिल कर लिया।

दुनियादारों को ठगने के लिए ठग लोग ऐसे-ऐसे ढंग इस्तेमाल करते हैं कि कमाल कर देते हैं। बड़े-बड़े समझदार चालाक लोगों के कान कतर लेते हैं। पर वही लोग इनका शिकार होते हैं जिनके अंदर जल्दी ही बिना मेहनत किए अमीर बनने की आग लगी होती है।

माया इन्सान को ठगने के लिए भेस धारती है। इससे वही बचता है जिसकी तवज्जो प्रभु-चरणों में रहती है।

कूँजें सैलानी पक्षी हैं। अनुकूल ऋतु अनुसार देश-देशांतरों से उड़ के चली जाती हैं, अपने असल वतन से सैकड़ों-हजारों मील दूर। दूर-दराज़ देशों में चोगा चुगती हैं, उड़ानें भरती हैं, पर अपनी तवज्जो सदा अपने पीछे वतन में रह गए बच्चों में रखती हैं।

सावन के महीने काली घटाएं चढ़ती हैं, बरस के जल-थल कर देती हैं, छप्पड़, टोए, तालाब सब नाको नाक भर जाते हैं। पर देखो भाग्य पपीहे के! वह बेचारा पानी को तरसता ही रहता है।

भाग्यहीन मनुष्य! विधाता कर्तार हर जगह व्यापक है, पर माया में मोहित हुआ मनुष्य विछुड़ के सदा दुखी ही रहता है। इसकी तवज्जो सदा माया में ही रहती है।

शहद की मक्खियां सारा दिन फूलों के रस में से शहद ले-ले के अपने छत्ते में इकट्ठा करती हैं। पर मनुष्य छत्ते में से सारा शहद निचोड़ लेता है, वे बेचारी देखती रह जाती हैं। गाय अपने बछड़े के लिए दूध अपने थनों में इकट्ठा करती है, गुज्जर सारा दूध दुह लेता है।

कैसी मौज से मछली खुले पानियों में तैरती रहती है, पर जीभ का चस्का बुरा! कुंडी में फस के जान गवा लेती है।

तृष्णा के अधीन हो के मनुष्य दिन-रात धन जोड़ता रहता है। आखिर धन धरती में दबा ही रह जाता है, और मनुष्य का शरीर मिट्टी में मिल जाता है।

कूएँ में बसते मेंढकों को वह कूँआं ही सारी दुनिया प्रतीत होती है।

स्वार्थ की तंगदिली में फंसा मनुष्य अपने और अपने छोटे से परिवार के हितों से ज्यादा नहीं सोच सकता।

किसी नदी का पानी किनारों से उछल के किसी गड्ढे में पड़ जाए, और नदी से संबन्ध टूट जाए, तो कुछ दिनों के बाद ही वह पानी गंदा हो जाता है, उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। जल रहा कोयला आग में से बाहर निकाल दो, बुझ के काला हो जाएगा। बसंत ऋतु में जब आमों को बौर पड़ते हैं, कोयल आ के आमों के पेड़ों पर बैठती है और ‘कू-कू’ करती है। उसकी सुर बड़ी वैराग भरी होती है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे अपने प्रीतम से विछोड़े में रो रही है। कोयल का रंग भी काला है। कवियों को ऐसा प्रतीत होता है, जैसे विछोड़े ने उसको जला के काली कर दिया है।

प्रभु-चरणों से विछुड़ के प्राणी का हृदय विकारों से, मानो, काला हो जाता है। जिंदगी का रास्ता बड़ा बिखड़ा बन जाता है, कदम-कदम पर ठोकरें, कदम-कदम पर चिन्ता फिक्र और आहें।

किसी मकान को आग लग जाए, तो पड़ोसी आ के उद्यम करके आग बुझा देते हैं। पर अगर घर के मालिक को आग का पता ही ना लगे, और वह अंदर ही सोया रहे, तब पड़ोसियों को तब ही पता लगता है जब सारा घर जल उठे। घर का मालिक भी अंदर जल के राख हो जाता है।

माया का मोह बड़ी खतरनाक छुपी हुई आग है, इसका पता ही नहीं लगता। अंदर-अंदर से मनुष्य के आत्मिक जीवन को जला देती है। फिर यह मोह इतना मीठा भी लगता है कि इस की पोटली फेंकने को भी जी नहीं करता। इन्सान गिले-शिकवे भी करता है पर पोटली सिर पर उठाए भी रखता है।

माया

(ई) गुमान झूठा है

सलोक म: २ (वार सूही) –राति कारणि धनु संचीअै –पन्ना 787

सिरी रागु म: ४ –दिनसु चढ़ै फिरि आथवै –पन्ना 41

पउड़ी म: ४ (वार सोरठि) –ऐह भूपति राणे रंग, दिन चारि सुहावणा–पन्ना 645

पउड़ी म: ४ (सोरठि की वार) –धनु संपै माइआ संचीअै –पन्ना 648

सिरी रागु म: ५ –घड़ी मुहत का पाहुणा –पन्ना 43

सिरी राग म: ५ –भलके उठि पपोलीअै –पन्ना 43

गउड़ी गुआरेरी म: ५ –बहुतु दरबु करि मनु न अघाना –पन्ना 179

गउड़ी म: ५ –आपन तनु नही, जा को गरबा –पन्ना 187

गउड़ी म: ५ –गरबु बडो, मूलु इतनो –पन्ना 212

गउड़ी सुखमनी म: ५ –अनिक भाति माइआ के हेत –पन्ना 268

गउड़ी सुखमनी म: ५ –धनवंता होइ करि गरबावै –पन्ना 278

गउड़ी सुखमनी म: ५ –संगि न चालसि तेरै धना –पन्ना 288

गउड़ी म: ५ (वार गउड़ी म: ४) –भक्त जनां का राखा हरि आपि है–पन्ना 316

सलोक म: ५ (गउड़ी की वार) –वाऊ संदे कपड़े, पहिरहि गरबि गवार–पन्ना 318

आसा म: ५ –राज मिलक जोबन ग्रिह सोभा –पन्ना 379

आसा म: ५ –भूपति होइ कै राजु कमाइआ –पन्ना 391

आसा म: ५–उठि वंञु वटाऊड़िआ, तै किआ चिरु लाइआ–पन्ना 459

गूजरी म: ५ –प्रथमे गरभि माता कै वासा –पन्ना 497

गूजरी म: ५ –मात पिता भाई सुत बंधप –पन्ना 499

देवगंधारी म: ५ –चंचलु सुपनै ही उरझाइओ –पन्ना 531

बिहागड़ा म: ५ छंत–बोलि सुधरमीड़िआ,मोनि कत धारी राम–पन्ना 547

सरोठि म: ५ –रतनु छाडि कउडी संगि लागे –पन्ना 615

जैतसरी म: ५ छंत –पाधाणू संसारु, गारबि अटिआ –पन्ना 705

टोडी म: ५ –माई माइआ छलु –पन्ना 717

सूही म: ५ –बुरे काम कउ ऊठि खलोइआ –पन्ना 738

सूही म: ५ –बहती जात कदे द्रिसटि न धारत –पन्ना 743

सूही म: ५ छंत–सुणि बावरे, तू काऐ देखि भुलाना –पन्ना 777

बिलावल म: ५ –बिखै बनु फीका तिआगि री सखीऐ –पन्ना 802

बिलावल म: ५ –मिरतु हसै सिर ऊपरे –पन्ना 809

बिलावल म: ५ –बिनु हरि कामि न आवत हे–पन्ना 821

रामकली म: ५ –सिंचहि दरबु देहि दुखु लोग –पन्ना 889

मारू म: ५ अंजुलियां –बिरखै हेठि सभि जंत इकठे –पन्ना 1019

सलोक म: ५ (वार मारू) –ठगा नीहु मत्रोड़ि –पन्ना 1088

सलोक म: ५ (मारू की वार) –गहडड़ड़ा त्रिणि छाइआ –पन्ना 1096

सलोक म: ५ (वार मारू) –मेरी मेरी किआ करहि –पन्ना 1101

केदारा म: ५ –हरि बिनु जनमु अकारथ जात –पन्ना 1120

सवैये स्री मुख वाक् म: ५–रे मन मूस, बिला महि गरबत–पन्ना 1387

आसा कबीर जी –जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती –पन्ना 477

आसा कबीर जी –बाह बरस बालपन बीते –पन्ना 479

कबीर जी –राम सिमरु, पछुताहिगा मन–पन्ना 1106

धनासरी नामदेव जी –गहरी करि कै नीव खुदाई –पन्ना 692

सोरठि रविदास जी –जल की भीति, पवन का थंभा –पन्ना 659

बसंत रविदास जी –तुझहि सुझंता कछू नाहि –पन्ना 1196

सलोक फरीद जी (म: ५) –फरीदा गरबु जिना वडिआईआ–पन्ना 1383

स्री रागु बेणी जी –रे नर गरभ कुंडल जब आछत –पन्ना 93

भाव:

जगत में मनुष्य की जिंदगी रैन-बसेरे जैसी ही है। यहाँ पर जोड़ा हुआ धन यहीं रह जाता है। फिर भी वह मनुष्य यह मूर्खता करता चला आ रहा है।

कूएं में लगाई हुई रस्सी को ऊपर सिर से अगर चूहा नित्य धीरे-धीरे कतरता रहे, तो उस रस्सी का क्या भरोसा? आखिर टूट के कूएं में जा गिरेगी।

सावण की सीलन में चिप-चिप करते गुड़ पर मक्खी आ बैठती है। उसके पैर के पंख गुड़ के साथ चिपक जाते हैं। मक्खी वहीं जान गवा लेती है।

सारी उम्र माया के मीठे मोह में फसा रहता है, और ऊपर से उम्र धीरे-धीरे खत्म हो के जीवन-बाज़ी हार जाती है।

कुसंभ के शोख़-रंगे फूल मन को आकर्षित करते हैं, पर इनकी मौज-बहार दो दिनों की ही होती है।

मायावी पदार्थ बहुत स्वादिष्ट होते हैं, पर चार दिनों की ही खेल है।

धन-पदार्थ, महल-माड़ियां, हाथी-घोड़े- इनका साथ चार दिनों का ही होता है। जिंद का असली साथी प्रभु का नाम है।

किसान अपने खेत में गेहूँ आदि बीजता है। साधारण तौर पर यही नियम समझा जाता है कि पकने पर फसल काटी जाएगी। पर कई बार आवश्क्ता अनुसार किसान हरी खेती ही काट लेता है। खेती इस मामले में क्या इन्कार कर सकती है?

इसी भुलेखे में रहना भूल है कि मौत वृद्धावस्था में ही आएगी। आत्मिक जीवन की प्रफुल्लता के लिए कभी भी टाल-मटोल नहीं करना चाहिए।

बकरियों, घोड़ों, गधों आदि के छोटे बच्चे देखो, उछलते-कूदते कैसे सुंदर लगते हैं। इसी तरह चिड़ियां कबूतर आदि पक्षी टपूसियां मारते मन को भाते हैं। कभी किसी को मौत याद नहीं आती। माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य भी उछलता फिरता है। मौत अडोल ही आ दबोचती है।

सपने में कई बार हम बड़े रंग-तमाशे देखते हैं। सारा दिन मेहनत मजदूरी कर के थके हुए गरीब को रात सोते हुए सपने में अगर धन मिल जाए, राज मिल जाए, उसके दिल की उस वक्त की खुशी वही जानता है। पर सवेरे जब उठ के अपने चुफेरे वही पुरानी भूख-नंग देखता है, तो उसका दिल बैठ जाता है, उसके अंदर से आह निकलती है।

बेगार में पकड़ के किसी गरीब के सिर पर रुपयों की थैली उठवा दो, उस बेचारे को इसका क्या लाभ? खेतों का मालिक किसी काम करने वाले को रखवाला बैठा दे तो उस रखवाले को उन लहलहाती खेतों की कैसी खुशी?

माया का मान झूठा है। सपने की ही खेल है। खाली हाथ मनुष्य चल पड़ता है।

पुत्र-स्त्री, सोना-चाँदी महल-माड़ियां, सबसे अंत में साथ छूट जाता है। और तो कहाँ रहने वाला है, यह साथ पैदा हुआ शरीर भी यहीं ही रह जाता है।

माया की ममता झूठी!

जूए की हार बुरी! जुआरिया ज्यों-ज्यों जूए में दाव हारता है त्यों-त्यों उसके अंदर जूआ खेलने की और आग तेज़ होती है।

यही हाल है तृष्णा का। कभी खत्म नहीं होती। उधर से शरीर जवाब दे जाता है।

किसी जाते हुए राही मुसाफिर से डाले प्यार की क्या पांया? पेड़ की छाया सूरज के आसरे ही है। माया की मौजें नित्य नहीं रहतीं।

लाखों-करोड़ों रुपयों का मालिक हो, मरने के वक्त एक तीले जितना धन भी साथ नहीं जा सकता। फौजों के सरदार का शरीर भी मौत के बाद पल में जल के राख हो जाता है।

दुनिया का मान झूठा।

धन, कुटंब, राज-भाग, घोड़े, हाथी- मौत आने पर इन सबसे साथ खत्म हो जाता है।

ऐश्वर्य का मान और देवनहार दातार को बिसार देना मूर्खता है।

हरी फसल में तो कुछ दिन खेत में टिके रहने की आस हो सकती है; जब फसल पक गया, आज भी कटी और तड़के भी।

बूढ़े होने पर भी माया की ही लगन यकीनी आत्मिक मौत की निशानी है।

थोड़ी सी हवा चलने पर उड़ जाने वाले बहुत बारीक रेशमी कपड़े पहन के मनुष्य गुमान करता है, अपनी जवानी और अमीरी का।

गुमान किस बात का? मौत सब कुछ जला के राख कर देती है।

हकूमत के नशे में कईयों से वैर सहेड़ लेता है। ताकत के आसरे अकड़ में आ के कहता है कि वैरियों को बाँध लाऊँगा खत्म कर दूँगा। पर यह आडंबर झूठा ही है। जैसे जगत में खाली हाथ आता है, वैसे ही खाली हाल चल पड़ता है।

हाथी को साफ-सुथरें पानी में स्नान कराए जाओ; पर उसके भाग्यों में राख ही है,जो उसने नहाने के बाद शरीर पर डाल लेनी है।

कच्चे घड़े पर कुम्हार कितनी ही चित्रकारी करता जाए, पानी की चार छींटे पड़ें उसने गल जाना है।

धन, हकूमत, फौजें, महल-माड़ियां, बड़ा परिवार- ये सब सपने के रंग-तमाशों जैसे ही हैं।

हिरन के शिकारी अंधेरी रात में जंगल में रोशनी करते हैं, हिरन उस रौशनी की ओर दौड़ता आ के काबू आ जाता है। मक्खी मीठे के साथ चिपक के जान गवाती है। गहरी खाई में कागजों से बनी हथनी को देख के काम-वश हुआ हाथी गड्ढे में गिरता और गुलाम हो जाता है। मुसाफिर रास्ते के रंग-तमाशे देखने में अपना रास्ता खोटा कर लेते हैं।

आँखों के भोग, जीभ का चस्का, काम-वासना - ऐसे अनेक ठेडे जीव-यात्री को मानवता के रास्ते से विचलित करते रहते हैं। आखिर उम्र की मुहलत खत्म हो जाती है।

मजदूर के सिर हजारों रुपयों की थैली हो, उसको तो दो-चार आने भाड़ा ही मिलना है। थैली मालिक के घर।

धन जोड़े, महल-माड़ियां उसारीं, पुत्र, स्त्री, साक-संबंधी बनाये। जब लंबे सफर की तैयारी हुई, कोई एक पैर भी साथ नहीं जा सकता।

साक-संबन्धी, धन माल- मौत आने पर सब साथ खत्म हो जाते हैं।

सपने में देखे हुए रंग-तमाशे जागते ही खत्म हो जाते हैं। कुसंभ के फूलों का रंग शोख तो होता है, पर रहता दो-चार दिन ही है।

माया के साथ की पायां इतनी ही है।

मोह की नींद में सोया हुआ मनुष्य पुत्र-स्त्री धन राज-माल आदि को अपने जान के इनकी ममता में फंसा हुआ है। पर यह सारा साथ कच्चा है।

चाँदनी रात में आकाश की ओर उठता हुआ धूआँ आकृति में महल-माड़ियां लगने लगता है। हवा का बुल्ला आया और वह घर-महल गायब।

सोते हुए सपने में कई बार पैसे रुपए सिक्कों के ढेरों के ढेर ढूँढ के इकट्ठे कर लेते हैं। पर जाग खुलते ही हाथ खाली के खाली ही रह जाते हैं। सपने में इकट्ठे किए रुपयों के बदले कोई एक कौड़ी भी देने को तैयार नहीं होता।

प्यासा हिरन मारीचिका के पीछे दौड़-दौड़ के जान गवा लेता है।

जिंदगी चार दिनों की खेल। बेअंत लंबे सफर में एक सपना सा। कितनी अभाग्यता है कि मनुष्य इस सपने की माया की खातिर आत्मिक गुणों का व्यापार भुला बैठता है। माया-नागरिक पीछे दौड़-दौड़ के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं।

जूए की आदत बुरी! जुआरी ज्यों-ज्यों बाज़ी हारता है, जूए का चस्का बल्कि और-और बढ़ता है।

लंबे सफर का मुसाफिर रास्ते में सरायों, मुसाफिर खानों में रातें गुजारता है। उन सरायों में मिलते और राहियों के साथ प्रीत करके यदि वह वहीं बैठ जाएगा, तो उसका रास्ता खोटा हो जाएगा।

मनुष्य एक मुसाफिर है। ऊँचा आत्मिक जीवन ही इसकी मंजिल है। पर रास्ते में स्त्री पुत्र साक संबंधी मिले हुए साथियों के साथ खर्च कर के ये जिंदगी का निशाना भूल बैठता है। जीवन बाज़ी हारता जाता है। यह हार जितनी मीठी लगती है कि हारते जाना ही जीवन का लक्ष्य बन जाता है।

गोबर की पाथी से बने गोहों और लकड़ी की आग जलाएं। कुछ समय बाद अगर और गोहे और लकड़ी डालनी बंद कर दें, तो भी आग घड़ी दो घड़ियां धधकती रहेगी। पर तिनकों की आग में तिनके डालने बंद कर दो, उसी वक्त बुझ जाएगी।

भाद्रों की कड़ाके की धूप में राह पर जा रहा यात्री बहुत घबराता है। कोई छोटा सा बादल भी अगर सूरज के आगे छाया कर दे, तो राही में, जैसे, जान आ जाती है। पर इस छाया का क्या भरोसा? हवा का झोंका आया, और बदली उड़ गई।

बाढ़ों के पानी सदा टिके नहीं रहते। हाँ, गुजरते-गुजरते लोगों के फसल, मवेशी और घर-घाट सब बरबाद कर जाते हैं।

माया एक छोटा सा झूला ही देती है, पर इसके बदले आत्मिक जीवन बहा के ले जाती है।

हरेक इन्सान अपने रोजाना जीवन में देखता है कि उसके कई अज़ीज़ मित्र साक- संबन्धी अपनी-अपनी बारी यहाँ से चलते जा रहे हैं, और जोड़ा हुआ कमाया हुआ यहीं छोड़ जाते हैं। फिर भी ये, यह नहीं विचारता कि यही दिन मेरे पर भी आएगा।

फिर इतना लालच क्यों?

नदी का पानी धीरे-धीरे अपने बहाव में बहता चला जाता है। जो पानी आज एक पत्तन से गुजर जाते हैं, वे मुड़ के फिर कभी नहीं आते।

जिंदगी के गुजरते दिन दोबारा फिर वापस नहीं मिलने। फिर यह इतनी बेपरवाही से उस माया की खातिर ही क्यों गवाए जाएं, जिसने साथ ही नहीं निभाना?

दो-चार दिन ही शोखी दिखाने वाले कुसंभ के फूल पर मस्त हो जाना- कितना पागलपन है इन्सान का!

माया की शोखी कुसंभ के समान ही है।

रात के वक्त घरों का धूँआ जब ऊपर आकाश की ओर उठता है, तब चाँदनी रात में कई बार ऐसा भ्रम पैदा होता है कि आकाश में मकान बने हुए हैं। तपदी चमकती रेत को पानी का भरा हुआ तालाब समझ के ही प्यासा हिरन बेचारा दौड़-दौड़ के जान गवा लेता है। पेड़ की छाया कभी एक जगह टिकी नहीं रह सकती। ज्यों-ज्यों सूरज चढ़ता है और चलता है, त्यों-त्यों छाया अपना ठिकाना छोड़ती जाती है।

माया का साथ कभी आखिर तक नहीं निभता। फिर भी मनुष्य की सारी उम्र इस दौड़-भाग में व्यर्थ गुजर जाती है।

कुसंभ के फूलों का रंग बड़ा शोख होता है। इन फूलों से लोग कपड़े भी रंगते थे। गाढ़ा रंग मन को बहुत भाता था। पर दो-तीन दिनों में ही यह रंग फीका पड़ जाता था।

कई ठगी-फरेब करके मनुष्य धन कमाता है। इसकी मूर्खता को देख-देख के मौत सिर पर हसती है। आखिर शरीर मिट्टी में मिल जाता है, और ठगी-फरेब करने वाला जगत से खाली-हाथ ही चला जाता है। कितना अभागा है इन्सान।

तिनकों- घास-फूस का घर बना के, उसमें आग जला के बे-परवाही से बैठना-कोई पागल ही यह मूर्खता करता है।

यही पायां है इस शरीर की। कामादिक विकारों की जितनी ही तेज़ आग इसमें जलती रहेगी, उतना ही जल्दी यह जल के राख हो जाएगा।

पर, चोगा बिखेरा हुआ देख के पंछी को पसरे जाल की सुध नहीं रहती।

कितना तंग हो-हो के, और दूसरों को मूसीबत में डाल-डाल कर, मनुष्य दिन-रात माया जोड़ता रहता है! पर जब शरीर छोड़ा, माया यहीं पर किसी और के काम आ गई। जोड़ने वाला खाली हाथ ही गया।

एक अजीब मीठा सपना है यह!

दिन डूबने के वक्त आबादी से बाहर किसी वृक्षों के समूह में दृश्य देखेने वाला होता है। कौए, लाली, पेडुंकी, तोते आदि कई श्रेणियों के पंछी, जो सारा दिन चोगा चुगने के लिए आस-पास दूर-दूर तक उड़ाने भरते रहते हैं, शाम के वक्त सूरज की रौशनी कम होती देख के रैन-बसेरे के लिए उस समूह के वृक्षों की टहनियों पर आ बैठते हैं। कोई अपना घोंसला नहीं, उस जगह कोई जगह ऐसी नहीं जिसको कोई पंछी अपनी कह सके। जिस टहनी पर बैठ गए, वह घर हो गया, सारी रात उसको पैरों से कस के पकड़े रखते हैं। रात खत्म होती है, सूरज की लौ लगती है। वे सारे पंछी वहाँ से उड़ जाते हैं।

दुनिया में भी मनुष्य का ऐसा ही रैन-बसेरा है। गुमान किस बात का?

धरती से आकाश की तरफ उड़ते धूएँ को रात के वक्त चँद्रमा की चाँदनी में देख के भ्रम ना करो कि ये कोई सुंदर शहर निर्मित हुआ है।

दो घड़ियों के मायावी मौज-मेले जिंद को आखिर बहुत दुखी करते हैं।

सूखे हुए घास और तिनकों से गड्डा लाद के उसके पास आग जला-जला के बैठने से कभी ना कभी आग लग ही जाएगी, और सब कुछ जल के राख हो जाएगा।

विकारों की आग ने आत्मिक जीवन की कोमलता को जला के राख करना ही है।

बड़ी गहरी पक्की नींव खोद के बनाए हुए पक्के मकान भी भूचाल के तगड़े झटके आने पर गिर जाते हैं। पर जो कोठे पहले रेत पर उसारे हुए हों, उनका रब ही रखवाला!

शरीर का क्या भरोसा किस वक्त गिर जाए? तृष्णा और ममता की बाढ़ से इसको बचा के रखो।

भोला हिरन मृगतृष्णा मारीचिका के पीछे दौड़-दौड़ के जान गवा लेता है वृक्ष की छाया कभी एक ठिकाने पर नहीं रही।

धन और जवानी का मान भी झूठा।

चूहा अपने बिल में बड़ी फुरती से दौड़ा फिरता है। बाहर बिल के मुँह के पास बिल्ली ताक लगाए बैठी रहती है। चूहा बिल में से अभी सिर ऊँचा करता ही है कि बिल्ली तुरन्त उसको काबू कर लेती है।

मौत ने जिंद को आ के दबोचना है। धन-संपक्ति के मोह के अंधेरे में ही उल्लू की तरह घूते फिरना मूर्खता है।

दीपक तब तक रौशनी देगा जब तक उसमें तेल और बाती है। दीया बुझते ही घर में अंधेरा ही अंधेरा।

जब तक जिंद और प्राण शरीर में रुमकते हैं, शरीर चलता फिरता है। ये खत्म, शरीर गया काम से। फिर इसको कोई पल भर भी ज्यादा घर में नहीं रखता।

सूखे हुए तालाब का पानी बाहर उछलने से रोकने के लिए चारों तरफ मेढ़ बनाने का क्या लाभ? उसमें पानी ही नहीं। उछलेगा क्या? जिस खेत में से फसल काट ली हो, उसके चारों तरफ वाड़ क्यों लगानी? कोई मूर्ख ही ऐसे उद्यम करेगा।

पर, देखो मनुष्य की मूर्खता। बालपन से वृद्ध उम्र तक माया की ममता के काम ही करता रहता है। मौत आने पर वह माया महल-माड़ियां यहीं पड़े रह जाते है।

कितना ही सुंदर, मुलायम और पक्का कागज़ हो, पानी में पड़ते ही गल जाता है।

धन और जवानी की बिसात कागज़ जितनी ही समझो।

दुर्योधन और रावण जैसे राज-भाग का मान कर-कर के आखिर कमा के ही क्या ले गए?

माया का साथ कच्चा है। माया की मौजें जीवन आदर्श नहीं हैं।

पंछी को जहाँ रात आ जाए, वहीं किसी वृक्ष की टहनी पर बैठ कर रात गुजार लेता है; कहीं मल्कियत नहीं बनाता, कहीं कब्ज़े नहीं जमाता।

इस शरीर पिंजर में प्राण का बसेरा भी पंछी की ही तरह घड़ी-पल का है। सोने के वक्त ज्यादा से ज्यादा साढ़े तीन हाथ जगह मनुष्य मलता है, पर सारी उम्र मल्कियतें बनाने के चक्कर में रह के जीवन-बाज़ी हार जाता है। शरीर आखिर राख की ढेरी।

भाद्रों के महीने रेतीली सी जगहों में घास-फूस के आस-पास कुकरमुत्ते मशरूम उग आते हैं। जिस जगह शाम के वक्त कुछ भी नहीं होता, सुबह जा के देखो, सुंदर-सफेद कुकरमुक्ता नज़र आएगा। लोग सवेरे-सवेरे जा के मशरूम उखाड़ के लाते हैं और सब्जी बनाते हैं। जो मशरूम किसी की नजर नहीं चढ़ती और वहीं टिकी रहे, वह दिन की गर्मी में सूख जाती है। रातो-रात पैदा हो के एक ही दिन में कुम्हला जाती है।

इस शरीर की भी यही पायां है।

बरसात होती है। नदी-नालों में बाढ़ का पानी जोबन पर होता है। पर टिबे सूखे के सूखे।

धन और जवानी के गुरूर में अकड़ना मूर्खता है। धन यहीं रह जाता है, जवानी खत्म हो जाती है। अकड़ के कारण जीवन-श्रेष्ठता कमाए बिना मनुष्य कोरे का कोरा ही यहाँ से चल पड़ता है।

बुढ़ापे में सफेद बालों से सिर सफेद हो जाता है, आवाज़ कमजोरी के कारण पतली हो जाती है, आँखों में से पानी बहता रहता है। फिर भी मनुष्य को अपनी मौत नहीं सूझती, छोटे-छोटे पौत्र-पौत्रियां के लाडों में ही गुंम हुआ रहता है।

गुरु

सलोक म: १ (आसा की वार) –नानक गुरु न चेतनी –पन्ना 463

पउड़ी म: १ (वार आसा) –नदरि करहि जे आपणी –पन्ना 465

पउड़ी म: १ (आसा की वार) –बिनु सतिगुर किनै न पाइओ –पन्ना 466

पउड़ी म: १ (वार आसा) –सतिगुर विटहु वारिआ –पन्ना 470

सोरठि म: १ –जिसु जल निधि कारनि तुम जगि आऐ –पन्ना 598

रामकली म: १ (सिध गोसटि) –गुरमुखि बांधिओ सेतु बिधातै –पन्ना 942

सलोक म: २ (वार आसा) –जे सउ चंदा उगवहि –पन्ना 463

सलोक म: २ (वार सारंग) –गुरु कुंजी, पाहू निवलु –पन्ना 1237

मारू म: ३ –मारू ते सीतलु करे –पन्ना 994

सलोक म: ३ (वार मलार) –बबीहा भिंनी रैणि बोलिआ –पन्ना 1283

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –धुरहु खसमि भेजिआ –पन्ना 1420

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –बाबीहा सगली धरती जे फिरहि–पन्ना1420

पउड़ी म: ४ (सिरी राग की वार) –हरि के संत सुणहु जन भाई–पन्ना 87

धनासरी म: ४ –हम अंधुले अंध बिखै बिखु राते –पन्ना 667

कलिआन म: ४ –राम गुरु पारसु परसु करीजै –पन्ना 1324

गउड़ी म: ५ –सूके हरे कीऐ खिन माहे –पन्ना 191

गउड़ी बावनअखरी म: ५ –लला लावउ अउखधु जाहू –पन्ना 259

सोरठि म: ५ –जनम जनम के दूख निवारै –पन्ना 618

सलोक म: ५ (वार जैतसरी) –भउजलु बिखमु असगाहु –पन्ना 710

बिलावलु म: ५ –भूले मारगु जिनहि बताइआ–पन्ना 803

बिलावल म: ५ –ताती वाउ न लगई –पन्ना 819

गौंड म: ५ –गुर की मूरति मन महि धिआनु –पन्ना 864

सलोक म: ५ (वार मारू) –जो डुबंदो आपि –पन्ना 1101

सोरठि नामदेव जी –अणमड़िआ मंदलु बाजै –पन्ना 657

सवैये महले दूजे के –अमिअ द्रिसटि सुभ करै–पन्ना 1392

सवैये महले चौथे के –कचहु कंचनु भइअउ –पन्ना 1399

सवैये महले चौथे के–जामि गुरु होइ वलि– नल्य भाट। पन्ना 1399

सवैये महले चौथे के–गुर बिनु घोरु अंधारु– नल्य भाट। पन्ना 1399

बसंतु हिंडोल म: ४ –राम नामु रतन कोठरी –पन्ना 1178

सूही ललित कबीर जी –ऐकु कोटु, पंच सिकदारा –पन्ना 793

सलोक म: ३ (वार रामकली) –बाबाणीआ कहाणीआ –पन्ना 951

आसा म: ५ – अधम चंडाली भई ब्रहमणी–पन्ना 381

भाव:

कभी-कभी बेमौसमी बरखा और बिजली की चमक के कारण चनों की फसलें जल जाती हैं। ना तो उनमें दाने ही पड़ते हैं, और ना ही वह पशुओं के खाने के काम ही आ सकते हैं। जिंमीदारों के पास समय ना होने के कारण, ये फसल निखस्म ही बग़ैर किसी मालकाने के खेतों में पड़ी रहती है। तब गाँवों के गरीब-गुरबे रोजाना जा के ईधन के लिए उन सूखे हुए पौधों की गाँठे बाँध के ले आते हैं। यहाँ एक बात प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है कि एक मालिक जिंमीदार के काम की होने के कारण ये जली हुई फसल के अनेक गरीब-गुरबे आ मालिक बनते हैं।

इसी तरह जब हम अपने मन में चतुर बन के गुरु को मन से बिसार देते हैं, गुरु के बताए हुए जीवन मार्ग को सही नहीं समझते, गुरु की राहबरी की आवश्यक्ता को नहीं समझते, तब कामादिक सौ मालिक इस मन के आ बनते हैं, मन कभी किसी विकार का कभी किसी अवगुण का शिकार होता रहता है।

जिंदगी का सही रास्ता बताने वाला गुरु परमात्मा की मेहर से ही मिलता है। यह बेचारा जीव अपने किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार वासना का बाँधा अनेक जन्मों में भटकता चला आता है। प्रभु की ही मेहर से मिला गुरु इसको जीवन-उपदेश सुनाता है।

जो मनुष्य अपने अंदर से स्वैभाव दूर करता है, उसको सतिगुरु के मिलने से सदा कायम रहने वाले परमात्मा की याद का शौक बनता है, याद से प्यार बनता है, और इस तरह उसके अंदर से पुराने नीच दर्जे के मायावी संस्कार मिट जाते हैं और परमात्मा में उसकी लीनता हो जाती है।

ये बात पक्की जानो कि किसी भी मनुष्य को गुरु की शरण पड़े बिना गुरु के बताए हुए रास्ते पर चले बिना परमात्मा के साथ मिलाप हासिल नहीं होता। क्यों? क्योंकि कोई मनुष्य अपने अंदर से माया के मोह वाले संस्कार दूर नहीं कर सकता। एक गुरु ही है जो और लोगों को भी इस माया के पंजे में से छुड़ा सकता है।

माया के मोह के प्रभाव के कारण मनुष्य आत्मिक जीवन की तरफ से अंधा हुआ रहता है, आत्मिक जीवन से बेसमझ रहता है। ये बे-समझी मनुष्य अपने आप दूर नहीं कर सकता। ये आवश्यक है कि कर्तार की मेहर से मिले गुरु के सामने मनुष्य अपनी बुद्धि का आसरा छोड़ दे। माया के मोह में अंधी हो चुकी आँखों में गुरु आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश डालता है, और, इस तरह मनुष्य को संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में डूबने से बचा लेता है।

कमाई हुई माया तो हरेक मनुष्य यहीं पर छोड़ के चल पड़ता है, जगत में इसके आने का यह उद्देश्य नहीं। मनुष्य आता है आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल विहाजने। यह नाम-जल है तो हरेक मनुष्य के अंदर ही, पर ये समझ मिलती है सिर्फ गुरु से, सिर्फ गुरु के द्वारा।

धार्मिक भेस, तीर्थ स्नान आदि उद्यमों से ये चीज़ नहीं मिल सकती। अंदरूनी आत्मिक अवस्था तब ही ऊँची बनती है यदि मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के परमात्मा के नाम में जुड़ा रहे।

रावण सीता जी को समुंदर से पार लंका में ले गया था। श्री रामचंद्र जी ने समुंदर पर पुल बाँधा, दैत्यों को मारा, लंका लूटी और सीता जी को छुड़वा के लाए। घर के भेदी विभीषण के बताए भेद ने इस सारी मुहिम में बहुत बड़ी सहायता की।

माया-ग्रसित मन ने जीव-सत्री को प्रभु-पति से विछोड़ दिया हुआ है। दोनों के बीच संसार-समुंदर जितनी दूरी बनी हुई है। परमात्मा ने जगत में गुरु को भेजा। गुरु, मानो, पुल बन गया। जिस जीव-स्त्री को गुरु मिला, उसकी प्रभु-पति से दूरी मिट गई। गुरु ने घर का भेद समझाया कि कैसे मन विकारों में फसाता है। सो, गुरु की शरण पड़ के लाखों पत्थर-दिल जीव संसार-समुंदर से पार लांघते हैं।

माया के मोह में फस के मनुष्य गलत जीवन-राह पर चल पड़ता है, आत्मिक जीवन की इसको सूझ ही नहीं रह जाती। सही जीवन चाल से बेसमझी मनुष्य के लिए आत्मिक अंधेरा है। इस अंधेरे में वैर-विरोध, निंदा, ईष्या, कामादिक अनेक ही ठोकरें हैं जो जीवन-सफर में मनुष्य को लगती रहती हैं। ये ठोकरें हैं मनुष्य के अंदर मन में।

अंधेरी रात में सफर कर रहा मनुष्य रास्ते में कई ठोकरें खा सकता है। अगर चाँद चढ़ जाए, तो वह ठोकरें खत्म हो जाती हैं, दिन के सूरज की रौशनी में आँखों वाले को ठोकरें लगनी ही क्यों हुई?

पर, सूरज और चंद्रमा ने रौशनी देनी है बाहरी पदार्थों को देखने के लिए। मन के विकार आदि ठोकरों को दूर करने इनके बस के बाहर की बात है।

आत्मिक अंधेरा सिर्फ गुरु ही दूर कर सकता है।

किसी घर का मालिक अपने घर को तगड़ा पक्का ताला लगा के कहीं बाहर चला जाए, और कूँजी अपने साथ ले जाए, तो उसकी ग़ैर-हाजरी में और कौन खोले ताले को?

मनुष्य का मन, मानो, एक कोठा है। इस कोठे को माया के मोह का तगड़ा पक्का ताला लगा हुआ है। जीव माया की खातिर दिन-रात बाहर भटकता-फिरता है। कौन समझाए इसे कि बाहरी माया तो यहीं पड़ी रह जाएगी, तू अपने घर की भी सार ले? घर को ताला लगा हुआ है। यह ताला सिर्फ गुरु खोल सकता है। माया के प्यार की जकड़ में से सिर्फ गुरु ही मनुष्य को आजाद करा सकता है।

खराब सा लोहा भी पारस के साथ लगते ही सोना बन जाता है। तपता रेता-स्थल बरखा की इनायत से ठंढा-ठार हो जाता है।

जो मनुष्य गुरु की राह पर चल कर प्रभु का नाम जपता है, उसका स्वभाव शीतल हो जाता है, उसका आचरण ऊँचा बन जाता है।

नाम-अमृत मनुष्य के आत्मिक जीवन का सहारा है। गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य को यह समझ आ जाती है कि प्रभु के नाम-जल से वंचित रह के जीवन जीया नहीं जा सकता, वह पपीहे की तरह अमृत बेला में उठ के प्रभु के दर पर आ कूकता है।

विधाता के हुक्म अनुसार बादल आते हैं, झड़ी लगा के बरसते हैं, पपीहे के तन-मन में ठंढ पड़ती है। सारी धरती ही हरियावली हो जाती है और अन्न-धन बहुतायत में पैदा होता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द में मन जोड़ के प्रभु का नाम-अमृत पीते हैं, उनके हृदय में शांति-ठंड बरतती है।

जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर पपीहे की तरह नाम-अमृत की बूँद के लिए तड़पता है, उसकी मायावी तृष्णा खत्म हो जाती है।

सूरज चढ़ जाए, तो रात का सारा अंधेरा दूर हो जाता है।

गुरु की शिक्षा हृदय में टिकाएं, तो अज्ञानता का अंधकार मिट जाता है।

माया का मोह मनुष्य के आत्मिक जीवन के लिए जहर है, मनुष्य के अंदर से यह सभी गुणों को आहिस्ता-आहिस्ता मारता रहता है। यह मोह मनुष्य के आत्मिक जीवन के लिए घोर अंधेरा है। मनुष्य सही जीवन-चाल नहीं चल सकता, अनेक विकारों की ठोकरें खाता रहता है।

किसी अंधे मनुष्य को सिर्फ ज़बानी-ज़बानी राह बताने पर वह बेचारा ठोकरें खाने से बच नहीं सकता। कोई दयावान उसका हाथ पकड़ के उसको सीधी सड़क पर डाल दे, तो ही उसका सफर ठीक-ठाक पूरा हो सकने की उम्मीद की जा सकती है।

माया के मोह में अंधे हो चुके जिस मनुष्य को गुरु मेहर करके अपना पल्ला पकड़ाता है, वह मनुष्य परमात्मा की याद की सड़क पर चढ़ता है, साधु-संगत के आसरे जीवन-राह तय करता है।

पारस से छू के लोहा सोना बन जाता है। लकड़ियों के एक ढेर को एक चिंगारी जला के राख कर देती है; परमात्मा से विछुड़ के मनुष्य अनेक पाप करता है, पर गुरु को मिलने से मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ की ऐसी चिंगारी जलती है कि वह सारे पाप ध्वस्त हो जाते हैं। जीवन पलट जाता है। जैसे मुरगाई के पंख पानी में नहीं भीगते, वैसे ही गुरु की शरण पड़े मनुष्य का मन माया के मोह में नहीं फसता।

पानी से सूख रहे बेल-बूटों के पेड़ों को बरखा ऋतु दोबारा हरा कर देती है। हरे-हरे पक्तों और रंग-बिरंगे फूलों से सारी बनस्पति सज जाती है।

माया आशा-तृष्णा, चिन्ता-फिक्र ये सहमे हुए मन में जब प्रभु के नाम-अमृत का छिट्टा पड़ता है, तब मन टहक उठता है।

यह मेहर है पूरे गुरु की!

रोगी को रोग बिपता से बचाने के लिए निरी दवाई ही काफी नहीं है। समझदार वैद्य दवाई के साथ परहेज संजम और अनुपान भी बताता है, और विकारों से परहेज सिखाता है।

प्रभु की याद मनुष्य के सारे मानसिक रोगों की दवाई है। वह प्रभु हरेक के अंदर मौजूद भी है। फिर भी पूरा गुरु वैद्य इस दवाई के साथ शुभ-आचरण का अनुपान बताता है, और विकारों से परहेज बताता है।

कई छोटे बच्चों के शरीर किसी अंदरूनी रोगों के कारण दिन-ब-दिन सूखते जाते हैं, सूख के तीला हो जाते हैं। उनकी माँएं कई हकीमों-वैद्यों के पास उनको ले जाती हैं, कई टोभों सरोवरों में नहलाती हैं। जिन्हें कारगर दवाई मिल जाती है वे बच निकलते हैं। माया का रोग बहुत ही चंदरा रोग है। जिसको चिपक जाए, उसका मन दिन-ब-दिन सूखता जाता है, सिकुड़ता जाता है, ज्यादा से ज्यादा स्वार्थी होता जाता है। पूरा गुरु कुशलता वाला वैद्य प्रभु के नाम की दवाई दे के स्वार्थ में सूखे हुए मन को हरा कर देता है।

जिसके अच्छे भाग्य हों, उसको गुरु नाम-जहाज में बैठा के इस अथाह संसार-समुंदर से पार उतार लेता है।

जगत तृष्णा की आग में समुंदर में डूब रहा है और जल रहा है। मनुष्य का मन काम में क्रोध में लोभ में मोह में हर वक्त फसा रहता है। जिस भाग्यशाली को गुरु मिलता है उसको गुरु जिंदगी का सही रास्ता दिखाता है, गुरु उसको परमात्मा के सुंदर चरणों का आसरा देता है, परमात्मा की याद में जोड़ता है।

पिता दशरथ से मिले बनवास के समय पंचवटी जंगल में जब लक्ष्मण ने सुपनखा का नाक काट दिया था, तो रावण ने अपनी बहन की इस निरादरी का बदला लेने के लिए एक छल रचा। एक दैत्य सुंदर हिरन का रूप धार के श्री रामचंद्र जी की कुटिआ के आगे से गुजरा। सीता जी को वह हिरन बहुत पसंद आया। हिरन को पकड़ने के लिए हठ किया। श्री राम जी हिरन को पकड़ने के लिए गए। जंगल में से ऐसे आवज आई, जैसे वे जख़्मी हो के ‘हाय लक्ष्मण, हाय लक्ष्मण’ कह रहे हैं। सीता जी ने लक्ष्मन जी को भेज दिया। पर वह जाने से पहले सीता के चारों तरफ एक लकीर, कार खींच के कह गया कि ये ‘राम कार’ है, इससे बाहर ना निकलना। रावण साधु रूप में भिक्षा लेने को पहुँचा। सीता जी लकीर से बाहर हो के आटा डालने लगे, तो रावण उनको ले गया। लकीर के अंदर उसका बल नहीं चलता था।

परमात्मा की याद शरीर के चौर्गिद, मानो, ‘राम-कार’ है। जिस मनुष्य की जिंद के चारों तरफ राम-कार खींच देता है उसके मन पर कामादिक वैरी हमला नहीं कर सकते।

मनुष्य को ये बात कहते हुए भी भूलनी नहीं चाहिए कि इस संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में डूबने से सिर्फ गुरु ही मनुष्य को बचा सकता है। गुरु परमात्मा का रूप है। जैसे, ये विकार लहरें परमात्मा पर अपना असर नहीं डाल सकतीं, वैसे ही गुरु भी उनकी मार से ऊपर रहता है। लोग साँप आदि को कीलने के लिए मंत्र पढ़ते हैं। गुरु का मंत्र सब मंत्रों से श्रेष्ठ मंत्र है, ये मंत्र मनुष्य के मन-साँप को कील सकता है। गुरु का यह शब्द-मंत्र ही गुरु की मूर्ति है गुरु का असल सरूप है। अगर मनुष्य ने अपने मन-साँप को कील के रखना है, तो मनुष्य गुरु के शब्द में अपनी तवज्जो सदा टिकाए रखे। गलत रास्ते पर जा रहे मनुष्य को गुरु ही सदा जीवन का सही रास्ता दिखाता है। माया के मोह के घोर अंधेरे में गुरु के शब्द से ही सही उच्च आत्मिक जीवन की रौशनी मिलती है।

बाढ़ में आए हुए नदी-नाले में से तैराक लोग ही सही-सलामत मुसाफिरों को पार लंघा सकते हैं। जो खुद ही गोते खाता हो, वह किसी और को कैसे पार लंघाए?

जो मनुष्य खुद ही विकारी हो, वह किसी और को विकारों से बचाने का क्या उपदेश करे? ईश्वर से रति हुआ ही दूसरों को विकारों की बाढ़ से बचा सकता है।

कोई चित्रकार एक सुंदर सी तस्वीर बना के अपनी दुकान के बाहर लटका देता है। गुजरते हुए लोग उस तस्वीर को देख के मस्त हो जाते हैं और देखने के लिए रुक जाते हैं। चित्रकार अपनी दुकान में से उठ-उठ के उस तस्वीर को देखने के लिए बाहर नही आता। यह तस्वीर उसने खुद बनाई है, और वह इसी तरह की और भी बना सकता है।

परमात्मा चित्रकार अपने बनाए जगत की सुंदरता पर मस्त हो के किसी विकार आदि के कुमार्ग पर नहीं पड़ता। गुरु पर भी माया की कोई सुंदरता अपना नहीं डाल सकती। गुरु की आत्मिक अवस्था उतनी ही ऊँची है जितनी परमात्मा की। गुरु परमात्मा का रूप है। उच्च आत्मिक अवस्था के दृष्टिकोण से गुरु और परमात्मा में रक्ती भर फर्क नहीं है।

सावन के महीने बादल बरसने से जेठ-हाड़ वाली तपस मिट जाती है। पारस से छूने पर लोहा सोना बन जाता है। ढोल बजे, तो सुनने वाले का मन खुद-ब-खुद खुशी से नाचता है।

गुरु को मिल के जिसके हृदय में प्रभु के प्रति प्यार हो जाए, वहाँ शांति उच्चता और सुख का राज हो जाता है।

गुरु मेहर की निगाह करके सारे पाप विकार दूर कर देता है।

पारस के साथ छूने पा तांबा, लोहा आदि धातुएं सोना बन जाती हैं। चँदन के पौधे के पास उगे हुए ना-बराबरी वाले पौधे भी सुगंधि वाले हो जाते हैं।

सतिगुरु की संगति में पशू-स्वभाव मनुष्य भी देवता-स्वभाव वाला बन जाता है।

माया की चोट बुरी! बहुत सारा धन कमा के कोई विरला ही होगा जो अकड़-अकड़ के ना चलता हो। जिस मनुष्य के पीछे चलने वाले बहुत साथी बन जाएं, वह कोई विरला ही रह जाता है जिसको इन बहुत सारी बाहों का गुमान-अफरापन ना हो।

पर जिस मनुष्य के सिर पर गुरु अपनी मेहर का हाथ रखता है उसको ना धन का ना बहुत बाहों आदि का मान गुमराह कर सकता है।

माया के मोह ने जगत में घोर अंधेरा किया हुआ है। आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित मनुष्य कदम-कदम पर ठोकरें खा रहे हैं। मनुष्य की तवज्जो रहती ही हर वक्त माया की निवाण में। किसी वक्त भी कामादिक विकारों के हमलों से मनुष्य को खलासी नहीं मिलती।

जो मनुष्य गुरु के शब्द का आसरा लेता है उसके पिछले किए हुए सारे पापों के संस्कार मिट जाते हैं उसका जीवन नया-नरोया हो जाता है।

मनुष्य का शरीर एक नगर है, किला है। इसमें परमात्मा के नाम और भले गुणों का खजाना छुपा हुआ है। अंजान मनुष्य को अपने अंदर के इस खजाने का पता नहीं।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पाँचों चोर मनुष्य के मन को अपने वश में कर लेते हैं, और शुभ-गुणों की सारी राशि-पूंजी लूट के ले जाते हैं। गुरु के मिलने पर सोझी आती है।

मनुष्य का शरीर एक किला है काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पाँच चौधरी बसते हैं। शरीर के मालिक मन से ये सदा मुआमला कर माँगते रहते हैं, और कर भी बहुत ज्यादा वसूल करते हैं। इस तरह इस किले की सारी जायदाद उजड़ जाती है। शुभ-गुणों रूपी प्रजा इसमें बस ही नहीं सकती।

जिस मनुष्य को गुरु मिल जाए, वह इन चौधरियों की चुंगल में नहीं आता।

जगत में आना उस मनुष्य का सफल है, जो उच्च-जीवन बुजुर्गों के जीवन की साखियां और उनके उपदेश सुन के अपना जीवन ऊँचा करते हैं। ऐसे लोग अपने खानदान के लिए आदर-मान का कारण बनते हैं।

कैसे बिल्ली चूहों को भाग के खाने को पड़ती है, जैसे शेर जंगल के कमजोर पशूओं पर आ पड़ता है। वैसे ही तृष्णा का मारा मनुष्य मायावी पदार्थों को टूट-टूट के पड़ता रहता है। ऐसे मनुष्य का आत्मिक स्तर बहुत निम्न हो जाता है। उसकी नीयत हर वक्त भूखी, हर वकत भूखी। पर, जब गुरु की कृपा से मनुष्य परमात्मा की याद का अमृत पीता है, तब स्वार्थ में मरी हुई आतमा जी उठती है; विकारों से इसको घृणा हो जाती है, जैसे, बिल्ली चूहों से डरने लग पड़ी हैऔर शेर बकरी के अधीन हो गया है।

संगति

साध संगति, कुसंग

सलोक म: २ (वार सूही) –तुरदे कउ तुरदा मिलै –पन्ना 788

सिरी रागु म: ३ –पंखी बिरखि सुहावड़ा –पन्ना 66

सलोक म: ३ (वार बिहागड़ा) –नानक तरवरु ऐकु फलु –पन्ना 550

साध संगति:

बिलावल म: ४ –हरि हरि नामु सीतल जलु धिआवहु –पन्ना 833

माली गउड़ा म: ४ –मेरा मनु राम नामि रसि लागा –पन्ना 985

कानड़ा म: ४ –जपि मन हरि हरि नामु, तरावैगो –पन्ना 1309

गउड़ी म: ५ –नैनहु नीद पर द्रिसटि विकार –पन्ना 182

गउड़ी म: ५ –राखु पिता प्रभ मेरे –पन्ना 205–06

आसा म: ५ –चारि बरन चौहा के मरदन –पन्ना 404

आसा म: ५ (धंना जी) –गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि –पन्ना 487

सोरठि म: ५ –राम दास सरोवरि नाते –पन्ना 625

धनासरी म: ५ –करि किरपा दीओ मोहि नामा –पन्ना 671

कानड़ा म: ५ –बिसरि गई सभ ताति पराई –पन्ना 1299

भैरउ कबीर जी –किउ लीजै गढु बंका भाई –पन्ना 1161

भैरउ कबीर जी –गंगा कै संगि सलिता बिगरी –पन्ना 1158

सलोक कबीर जी –कबीर चंदन का बिरवा भला –पन्ना 1365

बसंत नामदेव जी–सहज अवलि धूड़ि मणी गाडी चालती–पन्ना1196

आसा रविदास जी –तुम चंदन, हम इरंड बापुरे –पन्ना 486

धनासरी रविदास जी–चित सिमरनु करउ नैन अविलोकनो–पन्ना 694

कुसंग:

देव गंधारी म: ५ –उलटी रे मन उलटी रे –पन्ना 535

सलोक म: ५ (वार रामकली) –कबीर चावल कारणे –पन्ना 965

भाव:

हम उम्र को हम उम्र प्यारा। भले मनुष्य को भलों का संग प्यारा लगता है, और विकारी को विकारी का।

जैसे वृक्ष पर पंछी बैठेगा वैसा ही उसको फल मिलेगा, जो जीव-पंछी प्रभु की याद का चोगा चुगता है, वह सुखी जीवन गुजारता है।

संसार एक वृख के समान है। यहाँ भांति-भांति के जीव-पंछी आते हैं। कोई विकारों में प्रवृत है कोई नाम-रस में मस्त है।

इरण्ड और पलाह के पौधे चँदन की संगति में रह के चँदन जैसी सुगंधि ले लेते हैं।

सूरज चढ़े तो उसकी किरणों की संगति से कमल का फूल खिल उठता है।

भली संगति में आ के विकारियों के विकार नाश हो जाते हैं। विकारों में सो रहा मन जाग उठता है।

लकड़ी के संग लोहा भी नदी से पार हो जाता है।

हरेक जीव को परमात्मा ने ऊँचे आत्मिक-जीवन की राशि-पूंजी दी हुई है। पर इस ओर से बेसुध हो के जीव का मन प्रभु-चरणों में जुड़ने की बजाए माया के रंग-तमाशों में मगन रहता है। जिस आँखों ने हर तरफ अपने विधाता का दर्शन करना था, वे आँखें पराया रूप देखने में मस्त रहती हैं। जिस कानों ने प्रभु की महिमा सुननी थी, वे कान पराई निंदा सुनने के आहरे लगे रहते हैं। जिस जीभ ने प्रभु की महिमा की बातें करनी थी, वह जीभ खाने-पीने के चस्के में व्यस्त रहती है।

देखो जीव के भाग्य! इसकी सारी ही इंद्रिय अपने-अपने चस्कों में फसी रहती हैं। आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी को बगैर मालिक के पड़ी हुई देख के कामादिक डाकू इसको दिन-रात लूटते चले जा रहे हैं। ना माता, ना पिता, ना मित्र, ना भाई- कोई भी इन डाकूओं से बचा नहीं सकता। ना इनको धन का लालच दे के हटाया जा सकता है, ना ही किसी चालाकी से ये वश में आ सकते हैं।

एक मात्र तरीका है इनसे बचने का। जिस विरले भाग्यशाली को साधु-संगत नसीब हो जाए, उस पर ये अपना जोर नहीं डाल सकते।

इसलिए प्रभु के दर पर ये अरजोई करनी चाहिए- हे पातशाह! मुझे सत्संगियों के चरणों की धूल बख्शे रख।

पाँचवें पातशाह गुरु अरजन देव जी गउड़ी राग के एक शब्द में इस तरह फरमाते हैं:

कामादिक पाँचों विकार बहुत बली हैं। जीव इनसे मुकाबला करने के लायक नहीं है। ये हर वक्त जीव को तंग करते रहते हैं। जीव जतन करता रहे, ये उसकी पेश नहीं चलने देते। इनसे बचने का एक-मात्र तरीका है: वह है साधु-संगत। साधु-संगत में सत्संगियों की कृपा से गुरु की वाणी के अनुसार जीवन बनाने का अवसर मिलता है।

जो मनुष्य साधु-संगत का आसरा देखता है, वह इन बलवान झगड़ालुओं पर काबू पा लेता है। गुरु की वाणी उसको आत्मिक अडोलता में ले पहुँचती है, उसका जीवन सुखी बना देती है। मनुष्य के अंदर ऊँचे आत्मिक जीवन की सूझ पड़ जाती है।

साधु-संगत में टिक के ही मनुष्य प्रभु-दर पर अरदास करनी सीखता है कि हे प्रभु! मुझ गरीब को इन पाँचों की मार से बचा ले।

पाँचवें पातशाह गुरु अरजन देव जी प्रभु-दर पर यूँ अरजोई करते हैं:

कोई ब्राहमण हो खत्री हो, वैश्य हो कोई शूद्र हो, कोई जोगी हो जंगम हो, कोई सरेवड़ा हो कोई सन्यासी हो- कामादिक विकार किसी भी वर्ण व भेस का लिहाज़ नहीं करते, सबको अपने हाथों पर नचाते हैं, सबको अपने वश में कर लेते हैं।

दुनियां में उसी मनुष्य को पूरन समझो, जिसने इन पाँचों का अपने ऊपर दाँव नहीं चलने दिया।

इन कामादिकों की फौज बड़ी बलवान है, ना ये ईन मानती है और ना ही किसी से डर के भागती है। सिर्फ उसी मनुष्य ने इनको जीता है जिसने साधु-संगत का आसरा लिया है।

साहिब गुरु अरजन देव जी आसा राग में फरमाते हैं;

धंन्ना जी को संत जनों की संगति में जीवन का सही रास्ता मिल गया।

राम के दासों का इकट्ठ, साधुओं की संगति, साधु-संगत एक ऐसा सरोवर है जिसमें परमात्मा की महिमा के अमृत-जल से मन को स्नान कराने से मन के जन्मों-जन्मांतरों के किए हुए पापों की मैल उतर जाती है, मन पवित्र हो जाता है। पर यह दाति गुरु के माध्यम से ही मिलती है।

जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने हृदय में बसाता है, उसके ऊँचे आत्मिक जीवन वाली सारी राशि-पूंजी कामादिक-विकारों की मार से बची रहती है। प्रभु की कृपा से उसके अंदर सदा आत्मिक अडोलता का आनंद बना रहता है।

ये यकीन जानो कि साधु-संगत में टिके रहने से मन के विकारों की मैल उतर जाती है परमात्मा हर वक्त अंग-संग बसता दिखता है। जिस मनुष्य ने सत्संग में आ के परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उस मनुष्य का परमात्मा के साथ मिलाप हो गया है।

साहिब गुरु अरजन देव जी सोरठि राग के शब्द में फरमाते हैं:

जिस मनुष्य को परमात्मा साधु-संगत में बैठने का अवसर बख्शता है, उसके अंदर से भेदभाव, अहंकार, मोह और मन की और सारी बुरी वासनाएं सदा के लिए मिट जाती हैं।

गुरु की शरण की इनायत से उस मनुष्य को परमात्मा का नाम जपने की दाति मिलती है, फिर उसको सारे संसार में परमात्मा का ही प्रकाश दिखता है, उसके मन में किसी प्राणी के लिए कोई वैर-विरोध नहीं रह जाता।

मनुष्य का मन जन्मों-जन्मांतरों की बनी हुई प्रवृक्ति के कारण हठी सा हो जाता है, फिर बार-बार भेद-भाव में पड़ता है, ये बार-बार झगड़े-बखेड़े खड़े करता है, पर साधु-संगत की इनायत से जब इसके अंदर परमात्मा का प्रेम जागता है, तब इसका ये हठीला स्वभाव दूर हो जाता है, इसे यह यकीन बन जाता है कि परमात्मा हर जगह हरेक जीव के अंदर बस रहा है।

साहिब पाँचवे पातशाह धनासरी राग के शब्द में साधु-संगत की इनायत का जिक्र करते हुए अपने ऊपर हुई कृपा इस प्रकार बयान करते हैं;

चाहे कोई गृहस्थी हो चाहे त्यागी,, ईष्या-जलन एक ऐसी आग है जो तकारीबन हरेक प्राणी के अंदर बे-मालूम ही धुखती रहती है। अनेक लोग, जगत-प्यार और सर्व-व्यापकता के बारे में बयान करते रहते हैं। पर, अगर उनके अंदर बसती ईष्या का अंदाज़ा लगाना हो तो उनके अत्यंत नजदीक रहते उनके अपने ही कारोबार के व्यक्तियों के बारे में कभी सुनो उनके निजी ख्याल। अपना अज़ीज़ परिक्षा में फेल हो जाए, और पड़ोसी का पास हो जाए, तो एकांत में फेल हुए बच्चे के माता-पिता के दिल का उबाल। त्यागी साधु को, लोगों को त्याग का सदा उपदेश करते साधु के नजदीक हो के देखो तो अपने नजदीक बसते किसी और साधु के विरुद्ध गिले-शिकवे करता थकता नहीं।

पर जब मनुष्य साधु-संगत में मिल के बैठने का स्वभाव दृढ़ करता है, तब उसके अंदर से यह धुर-अंदर छुपी हुई धधकती आग भी बुझ जाती है। पड़ोसियों की तरक्की होती देख के अंदर पैदा होने वाली जलन भी उसके अंदर से खत्म हो जाती है। पर, ये सदाचारी बुद्धिगुरू से ही प्राप्त होती है। साधु-संगत में रहने वाले व्यक्ति को प्रभु की रज़ा मीठी लगती है। सब में परमात्मा को बसता देख के वह मनुष्य दूसरों के सँवरते काम देख के भी खुश होता है।

साधु-संगत की उपमा करते हुए गुरु अरजन साहिब अपने अंदर आई तब्दीली का वर्णन कानड़ा राग के शब्द में इस तरह करते हैं:

राजा लोग पुराने समय में पड़ोसी दुष्ट राजाओं से बचने के लिए किले बनवाया करते थे। पक्का किला, उसके चौगिर्दे दो-दो ऊँची पक्की फसीलें, और, तीन-तीन गहरी खाईयां। किले के दरवाजे की रखवाली करने के लिए फौजी पहरेदार जिनके सिर पर लोहे के टोप, हाथों में तीर-कमान बँदूक आदि हथियार।

इस तरह के किले में और हिफाजत में आकी हो के बैठे किसी राजा को बाहर से आए वैरियों का सर कर लेना कोई आसान खेल नहीं थी होती।

मनुष्य का शरीर भी एक किला समझो। इस में मन-राजा आकी हो के बैठा रहता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि इस किले के पहरेदार बने रहते हैं।

साधु-संगत का आसरा ले के जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करता है, उसके अंदर प्रेम, सत-संतोख आदि गुण पैदा होते हें, और, उस मनुष्य का मन विकारों की कैद में से बच निकलता है।

यह दाति मिलती है गुरु की मेहर से।

गंगा में और नदियाँ आ के मिल के गंगा ही बन जाती हैं। चंदन के पास उगे हुए पौधे चंदन की सुगंधि ले लेते हैं। पारस से छू के लोहा सोना बन जाता है।

ढाक आरै पलाह के पौधों में घिरा हुआ चंदन का पौधा अपना स्वभाव नहीं छोड़ता, बल्कि उनको भी सुगंधित कर देता है।

धोबिन मैले कपड़े धोने के लिए घाट पर ले जाती है, वहाँ धोबी उन्हें साफ-सुथरे कर देता है।

सत्संग एक ऐसा ही घाट है जहाँ विकारियों के मनों की मैल धुल जाती है।

चंदन की सुगंध से इरंड सुगंन्धित हो जाता है।

पुरानी खराब प्रवृक्तियां छोड़नी कोई आसान खेल नहीं। यह बार-बार आ दबाती हैं बड़ा ही चौकन्ना रहने की आवश्यक्ता होती है।

ये प्रवृक्तियां छोड़े बिना परमात्मा के चरणों का प्यार नहीं मिल सकता। सो, अपने-अपने अंदर ध्यान मार के देख लो। प्रभु-प्रीति का सौदा बड़े ही महंगे मूल्य में मिलता है।

और, यह मिलता सिर्फ साधु-संगत की दुकान से है।

कोलों को तौलने वाला सिर से पेर तक कालख़ से ही भरा होता है। घर के कमरे में कोई मनुष्य कोले-राख आदि भर ले, वहीं अपनी रिहायश भी रखे, तो यह नहीं हो सकता कि उसके कपड़े कालख से बचे रहें।

ईश्वर से टूटे हुए कुकर्मी लोगों की संगति में से कभी भलाई की आस नहीं रखी जा सकती।

चावल तैयार करने के लिए मुंजी को ओखली में डाल कर मुसलों से छांटा जाता है। मुसले की चोट से तोह फिस-फिस के अलग हो जाते हैं। मनुष्य को चावलों की जरूरत होती है, पर तोह मुफत में ही अपना सिर कुटवाते हैं

कुसंगति में बैठने से विकारों की चोटें सहनी ही पड़ती हैं।

जीवन–जुगति

सलोक फरीद जी –जो सिरु साई ना निवै –पन्ना 1381

सलोक कबीर जी –कबीर फल लागे फलनि –पन्ना 1371

सलोक फरीद जी –फरीदा पंख पराहुणी –पन्ना 1382

सलोक फरीद जी –फरीदा राती वडीआं –पन्ना 1378.79

सलोक फरीद जी –फरीदा बारि पराइअै बैसणा –पन्ना 1380

भैरउ म: ३ – जाति का गरबु न करीअहु कोई–पन्ना 1127

सूही म: ४ छंत–मारेहिसु वे जन हउमै बिखिआ –पन्ना 776

गउड़ी म: ५ छंत–सुणि सखीऐ मिलि उदमु करेहा –पन्ना 249

सलोक फरीद जी –फरीदा मनु मैदानु करि –पन्ना 1381

आसा म: ५ छंत–दिन राति कमाइदड़ो –पन्ना 461

सलोक फरीद जी –फरीदा सकर खंडु निवात गुड़ु –पन्ना 1379

बिलावल म: ५ –कवनु कवनु नही पतरिआ –पन्ना 815

भाव:

इन्सान के लिए ईश्वर की याद जरूरी है।

डाल से लगे रह के पके आम ही मालिक के पास स्वीकार होते हैं।

जो सिदक से डोल गया, वह जीवन हार गया।

यहाँ पंछियों वाला रैन-बसेरा है, चलने के लिए जरूरी प्रबंध करना ही चाहिए। जिन्होंने सारी रात गफलत में गुजार दी, उनकी उम्र व्यर्थ ही गई।

बेगाने दर पर मुथाज ना बनते फिरो। इसमें दुख ही दुख है। मुथाजगी का समय समाप्त होने को नहीं आता जैसे सर्दियों की रातें।

एक ईश्वर का आसरा रखो। दर-दर के मुथाज ना बनते फिरो।

ऊँची जाति का मान ना करो। ऊँचा वही जिसने ऊँचे रब को याद रखा है। सारी सृष्टि रब ने ही पैदा की है।

अहंकार को अंदर से दूर करो, यही दूरियाँ बढ़ाता है; रब से भी और लोगों से भी।

गुरु के उपदेश पर चल के अहंकार छोड़ो, और रब को याद करो। यही है जीवन का सही रास्ता।

जगत में ऊँच-नीच का भेद-भाव बना के दुख-कष्ट पैदा ना करो। सारी ही सृष्टि में रब बसता है।

ठगी-फरेब छोड़ो, परमात्मा से हमारे ये विकार छुपाए नहीं जा सकते।

अपनी हक की कमाई हुई रोटी में ही सुख है, बेगाने धन-पदार्थ की ओर ना देखो।

मन सदा गुमराह करता है। जो भी मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, वह दुखी होता है। मन को सदा काबू में रखो।

7. मनुष्य

बन्जारा, व्यापारी

गउड़ी गुआरेरी म: ४ –किरसाणी किरसाणु करे –पन्ना 166

रामकली म: ४ –जे वडभाग होवहि वडभागी –पन्ना 880

आसा म: ५ –परदेसि झागि सउदे कउ आइआ –पन्ना 372

सलोक म: ५ (वार मारू) –माणिकू मोहि माउ डिंना –पन्ना 1098

सलोक म: ५ (वारां ते वधीक) –तिहटड़े बाजार –पन्ना 1426

सूही कबीर जी–अमलु सिरानो लेखा देना –पन्ना 792

भैरउ कबीर जी–निरधनु आदरु कोई न देइ –पन्ना 1159

गउड़ी रविदास जी–घट अवघट डूगर घणा –पन्ना 345

भाव:

किसान मेहनत से वाही का काम करता है। व्यापारी व्यापार करता है, और धन कमाता है। दुकानदार सारा दिन दुकान पर बैठता है। जीव इस जगत में वणज करने आया है। उसी का आना सफल है जिसने किसान व्यापारी व दुकानदार की तरह चिक्त लगा के नाम-वणज किया।

यह संसार एक ऐसा समुंदर है, जो ऊँचे आत्मिक गुणों के हीरों-जवाहरातों से भरपूर है। जो मनुष्य अपने ही मन के पीछे चलता है, उसकी आत्मिक नजर इतनी कमजोर और संकुचित हो जाती है कि उसको ये हीरे माणक जवाहर नहीं दिखते। सौभाग्य देखिए! बात छोटी सी ही है कि कोयलों के व्यापारी मन की रहनुमाई छोड़ के रत्नों के व्यापारी गुरु का पल्ला पकड़ ले, तब इसे तिनके के पीछे छुपा हुआ लाखों का खजाना मिल जाए। बस! फिर यह भाग्यशाली हो जाता है।

मनुष्य-व्यापारी को परमात्मा-शाह ने इस जगत-परदेस में व्यापार करने के लिए भेजा है। अच्छे गुणों की राशि-पूंजी इसको सौंपी गई है। पर इस परदेस में विकार-चोरों का खतरा है, लोभ की लहरों में जहाज के डूबने का डर है। गुणों के सौदे में निपुन्न गुरु जिस मनुष्य-व्यापारी को अच्छे भाग्यों से मिल जाता है, वह अपना सारा कमाया हुआ ऊँचा आचरण सही सलामत ले के शाह की हजूरी में जा पहुँचता है। पर ऐसे व्यापारी विरले होते हैं, और वही हैं असली मनुष्य।

परमात्मा की याद एक अमूल्य मोती है। मनुष्य ने यहाँ यही मोती विहाजना है। जिसको मिल जाता है, उसके मन में सदा ठंड-शांति टिकी रहती है।

सच्चे वणजारे वे हैं, जिन्होंने दुनिया की मेहनत-कमाई के साथ-साथ नाम-वणज भी किया।

अब ही वक्त है नाम-वणज का। जब मौत सिर पर आ गई, तब वक्त नहीं मिलेगा। यहाँ से खाली हाथ जाने पर शर्मिंदा होना पड़ेगा।

असल धन प्रभु का नाम ही है।

पवित्र जीवन पहाड़ी रास्ते की तरह एक मुश्किल काम है। सत्संग की इनायत से यह वणज आसान ही हो सकता है।

8. मनुष्य–शरीर

(अ) गुफा

सलोक म: २ (वार सारंग) –गुरु कुंजी, पाहु निवलु –पन्ना 1237

माझ म: ३ इसु गुफा महि अखुट भंडारा – –पन्ना124

सूही म: ५ –ग्रिहु वसि गुरि कीना –पन्ना737

भाव:

जब तक मकान को बाहर से ताला लगा रहे, मकान का मालिक भी उसके अंदर नहीं जा सकता, बाहर ही दुखी होता रहता है।

स्वार्थी मनुष्य का मन एक ऐसा कोठा है, जिसके बाहर माया की तृष्णा का ताला लगा हुआ है। जीवात्मा सदा भटकती रहती है, किसी भी वक्त इसको शांति नसीब नहीं होती। माया का ताला खोलने के लिए कूँजी गुरु का उपदेश ही है।

पुराने समय में अनेक देशों के ऋषि-मुनि पहाड़ों की कंदरों-गुफाओं में बरसों बैठ के परमात्मा की तलाश करते रहे। अब तक लोक उन स्थानों का आदर-सत्कार करते चले आ रहे हैं।

मनुष्य शरीर असल गुफा है जिसमें हरि बसता है। ये समझ गुरु से पड़ती है। माया-मोह के कठोर किवाड़ इस गुफा के आगे लगे हुए हैं। कूँजी गुरु के हाथ में है। इस गुफा से बेपरवाह हो के पहाड़ों की गुफाओं में तलाशना व्यर्थ का उद्यम है।

नव-विवाहिता युवती ससुराल जा के अपने पति को प्रसन्न करने के लिए कई तरह के हार-श्रंृगार लगाती है। सास, ससुर, जेठ, दियोर, जिठानियां, द्योरानियां, ननदें- सारे ही परिवार के साथ मीठा प्यार भरा बर्ताव करके सबका मन मोह लेती है। इस तरह सारे घर को अपनें वश में कर लेती है।

मनुष्य का शरीर एक घर है। जो जीवात्मा रूपी नव-विवाहिता युवती प्रभु-पति की याद और शुभ-गुणों का श्रंृगार करती है वह प्रभु-पति को भी प्रसन्न कर लेती है, और घर की सारी ज्ञान-इंद्रिय (साक-संबन्धियों) को भी अपने वश में रखती है। इस घर की मालकिन बनी रहती है।

मनुष्य–शरीर

(आ) हाट

माझ म: ३ –करमु होवै सतिगुरु मिलाऐ –पन्ना 110

पउड़ी म: ४ (वार गउड़ी) –काइआ कोटु अपारु है– पन्ना 309

आसा म: ४ छंत–जीवनो मै जीवनु पाइआ –पन्ना 442

सलोक म: ५ (वार रामकली) –हठ मंझाहू मै माणकु लधा –पन्ना 964

भाव:

इस शरीर नगर में से शुभ-गुणों के सारे कीमती पदाथ्र मिल सकते हैं, पर जिनकी मति-बुद्धि को माया-मोह के करड़े किवाड़ लगे हुए हैं, उनके अंदर अज्ञानता का घोर अंधेरा है, उनको अपने अंदर इन कीमती पदार्थों के अस्तित्व की खबर नहीं। गुरु की कृपा से ये बज्र किवाड़ खुलते हैं।

पुराने समय में बड़े-बड़े नगरों व शहरों की हिफाजत के लिए चौगिर्दे ऊँची बड़ी फसील हुआ करती थी। इस तरह शहर के बाजारों में वणज-व्यापार बेफिक्री से हुआ करता था।

मनुष्य का शरीर भी एक नगर है, फसील वाला। ज्ञान-इंद्रिय इस नगर के बाजार हैं, जिनमें शुभ-गुणों का वणज-व्यापार हो सकता है। परमात्मा के नाम का धन कमाया जा सकता है।

जो लोग इस शरीर नगर से बाहर इस सौदे की तलाश करते हैं, वे उस हिरन की तरह भटकते फिरते हैं जो अपनी ही नाभि में कस्तूरी के होते हुए उसकी सुगंधि झाड़ियों में से लेने का प्रयत्न करते हैं।

कुम्हार चिकनी मिट्टी गूँद के चक्कर-यंत्र पर उससे बर्तन बनाता है। पैरों से चक्कर-यंत्र को धुरी के इर्द-गिर्द घुमाता जाता है, और हाथों से काम करता है, चक्का धुरी पर ही घूमता रहता है।

स्वार्थी मनुष्य भी इसी तरह माया के चक्करों में ही भटकता और जीवन व्यर्थ गवा लेता है। पर इस शरीर-हाट में जो व्यापारी परमात्मा की याद का वणज करते हैं, वे इस जगत-मण्डी में से लाभ कमा के जाते हैं।

मोती-लालों-हीरों का व्यापार बड़े धनाढ-जौहरी ही करते हैं। उनको रोटी की खातिर किसी की अधीनता नहीं होती।

मनुष्य का शरीर एक हाट है जिसमें परमात्मा का नाम-मोतियों का वणज-व्यापार हो सकता है। जो भाग्यवान ये व्यापार करते हैं, वे दर-दर पर भटकते नहीं। पर यह नाम-मोती दुनिया के धन-दौलत के बदले नहीं मिलता। गुरु के दर पर स्वै को कुर्बान करना पड़ता है।

मनुष्य–शरीर

(इ) खेत, नगर, घोड़ी

सलोक म: ३ –किसु हउ सेवी, किआ जपु करी –पन्ना 34

सलोक म: ३ (वार रामकली म: ३) –मनमुखु दुख का खेतु है –पन्ना 947

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –धुरि हरि प्रभि करतै लिखिआ –पन्ना 1417

सलोक म: ४ (वार गउड़ी) –हरि प्रभ का सभु खेतु है –पन्ना 305

सलोक म: ४ (वार गउड़ी) –जो निंदा करे सतिगुर पूरे की –पन्ना 309

आसा म: ४ –हथि करि तंतु वजावै जोगी –पन्ना 368

आसा म: ४ छंत –जिन् मसतकि धुरि हरि लिखिआ –पन्ना 450

मारू म: ४ –हरि भाउ लगा बैरागीआ –पन्ना 997

प्रभाती म: ४ –अगम दइआल क्रिपा प्रभि धारी –पन्ना 1336

सलोक म: ५ (वार गउड़ी) –वत लगी सचे नाम की –पन्ना 321

मारू म: ५ –जिसहि साजि निवाजिआ –पन्ना 1002

सलोक फरीद जी –फरीदा लोड़ै दाख बिजउरीआं –पन्ना 1379

आसा म: ५ असटपदीआ–पंच मनाऐ, पंच रुसाऐ –पन्ना 430

मारू कबीर जी –देही गावा, जीउ धर महतउ –पन्ना 1104

वडहंस म: ४ (घोड़ीआं) –देह तेजणि जी –पन्ना 575

वडहंस म: ४ (घोड़ीआं) –देह तेजनड़ी –पन्ना 576

भाव:

किसान बड़ी मेहनत करके हल चलाता है, और खेत में से घास-फूस निकालता है। खेत को इस तरह कई बार जोत के सँवार बना के उसमें बीज बीजता है। पर अगर बीज बीज के उसी वक्त ऊपर से सोहागा ना फेरे, तो पंछी सारे ही बीजे दाने चुग जाएंगे, और किसान की सारी मेहनत व्यर्थ चली जाएगी।

जो मनुष्य जवानी के वक्त प्रभु की याद की इनायत से अपने अंदर मानवता के बढ़ने-फूलने का उद्यम नहीं करता, उसकी जवानी के ऊपर कूँज आ पड़ती है, बुढ़ापा आ दबाता है। फिर मानवता से सूने इस शरीर-घर में से परदेसनि जीवात्मा खाली ही चली जाती है।

जमीन में गेहूँ बीजेंगे तो गेहूँ ही उगेगा। पर अगर लापारवाही से पोहली का बीज बीजा गया, तो वह थोड़ी बहुत उगे हुए गेहूँ के पौधों को भी दबा लेंगे, और खेत के मालिक की टांगे भी काँटों से छलनी कर देंगी। पोहली का इलाज बस यही है कि उसको खेत में ही आग लगा के जला दिया जाए।

शरीर-धरती में विकारों का बीज बीजने से मनुष्य इनसे सुख की आस ना रखे।

किसान अपने खेत में किक्कर बीज दे, और उम्मीद ये लगा के बैठे कि इनमें बिजौरी दाख मुनक्के लगेंगे- यह मूर्खतापूर्ण ही है। जो बीज बीजोगे, वही फल मिले सकेगा।

शरीर-खेत में निंदा आदि का बीज-बीजने से निंदा ही उगेगी।

किसान की मेहनत को सौ बलाएं पड़ने वाली। कभी सूखा, कभी ओला, कभी बाढ़। कभी पशुओं का उजाड़ा, कहीं राहियों का फसल रौंधना। पर एक बला इसको खेत के अंदर से ही पड़ जाती है। वह हैं चूहे। कुतर-कुतर के फसल का कुछ नहीं छोड़ते।

मनुष्य-शरीर की खेती उजाड़ने के लिए जमराज ने कामादिक चूहे छोड़े हुए हैं। ये अंदर-अंदर से ही शुभ-गुणों की फसल उजाड़ के रख देते हैं। जिन्होंने रब का तकिया पकड़ा, वे इन चूहों की मार से बच गए।

तेली के कोल्हू के आगे जोहा हुआ बल्द नित्य ही उस कोल्हू के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है। उस बैल की दुनिया सिर्फ उस कोल्हू का चौगिरदा ही है।

निंदा का चस्का बुरा। यह एक ऐसी बुरी वादी है कि इसके चक्करों में से निकलना कोई आसान खेल नहीं। मनुष्य ज्यों-ज्यों निंदा के बीज बीजता है, त्यों-त्यों फल के तौर पर और भी निंदा और निंदा करने की प्रेरणा बढ़ती जाती है।

सूखे के दिनों में जटों को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। फसल सींचने के लिए दिन-रात कूएं जोहने पड़ते हैं। इतनी मेहनत से तैयार की फसल को कभी कोई जानवर खा जाए, तो किसान को बड़ा दुख होता है। उसने लहू पानी एक करके यह मेहनत की हुई है।

मनुष्य ने शरीर के खेत में शुभ-गुणों की फसल तैयार करना है। कूआँ जोहने के लिए मन को बैल बनाना है। इस मन को प्रभु की याद से इतना तगड़ा करो कि कामादिक कोई जानवर शुभ-गुणों की खेती को ना खा सके।

हुनर कोई भी हो, सफलता पाने के लिए खास सूझ की माँग करता है। खेती भी एक हुनर है। हर वक्त के बीजे हुए दाने नहीं उग सकते। हरेक फसल की अपनी-अपनी ऋतु होती है। सिर्फ योग्य ऋतु ही नहीं, भूमि को जोतना और सोहागना भी अति आवश्यक है। फिर ये देखना होता है कि जमीन वत्र हो, जमीन में नमी जरूरत से ज्यादा ना हो। जीव प्रभु से विछुड़ के अनेक जूनियों में भटकता चला आता है। मनुष्य का शरीर वत्र आई धरती के समान है। बस! यही बेला है जब प्रभु की याद का बीज बीजा जा सकता है।

खेती बीज के अगर किसान राखी ना करे, तो लोग, जानवर, बछड़े फसल उजाड़ जाएं, राही-मुसाफिर खेतों में से पग-डंडियां बना के सारी खेती रौंध दें। खेत की निगरानी रखना बहुत जरूरी है।

शरीर-धरती में परमात्मा की याद का बीज बीज के इसकी भी रक्षा करने की जरूरत है, वरना कामादिक पशू शुभ-गुणों की सारी फसल उजाड़ दें। इस फसल की रखवाली सत्संग में हुआ करती है।

हिरन की नाभि में कस्तूरी का नाफा होता है। पर, दुर्भाग्य से! वह बेचारा इस बात को नहीं जानता, और कस्तूरी की सुगन्धि के लिए जंगल में झाड़ियां सूँघता फिरता है।

मानव-शरीर एक नगर है जिसमें परमात्मा बसता है, एक सरोवर है जिसमें प्रभु के नाम और शुभ-गुणों का अमृत भरा पड़ा है। पर, भाग्यहीन साकत मनुष्य उस प्रभु को जंगलों में ढूँढता है।

जिस किसान को खेत का वत्र संभालने की समझ ना हो, उसने क्या बीजना, और क्या काटना! समझदार किसान वत्र हाथ से जाने नहीं देता, पक्की फसल काटने की मौज-बहार भी वही लेता है।

मानव-शरीर है खेत, जवानी है वत्र की बेला। जिसके अच्छे भाग्य हों, वह इस वत्र आई खेती में प्रभु के नाम का बीज बीजता है, और शुभ-गुणों की पक्की फसल काटता है।

हरेक फसल की अपनी-अपनी ऋतु होती है। बेऋतु बीजा हुआ बीज फल नहीं देगा। ऋतु में बीजा हुआ भी वही बीज फल देगा, जो वत्र के समय बीजा जाए। अगर धरती में से वत्र सूख जाए, नमी खत्म हो जाए, तो बीजा हुआ बीज उगेगा नहीं।

जीव के लिए मनुष्य-शरीर ही भली ऋतु है, जब ये शुभ-गुणों की फसल पका सकता है। इस ऋतु में वत्र की बेला है जवानी का समय। जवानी के समय मन प्रभु की याद में जोड़ो।

खेत में किकर बीज के उनमें से बिजौरी दाख नहीं मिल सकती। सारी उम्र ऊन कातते रहें और उस ऊन में से रेशमी कपड़े नहीं बन सकते।

शरीर-खेत में बुरे कर्मों के बीज बीजने से बुरे कर्मों की ओर ही और ज्यादा प्रेरणा होगी। मन भलाई की ओर नहीं जा पाएगा।

बड़े-बड़े नगरों और शहरों के बाहर चुँगी-घर बने होते हैं। बाहर से शहर में जो अन्न-दाना आता है, उस पर नगर-सभा की ओर से महसूल लिया जाता है। वह महसूल अंत में नगरवासियों पर ही पड़ता है क्योंकि व्यापारी अपना माल उतना ही महिंगा करके बेचते हैं।

मानव-शरीर एक नगर है। ज्ञान-इंद्रिय इस नगर के बड़े दरवाजे हैं। इनसे ही शरीर के अंदर बसती आत्मा की सांझ बाहरी दुनिया से होती है। पर, जब तक ज्ञान-इंद्रिय कामादिक विकारों के असर तले हैं, बाहर से आती शुभ-गुणों की प्रेरणा को ये रास्ते में ही रोक लेती हैं, मानो, मसूल के तौर पर हड़प कर जाती है। प्रभु की याद के द्वारा सख्ती करने पर यह लूट बंद हो जाती है, शरीर-नगर के अंदर शुभ-गुणों की पूंजी बढ़ने-फूलने लग जाती है।

जिस गाँव में चोर-उचक्कों की मानी जाए, वहाँ भले मानसों की कोई औकात नहीं होती। चोरियां व और अपराध लुच्चे लोग करते हैं, पुलिस वालों का मुँह मीठा कराते रहते हैं, और पकड़े जाते हैं गरीब और भले मानव।

उस शरीर-गाँव की आबादी का भी कोई हाल नहीं, जहाँ कामादिक चोरों ने ज्ञान-इंद्रिय को काबू में किया हुआ हो। आखिर पकड़ी जाती है जीवात्मा, और अकेले ही मार-कूट खाती है।

विवाह के समय लड़की वाले के घर में औरतें मिल के ‘सुहाग’ गाती हैं, और लड़के वालों के घर ‘घोड़ियां’। जब बारात चलती है, तो लड़का घोड़ी चढ़ता है, बहनें ‘वाग’ पकड़ती हैं, उस वक्त भी ‘घोड़ियां’ गाई जाती है॥ दूल्हा घोड़ी चढ़ के ससुराल-घर पहुँचता है और दुल्हन को ब्याह के लाता है।

मानव-देही भी एक बाँकी घोड़ी है। जिसने इसके मुँह में गुरु के उपदेश की लगाम डाली हुई है, और प्रभु-प्रेम की चाबुक बरती है, उसका मेल पति-परमेश्वर के साथ हो जाता है।

मनुष्य-शरीर एक बाँकी घोड़ी है। जिस जीवात्मा दुल्हन ने इसके मुँह में गुरु के ज्ञान की लगाम डाल के मन को जीता है, वह प्रभु-पति को जा मिलती है।

मनुष्य–शरीर

(ई) मन्दिर घर किला

पउड़ी म: ३ (वार रामकली) –हरि का मंदरु आखीअै, काइआ कोटु गढ़ु–पन्ना952

पउड़ी म: ३ (वार रामकली) –हरि मंदरु सोई आखीअै –पन्ना953

प्रभाती म: ३ –गुर परसादी वेखु तू, हरि मंदरु तेरै नालि –पन्ना 1346

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) – हरि मंदरु हरि साजिआ –पन्ना1418

पउड़ी म: ३ (गूजरी की वार) –बजर कपाट काइआ गढ़ भीतरि–पन्ना514

गउड़ी कबीर जी – खट नेम करि कोठड़ी बांधी –पन्ना 339

भाव:

वह मनुष्य भाग्यवान जौहरी हैं, जो इस शरीर-हाट में परमात्मा के नाम और शुभ-गुणों का व्यापार करते हैं। बेचारे स्वार्थी लोग माया के मोह में फसे रहके इस खजाने की कदर नहीं पाते।

मानव-शरीर ही हरीमन्दिर है। इसमें से, गुरु के उपदेश पर चल के, हरि मिल जाता है। शरीर से बाहर तलाशने की जरूरत नहीं पड़ती। हरेक शरीर में उसको बसता देखो।

मानव-शरीर हरिमन्द्रिर है, परमात्मा की हाट है, यही असल जगह है जहाँ परमात्मा के नाम-धन का व्यापार किया जा सकता है, इस हरीमन्दिर में हरि स्वयं बसता है, हरेक शरीर में हरि बसता है।

ईसाई, मुसलमान, जैनी, बौधी, पारसी, हिन्दू, सिख- धरती के सारे धर्मों के अनुयाईयों ने अपने-अपने धर्म के मन्दिर बनाए हुए हैं, वहाँ इकट्ठे हो के परमात्मा की पूजा-आराधना करते हैं, और उन धर्म-स्थानों को रब का घर परमात्मा का मन्दिर मानते हैं।

मानव-शरीर एक मन्दिर है, हरि का मन्दिर है, परमात्मा ने अपने रहने के लिए मन्दिर बनाया हुआ है। परमात्मा इस मन्दिर में बसता है जो मनुष्य अपने अंदर से माया के मोह का पर्दा दूर कर लेता है, उसको ये समझ आ जाती है।

पुरातन काल में राजा लोग अपनी-अपनी राजधानी की रक्षा के लिए पक्के किले बना के रखते थे। अगर कोई राजा दूसरे के देश पर हमला बोल देता था, और आगे मुकाबले में कमजोर राजा हो, तो वह अपने किले में आकी हो के बैठ जाता था। किलों के दरवाजे बहुत मजबूत होते थे। उन्हें सर करना कोई आसान खेल नहीं होती थी।

शरीर एक किला है। माया-ग्रसित जीव के इस शरीर-किले को झूठ-फरेब अहंकार के बड़े करड़े किवाड़ लगे रहते हैं। किले के अंदर बैठा मन आकी हुआ रहता है। जिस भाग्यवान के ये किवाड़ खुल जाते हैं, उसको अपने अंदर से प्रभु का नाम-रस मिलता है।

मनुष्य अपने रहने के लिए घर बनाता है। घर का साजो-सामान संभाल के रखने के लिए ताले भी इस्तेमाल करता है, पहरेदार भी रखता है। पर, अगर पहरेदार ही चोरों के साथ मिल जाएं, तो बे-फिक्र हो के सोए हुए का घर लूटा जाता है।

मनुष्य-शरीर एक घर है। इसका दरवाजा, ताला, कूँजी कोई नहीं। इस घर की पहरेदार ज्ञान-इंद्रिय है। पर, ये कामादिक चोरों से मिल जाती हैं, और घर की शुभ-गुणों की राशि-पूंजी धीरे-धीरे ही लुट जाती है।

किसी विरले भाग्यशाली को ये बात समझ में आती है।

मनुष्य–शरीर

(उ) असारता

सलोक म: ३ (वार गूजरी) –काइआ हंस किआ प्रीति है –पन्ना510

आसा म: ४–आइआ मरणु धुराहु –पन्ना369

आसा म: ४ छंत– मनि नामु जपाना –पन्ना447

सिरी रागु म: ५ –गोइलि आइआ गोइली –पन्ना 50

सिरी रागु म: ५ –तिचहु वसहि सुहेलड़ी –पन्ना 50

गउड़ी बावनअखरी म: ५ –गगा गोबिद गुण रवहु –पन्ना254

सलोक म: ५ (वार गउड़ी) – दामनी चमतकार –पन्ना319

आसा म: ५ –पुतरी तेरी बिधि करि थाटी –पन्ना374

आसा म: ५ –जैसे किरसाणु बोवै किरसानी –पन्ना375

आसा म: ५ –जिस नो तूं असथिरु करि मानहि –पन्ना401

सोरठि म: ५ –पुत्र कलत्र लोक ग्रिह बनिता –पन्ना609

बिलावलु म: ५ –म्रित मंडल जगु साजिआ –पन्ना808

मारू सोलहे म: ५ –संगी जोगी नारि लपटाणी –पन्ना1072

सलोक म: ५ (वार मारू) –सचु जाणै कचु वैदिओ –पन्ना1095

गउड़ी कबीर जी –पेवकड़ै दिन चारि है –पन्ना333–34

भैरउ कबीर जी–नांगे आवनु नांगे जाना –पन्ना1157

सारंग कबीर जी –हरि बिनु कउनु सहाई मन का –पन्ना1253

सूही रविदास जी –ऊचे मंदर साल रसोई –पन्ना794

आसा फरीद जी –बोलै सेख फरीदु –पन्ना488

सलोक फरीद जी (1) –जितु दिहाड़ै धन वरी –पन्ना1377

सलोक फरीद जी (9,10) –देखु फरीदा जु थीआ दाढ़ी होई भूर–पन्ना1378

सलोक फरीद जी (26) –फरीदा मै भोलावा पग दा –पन्ना1379

सलोक फरीद जी (47,48) –फरीदा खिंथड़ि मेखा अगलीआ–पन्ना1380

सलोक फरीद जी (56) –फरीदा कोठे धुकणु केतड़ा –पन्ना1380

सलोक फरीद जी (66,67) –चलि चलि गईआं पंखीआं –पन्ना1381

सलोक फरीद जी (68,69) –फरीदा भंनी घड़ी सवंनड़ी –पन्ना1381

सलोक फरीद जी (96) –कंधी उतै रुखड़ा –पन्ना1382

सलोक फरीद जी (99) –फरीदा दरिआवै कंनै बगुला –पन्ना1383

सलोक फरीद जी (102) –फरीदा रुति फिरी वणु कंबिआ–पन्ना1383

सोरठि भीखन जी –नैनहु नीरु बहै, तनु खीना –पन्ना 659

भाव:

शरीर और जीवात्मा का प्यार झूठा। ठगी-फरेब करके इस शरीर को पालने का प्रयत्न करना मूर्खता है। जब जीवात्मा को धुर से बुलावा आता है, शरीर यहीं गिर जाता है, और, किए बुरे कर्मों का लेखा जीवात्मा को भुगतना पड़ता है।

जूए की लत बुरी। जुआरी हारता भी जाता है, और फिर भी जीतने की आस और जूआ खेलने से हटता नहीं।

माया की लत भी ऐसी ही है। मनुष्य आत्मिक जीवन हारता जाता है; पर, और जोड़ लूँ और जोड़ लूँ की चाहत में आत्मिक कमी की परवाह नहीं रहती।

धुर से लिखी मौत आ पहुँचती है, माया यहीं रह जाती है, जीवन बाजी हार जाती है। पर, तब पछतावे का क्या लाभ?

जगत में जो भी आया है उसके सिर पर मौत की तलवार लटकती है। पर अजीब खेल है कि इस मौत से हर कोई सहमा रहता है। हरेक जीवात्मा शरीर के ओट में छुपती है, छुपती है।

इस सहम से सिर्फ वही बचता है जो प्रभु की याद को जिंदगी का आसरा बनाता है।

लंबा सूखा पड़ जाए, तो अन्न का काल पड़ जाता है। पर अन्न से भी ज्यादा मुश्किल पशुओं के लिए घास-चारे की हो जाती है। गर्म हवाओं से तपती धरती जल के राख हुई होती है, कहीं भी हरी घास का तीला नहीं दिखता।

पशुओं को भूख की इस बिपता से बचाने के लिए लोग अनेक मवेशी इकट्ठे करके दरिया के किनारे चले जाते हैं और सूखे के दिन काट आते हैं। इसे गोयल-वासा कहते हैं। बरसात होने पर सब गोयली अपने-अपने गाँव वापस चले जाते हैं।

राही मुसाफिर अपने सफर के रास्ते में कहीं रात काटता है, प्रभात होते ही वहाँ से आगे चल पड़ता है कि रास्ता खोटा ना हो जाए।

माली बगीचों में मोतिया गुलाब आदि सुगंधि वाले पौधे पालते हैं। फूल खिलते हैं, पर एक ही दिन में कुम्हला जाते हैं, और अगले दिन नयों को खिलने का मौका मिलता है।

जगत गोयल-वासा है, सराय है, फूलों की बग़ीची है। मौत यहाँ किसी को पक्के डेरे नहीं लगाने देती।

स्त्री की दुनिया पति के साथ ही है। जब तक सोहागनि है, तब तक सास ससुर जेठ जेठानियां द्योरानियां ननदें सारा ही परिवार उसका आदर-सत्कार करता है। पर, जो दुर्भाग्य से सिर से नंगी हो जाती है, उसको हर तरफ से ‘दूर-दूर’ होने लग जाती है, कुलहिणी, कुलक्षिणी उसका नाम पड़ जाता है। सारा ही घर उसको खाने को पड़ता है।

जीव- भौरे के उड़ने की देर होती है कि ये काया भी आँगन में पड़ी नहीं सुहाती। मौत सारा नक्शा बदल देती है। सुलक्ष्णी काया वही, जिसने जीवात्मा के होते हुए भलाई कमाई।

सयाने कहते हैं कि मौत का और गाहक का कोई पता नहीं किस वक्त आ जाए।

बालपन, जवानी, बुढ़ापा -मौत का कोई खास ठुक नहीं कब आ जाए। इस शरीर का कोई भरोसा नहीं।

फिर यह कितनी मूर्खता है कि जिस माया को अनेक यहीं पर छोड़ के चले गए, मनुष्य बार-बार इकट्ठी करने के आहरे लग के जीवन जीवन व्यर्थ गवा लेता है।

सावन के महीने बादल उठते हैं, घटाएं चढ़ती हैं, बिजलियां चमकती हैं। बादलों भरी अंधेरी रात में जब अपना ही हाथ नहीं दिखता; बिजली की चमक कितनी सुंदर लगती है, राह से भटके हुए राही को बहुत सहारा मिलता है।

पर बिजली की ये चमक आँख झपकते ही गुंम हो जाती है। जगत में जीवों का जीवन भी क्षण-भंगुर ही है, बिजली की चमक ही है। जल्दी ही मौत का घुप अंधेरा उस चमक को गुंम कर लेता है।

देखने में कितना सुंदर शरीर मनुष्य को मिला है। पर यह गाफ़ल इसके घड़नहार को बिसार के माया के मोह में फस रहा है। इतना भी नहीं सोचता कि इस सुंदर चमड़ी के अंदर वह कुछ है जिसे देखने को भी जी नहीं करता। मान करता है उस पदार्थ का जो इसके पास अमानत भर ही है।

मौत ने इस शरीर को मिट्टी में मिला देना है, और अमानत यहीं पर रखी रह जाएगी।

किसान खेती बीजता है। उसकी मर्जी है कच्ची काटे चाहे पक्की। दिन चढ़ा है तो रात भी होगी। सदा रात ही नहीं रहनी, दिन भी अवश्य चढ़ेगा। सदा-स्थिर कोई चीज़ नहीं है।

अभागा है वह जो इस दिखतें पसारे में मोह डाले बैठा है। सदा टिकने वाला पदार्थ प्रभु का प्यार ही है।

पानी के घड़े में नमक का ढेला डाल दो, आहिस्ता-आहिस्ता वह सारा ही गल जाएगा। दीवार पर कितनी दौड़ लगा लोगे? दीवार खत्म हो जाएगी। जो कपड़े आज नए पहनते हो, वे आखिर फटने हैं।

जगत में जो कुछ देखते हो, सब हवाई किलों की तरह है। साक संग घर बार सबसे मोह झूठा है। यहाँ सब ही चार दिनों के मेहमान हैं।

बहुत सारी आग जलाएं, तो धूएं के बादल उड़ते दिखते हैं। पर ना उन बादलों में बरखा की बूँदें हैं और ना ही घड़ी पल टिक सकते हैं। हवा का एक झोका उड़ा के ले जाता है।

रंग-बिरंगे सुंदर मणके ले के कोई मनुष्य एक धागे में परो ले, पर धागा हो कच्चा। धागा तुरंत टूट जाएगा, और मणके धरती पर बिखर जाएंगे।

मनुष्य अपने शरीर को पालता-पोसता रहता है, अपने कर्तार को बिसार देता है। पर क्या मान इस शरीर का? इसकी पायां धूएं के बादलों जितनी ही समझो। प्राणों के कच्चे धागे ने ये शारीरिक अंग परोए हुए हैं। धागा टूटते हुए देर नहीं लगती।

कागज़ पर पानी गिर जाए, कागज़ गल जाता है। रेत का घर तैयार करो, साथ ही साथ किर-किर के गिरता जाएगा। सपने में अनेक रंग तमाशे देखते हैं, जागते ही वे अलोप हो जाते हैं।

अनेक आए, अनेक आ रहे हैं, अनेक आएंगे। सब अपनी-अपनी बारी चलते जा रहे हैं। कोई यहाँ सदा नहीं रह सकता। फिर मल्कियतों का कैसा माण?

जीवात्मा और काया का यहाँ थोड़े समय का मेला है। जीव इस काया की खातिर दिन-रात दौड़-भाग करता रहता है। काया की नित्य ये तमन्ना है कि जीवत्मा मुझे छोड़ के ना जाए। पर धुर से हुक्म आता है, मौत जीवात्मा को ले चलती है, और काया त्याग हो के मिट्टी में मिल जाती है।

यह मोह की सारी खेल एक तमाशा ही है।

मक्खन को सेक लगे, तुरंत गल जाता है। जल-कुंभी पानी में ही जीवित रह सकती है। पानी ढलने से अथवा सूखने से जलकुंभी उसी वक्त सूख जाती है।

शरीर की भी इतनी ही पायां है।

गाँवों में पीने वाला भरने के लिए आम तौर पर गाँव से बाहर एक ही कूआँ होता है। गाँव की नव-युवतियां अपना-अपना घड़ा सिर पर और अपनी-अपनी रस्सी कंधे पर रख के इकट्ठे कूएँ पर जाती हैं, और पानी भर लाती हैं। अगर कभी कोई युवती अपनी रस्सी की मजबूती का ख्याल ना रखे, तो रस्सी कमजोर हो के घड़े समेत कूएँ में गिर जाती है। युवती खाली हाथ घर वापस आ जाती है।

लड़की सदा मायके घर नहीं रह सकती। जवान हुई लड़की के माता-पिता वर ढूँढ के ब्याह देते हैं। पर जिस लाडली बेटी ने पेके घर कोई सदाचार ना सीखा हो, उसे ससुराल में कोई आदर-माण नहीं मिलता।

श्वासों की रस्सी ने आखिर टूटना ही है, और शरीर-घड़े ने भी फूटना है। मौत ने कभी किसी का लिहाज़ नहीं किया। वही जीवात्मा-युवती परलोक में आदर हासिल करती है जिसने इस लोक में शुभ-गुण पल्ले बाँधे।

दुनिया का धन-पदार्थ तो कहां रहा, यह शरीर भी, जो पैदा होने के वक्त साथ होता है, मरने पर यहीं रह जाता है। जीव जगत में नंगा ही आता है और नंगा ही चला जाता है। मौत किसी का लिहाज नहीं करती।

मिट्टी के बर्तन को थोड़ी सी ठोकर लग जाए, टूट के ठीकरे हो जाता है। इस शरीर की भी इतनी ही पायां है।

घास-फूस का बनाया हुआ छप्पर, आग की थोड़ी सी चिंगारी लग जाए, देखते-देखते जल के राख हो जाता है।

मनुष्य के शरीर की पायां भी इतनी ही है। इसकी खातिर मनुष्य महल-माढ़ियां उसारता है, आखिर में एक घड़ी भी रहने को नहीं मिलता। सारे साक-संग ये कहते हैं कि इसको अब जल्दी ले चलो।

कुदरत में हरेक चीज़ बदलती रहती है। ऋतएं बदलती हैं, ऋतुओं में हो रहे करिश्मे भी बदलते हैं। कार्तिक के महीने पंजाब में कूँजें आती हैं, सर्दियों के खत्म होने पर वापस चली जाती हैं। चेत्र के महीने जंगलों में आग लग जाती है। सावन में सुंदर घटाएं आती हैं और बिजलियां चमकती हैं। ये सभ करिश्मे अपना समय पूरा होने पर अलोप हो जाते हैं।

मानव-शरीर भी सदा टिका नहीं रह सकता। यहाँ अनेक ही आए और चले गए। फिर ये कब्जे करने वाली मूर्खता क्यों?

जब बेटी जवान हो जाती है, माता-पिता उसके ब्याह का फिक्र करते हैं। कोई वर घर ढूँढ के ब्याह का दिन नीयत किया जाता है। कन्या-दान का दिन मुकरर किया जाता है। बनाए गए साहे से रक्ती भर आगे-पीछे नहीं होने दिया जाता।

जीवात्मा-दुल्हन का मौत-दूल्हा समय सिर आ जाता है। थोड़ा सा भी आगे-पीछे नहीं होने देता।

वह मनुष्य अभागा है जो दुनिया के रंग-तमाशों में मस्त रह के मौत को भुला देता है।

वैसे तो किसान की मर्जी है कि अपनी खेती जब चाहे तब काट ले, कच्ची हो चाहे पक्की। पर पक्की खेती का अंत तो साफ्र नजदीक दिखाई देता है।

जब दाढ़ी सफेद हो गई, तब इसे मौत का बुलावा समझो। इस उम्र में तो वे स्वादिष्ट भोजन भी जहर बन जाते हैं जिनको मनुष्य जवानी में बड़े शौक से खाता है।

मनुष्य सँवार-सँवार के पगड़ी सिर पर बाँधते समय ये भी देखता है कि कहीं पगड़ी मैली तो नहीं हो गई। सारी उम्र मनुष्य शारीरिक बन-ठन में ही गुजार देता है।

किसी विरले भाग्यशाली को ये चेता रहता है कि इस शरीर ने आखिर मिट्टी में मिल जाना है। अब ही वक्त है इसको भली ओर बरतने का।

फकीर दरवेश टाकियाँ सी-सी के पहनने के लिए गोदड़ी तैयार करते हैं। चाहे वह गोदड़ी कई टाकियों को सीने से बनती है, पर धागों की तुरपनें पक्की होती हैं, और काफी समय चल जाती है।

देखो इस शरीर का हाल। इसकी गोदड़ी जितनी भी पायां नहीं है। मौत घड़ी-पल में जीवात्मा को ले के चलती बनती है और आँखों के दीपक सदा के लिए बुझ जाते हैं।

खुली जगह तो जहाँ तक जी करे दौड़ो और छलांगे मार लो, पर घरों के कोठों के ऊपर कहाँ तक दौड़ लोगे? यह तो गिनी-मिथी थोड़ी ही जगह होती है। जिंदगी के गिनती के दिन होते हैं। समय गुजरते समय नहीं लगता, छलांगे मारता गुजर जाता है।

नदियाँ, दरियाओं के किनारे जंगलों के वृक्षों पर अनेक ही पक्षी घोंसले बनाते हैं। पछिंयों की कतारों की कतारें उड़ती फिरती हैं। अनेक ही आए और उड़ानें लगा गए।

जीव पंछी भी इस धरती पर अनेक ही आए, और चले गए। जब कब्र में जा पड़ता है, तो पासा पलटने के काबिल नहीं रह जाता।

कितना अभागा है वह मनुष्य जो अब प्राणों की सत्ता के होते हुए भी प्रभु की याद के लिए उद्यम नहीं करता!

युवतियाँ कूएँ से पानी भरने जाती हें। हरेक के सिर पर अपना-अपना घड़ा, और कंधे पर अपनी-अपनी रस्सी। जिसकी रस्सी पुरानी खद्दी हो जाए, घड़े के भार से वह टूट के घड़े समेत कूएँ में जा पड़ती है।

मनुष्य का शरीर एक घड़ा है। साँसें एक कमजोर सी रस्सी है। रोजाना देखते हैं कोई ना कोई रस्सी टूट जाती है, घड़ा भी ठीकर हो जाता है। मौत का फरिश्ता किसी ना किसी के घर हर रोज आया ही रहता है।

इस शरीर का और दुनिया के धन-पदार्थ का माण झूठा।

दरिया के किनारे पर कोई पौधा उग आए, वह चार दिनों का ही मेहमान होता है। पानी की थोड़ी सी भी चोट लगने पर वृक्ष दरिया में बह जाता है। कच्चे बर्तन में पानी डालने से बर्तन उसी वक्त गल जाता है, और पानी बाहर बह जाता है।

इस शरीर की भी इतनी ही पायां है। मौत की ढाह हर वक्त लगी हुई है। इस कच्चे बर्तन में साँसे सदा के लिए नहीं टिकी रह सकती।

बलवान के आगे हर किसी को झुकना पड़ता है। जंगल का बादशाह शेर गिना जाता है। पंछियों पर बाज़ भारी पड़ता है। बगुले आदि पक्षी नदी के किनारे केल करते हों, बाज़ आ पड़े तो उन्हें सब केलें भूल जाती हैं। बाज़ एक ही झपट से जिस पंछी की चाहे गर्दन मरोड़ देता है।

मनुष्य दुनिया के रंग-तमाशों में व्यस्त होता है। मौत अचानक आ दबोचती है। सारे धक्केशाही से किए हुए काम यहीं धरे रह जाते हैं।

बरखा ऋतु में पानी की इनायत से हर तरफ पौधे लह-लहाते हैं, चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। नहाए-धोए पेड़ कितने सुंदर लगते हैं।

पर जब भरी सर्दियों में ठंड-पाला पड़ता है, ठंडी-बर्फानी हवाएं चलती हैं, तब वे खिले हुए वृक्ष सारे काँप जाते हैं। हवा का एक झोका आता है, पेड़ों के ठरे हुए पत्ते थर-थर करते जमीन पर गिरते जाते हैं। बेचारे पेड़-पौधे बोट जैसे (बोट-पक्षी का नवजात बच्चा) दिखते हैं।

इस जवानी का भी क्या मान? सारे सुंदर दिखते अंगों को बुढ़ापा आ के दिनों में बद्-सूरत बना देता है। आखिर मौत झाड़ू लगा के ले जाती है। कोई नहीं बचा इस मौत रानी से।

केस दूध से सफेद, आँखों में पानी का निकलना, शरीर बहुत दुर्बल, गला कफ से रुकना- इस तरह की बुढ़ापे की निशानियां प्रकट हो जाती हैं। प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि मौत नजदीक आ रही है। फिर भी देखो मनुष्य के दुर्भाग्य! अभी भी विधाता को याद नहीं करता, माया की तृष्णा नहीं मिटती।

भाग्यशाली हैं वो जिनकी लगन प्रभु-चरणों में है।

स्मरण–हीनता

सिरी रागु म: १ –मोती त मंदर ऊसरहि –पन्ना 14

सिरी रागु म: १ –ऐकु सुआनु दुइ सुआनी नालि –पन्ना 24

सोरठि म: १ –जिउ मीना बिनु पाणीअै –पन्ना 597

धनासरी म: १ –जीउ तपतु है बारो बार –पन्ना 661

मारू म: १ –करणी कागदु, मनु मसवाणी –पन्ना 990

सलोक म: १ (वारां ते वधीक) –पबर तूं हरीआवला –पन्ना 1412

सलोक म: २ (वार रामकली) –अंधै कै राहि दसिअै –पन्ना 954

माझ म: ३–हरि आपे मेले सेव कराऐ –पन्ना 126

सलोक म: ३ (वार मलार) –बबीहा न बिललाइ –पन्ना 1282

सलोक म: ३ (मलार की वार) –बाबीहा ऐहु जगतु है –पन्ना 1283

गउड़ी बैरागणि म: ४–नित दिनसु राति लालचु करे –पन्ना 166–67

बिलावलु म: ४ –अनद मूलु धिआइओ पुरखोतमु –पन्ना 800

पउड़ी म: ४ (वार सारंग) –निंमु बिरखु बहु संचीअै –पन्ना 1244

गउड़ी म: ५ –दुलभ देह पाई वडभागी –पन्ना 188

गउड़ी म: ५ –अनिक रसा खाऐ जैसे ढोर –पन्ना 190

गउड़ी म: ५ –कण बिना जैसे थोथर तुखा –पन्ना 192–93

सलोक म: ५ (वार गउड़ी) –खखड़ीआ सुहावीआ –पन्ना 319

सलोक म: ५ (वार गउड़ी) –फिरदी फिरदी दहदिसा –पन्ना 322

सलोक म: ५ (वार गउड़ी) –चढ़ि कै घोड़ड़ै कुंदे पकड़हि –पन्ना 322

सलोक म: ५ (गूजरी की वार) –कड़छीआ फिरंनि् –पन्ना 521

सलोक म: ५ (वार गूजरी) कोटि बिघन तिसु लागते– –पन्ना 522

सलोक म: ५ (बिहागड़े की वार) –हरि नामु न सिमरहि साध संगि–पन्ना553

धनासरी म: ५ –पर हरना, लोभु झूठा निंद –पन्ना 681

टोडी म: ५ –मानुखु बिनु बूझे बिरथा आइआ –पन्ना 712

सूही म: ५ (असटपदी) –उरझि रहिओ बिखिअै कै संगा–पन्ना759

बिलावलु म: ५ छंत–स्री गोपालु न उचरहि –पन्ना 848

गोंड म: ५ –फाकिओ मीन कपिक की निआई –पन्ना 862

सलोक म: ५ (मारू की वार) –नानक बिजुलीआ चमकंनि–पन्ना1101

भैरउ म: ५ –जे सउ लोचि लोचि खावाइआ –पन्ना 1137

आसा म: ९ –बिरथा कहउ कउन सिउ मन की –पन्ना 411

बिलावलु म: ९ –जा महि भजनु राम को नाही –पन्ना 831

गउड़ी कबीर जी –जिउ कपि के कर मुसटि चनन की–पन्ना 336

आसा कबीर जी –सासु की दुखी, ससुर की पिआरी –पन्ना 482

सलोक कबीर जी –कबीर चकई जउ निसि बीछुरै –पन्ना 1371

सलोक कबीर जी –कबीर टालै टोलै दिनु गइआ –पन्ना 1375

सोरठि रविदास जी –चमरटा गांठि न जनई –पन्ना 659

सलोक फरीद जी –कंधि कुहाड़ा, सिरि घड़ा –पन्ना 1380

भाव:

परमात्मा की याद भुला के जीवात्मा विकारों में जल-बल जाती है। योग की रिद्धियां-सिद्धियां, और बादशाही के सुख, परमात्मा से विछोड़े से पैदा हुए उस जलन को शांत नहीं कर सकते। यह तो बल्कि परमात्मा से दूरी बढ़ा के जलन पैदा करते हैं।

परमात्मा गुणों का स्रोत है। ये बात कुदरती है कि उस श्रोत से विछुड़ के मनुष्य के अंदर गुणों की कमी होनी शुरू हो जाती है। लोभ, आसा, तृष्णा, झूठ, पर धन, पर तन, काम, क्रोध, ठगी आदि ये अनेक ही विकार हैं जो गुणों के श्रोत परमात्मा से विछुड़े मनुष्य के मन में अपना जोर डाल लेते हैं। बड़ी ही अनुचित और डरावनी शकल और घाड़त बनी रहती है ऐसे मन की।

पानी में से मछली को बाहर निकाल लो, मछली तड़प के मर जाती है। परमात्मा आत्मिक जीवन का सदाचारी जीवन का श्रोत है। इस श्रोत से बिछुड़ के मनुष्य माया के मोह के फंदे में फस जाता है, आत्मिक मौत सहेड़ लेता है, मनुष्य के अंदर विकार ही विकार अपना जोर डाले रखते हैं।

पर नाम की यह दाति मिलती है गुरु से।

परमात्मा की याद को भुला के मनुष्य की जिंदगी दुखों की एक लंबी कहानी बनी रहती है। मनुष्य हर वक्त यूँ बिलकता रहता है जैसे कोढ़ के रोग वाला व्यक्ति। विछोड़े के विकार, और विकारों से दुख-कष्ट -यह एक कुदरती सिलसिला है। फिर भी अजीब खेल है कि मनुष्य विकारों में ही पड़ के दुखी होता है।

जिस परमात्मा ने यह सोहणा शरीर दिया है उसकी याद भुला के, विकारों में फस के, मनुष्य विकारों के दाग़ ही अपने माथे पर लगा के यहाँ से आखिर चल पड़ता है।

मनुष्य के शरीर की संरचना ऐसे बनी हुई है कि ज्यों-ज्यों मनुष्य अपने विधाता को भुलाता है त्यों-त्यों इसके अंदर से गुण घटते जाते हैं।

मनुष्य के बन रहे आचरण- कागज़ पर मन के संस्कारों की स्याही से अच्छे-बुरे नए लेख साथ-साथ लिखे जाते हैं। इस तरह पिछले किए कर्मों के संस्कारों के प्रभाव में से मनुष्य निकल नहीं सकता। जिंदगी का हरेक दिन और हरेक रात मनुष्य को माया में फसाने के लिए जाल का काम दे रहा है, उम्र की सारी ही घड़ियां मनुष्य को और भी ज्यादा फसाने के लिए फंदा बनती जाती हैं।

लोहार भट्ठी में कोयला जला के लोहे को तपाता है, और फिर अहिरण पर रख कर चोटें मारता है; वैसे ही मनुष्य शरीर की भट्ठी में मन लोहा है, उस पर कामादिक पाँच आगें जल रही हैं, ये तपश को तेज़ करने के लिए उस पर पापों के धधकते कोयले पड़े हुए हैं इस आग में मन जल रहा है, चिन्ता की संनी इसको चोभें दे-दे के हर तरफ से जलाने में मदद दे रही है।

पानी से भरे हुए सरोवर में कमल-फूल की हरियाली देखने वाली होती है। सोने के रंग वाले फूल उसकी छाती पर तैरते हुए अजीब मौज बनाए रखते हैं।

पर, सरोवर का संबंध चश्मे से टूट जाता है, पानी सूख जाता है, कमल-फूल सड़ जाते हैं, सरोवर काला पड़ जाता है। उसकी ओर देखने को भी दिल नहीं करता।

यही हाल होता है उस जीवात्मा का जो जीवन के श्रोत परमात्मा से विछुड़ जाती है।

उन लोगों को अंधे समझो, जो पति-प्रभु को बिसार के जिंदगी के इस सफर में गलत रास्ते पड़े रहते हैं। ऐसे लोग अगर मनुष्य-समाज में कहीं नेता बन जाएं, तो और लोगों को भी गुमराह कर देते हैं।

मनुष्य-शरीर ही एक ऐसी गुफा है जिसके अंदर परमात्मा गुप्त बैठा हुआ है। गुरु से ये सूझ मिलती है। ज्यों-ज्यों प्रभु की याद में जुड़ें, उसका दर्शन होने लग जाता है। प्रभु की याद से टूटा हुआ मन विकारों की तरफ दौड़ता है, और अंदरूनी शुभ-गुणों की राशि-पूंजी छिन जाती है।

बरखा की ऋतु में टोए-छप्पर, नीचली सतह वगैरा पानी से भर जाती हैं, हर तरफ पानी ही पानी दिखता है। पर देखो भाग्य पापीहे के! इतना पानी होते हुए भी वह बरखा की बूँद के लिए तरसता रहता है।

प्रभु सर्व-व्यापक है, हर जगह बसता है, और हरेक जीव उसी में बसता है। फिर भी मनमुख मनुष्य इस भेद से अंजान होने के कारण प्रभु से विछुड़ा हुआ दुखी रहता है।

सारी कायनात का सरदार होते हुए भी मनुष्य प्रभु की याद भुला के पपीहे से भी हल्का पड़ जाता है। पपीहे को बरखा की बूँद की चाहत नहीं भूलती, पर मनुष्य माया के मोह में फस के अपने प्रीतम-प्रभु को बिसार देता है।

धनी और जाबर लोग गरीबों को वगार की तरह पकड़ लेते हैं। सारा-सारा दिन अपने काम में लगाए रखते हैं, और सिर्फ दो रोटियां खिला देते हैं। उनको ये तरस नहीं आता कि आखिर ये गरीब भी बाल-बच्चों वाले हैं, उनका पेट भरने के लिए भी इनको माया आदि की आवश्यक्ता है।

माया-ग्रसित मनुष्य का भी यही हाल होता है। सारा दिन धन कमाने के लिए दौड़-भाग करता है, इसके अपने हिससे दो रोटियां ही होती हैं। जमा की हुई माया यहीं रह जाती हैं, और जीवात्मा शुभ-गुणों से वंचित खाली हाथ ही यहाँ से चल पड़ती है।

तेली के कोल्हू के आगे जोहा हुआ बैल उस कोल्हू के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाता रहता है। उस बैल की सारी उम्र उस कोल्हू के चौगिर्दे ही चक्कर लगाते हुए बीत जाती है। और कोई नई धरती नया रास्ता नई राह उसके भाग्यों में नहीं होती।

माया का लालच एक ऐसा खतरनाक चक्कर है कि इसमें फसा मनुष्य इसमें से निकलने के लायक नहीं रहता। उठते-बैठते सोते-जागते खाते-पीते हर वक्त उसका मन माया के चक्करों में ही फसा रहता है। तृष्णा खत्म नहीं होती।

नीम के पत्ते कड़वे होते हैं। इसके पेड़ को पानी की जगह मीठे शर्बत से सींचो, तो भी इसके पत्ते कड़वे ही रहेंगे। साँप को दूध पिलाए जाओ, डंक मारने से नहीं हटेगा, उसका जहर फिर भी जान लेने वाला ही रहेगा। पत्थर को सालों-साल पानी में रखे रखो, अंदर से सूखा ही रहेगा।

ईश्वर की याद से टूटा हुआ स्वार्थी मनुष्य सदा स्वार्थी ही रहेगा। जब दाँव लगेगा, स्वार्थ का डंक मार ही देगा।

मानव जनम अमोलक है। पर, जो मालिक-प्रभु को याद नहीं करते, उनकी आत्मा मुर्दा हो जाती है।

फसल (मैणे) के खेतों में किसान एक लकड़ी पर काले कपड़े के टुकड़ों को लपेट के एक आदमी का पुतला बना के खड़ा कर देता है, ताकि घसियारों वगैरा को पता लग जाए कि कि ये मैणा रक्षित है। बंदर आदि से फसल को बचा के रखने के लिए भी खेत में मनुष्य की शक्ल का ढांचा खड़ा किया जाता है। उसका काम सिर्फ यही है कि बँदर आदि जानवर डरे रहें, और खेत ना उजाड़ें।

जिस मनुष्य की आत्मा स्वार्थ में मर चुकी हो, वह शरीर को बेशक सुंदर कपड़े पहनाए, पर दरअसल उसकी स्थिति खेत के उस डरावने ढाँचे के समान ही है। शरीर है पर मनुष्यता का अहसास नहीं।

धान में मनुष्य के काम की असल चीज चावल ही हैं। अगर चावल निकाल लिए जाएं, तो पीछे रह गए तोह। ये थोथे तोह मनुष्य का पेट कैसे भरें?

मनुष्य भी वही मनुष्य है जिसके अंदर मानवता के अहसास वाली जीवात्मा हो। अगर जीवात्मा माया के चुँगल में फस गई, तो शरीर को थोथे तोहों के समान ही समझो।

जेठ-हाड़ की धूपों में धतूरे बड़े लह-लहाते हैं। धतूरों की डालियों से लगी हुई खखड़ियां भी बहुत सुंदर लगती हैं। उनकी शक्ल आमों जैसी होती है। कई छोटे बच्चे उनको आम समझ के बड़े शौक से तोड़ के ले आते हैं।

पर डाल से टूटी अंबाखड़ी फट जाती है, उसमें से सैकड़ों हजारों छोटे-छोटे तूंबे हवा में उड़ जाते हैं।

प्यारे प्राण-दाता से विछोड़ा बड़ा दुखदाई! डाल से विछुड़ के बेचारी तूंबा-तूंबा हो गई।

प्राण-दाता प्रभु से विछुड़ के मन सैकड़ों-हजारों शंकाओं का शिकार हो जाता है।

साफ आकाश में चील बहुत ही ऊँचाई पर जा के ठहराव वाले वायु-मण्डल में पंख-पसार के घंटों तैरते रहते हैं। चीलों की इन लंबी उड़ानों वाला दृश्य देखने वाला हुआ करता है। चील की निगाह बहुत तेज होती है। धरती पर जब भी उसे कोई मुर्दा वस्तु दिखाई दे जाए, वह ऊँची उड़ान छोड़ के तुरंत सीधी उस मुर्दे पर आ पड़ती है।

मनुष्य इस धरती का सरदार है। पर इस धरती के स्वार्थी मन को चील वाली सूझ है। मानवता की ऊँची शान को भुला के तुरंत विकारों अथवा लालच के गड्ढे में जा गिरता है।

मुर्गे के पंख तो हैं, पर ये उड़ नहीं सकता। उड़ने में मुर्गा हँसों की बराबरी नहीं कर सकता।

गाँवों में लड़के खुंडी-खिदो की खेल खेलते हैं, जैसे अब शहरों में सकूल-कालेजों में हाकी की खेल है। खुंडी का खिलाड़ी किसी घुड़-सवार फौजी को देख के यह रीस नकल नहीं कर सकता, कि मैं तुरंत ही घोड़े पर सवार हो के बँदूक से निशाना लगा सकता हूँ।

भले मनुष्यों वाले गुण निरी रीस और निरे दिखावे से नहीं मिल जाते।

तांबे की देगों आदि में कई किस्म के मीठे-नमकीन खाने तैयार किए जाते हैं, जिन्हें लोग बहुत स्वाद लगा-लगा के खाते हैं। उन खानों में कड़छियाँ भी फेरी जाती हैं। पर, वे कड़छियाँ क्या जाने उनके स्वाद को?

कठोर-दिल स्वार्थी मनुष्य भलों की संगति में बैठ के भी कोरे का कोरा ही रहता है।

दिन चढ़ते ही कौए अपने घोंसले छोड़ के कहीं आबादी वाले इलाके की ओर उड़ जाते हैं। रोटी के टुकड़े आदि की खातिर घरों के बनेरों पर बैठ कर काँव-काँव करते हैं। पर अगर कोई कौआ किसी सूने घर में जा बैठे, वहाँ काँ-काँ करता रहे, वहाँ से कुछ नहीं मिलेगा और भूखा ही जाना पड़ेगा।

जीवात्मा की असल खुराक है प्रभु की याद। पर जो मनुष्य दुनिया का धन ही जोड़ता रहा, और आत्मिक खुराक से वंचित रहा, उसकी जीवात्मा को इस सूने शरीर से आखिर बगैर कुछ पाए ही जाना पड़ा।

जेठ-हाड़ की जब अंधेरियां आती हैं, मिट्टी-धूल उड़ के आसमान में चड़ती है, धूल से हरेक चीज़ शक्ल से बेशक्ल हो जाती है। अगर कोई मनुष्य कहीं बाहर अंधेरी में काबू आ जाए, उसका चेहरा फिर देखने वाला होता है। आँखें, नाक, मुँह कान सब धूल से भर जाते हैं। मनुष्य भूत सा दिखता है।

सत्संग और प्रभु की याद से वंचित व्यक्ति, बस, भूत ही दिखता है। तंग-दिली, विकार, कुकर्मों के धूल उसके मुँह पर उड़ती प्रतीत होती है। हर तरफ से लोग उसको दिल में धिक्कार ही धिक्कार देते हैं।

चूहे के दाँत बहुत तीखे होते हैं। कोई भी चीज इसके सामने आ जाए, कुतर के नष्ट कर देता है। चीजें कुतरने का इसको स्वाभाविक शौक है। अगर कहीं ये किताबों की अल्मारी में जा घुसे, तो कागज कुतर-कुतर के सब कुछ फनाह कर देता है। वैसे इसमें से उसे खाने को कुछ नहीं मिलता। बस! बुरी आदत।

तृष्णा-फसे मनुष्य को यह चूहे वाली ही आदत है। सारी उम्र वह वही इकट्ठा करता रहता है, जिससे आखिर में साथ ही नहीं रहता। झूठ और निंदा आदि में ही बहुत समय गुजार देता है। इस मूर्ख-पने में अपनी उम्र का कागज़ ही कुतर-कुतर के खत्म कर देता है। उम्र व्यर्थ ही गुजर जाती है।

सिर्फ तोह ओखली में डाल कर मुसले से कूटते जाओ, सारा दिन कूटते रहो, चावल कभी नहीं मिल सकेंगे। मुर्दे को सुंदर-सुंदर कपड़े पहना दो, मुर्दा मुर्दा ही रहेगा। जो मनुष्य नित्य बेगाने की वगार करता रहे, उसके अपने घर दाने खाने के लिए कहाँ से आ जाएंगे?

हरेक प्राणी के सदा ही काम आने वाला असली धन है प्रभु की याद। जो मनुष्य इस धन से वंचित रहा, उसने अपनी उम्र व्यर्थ गवा ली।

मनुष्य का शरीर परमात्मा ने अपने रहने के लिए एक महल बनाया है। परमात्मा इस महल में बस रहा है। पर शरीर में चण्डाल क्रोध की आग भी मौजूद है। माया की खातिर भटकना और विकारों का जोर- ये दो तगड़े किवाड़ उस महल पर जड़े हुए हैं। इस कारण जीव को अपने अंदर बसता प्रभु नहीं दिखता।

जैसे मछली पानी से विछुड़ के तड़पती है, वैसे ही जीव विकारों के वश होया हुआ प्रभु से विछुड़ के माया की तृष्णा में तड़प-तड़प के उम्र गुजारता है।

मनुष्य इस धरती का सरदार है। अन्य सारी जूनियों से उत्तम शरीर मनुष्य को मिला हुआ है।

पर, जिस मनुष्य ने कभी अपनी जीभ को प्रभु की याद में नहीं बरता, उसके शरीर को कामादिक कौए सदा चोंच मार-मार के गंदा कर देते हैं। यह शरीर विकारों के गंद का कीड़ा ही बन जाता है।

हाथी काम-वासना में फस के सारी उम्र के लिए मनुष्य का गुलाम बन जाता है। मछली जीभ चस्के के कारण कुंडी में फस के जान गवा लेती है। बंदर चनों की एक मुठी के लिए कलंदर के काबू आ के दर-दर नाचता फिरता है।

मनुष्य को काम क्रोध लोभ मोह अहंकार आदि अपने पँजे में फसा के इसके आत्मिक जीवन का गला घोट देते हैं।

सावन की घटा चढ़ती है। बादल गरजते हैं बिजली चमकती है, पूर्वा ठंढी हवा बहती है, और बरखा की बूँदें लू-गर्मी की तपश मिटाती हैं।

कितना रस भरा है ये समय, उन सुहागनों के लिए जिनके पति उनके पास हैं!

परदेस गए पति वाली को यह सारी मौज-बहार अभी भी तपस ही देती है।

प्रभु की याद से वंचित जीवात्मा को सुख कैसा?

पत्थर को सालों-साल पानी में पड़ा रहने दो, पत्थर अंदर कोरा ही कोरा रहेगा। दाने-विहीन खलवाड़े में से दाने निकालने की भले ही कितनी भी कोशिश क्यों ना करो, दाने नसीब नहीं होंगे।

रब से टूटे हुए स्वार्थी लोगों से कभी भले की आस नहीं की जा सकती।

परमात्मा की याद से टूट के मनुष्य का हाल इस तरह होता है कि इसका मन दसों-दिशाओं में दौड़ता रहता है, धन-जोड़ने की तृष्णा इसको चिपकी रहती है। सुख हासिल करने के लिए मनुष्य दर-दर की खुशामद करता रहता है, कुत्ते की तरह हरेक के दर पर भटकता फिरता है। लोगों द्वारा किए जा रहे हसीं-मजाक की भी इसको शर्म नहीं आती।

ये बात पक्की तरह से याद रखो कि जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा की याद नहीं, उसने अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा ली, उसके मन पर अनेक विकार कब्जा करते जाते हैं। वह चाहे तीर्थों के स्नान करता फिरे, व्रत भी रखे, पर उसका ये सारा उद्यम व्यर्थ ही जाता है। जैसे पानी में रखे हुए पत्थर को पानी भेद नहीं सकता, वैसे ही नाम-हीन मनुष्य के अन्य सारे उद्यम उसके जीवन में तब्दीली नहीं ला सकते।

बँदगी के बिना जीवन व्यर्थ है। नाम की सुगंधि के बिना जगत-फुलवाड़ी का यह जीव-फूल किस अर्थ का? दुनिया के रसों में फस के दुखी होता है। बँदर के हाथ भूने इुए चनों की मुट्ठी आई, लोभी बँदर ने कटोरी में हाथ फसा देख के भी चनों की मॅुठ ना छोड़ी, और कलंदर के काबू आ गया। यही हाल है स्मरण से टूटे हुए माया-ग्रसित जीव का।

माया-ग्रसित जीवात्मा की यह एक बहुत खतरनाक कहानी हैं मोह में फसा हुआ मनुष्य दुखी रहता है, फिर भी शरीर से प्यार होने के कारण किसी का भी मरने को चिक्त नहीं करता। सब जीवों का पाँचों कामादिकों से हर वक्त सामना हुआ रहता है, सारा जगत इनके साथ जूझते हुए ही उम्र व्यर्थ गवा जाता है।

चकवी चकवा पंछी रात को विछुड़ जाते हैं, एक-दूसरे को नहीं मिल सकते। चकवी सारी रात विछोड़े में कूकती रहती है। कब सूरज चढ़े, और कब उनका मेल हो।

शंख समुंद्रों में से मिलते हैं। हिन्दू सज्जन मन्दिरों में शंख बजाते हैं, नित्य सवेरे।

तृष्णा का मारा मनुष्य परमात्मा की याद भुला बैठता है। उसकी जीवात्मा के लिए तो सदा विछोड़े वाली रात बनी रहती है। जैसे शंख समुंदर से विछुड़ा हुआ मन्दिर में नित्य सवेरे, मानो, आवाजें मारता है, वैसे ही तृष्णालू लोगों की आत्मा सदा माया के लिए ही आहें भरती रहती हैं।

गाँवों-नगरों से बाहर जहाँ कहीं भी मुर्दा फेंका जाए, कुत्ते वहाँ तुरंत आ पहुँचते हैं। पहुँचे हुए कुत्ते उस मुर्दे के मास से सारे के सारे भले ही अपना पेट भर सकते हों, फिर भी कोई कुक्ता ये नहीं सह सकता कि कोई और कुक्ता भी आ के खा ले। एक-दूसरे को भौंकते हैं, लड़ते हैं और एक-दूसरे को काटते हैं।

यही स्वभाव बन जाता है तृष्णा-ग्रसित मनुष्यों का। परमात्मा की रचना में बेअंत पदार्थ होते हुए भी स्वार्थी लोग एक-दूसरे को खाता देख के सह नहीं सकते। ऐसे लोगों का संग भी बुरा। तृष्णा का हलक कूद पड़ता है।

गरीब मनुष्य अपनी पुरानी जूती बार-बार मोची से मरम्मत करवाता रहता है, ता कि जल्दी टूट ना जाए।

माया के प्रभाव में आया मनुष्य गरीब की जूती की तरह हर वक्त अपने शरीर के पालन-पोशण की ओर ही ध्यान रखता है।

लोहार जंगल में लकड़ियाँ काटने जाता है, कंधे पर कोहाड़ा रख के। पानी पीने के लिए घर से भरा घड़ा ले के सिर पर रख लेता है। जंगल में अपनी मन-पसंद का पेड़ काटता है, मानो, जंगल का बादशाह बना हुआ है। पर करतूत आखिर ये है कि इन लकड़ियों के आखिर कोयले बनाए जाता है।

मनुष्य इस धरती का सरदार है। पर, सारी उम्र विकारों के कोयले ही विहाजता रहता है।

विकारी जीवन

पउड़ी म: ५ (वार ४ गउड़ी) –लै फाहे राती तुरहि –पन्ना 314

बिहागड़ा म: ५ छंत–अनकाऐ रातड़िआ, वाट दुहेली राम –पन्ना 546

सारग म: ५ –बिखई दिनु रैनि इव ही गुदारै –पन्ना 1205

भैरउ नामदेव जी –घर की नारि तिआगै अंधा –पन्ना 1164

सलोक फरीद जी –फरीदा वेखु कपाहै जि थीआ –पन्ना 1380

भाव:

तेली तिलों की घाणी कोल्हू में डाल के पीढ़ता है। कोई एक भी तिल का दाना साबत नहीं रह जाता। कोल्हू में सब मलिया-मेट हो जाते हैं, तेल निचुड़ के अलग हो जाता है।

चोरी-यारी आदि विकारों में फसे मनुष्य की आत्मा के सारे शुभ-गुण निचोड़े जाते हैं। खुशी और खेड़े की जगह सहम और फिक्र उसके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं।

गहरे अंधेरे कूएँ में मनुष्य गिर जाए, निकालने वाला भी कोई आस-पास ना हो, गिरने वाले की जान वहाँ बहुत तड़पती है, दम घुटता है, छट-पटाता है, आखिर मौत मार डालती है। तेली का कोल्हू देखो, तिलों की घाणी तेली कोल्हू में डाल देता है। ज्यों-ज्यों कोल्हू की लठ/धुरा/रोलर कोल्हू में फिरती है, तिल निचोड़े जाते हैं, सारा तेल निचुड़ जाता है।

विकारों में फसे मनुष्य की जिंदगी भी सारी ही दुखों की लंबी कहानी होती है। उम्र का बीता हुआ समय फिर हाथ नहीं आता कि भलाई की दिशा में उद्यम कर सके। भला, वृक्ष से झड़े हुए पत्ते दोबार टहनियों के साथ कैसे जुड़ें?

घास-फूस की कुल्ली बना लें रहने के लिए, पर उसके दरवाजे पर आग जला के बैठ जाएं। वह कुली कब तक बची रह सकती है? सफेद कपड़े पहन के सदा कोयले और राख से भरे कोठे में बसेरा रखें। वहाँ कपड़ों पर से कब तक कालिख झाड़ते रहेंगे? मनुष्य पेड़ की जिस टहनी पर बैठा हो, उसी को कोहाड़े से काटता जाए और खुश हो-हो के कुछ खाता भी जाए; टहनी के टूटते ही मुँह भार जमीन पर आ गिरता है, और हाथ-पैर तुड़वा बैठता है।

सदा विकारों में जीवन गुजारने वाला व्यक्ति मनुष्य जीवन की बाजी हार के जाता है।

सिंबल का वृक्ष (ताड़ का पेड़) बहुत ऊँचा और झाटला होता है। फूल बहुत सूहे होते हैं। फलों पर भूल के तोता फल खाने के लिए आ बैठता है। पर खाए क्या? वहाँ निरी रूई ही रूई। तृप्ती नहीं होती। कामी मनुष्य को अपनी से ज्यादा पराई स्त्री सुंदर दिखती है। सदा काम-वासना में जलता रहता है।

कपास वेलने में वेली जाती है फिर पिंजने वाले के हाथ से पिंजी जाती है। तिल कोल्हू में पीढ़े जाते हैं। कमाद वेलणे में पीढ़ा जाता है, फिर उसका रस कड़ाहे में काढ़ा जाता है। कुंना (हांडी) सदा आग पर रखा रहता है।

विकारी व्यक्ति का हाल देखो! वैर-विरोध, चिन्ता-फिक्र में उसकी जान सदा तड़पती रहती है।

स्मरण

(अ) जीवन–मनोरथ

सिरी रागु म: १ –जालि मोहु, घसि मसु करि –पन्ना 16

सिरी रागु म: १ –सुणि मन मित्र पिआरिआ –पन्ना 20

सलोक म: १ (वार माझ) –पहिरा अगनि, हिवै घरु बाधा–पन्ना146

सोरठि म: १ –मनु हाली, किरसाणी करणी –पन्ना 595

सलोक म: २ (सारंग की वार) –जैसा करे कहावै तैसा –पन्ना 1245

रामकली म: ३ अनंदु –ऐ रसना तू अन रसि राचि रही –पन्ना 921

रामकली म: ३अनंदु–ऐ सरीरा मेरिआ हरि तुम महि जोति रखी–पन्ना921

रामकली म: ३ अनंदु–ऐ सरीरा मेरिआ इसु जग महि आइ कै–पन्ना921

रामकली म: ३अनंदु–ऐ नेत्रहु मेरिहो, हरि तुम महि जोति धरी–पन्ना921

रामकली म: ३अनंदु–ऐ स्रवणहु मेरिहो, साचै सुनणै नो पठाऐ–पन्ना922

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –से दाड़ीआं सचीआ –पन्ना 1419

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –मुख सचे सच दाड़ीआ –पन्ना 1419

बिहागड़ा म: ४ छंत–हउ बलिहारी तिन् कउ मेरी जिंदुड़ीऐ –पन्ना 539

माझ म: ५ –रैणि सुहावड़ी, दिनसु सुहेला –पन्ना 107

गउड़ी म: ५ –कई जनम भऐ कीट पतंगा –पन्ना 176

गउड़ी बावनअखरी म: ५ (१३) –आतम रसु जिह जानिआ– पन्ना 252

गउड़ी सुखमनी म: ५–जिसु वखरु कउ लैनि –पन्ना 282

सोरठि म: ५ –गुरि पूरै किरपा धारी –पन्ना 621

सूही म: ५ –रहणु न पावहि सुरि नर देवा –पन्ना 729

सलोक म: ५ (वार रामकली) –पाव सुहावे जां तउ धिरि जुलदे–पन्ना 964

सलोक कबीर जी (वार रामकली) –कबीर कसउटी राम की–पन्ना 948

सारग म: ५ –आइओ सुनन पढ़न कउ वाणी –पन्ना 1219

गौंड कबीर जी –नरू मरै नरु कामि न आवै –पन्ना 870

केदारा कबीर जी –किन ही बनजिआ कांसी तांबा–पन्ना 1123

भैरउ कबीर जी –गुर सेवा ते भगति कमाई –पन्ना 1136

भाव:

मनुष्य के साथ सदा का साथ निभाने वाला परमात्मा का नाम ही है। ये परमात्मा ही मेहर से गुरु के द्वारा मिलता है। सरदारियां और बादशाहियां यही धरी रह जाती हैं, परमात्मा की याद से टूट के इनका मूल्य कौड़ी भी नहीं पड़ता, सारी जिंदगी ही व्यर्थ चली जाती है। सो, जगत का मोह दूर करके प्यार से परमात्मा की महिमा हृदय में बसाए रखनी चाहिए।

एक ही कमाई है जो मनुष्य कमा के अपने साथ ले जा सकता है, वह है परमात्मा की याद। ये याद गुरु की शरण पड़ने से ही मिलती है, अपनी बुद्धि के आसरे चलने से संसार-समुंदर के विकारों में डूबा जाया जाता है।

विद्वान मनुष्य लोगों की नजरों में तो आदर हासिल कर लेता है; पर, अगर इसके अंदर तृष्णा है, अहंकार है, तो चोंच-ज्ञानता परमात्मा के दर पर स्वीकार नहीं होती। मनुष्य कितना ही समझदार हो कितने ही दोस्त-मित्र बना ले, परमात्मा का नाम जपे बिना इसके अंदर दुख-कष्ट बना ही रहता है।

कोई मनुष्य खेती का काम करता है, कोई दुकानदारी करता है, कोई व्यापार करता है, और, कोई नौकरी करता है। सारी उम्र मनुष्य अपने आरंभ किए काम से माया कमाने के आहरे लगा रहता है। पर, माया यहीं की यहीं रह जाती है।

मनुष्य का सदा साथ निभने वाला साथी है परमात्मा का नाम। जो मनुष्य नाम स्मरण करता है, उसके अंदर परमात्मा के लिए और लोगों के वास्ते प्यार पैदा होता है, उसका मन हर वक्त खिला रहता है। जगत से चलने के वक्त भी उसको परमात्मा की हजूरी में आदर मिलता है, परमात्मा उसके ऊपर सदा मेहर की निगाह रखता है।

दुनिया के लोग रिद्धियों-सिद्धियों वाले जोगी-साधुओं की बातें सुन-सुन के हैरान होते हैं, और धन्य-धन्य कहते थकते नहीं। पर, भोले लोग ये नहीं जानते कि ये रिद्धियाँ-सिद्धियाँ मनुष्य के आत्मिक जीवन को अहंकार के खाते में ही गिराती हैं।

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है उसको अपने नाम में जोड़ता है।

उल्लू, गधा, बँदर आदि नाम उन मनुष्यों के लिए बरते जाते हैं, जो बार-बार उल्लू, गधे, बंदर वाली हरकतें करें। मनुष्य होते हुए भी ऐसे लोग मनुष्य श्रेणी से नीचे की जूनियों के स्तर पर समझे जाते हैं।

सुंदर शक्ल वाला मनुष्य वह, जिसके सारे अंग सुंदर। असल मनुष्य वह, जिसके अंग सुंदर भी ओर जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ निपुण भी।

जीभ को रस-कस परखने की ताकत मिली हुई है। पर, जीभ का चस्का बुरा। चस्कों के वश पड़े मनुष्य की तृष्णा कभी खत्म नहीं होती।

जिसके अच्छे भाग्य हों, जिसको गुरु मिल जाए, उसको प्रभु का नाम जपने का रस आए, तो चस्कों की खुआरी से वह बचता है।

जिस कर्तार ने यह जग रचा है उसने मानव-शरीर में भी अपनी ज्योति टिका रखी है। मनुष्य का ये सबसे पहला फर्ज है कि अपने विधाता को सदा चेते रखे, और इस जगत को उसकी रची खेल जाने।

वह मानव-शरीर धन्य है और मनुष्य-शरीर कहलवाने का हकदार है जो अपने कर्तार विधाता को याद रखता है। अगर ये याद भुला दी, तो मनुष्य-जनम की बाज़ी हारी गई समझो।

आँखों को परमात्मा की ओर से देखने की ताकत मिली है। वहीं आँखें मुबारक हैं जो सारे ही संसार को परमात्मा का रूप देखती हैं।

कानों को सुनने की ताकत मिली है। पर, जो ये सुनते हैं, उसका असर मनुष्य के मन और शरीर पर पड़ता रहता है।

वही कान अच्छे समझो जो प्रभु की महिमा मनुष्य के अंदर पहुँचा के इसकी जीवात्मा और ज्ञान-इंद्रिय को सदाचारी जीवन देते हैं।

गुरु के चरणों में लगने वाली दाढ़ियां ही आदर-सत्कार प्राप्त करने की हकदार हैं। वही मनुष्य आदर-योग्य हैं जो गुरु के बताए हुए राह पर चलते हैं।

दाढ़ी की लाज रखनी; पंजाबियों की यह बहुत पुरानी कहावत चली आ रही है। बड़ी उम्र वाले व्यक्ति से ये आस की जाती है कि ये अपने बोल पर पहरा देगा, जो वचन करेगा उस पर कायम रहेगा। दाढ़ी वाले मनुष्य सहज ही ऐतबार बन जाता है। वह दाढ़ी सच्ची दाढ़ी है, वही मनुष्य, मनुष्य कहलवाने के योग्य है, जो गुरु के उपदेश पर चल के प्रभु की याद हृदय में बसाता है और सदा बोल का पूरा है।

सदके उस जीभ से जो प्रभु की याद में जुड़ती है। वे कान भी मुबारक जो प्रभु की महिमा सुनते हें। उस मनुष्य के सारे ही अंग पवित्र हैं जो प्रभु की याद नहीं भुलाता।

जो समय प्रभु की याद में गुजरे, वह सफल जानो।

जीव अपने किए कर्मों के संस्कारों के असर तले अनेक जूनियों में भटकता फिरता है। बड़े चिरों बाद इसको यह मनुष्य शरीर मिलता है। यही मौका है जब यह स्मरण कर के परमात्मा को मिल सकता है, और, जूनियों के चक्करों में सें निकल सकता है।

जगत में उसी मनुष्य का आना सफल है जिसकी जीभ सदा परमात्मा की महिमा करती है। जिस मनुष्य पर सदा परमात्मा की मेहर हुई, वह गुरु की हजूरी में टिक के सदा परमात्मा के नाम में मस्त रहता है, जगत में वही आइआ समझो।

जीव जगत में परमात्मा का नाम-वखर खरीदने आता है। यह नाम साधु-संगत में टिकने से मिलता है। पर, मिलता है मन के बदले। अहंकार के गड्ढों पर नाम-बरखा का क्या असर होगा?

जो मनुष्य ये वणज करता है, उसको इस लोक में शोभा मिलती है, और, परमात्मा की हजूरी में वह सही स्वीकार होता है।

परमात्मा का स्मरण करना ही मनुष्य के लिए गुरु का बताया हुआ सही रास्ता है, नाम-जपना ही धर्म की सीढ़ी है जिसके द्वारा मनुष्य परमात्मा के चरणों में पहुँच सकता है। नाम-जपना ही आत्मिक स्नान है।

जिस मनुष्य पर गुरु मेहर करता है उसको यह दाति मिल जाती है।

जगत में अनेक आए। कोई देवता और ऋषि-मुनि कहलवा गए, कोई धरती पर हकूमत कर गए, कोई व्यापार करके धनाढ हो गए। पर, असल में जीते वे मनुष्य हैं जो भलों की संगति करके परमात्मा को याद करते, और, उसको हरेक प्राणी मात्र में देखते हैं।

पैर सुंदर वह ही हैं जो सत्संग की ओर चलें, सिर सुंदर वह जो अहंकार में अकड़े ना। मुँह खूबसूरत वह जो प्रभु की महिमा करे, और प्राण भाग्यशाली वह जो प्रभु को ही अपना आसरा-परना बनाए।

सोने का खरा-पन परखने के लिए उसको कसवटी पर कस लिया जाता है। कसवटी पर खोटे सोने का पाज उघड़ जाता है। मानवता की परख के लिए भी एक कसवटी है। जितना ही कोई मनुष्य अपने मन के अधीन है, उतना ही वह मानवता से दूर है। जो स्वार्थ से मर के दूसरों के लिए जीता है, वह मनुष्य कहलवाने का हकदार है।

मनुष्य के जीवन का असल उद्देश्य ही यह है कि मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़े। नाम-जपने की इनायत से परमात्मा का प्यार हृदय में टिकता है। यह प्यार यहाँ तक बढ़ता है कि उसकी रची हुई सृष्टि से भी प्यार बन जाता है। स्वार्थ व ज्यादा लालच त्याग के मनुष्य लोगों की सेवा को ही असल लाभ समझने लग जाता है।

मनुष्य शरीर है तो अन्य सारी जूनियों से श्रेष्ठ। पर, श्रेष्ठ तब ही जानो अगर इसमें मनुष्यता वाले लक्षण भी हों। वरना पशू मर जाए तो उस मुर्दे से भी कई काम सँवरते हैं, अगर मनुष्य मरे तो शरीर चिखा में पड़ के जल के राख हो गया।

दुनिया के लोग दुनिया के धंधों में मस्त रहते हैं, पर संत-जन प्रभु-जन का व्यापार करते हैं।

संसार में लाखों जूनियाँ और बेअंत जीव-जंतु हैं। मनुष्य-शरीर सब से श्रेष्ठ है। मनुष्यों में भी उसी को मनुष्य समझो जो अपने विधाता को चेते रखता है, और स्वार्थ त्याग के लोगों की सेवा करता है। बुढ़ापे में सेवा भी नहीं हो सकती। जवानी का समय है, मनुष्य जनम का लाभ कमाने का। जो यह समय स्वार्थ में गुजारते हें, वह इस जगत में से बाज़ी हार के जाते हैं।

परमात्मा का नाम

(अ) बरखा

सलोक म: ३ (गूजरी की वार) –खेति मिआला उचीआ–पन्ना 517

सलोक म: ३ (वार मलार) –गुरि मिलिअै मनु रहसीअै –पन्ना 1278

सलोक म: ३ (मलार की वार) –ऊंनवि ऊंनवि आइआ–पन्ना 1280

सलोक म: ३ (वार मलार) –ऊंनवि ऊंनवि आइआ–पन्ना 1280

सलोक म: ३ (मलार की वार) –कलमलि होई मेदनी–पन्ना 1281

सलोक म: ३ (वार मलार) –भिंनी रैणि चमकिआ –पन्ना 1282

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –बाबीहा प्रिउ प्रिउ करे–पन्ना 1419

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –बबीहा तूं सचु चउ–पन्ना 1419

सलोक म: ४ (वार सारंग) –सावणु आइआ झिमझिमा–पन्ना 1250

माझ म: ५ –अंम्रित वाणी हरि हरि तेरी–पन्ना 103

माझ म: ५ –हुकमी वरसण लागे मेहा–पन्ना 104

माझ म: ५ –भऐ क्रिपाल गोविंद गुसाई –पन्ना 105

माझ म: ५ –मीहु पइआ परमेसरि पाइआ –पन्ना 105

पउड़ी म: ५ (वार गउड़ी) –ओथै अंम्रितु वंडीअै–पन्ना 320

सलोक म: ५ (गउड़ी की वार) –पारब्रहमि फुरमाइआ–पन्ना 321

सलोक म: ५ (वार गउड़ी) –धरणि सुवंनी खड़ रतन जड़ावी–पन्ना322

डखणे म: ५ (मारू की वार) –जे तू वतहि अंङणे–पन्ना 1095

सलोक म: ५ (वार सारंग) –वुठे मेघ सुहावणे–पन्ना 1251

भाव:

काली घटा चढ़ी देख के किसान फावड़ा कंधे पर रख लेता है, खेतों में जा के मेढ़ के किनारे ऊँचे करने लग जाता है, ताकि बरसात का पानी उसके खेतों से बाहर ना बह जाए।

कितना भाग्यशाली है वह मनुष्य जिसका हृदय प्रभु-दीदार के लिए उतावला हो-हो जाता है।

बरखा होने पर धरती पर हरियाली छा जाती है, हर तरफ पानी ही पानी दिखता है। इस तरह धरती सुंदर दिखने लग जाती है।

जिस मनुष्य के हृदय-धरती पर प्रभु के नाम की बरखा होती है, वह हृदय टहक उठता है, जैसे सूरज चढ़ने पर कमल-फूल खिल उठता है।

जब काली घटाएं चढ़ती हैं और बादल धरती के नजदीक हो-हो के गुजरते हैं, तब धरती पर अजब रूप चढ़ा प्रतीत होता है।

कैसी सुंदर हो जाती है वह हृदय-धरती जिस में प्रभु की याद की झड़ी लगती है।

पानी से लदे हुए बादल झुक-झुक के आते हैं, झड़ी लगा के बरसते हैं, और धरती को भाग्य लगा देते हैं।

पर, बादलों के भी क्या वश है? बादल भेजने वाले दातार राज़क प्रभु को कभी ना भुलाओ।

जेठ-आसाढ के महीने की तपती गर्मी से सब जीव-जंतु घबरा उठते हैं, धरती पर कहीं हरियाली नजर नहीं पड़ती, लू से सब कुछ जल-सूख जाता है।

सावन चढ़ता है। काली घटाएं उठती हैं। हर तरफ बरसात होती है। चौफेरे हरियाली ही हरियाली हो जाती है। अनाज की फसल हर तरफ लह-लहाती है।

बेअंत है राज़क प्रभु! क्यों नहीं, हे मन! उसको याद करता?

सावन के महीने काली घटाएं चढ़ती हैं, बादल लिशकते हैं, बरखा की झड़ी लग जाती है। बरखा की इनायत से धरती हरी हो जाती है। किसान खेत बीजते हैं, जीवों के लिए बेअंत अन्न पैदा होता है।

पर कई बार ज्यादा बरसात के कारण फसल बरबाद भी हो जाती है। प्रभु का नाम ही एक ऐसा धन है जो कभी बरबाद नहीं होता।

बरखा ऋतु में बादल आते देख के पपीहा ‘पी पी’ कूकता है। बरखा की बूँद जब उसके मुँह में पड़ती है, तब उसके तन-मन में ठंड पड़ जाती है।

गुरु का आसरा ले के जिस मनुष्य ने नाम-अमृत पीया, उसकी तृष्णा समाप्त हो गई।

सावन के बादल झुक-झुक के आते हैं, तो पपीहा बरखा की बूँद के लिए कूकता है।

जिस भाग्यशाली ने नाम-अमृत की बूँद चखी है, उसकी और सब तृष्णा खत्म हो गई।

सावन चढ़ता है, काली घटाएं आती हैं, झड़ी लगती हैं, जेठ-आसाढ वाली सारी तपश मिट जाती है। धरती पर हरियाली ही हरियाली ही दिखती है, और बेअंत अन्न उपजता है।

जिस हृदय-धरती पर नाम-बरखा होती है, वहाँ से विकारों की सारी तपस मिट जाती है, वहाँ शांति ही शांति, ठंड ही ठंड, प्यार ही प्यार।

सवन के बादल बरसते हैं, धरती की तपस खत्म हो जाती है। जिधर देखो, पानी ही पानी और हरियाली ही हरियाली।

कितनी सौभाग्यवान है वह हृदय-धरती, जहाँ नाम की झड़ी लगती है।

दाते प्रभु की मेहर सदका बरसात होती है, लू चलनी समाप्त हो जाती हैं, ठंड पड़ती है, अन्न की प्रचुरता हो जाती है, घास-चारे से पशुओं की मौज हो जाती है।

जिस हृदय-धरती में नाम की घटा छा जाए, वहाँ ठंडक और प्रफुल्लता क्यों ना हो?

माँ अपने अबोध पुत्र को कितने ध्यान से पालती है! ये सारे जीव-जंतु प्रभु के अपने पैदा किए हुए हें। प्यार का परोया हुआ मेहर कर के बादल भेजता है, हर तरफ बरखा होती है, अन्न-धन उपज के जीवों की संभाल होती है।

जो भाग्यशाली उस राज़क का आसरा-परना लेता है, उसके तन-मन में ठंड ही ठंड हो जाती है।

परमेश्वर वर्षा भेज के धरती के सारे कष्ट मिटाता है, हर तरफ सुख और ठंड का प्रभाव हो जाता है। विधाता अपनी पैदा की सृष्टि की स्वयं ही रक्षा करता है।

प्रभु की शरण पड़ने से मन की सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं।

परमात्मा की कुदरत का सुहज देखो किसी पहाड़ पर जा के। हर तरफ हरियाली और पानी के चश्मे, हरियाली और पानी के झरने! जो भाग्यशाली प्रभु की महिमा की वाणी उचारते हैं, उनके अंदर प्यार के, मानो, श्रोत फूट पड़ते हैं।

विधाता के भेजे हुए बादल आ के बरखा करते हैं, धरती हरी-भरी हो जाती है, बेअंत अन्न-धन पैदा होता है। लू से जली हुई धरती फिर जी उठती है।

जिस हृदय-धरती पर नाम की बरखा होती है, उसमें आत्मिक जीवन रुमक उठता है।

बरखा की इनायत से धरती हरी हो जाती है। रंग-बिरंगे फूल यूँ दिखाई देते हैं जैसे हरी मख़मल पर रतन जड़े हुए हों।

जिस सौभाग्यवान के हृदय में प्रभु-नाम की बरखा हो जाए, उसका तन मन खिल उठता है।

धरती के जिस हिस्से पर बरसात हो जाए, वहाँ हरियाली ही हरियाली हो जाती है। धरती का वह हिस्सा सुहावा हो जाता है। परदेस से पति अपने घर के आँगन में आ जाए, तो स्त्री को सारा घर सुंदर लगने लगता है।

जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभु-पति आ बैठे, उसका तन-मन खिल उठता है।

कर्तार के हुक्म में धरती पर वर्षा होती है, बेअंत अन्न पैदा होता है, संसार में ठंड पड़ जाती है।

जो मनुब्य प्रभु की याद में जुड़ा है, उसका मन-तन प्रफुल्लि्त हो जाता है।

स्मरण

(आ) आत्मिक आनंद

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –गुरमुखि अंतरि सहजु है–पन्ना 1414

सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –नानक तिना बसंतु है –पन्ना 1420

पउड़ी म: ४ (सोरठि की वार) –हरि चोली देह सवारी –पन्ना 646

भैरउ म: ५ –सुखु नाही बहुतै धनि खाटै –पन्ना 1147

सोरठि भीखन जी –अैसा नामु रतनु निरमोलकु –पन्ना 659

भाव:

नरोए पक्षियों की तरफ देखो, कैसे मौज में आ के आकाश में उड़ाने लगाते हैं। पर झपटनेवाला पक्षी सिर झुका ताक लगा के किसी वृक्ष की टाहनी पर ही बैठा रहता है।

माया-ग्रसित मन हर वक्त मायावी झमेलों में डूबा रहता है। पर, जिसको नाम-रस आया, वह दुनिया के चिन्ता-फिक्रों से ऊँचा हो के नाम-रस के हिलोरे लेता है।

सर्दियों की ऋतु में पाला पड़ने से धरती बनस्पति सूख-सड़ जाती है। ज्यों-ज्यों सर्दियां गुजरती जाती हैं, सूरज की गर्मी बढ़ती है, तब बनस्पति में भी जान पड़ने लग जाती है। हर तरफ हरियाली, और हरियाली के साथ-साथ फूलोंका खेड़ा। बसंत ऋतु खुशी ही खुशी, चाव ही चाव, बिखेर देती है।

जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु-नाम की गर्माइश पैदा हो, उसका मन, उसकी सारी ज्ञान-इंद्रिय हिल्लोरे लेती हैं।

कपड़े को पक्के लाल रंग में रंग के, समझदार औरतें रंग-बिरंगा धागा ले के, उस रंगे हुए कपड़े पर सुंदर बेल-बूटियां बनाती हैं। इनको बाग़-फुल्कारी कहते हैं। ब्याह-शादी के मौके पर नव-युवतियां ये बाग़-फुल्कारियां सिर पर लेती हैं। नव-युवती के कुदरती रूप को ये कपड़ा चार चाँद लगा देता है।

भक्ति की इनायत से मनुष्य के शुभ-आचरणक गुण चमक के शरीर को ऐसे चमकाते हैं, जैसे बाग़-फुल्कारी के रंग-बिरंगे पाट/रेशम के बेल-बूटे।

दुनिया में कौन है जिसको सुख की जरूरत और तमन्ना नहीं? धन-पदार्थ, देश, मिलख, महल-माढ़ियां, रंग-तमाशे -मनुष्य की दिन-रात इन्हीं की खातिर दौड़-भाग इसलिए है कि सुख मिले।

पर, सुख कब्जे करने में नहीं है। असली सुख भली सुहबत और परमात्मा की याद में ही है।

किसी कंगाल को कीमती लाल मिल गए, वह उन्हें छुपाने का लाख प्रयत्न करे, पर उसके चेहरे की रौनक ही बता देगीकि इसे कोई अमोलक वस्तु मिल गई है।

गूँगा स्वादिष्ट मिठाई खा ले, स्वाद तो बता नहीं सकता, पर उसके चेहरे से अनुमान लग सकता है।

नाम-रस का स्वाद बयान तो नहीं हो सकता, पर जिसने चखा उसके अंदर ठंड-शाति-सुख बन जाता है।

अच्छी खुराक के बग़ैर शरीर दिन-ब-दिन कमजोर होता जाता है, और आखिर बिल्कुल ही रह जाता है।

आत्मा को भी अच्छी ख़ुराक की आवश्यक्ता है; सेवा भाव, संतोष और भले गुणों की विचार। ज्यों-ज्यों इस खुराक से आत्मा पलरती है, त्यों-त्यों ये प्रभु की याद में जुड़ता है, और इस को हर जगह प्रभु ही बसता दिखता है।

स्मरण से

(इ) आदर सत्कार

तिलंग म: १ –भउ तेरा भांग, खलड़ी मेरा चीतु–पन्ना 712

सूही म: ४ –नीच जाति हरि जपतिआ –पन्ना 733

आसा म: ५ –जिसु नीच कउ कोई न जानै –पन्ना 386

आसा म: ५ –गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि –पन्ना 487

गूजरी म: ५ –पतित पवित्र लीए करि अपुने –पन्ना 498

पउड़ी म: ५ (वार जैतसरी) –बसता तूटी झुंपड़ी –पन्ना 707

मारू कबीर जी –राजन कउन तुमारै आवै –पन्ना 1105

आसा रविदास जी –हरि हरि, हरि हरि, हरि हरि हरे –पन्ना 487

मारू रविदास जी –अैसी लाल तुझ बिनु कउनु करै –पन्ना 1106

केदारा रविदास जी –खटु करम कुल संजुगतु है –पन्ना 1124

मलार रविदास जी–नागर जनां मेरी जाति बखिआत चमारं–पन्ना 1292

भाव:

नीच-ऊच जाति के भेद भाव का रोग हमारे देश में बहुत पुराना चला आ रहा है। नीच जाति का व्यक्ति ऊँची जाति वाले चौके में घुस जाए, तो चौका भ्रष्ट हो गया, उस चौके में पड़ा पानी रोटी आदि सब भ्रष्ट।

पर, केसर, फूल, कस्तूरी, सोना- इन चीजों को कोई नीच जाति का मनुष्य हाथ लगा दे, तो ये नहीं भ्रष्ट होतीं। रेश्मी कपड़ा, घी, बर्तन - इनको भ्रष्ट नहीं लगती।

अगर नीच जाति का भी बंदा परमात्मा के नाम का स्मरण करने लग जाए, तो जगत में वह भक्त गिना जाता है। लोग उसके चरणों में लगते हैं।

बिदर एक दासी का पुत्र था। कृष्ण जी जब हस्तिनापुर गए, कौरवों ने उनके आदर-सत्कार के लिए कई प्रबंध किए, पर, कृष्ण जी उनको छोड़ के गरीब बिदर के घर गए।

रविदास जी जाति के चमार थे, लोगों की नजरों में नीच जाति के। पर, देखो नाम-जपने की इनायत! चारों वर्णों के लोग उनके चरणों में आ लगते थे।

नामदेव जी धोबी थे। नाम-जपने की इनायत से उनका जीवन इतना ऊँचा बना कि जब ऊँची जाति वालों ने उनको मन्दिर में से धक्के मार के निकाला तब परमात्मा ने उन अहंकारियों की तरफ अपनी पीठ कर ली।

नीच जाति के लोगों को हमारे देश में भला कौन आदर देता था? कोई उनको नजदीक नहीं लगाता था। पर, नीच जाति वाले भी जिसने नाम स्मरण किया, उसकी शोभा सारे देश में बिखर गई, दुनिया आ-आ के उसके पैरों पर लग गई। उनकी संगति में टिक के अनेक ने जीवन सँवारा।

लोगों की नजरों में आधी कौड़ी का था बेचारा नामदेव। पर नाम-जपने की इनायत से, मानो, लखपति हो गया।

कबीर ने प्रभु-चरणों के साथ प्रीति बनाई, वह गुणों का खजाना बन गया।

मरे हुए पशू ढोने वालों में से था रविदास। पर जब उसने माया का मोह छोड़ के हरि-नाम जपा, तब उसकी शोभा चार-चुफेरे पसर गई।

सैण लोगों की बुक्तियां निकालने वाला था। स्मरण ने उसका जीवन इतना चमकाया कि वह प्रसिद्ध भक्त हो गया।

यही मेहर हुई धंन्ने पर जब उसने भी इन भगतों की शोभा सुन के नाम जपा, तो उसको परमात्मा प्रत्यक्ष दिख पड़ा। उसके भाग्य जाग उठे।

जो भी मनुष्य नाम जपता है किसी भी जाति का हो लोग उसकी चरण-धूल माँगते हैं। परमात्मा अपने भक्त की सदा इज्जत रखता है। देखो नामदेव, त्रिलोचन, कबीर और रविदास की तरफ। नाम-जपने की इनायत से इन्होंने यहाँ शोभा भी कमाई, और, संसार-समुंदर में से अपनी नईया सही-सलामत ले के पार लांघ गए।

टूटी हुई कुली में बसता हो, कपड़े की लीरें लटकती हों, कोई उसकी बात ना पूछता हो, कोई साक-संबंधी उसके नजदीक ना फटकता हो। पर अगर उसका मन परमात्मा के नाम में भीग जाए, तो दुनिया के शाह-बादशाह भी उसके दर पर आते हैं। उसके चरणों की धूल ले के अनेक का मन विकारों से बच जाता है।

श्री कृष्ण जी के लिए कौरवों द्वारा की गई आव-भक्त की तैयारियां धरी-धराई रह गई। कृष्ण जी गरीब बिदर के घर चले गए। कौरवों ने गिला करना ही था। पर देखो, कृष्ण जी ने क्या उक्तर दिया! कहने लगे, मुझे गरीब बिदर प्यारा लगा है। तुम्हारे घर के दूध से ज्यादा उसके घर का पानी स्वादिष्ट है। तुम्हारी खीर से बिदर का साग अच्छा, क्योंकि उसकी संगति में रह के ईश्वर याद आता है।

प्यार जाति नहीं पूछता।

देखो नाम-जपने की इनायत! कबीर सारे देश में प्रकट हो गया। नाम-जपने की इनायत से नामदेव जी का जीवन इतना ऊँचा हुआ कि उसका गुरु विशेष तौर पर चल कर आया नामदेव जी की गाय का दूध पीने।

जो भी परमात्मा के नाम-रंग में रंगा जाए उसका बेड़ा पार हो जाता है।

जाति-भेदभाव ने इस देश के करोड़ों लोगों को पैरों तले लिताड़ा हुआ था। शहर बनारस में से मरे हुए पशू ढो के बाहर ले जाने वाले थे चमार, और, उनमें पैदा हुआ रविदास। अगर आपने देखा है ऐसा दृश्य, तो देखा होगा कि पास से गुजरने वाला हर कोई नाक पर कपड़ा रख के निकलता है। भला कोई कैसे सहे ऐसे लोगों की छोह!

पर खेल देखो मालिक के! चमार रविदास ने भगवान का पल्ला पकड़ा, भगवान ने उसको नीचों से ऊँचा बना दिया। इसी तरह की ऊँची आत्मिक अवस्था आदर-योग अवस्था बनी- नामदेव की, कबीर की, त्रिलोचन की, सधने की, सैण की।

जो हरि-नाम स्मरण करता है ऊँचे से ऊँचा अहंकारी उसके चरणों में आ गिरते हैं।

नीच वह है जिसकी आत्मा नीची है, और, स्मरण से टूटे हुए की आत्मा नीच होनी ही हुई। देखो बाल्मीकि की हालत! नाम-जपने की इनायत से किसी निम्न अवस्था से किस दर्जे पर पहुँचा! अजामल जैसे और भी अनेक नाम-जपने की सीढ़ी पर चढ़ कर ऊँचे ईश्वरीय मण्डलों में जा पहुँचे।

ललकार के कहा रविदास ने- देखो नगरवासियो! तुम जानते हो कि मैं चमार जाति में पैदा हुआ, पर परमात्मा की मेहर से मेरे हृदय में उसकी महिमा आ बसी। मेरी जाति के लोग तो अभी तक चमड़ा काटने-उतारने का काम करते हैं, बनारस के आस-पास, मरे हुए पशू ढोते रहते हैं। पर, ये परमात्मा की मेहर है, उसके नाम-जपने की महिमा है कि ऊँची कुल के ब्राहमण आ-आ के मुझ चमार को नमस्कारें करते हैं।

गंदा-मंदा गली-नालियों का पानी गंगा में मिल के गंगा-जल बन जाता है। भगवान में लीन हुआ मनुष्य फिर कैसे रह जाएगा नीचे कुल का?

लोग कागज़ को अपवित्र चीज़ मानते हैं। पर जिस कागजो पर परमात्मा की महिमा लिखी जाती है, उनके आगे माथा टेका जाता है।

स्मरण से

(ई) निर्भयता पैदा होती है

भैरउ म: ३ –मेरी पटीआ लिखहु –पन्ना 1133

भैरउ म: ३ –आपे दैत लाइ दिते संत जना कउ –पन्ना 1133

सिरी रागु म: ५ –जा कउ मुसकलु अति बणै –पन्ना 70

गउड़ी म: ५ –मीतु करै सोई हम माना –पन्ना 187

आसा म: ५ –प्रथमे मता जि पत्री चलावउ –पन्ना 371

सारग म: ५ –मोहन सभि जीअ तेरे –पन्ना 1211

भैरउ नामदेव जी –संडा मरका जाइ पुकारे –पन्ना 1165

भाव:

माँ ने बहुत समझाया- पुत्र प्रहलाद! राम का नाम छोड़ दे; और अपनी जिंद बचा ले। प्रहलाद थोड़ा भी नहीं घबराया। उसने हरि-नाम का स्मरण छोड़ने से ना कर दी।

आखिर भक्त की ही जीत हुई।

प्रभु का भक्त प्रहलाद किसी का डराया ना डरा। प्रभु अपने भक्त की इज्जत स्वयं रखता है।

जिस मनुष्य को कोई भारी बिपदा आ पड़े जिससे बचने के लिए कोई मनुष्य उसको सहारा ना दे, वैरी उसकी जान के दुश्मन बने हों, उसके साक-संबन्धी उससे परे दौड़ जाएं, उसका हरेक किस्म का आसरा खत्म हो जाए, हरेक सहारा समाप्त हो जाए, अगर बिपता के मारे मनुष्य के दिल में परमात्मा याद आ जाए तो उसका बाल भी बाँका नहीं होता।

यदि कोई मनुष्य इतना कमजोर हो जाए कि नंग-भूख का दुख उसको हर वक्त सताता रहे, पर अगर परमात्मा उसके हृदय में आ बसे तो उसकी आत्मिक अवस्था बादशाहों जैसी ही बनी रहती है।

जिस मनुष्य को हर वक्त चिन्ता बनी रहे, जिसके शरीर को कोई रोग ग्रसे रखे, पर अगर परमात्मा उसके चिक्त में आ बसे तो उसका मन शांत रहता है।

वैरी से तो हरेक मनुष्य को कुछ ना कुछ खतरा बना ही रहता है, पर अपने मित्र पर हरेक मनुष्य को पूरा-पूरा भरोसा होता है कि वह कभी मेरा बुरा नहीं चितव सकता।

जिसको बार-बार याद करें उससे प्यार बन जाना कुदरती बात है। याद और प्यार की सांझ आदि कदीमों से चली आ रही है। और, यह प्यार होता भी है दो-तरफा।

जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा को याद करता है परमात्मा के साथ उसका प्यार बन जाता है, परमात्मा पर उसको यकीन बन जाता है कि वह मेरा मित्र है और कभी भी कोई काम मेरे बुरे में नहीं करेगा।

फिर जिसका मित्र परमात्मा खुद बन गया, उसको दुनिया में और किसी तरफ से डर-खतरा नहीं रह सकता।

सिख इतिहास बताता है कि सरकारी कर्मचारी सुलहीख़ान गुरु अरजन देव जी पर कोई भारी चोट करने के इरादे से चढ़ आया। जब सिख-संगतों को पता लगा तो कई कमजोर-दिल सिख सतिगुरु जी को सलाहें देने लग पड़े कि सूलही खान के गुस्से को ठंडा करने के लिए पहले ही उसे पत्र लिखा जाए, कोई दो-व्यक्ति भेजे जाएं, कोई और ऐसा ही उपाय सोचा जाए, पर सतिगुरु जी सब को धीरज देते रहे कि एक कर्तार का आसरा लेने से ही बिपता छू नही सकती।

परमात्मा की रज़ा ऐसी हुई कि सूलही खान का वार चल ना सका। दुखदाई सूलही खान वाली बला टलने पर सतिगुरु जी ने इस शब्द के द्वारा ये शिक्षा दी कि हर वक्त परमात्मा को याद करते रहो, और, उसकी का पल्ला पकड़े रखो। नाम-जपने की इनायत से मन सदा चढ़दीकला में टिका रहेगा।

जिसको बार-बार याद करें उससे प्यार बन जाता है। जिसके साथ गहरा प्यार बन जाए, उस जैसा स्वभाव भी हो जाता है। निरभउ प्रभु का सेवक स्वयं भी निर्भय हो जाता है। दुनिया के जाबर हुकमरान उसे डरा नहीं सकते।

प्रहलाद को कई डरावे दिए गए और कहा गया कि अगर जान चाहिए तो राम का नाम छोड़ के हर्णाकश्यप का नाम जप। माँ ने भी बहुत समझाया। पर, प्रहलाद डोला नहीं।

“निरभउ जपै सगल भउ मिटै”।

स्मरण

(उ) विकारों से बचाता है

सलोक म: १ (वार माझ) –जा पका ता कटिआ –पन्ना 142

गउड़ी म: १ –अवरि पंच हम ऐक जना –पन्ना 155

पउड़ी म: ३ (गूजरी की वार) –सभु जगु फिरि मै देखिआ –पन्ना 510

धनासरी म: ४–जो हरि सेवहि संत भक्त –पन्ना 666

पउड़ी म: ४ (वार सारंग) –हरि का नामु निधानु है –पन्ना 1239

माझ म: ५ –सभे सुख भऐ प्रभ तुठे –पन्ना 106

गउड़ी म: ५ –राखु पिता प्रभ मेरे –पन्ना 205–06

गउड़ी सुखमनी म: ५ –जिउ मंदर कउ थामै थंमनु –पन्ना 282

पउड़ी म: ५ (वार म: ४ गउड़ी) –तुसि दिता पूरै सतिगुरु –पन्ना 315

आसा म: ५ –अधम चंडाली भई ब्रहमणी –पन्ना 381

आसा म: ५ –मोह मलन नीद ते छुटकी –पन्ना 383

सलोक म: ५ (वार गूजरी) –खोजी लधमु खोजु –पन्ना 521

सलोक म: ५ (जैतसरी की वार) –ईधणु कीतो मू घणा –पन्ना 706

बिलावलु म: ५ –चरन भऐ संत बोहिथा –पन्ना 810

रामकली म: ५ –गऊ कउ चारे सारदूलु–पन्ना 898

रामकली म: ५ –पंच सिंघ राखे प्रभि मारि –पन्ना 899

सलोक म: ५ (वार रामकली) –ससु विराइणि नानक जीउ –पन्ना 963

आसा कबीर जी–फीलु रबाबी, बलदु पखावज –पन्ना 477

आसा नामदेव जी –मनु मेरो गजु, जिहवा मेरी काती –पन्ना 485

बिलावलु सधना जी –न्रिप कंनिआ के कारनै –पन्ना 457

सलोक फरीद जी –फरीदा मै जानिआ दुखु मुझ कू –पन्ना 1382

सलोक फरीद जी –सरवर पंखी हेकड़ो –पन्ना 1382

माझ म: ३–निरगुणु सरगुणु आपे सोई –पन्ना 128

सलोक म: ३ (सिरीराग की वार) –नानक हरि नामु जिनी आराधिआ–पन्ना90

आसा म: ५ –साचि नामि मेरा मनु लागा –पन्ना 384

धनासरी कबीर जी– जो जनु भाउ भगति कछु जानै–पन्ना 692

सलोक फरीद जी–कलर केरी छपरी –पन्ना 1381

सलोक फरीद जी–फरीदा इहु तनु भउकणा –पन्ना 1382

भाव:

जब गेहूँ आदि का पौधा पक जाता है तो ऊपर-ऊपर से काट लेते हैं, गेहूँ की नाड़ और खेत की वाड़ पीछे रह जाती है। इसको सिट्टों समेत गाह लिया जाता है और बोहल उड़ा के दाने निकाल लिए जाते हैं।

चक्की के दोनों पुड़ जोड़ के इन दानों को पीसने के लिए मनुष्य आ बैठता है। पर, देखो अजीब तमाशा! जो दाने चक्की के दर पर केन्द्र में किल्ली के पास रहते हैं, वे पिसने से बच जाते हैं।

जो मनुष्य परमात्मा के दर पर टिके रहते हैं, उनको जगत के विकार छू नहीं सकते।

परमात्मा मनुष्य को ये सुंदर शरीर देता है, पर जीव उस विधाता को भुला के सदा दुनिया वाले रंग-तमाशों में मस्त रहता है, और, कामादिक पाँचों वैरी इसके अंदर से भले गुणों की राशि-पूंजी लूटते रहते हैं।

वैसे भी जीव अकेला इन पाँच वैरियों का मुकाबला भी नहीं कर सकता। नाम-जपना ही एक-मात्र तरीका है जिसकी सहायता से इनसे मनुष्य बच सकता है।

जेठ-आसाढ के महीने की ऋतु में दोपहर के वक्त तपती लू में जब शरीर गर्मी से बेचैन हो रहा हो, किसी बहते कूएँ के पास बैठ जाओ, किसी सरोवर के पानी में डुबकी लगाओ, शरीर को ठंड पड़ जाएगी। जितना समय उस ठंडे पानी में डुबकी लगाए रखोगे, लू की जलन नजदीक नहीं आएगी।

माया-ग्रसित मन को तृष्णा की आग अंदर ही अंदर जलाती ही रहती है। शरीर के अंदर ही ईश्वरीय याद प्यार का चश्मा है। जो मनुष्य उस झरने में स्नान करता है, उसको वह आग जला नहीं सकती।

पत्थर को बेड़ी नदी से पार लंघा देती है। लोहे आदि के बर्तन के ऊपर लगा हुआ जंग रेग-मार के घिसाने से उतर जाता है। सोने को आग में तपाने से उस में से खोट जल जाती है, और सोना शुद्ध हो जाता है।

जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर सेवा-नाम-जपने की घाल-कमाई करता है, वह विकारों की लहरों में से बच निकलता है और शुद्ध आचरण वाला हो जाता है।

पंछी को परमात्मा ने पंख दिए हुए हैं। पंखों से ये कभी किसी पेड़ कभी किसी पेड़ पर जा बैठता है, और किस्म-किस्म के फलों का स्वाद चखता है।

मनुष्य का मन पंछी के समान है। कभी अपने शरीर के अंदर नहीं टिकता। हर वक्त दुनिया के पदार्थों की वासना इसको भटकाए फिरती है।

जो कोई भाग्यशाली प्रभु की याद में टिकता है उसका मन काबू में रहता है।

दूध-पीता नए-नरोए अंगों वाला छोटा बच्चा कितना सुंदर लगता है! पर अगर उसकी माँ खाने-पीने में कोई कमी-बेसी कर दे तो उसका असर तुरंत उस बच्चे की सेहत पर हो जाता है, और वह बिलकने लग जाता है। समझदार स्त्री बच्चे के हाज़मे के लिए फक्की बना के रखती है, और दूसरे-चौथे दिन उसे थोड़ा सा खिला देती है।

जिस अंजान मन को नाम की फक्की मिलती रहे, उसके सारे रोग दूर होए रहते हैं।

प्रभु की शरण पड़ने से पाँचों कामादिकों को जीत लिया जाता है।

घर की छत तले थम्मी का सहारा होता है, गुरु का शब्द मन को डोलने से बचाने के लिए थम्मी का काम कर देता है। पत्थर को बेड़ी में रख के नदी से पार लंघा लेते हैं। जीव प्रभु-नाम का आसरा ले के संसार-समुंदर के विकारों से बच जाता है। दीपक की रौशनी अंधेरे को दूर करती है। गुरु की कृपा से मनुष्य की अज्ञानता दूर होती है।

चिड़ियां आम तौर पर बसते घरों में ही अपने घोंसले बनाती हैं। अपने बच्चों को वे उतना समय ही घोंसलें में चोगा देती रहती हैं, जब तक उनके पंख उड़ने के काबिल ना हो जाएं। फिर भी कई बार कोई बोट घोंसले में से गिर जाता है। जमीन पर गिरा हुआ बोट बिल्कुल ही निआसरा हो जाता है। चिड़ियां उसे चोगा भी नहीं देतीं। वहीं वह बोट सहक-सहक के मर जाता है।

विधाता प्रभु को बिसारने वाले मनुष्य की आत्मिक मौत भी इसी तरह ही होती है। अनेक विकार उसकी आत्मा को आ दबाते हैं।

गुरु मेहर करके जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम की दाति देता है, उस पर ये अपना जोर नहीं डाल सकते।

चूहे को देख के बिल्ली भाग के उसको जा दबोचती है। बिल्ली की खुराक जो हुई। अपनी ताकत के मान में मस्त हुआ शेर जंगल के और पशुओं को गरज के पड़ता है।

थोड़ी सी ताकत मिल जाए मनुष्य को, अपनों से कमजोरों को घूर-घूर के पड़ता है।

तृष्णा, अहंकार, अकड़ आदि अनेक ही विकार हैं जो ईश्वर से विछुड़े मनुष्य के मन पर अपना कब्जा करे रखते हैं।

जिस मनुष्य को गुरु मेहर करके परमात्मा के नाम-अमृत की दाति देता है, उसके अंदर से ये सारे विकार खत्म हो जाते हैं।

जंगल को आग लगने का दृश्य बहुत भयानक हुआ करता है। ऊँचे-ऊँचे मोटे-मोटे वृक्ष भी पल भर में राख हो जाते हैं। जगत एक जंगल के समान है, जिसमें मनुष्य बड़े-बड़े पेड़ों के समान है। इस जंगल में तृष्णा की आग लगी हुई है, जो सबकी आत्मा को जला के राख करती जाती है। जिनके अंदर परमात्मा के याद की तरावट है, वे तृष्णा-अग्नि की मार से बच जाते हैं। पर, ऐसे होते कोई विरले ही हैं। काजल-भरी इस जगत-कोठरी में से आचरण की सफेद चादर ले के विरले ही गुजरते हैं। और, वही हैं मनुष्य जिस को आदर्शक मनुष्य कहा जा सकता है।

किसान बहुत मेहनत करके खेत तैयार करता है, फिर उसमें दाने बीजता है। खेती उगती है, तो पशू उस हरियाली को देख के खाने आ पड़ते हैं। राही-मुसाफिर भी कई बार पग-डंडियां डाल के उसे पैरों से मिध देते हैं। खेती को बचा के रखने के लिए किसान खेत के चारों तरफ तगड़ी वाड़ कर देता है। खेती की रक्षा करता है। उजाड़ने वाले पशुओं को नजदीक नहीं आने देता।

शरीर-खेती में शुभ-गुणों की फसल को कामादिक पशुओं से बचा के रखने के लिए प्रभु की याद की वाड़ की जरूरत है।

लकड़ियों का मनों-मन ढेर पड़ा हो, आग की एक चिंगारी से ऐसे शोले जलते हैं कि देखते-देखते वह सारा ढेर जल के राख हो जाता है।

मन में परमात्मा के प्यार की चिंगारी भड़काओ, सारे दुख-विकार भस्म हो जाएंगे।

अकेला मुसाफिर राह से भटक के उजाड़ में पड़ जाए, तो उसको चोरों-डाकूओं का खतरा पड़ जाता है। अनेक मुसाफिर इस तरह लूटे जाते हैं, और अनेक जान से भी हाथ धो बैठते हैं।

सांसारिक जीवन अकेले मनुष्य-राही के लिए उजाड़ का ही रास्ता है। कामादिक चोर-डाकू हर वक्त इसके आत्मिक जीवन पर हमला बोलने की ताक में हैं। जिसको गुरु मिल जाए, सत्संग मिल जाए, वह शुभ-गुणों की अपनी राशि-पूंजी बचा के ले जाता है।

स्वार्थ और तृष्णा की आग में जल रहे मनुष्य की आत्मा कमजोर होती जाती है। मनुष्य निर्दयता कठोरता आदि कई अवगुणों के दबाव में रोजाना कार-व्यवहार करता है। देखने को दिखते मनुष्य का स्वभाव पशुओं वाला हो जाता है। सर्व-व्यापक प्रभु की याद की इनायत से मनुष्य की आत्मा, मानो, हरी हो जाती है, जो पहले तंग-दिली के सूखे की मारी हुई थी।

जीवन के सही रास्ते से टूटे हुए मनुष्य के लिए संसार एक ऐसा समुंदर बन जाता है, जिसमें विकारों की बेअंत लहरें पड़ रही हों। ऐसे ठाठां मार रहे समुंदर में से स्वार्थी जीवन की कमजोर बेड़ी को पार लंघाना मनुष्य के लिए बहुत कठिन हो जाता है।

प्रभु-की याद की इनायत से मनुष्य आत्मिक तौर पर इतना बली हो जाता है, कि वह समुंदर इसको एक घड़े में पड़े पानी जितना ही प्रतीत होता है, एक बछड़े के खुर से पड़े निशान जितना ही दिखता है।

ससुराल जा के नव-ब्याहिता युवती का कुछ समय तो सास ससुर जेठ आदि सारे ही आदर करते हैं। पर धीरे-धीरे बोली-ठोली शुरू हो जाती है। थोड़ा सा भी कुछ गिरे खराब होने पर सास-ससुर, जेठ सभी झिड़कते रहते हैं। ब्याही आई युवती को घर का एक ही सहारा हो सकता है, वह है अपने पति का। अगर पति प्यार करता रहे, तो युवती किसी ओर की झिड़कों की परवाह नहीं करती।

जो जीवात्मा-दुल्हन, पति-परमात्मा का प्यार जीत लेती है उसको माया की तृष्णा जला नहीं सकती, जगत को मोह तौखले में नहीं डाल सकता, मौत का सहम डरा नहीं सकता।

मनुष्य जब तक स्वार्थी है, तब तक इसका जीवन पशू समान है। धतूरे की अंबाकड़ियां देखने को सुंदर आम जैसी दिखती हें। मनुष्य भी केवल देखने को बाकी की जूनियों के जीवों से सुंदर दिखाई देता है। पर जब परमात्मा की याद की इनायत से इसका स्वार्थी स्वभाव बदलता है, तो अंबाकड़ी से बदल कर पक्का आम बन जाता है। पशू-विरतियां दूर हो जाती हैं। खुद-गर्जी खत्म हो जाती है। अहंकार लोप हो जाता है। मनुष्य की कायां ही पलट जाती है। इसके स्वभाव में मिठास ही मिठास। इसके अंदर लोगों के प्यार की गर्मी पैदा होती है। अपना जीवन खलकत की सेवा में गुजारता है।

छींबा गज से कपड़ा नापता है। कुर्ता आदि तैयार करने के लिए उसको कैंची से काट के सूई धागे से सी लेता है।

भक्त नामदेव जी जाति के छींबे थे। अपने काम का दृष्टांत देते हुए कहते हैं कि प्रभु-चरणों का प्रेमी अपनी तवज्जो प्रभु की याद में परोता है, और जीभ से प्रभु के गुण गाता है। इस तरह उसकी जमों वाले फंदे कट जाते हैं।

प्यार और याद, याद और प्यार का गहरा संबंध है।

ये संसार एक जंगल के समान है जिसमें गीदड़ आदि अनेक जानवर विचर रहे हैं। शेर इस जंगल का सरदार है। जो कोई शेर का आसरा ले लेता है, उसे गीदड़ आदि से कोई डर-खतरा नहीं रह जाता।

परमात्मा के नाम की ओट लेने से विकार तंग करने से हट जाते हैं।

दरियाओं का पानी साधारण तौर पर तो सीधा ही बहता है, पर जहाँ कहां बहाव के रास्ते में कोई भारी अटक आ जाए, अथवा, अचानक बहुत नीची धरती आ जाए, वहाँ पानी में बहुत लहरें उठने लग जाती हैं। कई जगह घुमंन-घेरीयां भी पड़ती हैं। मल्लाह ऐसी जगहों से अपनी बेड़ी बहुत सचेत हो के निकालते हैं। बेड़ी में बैठे राहियों के रंग भी फीके हो जाते हैं, पर यदि मल्लाह समझदार हों तो कोई खतरा नहीं होता।

सांसारिक जीवन एक समुंदर है, एक बड़ा दरिया है अनेक किस्मों के विकारों के इसमें तूफान झूल रहे हैं, उछाल पड़ रहे हैं। मनुष्य-शरीर की बेड़ी इन उछालों में डोलती है। अनेक ही डूब जाते हैं। पर, जिन्हें समझदार गुरु मिल जाता है, उनकी बेड़ी सही-सलामत पार लांघ जाती है।

झीलों में हर साल अनेक सैलानी पंछी आते हैं। उनका शिकार करने भी अनेक शिकारी पहुँचे रहते हैं। हर रोज अनेक ही पंछी मारे जाते हैं।

जीव इस संसार-सरोवर में एक पंछी के समान है। कामादिक अनेक ही शिकारी इसके आत्मिक जीवन पर हमलावर आ बनते हैं। अकेले जीव-पंछी की इनके मुकाबले में कोई पेश नहीं चलती। बच के वही निकलता है जो परमात्मा की ओट लेता है।

जो मनुष्य प्रभु की याद हृदय में बसाता है वह खुद तो विकारों से बचता ही है, और लोगों को भी बचाने के समर्थ हो जाता है।

जिन्होंने प्रभु का पल्ला पकड़ा, प्रभु की दासी माया उनके पीछे-पीछे फिरती है।

वह मनुष्य संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में से अपनी जीवन-नईया सही-सलामत पार लंघा लेते हैं।

ईश्वर का प्यारा मनुष्य काम-काज तो करता है, पर उसका मन माया के मोह में धँसता नहीं।

घड़े का पानी किसी भरे सरोवर में डोल दो। घड़े का वह पानी दोबारा अलग नहीं किया जा सकता। मिल के एक-जान हो जाते हैं।

जिसको बार-बार याद करें, उसके साथ गहरा प्यार हो जाता है। प्यार की सांझ से स्वभाव मिल जाते हैं, मानो, दो जिंदें मिल के एक जान हो जाते हैं।

परमात्मा की याद से मनुष्य का स्वार्थी स्वभाव दूर हो-हो के मेर-तेर मिटती जाती है, आत्मा इतनी ऊँची होती जाती है कि जीवात्मा और परमात्मा में कोई फर्क नहीं रह जाता।

हँस मान-सरोवर में रह के ही खुश रहते हैं। उनकी खुराक भी है मोती। अगर कहीं मजबूरन से उनको मान-सरोवर से दूर किसी छपड़ी के किनारे बैठना पड़ जाए, कहीं कोधरे के खेत में उतरना पड़ जाए, तो वे छपड़ी में मेंढकियां पकड़ के नहीं खाएंगे, ना ही वे कोधरे के दाने चुगेंगे।

महा-पुरष कभी विकारों में नहीं फसते, चाहे उन्हें सत्संग से दूर ही रहना पड़ जाए।

किसी गली-मुहल्ले का कुक्ता हरेक नए आए व्यक्ति को देख के भौंकता है। रात के वक्त कोई एक कुक्ता भौंक जाए, तो हर तरफ अपनी-अपनी जगह बैठे कुत्ते भौंकने लग जाते हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे हवा में ही भौंक रहे हैं। नित्य भौंकना नित्य भौंकना कुत्ते की आदत बनी होती है।

कौए पिंजर को बड़े शौक से चौंच मारते हैं। गंदी-मंदी चीज उनका मन-भाता खाना है।

कुदरत में हर तरफ परमात्मा ने रंग-रंग के सुंदर पदार्थ बनाए हुए हैं। मनुष्य का मन और ज्ञान-इंद्रिय कुत्ते की तरह हरेक पदार्थ के लिए मानो, भौंकते हैं। पर यह लालसा ज्यों-ज्यों बढ़े, त्यों-त्यों ख्वार करती है। कामादिक विकार कौओं की तरह मनुष्य की सारी शारीरिक सत्ता निचोड़ लेते हैं, और आत्मिक जीवन तबाह कर देते हैं। जिसके हृदय में परमात्मा का नाम आ बसे, वहाँ ये मार नहीं कर सकते।

नाम की दाति

परमात्मा की मेहर से गुरु के द्वारा

पउड़ी म: १ (वार आसा) –नदरि करहि जे आपणी –पन्ना 465

पउड़ी म: ३ (वार मारू) –भाणै हुकमु मनाइओनु –पन्ना 1093

पउड़ी म: ३ (मारू की वार) –आपे करि करि वेखदा –पन्ना 1094

माझ म: ५ (बारहमाह) –हरि जेठि जुड़ंदा लोड़ीअै –पन्ना 134

पउड़ी १ म: ५ (मारू की वार) –तू सचा साहिबु सचु –पन्ना 1094

पउड़ी २ म: ५ (वार मारू) –तू अगम दइआल बेअंतु –पन्ना 1094

पउड़ी ३ म: ५ (मारू की वार) –तू पारब्रहमु परमेसरु –पन्ना 1095

पउड़ी ४ म: ५ (वार मारू) –सुघड़ु सुजाणु सरूप तू –पन्ना 1095

पउड़ी११म: ५ (मारू की वार) –विणु करमा हरि जीउ न पाईअै–पन्ना1098

पउड़ी २१म: ५ (वार मारू) –हरि जी माता हरि जी पिता–पन्ना 1101

पउड़ी २२म: ५ (मारू की वार) –कारणु करतै जो कीआ–पन्ना 1102

पउड़ी १३ म: ५ (वार मारू) –कीमति कहणु न जाईअै –पन्ना 1102

सलोक फरीद जी –फरीदा कालीं जिनी न राविआ–पन्ना 1378

भाव:

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है उसको गुरु मिलता है। कई जूनों में भटकते आ रहे उस मनुष्य को गुरु परमात्मा की महिमा करने के रास्ते पर चलाता है। महिमा सबसे ऊँची रूहानी दाति, महिमा ही मनुष्य जीवनका असल उद्देश्य है। दुनिया के और पदार्थ इसके मुकाबले मेु तुच्छ हैं। सो, गुरु मनुष्य को सबसे ऊँची दाति बख्शता है। पर यह जरूरी है कि मनुष्य अपनी अकल चतुराई छोड़ के गुरु के बताए हुए रास्ते पर चले।

परमात्मा अपनी रज़ा के अनुसार मेहर करके जिस मनुष्य को गुरु मिलाता है, वह मनुष्य उसकी याद में जुड़ता है वह मनुष्य परमात्मा की रजा में चलता है।

परमात्मा, मालिक तो सब जीवों का है; पर उसके स्मरण में वही मनुष्य लगता है जिसको अपनी मेहर से वह गुरु का मिलाप बख्शता है। सारे जीव इस जगत-अखाड़े में उस परमात्मा के नचाए नाच रहे हें।

परमात्मा जीवों के अपने उद्यम से नहीं मिलता; अगर अपने उद्यम से मिल सकता हो, तो जीव उससे विछुड़ के दुखी क्यों हों? परमात्मा के मिलाप का आनंद वही लोग पाते हैं जिनको उसकी मेहर का साथ मिल जाए। जिनको परमात्मा अपनी महिमा की दाति दे के अपना बना लेता है। उनको जगत में शाबाश मिलती है, आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं फटकती। लोग हीरे-मोती लाल आदि कीमती धन इकट्ठा करने की दौड़-भाग करते हैं, पर उस धन के चोरी हो जाने का भी डर रहता है, परमात्मा का नाम हीरे मोती आदिक ऐसा धन है कि वह चुराया नहीं जा सकता।

परमात्मा ने यह जगत खुद ही पैदा किया है; त्रै-गुणी माया भी उसने खुद ही बनाई है, सारे जीव भी परमात्मा के ही पैदा किए हुए हैं। उसकी रज़ा के अनुसार ही जीव माया के मोह में फंसे रहते हैं। यह नियम भी उसने ही बनाया है कि जीव गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के माया के मोह से बचें।

विधाता को भुला के जीव माया के मोह में फस जाते हैं, और, जनम-मरण के चक्करों में पड़ जाते हैं। जिस मनुष्य पर परमातमा मेहर करता है, वह गुरु की शरण पड़ता है। गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के वह मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है। सिर्फ यही रास्ता है माया के मोह में से निकलने का।

माया का वास्ता मनुष्य से हर समय पड़ता है, इसलिए उसके मोह में स्वाभाविक ही पड़ जाता है। पर परमात्मा इन आँखों से नहीं दिखता, उससे प्यार बनना बड़ा मुश्किल हो जाता है। सो, जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको गुरु मिलता है। गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है।

माया रचने वाला भी और जीव पैदा करने वाला परमात्मा आप ही है। उसकी अपनी ही रची ये खेल है कि जीव माया के मोह में फस के जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। जीवों के वश की बात नहीं।

परमात्मा की मेहर के बिना मनुष्य को गुरु का मिलाप हासिल नहीं होता। और, गुरु की संगति के बिना मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर नहीं होता, अहम्ं नहीं मिटता। अहंकार और प्रभु-मिलाप - ये दोनों एक हृदय में नहीं टिक सकते। सो, गुरु की शरण पड़ कर साधु-संगत की इनायत से परमात्मा का स्मरण हो सकता है, और, आत्मिक आनंद मिलता है।

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है उसको गुरु की शरण में रख के नाम की दाति बख्शता है। उसकी मुँह-माँगी मुरादें पूरी करता है। सारे सुख उसके दास बन जाते हैं।

परमात्मा ने जिस मनुष्य को गुरु की शरण बख्शी, उसने हृदय में नाम स्मरण किया। वह परमात्मा की मेहर का पात्र बन गया। दुनिया वाले सारे डर-सहम उसके अंदर से समाप्त हो गए। गुरु-जहाज में बैठ के वह संसार-समुंदर से पार लांघ गया।

जीव के अपने वश की बात नहीं। जिस मनुष्य पर परमात्मा खुद मेहर करता है उसी को अपनी महिमा में जोड़ता है।

पहली उम्र में जो आदतें बन जाएं, उनको हटाना बहुत ही मुश्किल काम हो जाता है।

जो जवानी के वक्त ईश्वर से नहीं जुड़ सकते, बुढ़ापे में उनका मन बड़ी ही मेहनत से ही पलट सकता है।

वैसे कोई मान नहीं कर सकता, इश्क ईश्वरीय दाति है।

(12) अरदास

(अ) नाम की माँग

आसा म: ५ –तुझ बिनु अवरु नाही मै दूजा –पन्ना 378

टोडी म: ५ –सतिगुर आइओ सरणि तुहारी –पन्ना 713

सूही म: ५ –दरसनु देखि गुर तेरा –पन्ना 741

सूही छंत म: ५ –तू ठाकुरो बैरागरो –पन्ना 779

बिलावलु म: ५ –राखहु अपनी सरणि प्रभ –पन्ना 809

रामकली म: ५ –किरपा करहु दीन के दाते –पन्ना 882

बिलावलु कबीर जी –दरमादे ठाढे दरबारि –पन्ना 856

मालगउड़ा नामदेव जी –मेरो बापु माधउ –पन्ना 988

अरदास

जरूरी नोट:

अरदास अर्थात प्रार्थना हमारे हृदय में यह यकीन बैठाती है कि परमात्मा सच-मुच मौजूद है।

अरदास के वक्त मनुष्य की माँग आत्मा संबंधी हो चाहे दुनिया के पदार्थों के लिए, पर तमन्ना यही होती है कि इस जरूरत की खातिर परमात्मा स्वयं हमारी सहायता करे, अपनी वह ताकत बरते जिसकी मनुष्य को अभी समझ नहीं पड़ी, जिसे बरते जाने से लोग कहने लग जाते हैं कि करामात हो गई है। सो, अरदास मनुष्य को दिखते जगत से उठा के उच्च आत्मिक मण्डलों में ले पहुँचती है।

अरदास की इनायत से हमें सदा याद रहता है कि परमात्मा हमारा आसरा–सहारा है और उसके बिना हम अधूरे हैं।

अरदास हमारी श्रद्धा को हिलोरे देती है, और, इस तरह हमें इस राह पर और उद्यमी बनाती है।

अरदास के अभ्यास से आत्मा की और शक्तियां भी हिलोरे में आती हें। ज्यों-ज्यों हम परमात्मा के चरणों में जुड़ेंगे, मायावी पदार्थों के संस्कार हमारी तवज्जो की डोर को तोड़ नहीं सकेगे। आम तौर पर जड़ पदार्थों के साथ हम जड़ ही हो रहे हैं। पर, जो गुरमुख परमात्मा के चरणों में जुड़ने के लिए थोड़ा भी समय निश्चित करते हैं वे जानते हैं कि निरा इतना ही उद्यम मन को माया के प्रभाव से ऊँचा किए जाता है।

अरदास के द्वारा मनुष्य को एक और मजेदार इनायत हासिल हो जाती है। अपनी खातिर की हुई अरदास को सफल होता देख के मनुष्य के अंदर सारी मनुष्य जाति के भले वास्ते एक तरंग उठती है। अपने आप को परमात्मा के चरणों में पेश करने के वक्त मनुष्य दूसरों के भले के लिए अरदास करने से रह नहीं सकता।

संगति से मिल के की हुई अरदास की इनायत से अरदास करने वालों के हृदय आपस में गाँठे जाते हैं। एक-दूसरे को सत्संगी ‘अपना’ समझने लग पड़ते हैं।

भाव:

हे प्रभु! मुझे तेरा ही सहारा है, मुझे तेरी ही सहायता की आस रहती है। मेहर कर, कि बैठते, उठते, सोते, जागते, हरेक सांस के साथ, हरेक ग्रास के साथ, मुझे तू कभी भी ना भूले।

तेरे बिना मेरा कोई और सहारा नहीं, तू सदा मेरे मन में बसता रह। तू ही मेरा सज्जन है, तू ही मेरा साथी है, तू ही मेरा मालिक है।

हे गुरु! मैं तेरी शरण आया हूँ। मेरी चिन्ता दूर कर, मेहर कर, तेरे दर से मुझे परमात्मा का नाम मिल जाए। यही मेरे वास्ते सुख है, यही मेरे वास्ते शोभा है।

हे प्रभु! मैं और आसरों से हार के तेरे दर पर आ पड़ा हूँ, अब मुझे और कोई आसरा सूझता नहीं। हे प्रभु! हम जीवों के कर्मों का लेखा ना करना।

हे प्रभु! मेरी ये विनती सुन। गुरु के द्वारा मुझे अपना सेवक बना के अपना नाम बख्श।

हे मेरे प्रभु! तेरी पूर्ण मेहर हो, और, मुझे गुरु मिल जाए। गुरु का दर्शन करके आत्मिक जीवन मिल जाता है।

हे सब दातें देने वाला प्रभु! मुझे अपनी शरण में रख। मेहर कर, तेरे सुंदर चरण मेरे चिक्त में बसते रहें। बस! मेरी यही आरजू है कि मैं तुझे कभी ना भुलाऊँ।

हे मेरे राम! मेरे जैसी तेरे दर पर अनेक दासियाँ हैं। हे प्रभु! मैं तेरी कद्र नहीं समझ सकी। मैं तेरे गुणों की कद्र नहीं जानती। मेरे ऊपर मेहर कर, मुझे ऐसी समझ बख्श कि आठों पहर मैं तेरा स्मरण करती रहूँ।

हे प्रभु! मेहर करके तू मुझे अपनी ही शरण में रख। मुझे तेरी सेवा-भक्ति करने की विधि-अकल नहीं है।

मेरे नित्य के कर्म ये हैं कि मैं तुझे भुला के तेरी टहल करने वाली तेरी दासी, माया की संगति में टिका रहता हूँ।

हे प्रभु! तू मेहर करके हरेक चीज देता है। मैं अकृतज्ञ हूँ, ना-शुक्रा हूँ। मैं तुझे अपने चिक्त में नहीं बसाता। सदा तेरी दी हुई दातों से ही चिपका रहता हूँ।

हे गरीबों पर बख्शिश करने वाले प्रभु! मेरे पर मेहर कर। मेरा कोई गुण ना विचारना, मेरा कोई अवगुण ना विचारना, मेरे अंदर तो अवगुण ही अवगुण हैं। पानी से धोने पर मिट्टी की मैल कभी नहीं जा सकती।

हे प्रभु! मैं तेरा दास हूँ। मेहर कर, मैं तेरी भक्ति करता हूँ, मैं तेरे गुण गाता रहूँ।

हे प्रभु! मैं तेरे दर पर मँगता बन के खड़ा हूँ। भला तेरे बिना और कोई मेरा हो सकता है।? हे दाते! दरवाजा खोल और मुझे दीदार बख्श।

हे प्रभु! तू जगत के सारे धन-पदार्थ का मालिक है। तू ही दानी है, और सब मुझे कंगाल दिख रहे हैं। मेरा बेड़ा तेरे द्वारा ही पार हो सकता है।

हे सुंदर लंबे केसों वाले प्रभु! तू ही मुझे पैदा करने वाला और मेरा रखवाला है। जो जो भी तेरी शरण आता है, तू उसको बिपता से बचा लेता है।

हाथों के चक्र पकड़ के बैकुंठ से तू ही आया है, और गज की जान तूने ही तेंदूए से बचाई थी।

दुस्षासन की सभा में जब द्रोपदी के वस्त्र उतारे जा रहे थे, उसकी इज्जत भी तूने ही बचाई थी।

गौतम ऋषि की स्त्री अहिल्या को (जो ऋषि के श्राप से सिला बन गई थी) तूने ही मुक्त किया था।

मैं नीच-जाति नामदेव भी, हे प्रभु! तेरी ही शरण आया हूँ।

अरदास

(आ) विकारों से बचने के लिए

गउड़ी म: ५ –भुज बल बीर ब्रहम सुख सागर–पन्ना 203

जैतसरी म: ९ –हरि जू राखि लेहु पति मेरी –पन्ना 703

बसंत नाम देव जी –लोभ लहरि अति नीझर बाजै –पन्ना 1196

गउड़ी रविदास जी –मेरी संगति पोच –पन्ना 345

गउड़ी रविदास जी –कूपु भरिओ जैसे दादिरा –पन्ना 346

जैतसरी रविदास जी –नाथ कछूअ न जानउ –पन्ना 710

बिलावलु सधना जी –न्रिप कंनिआ के कारनै –पन्ना 857

अरदास –विकारों से बचने के लिए

जरूरी नोट:

जो भी अच्छे-बुरे कर्म मनुष्य करता रहता है उनके संस्कार मनुष्य के मन में साथ-साथ इकट्ठे होते जाते हैं। आगे जीवन-राह में भी ये संस्कार ही (ज्यों-ज्यों मौका बनता रहे) मनुष्य को अच्छी–बुरी तरफ प्रेरते हैं। अगर मनुष्य के मन में बुरे संस्कारों का पलड़ा भारी है, तो मनुष्य का भी विकारों की तरफ खासा झुकाव रहेगा।

हरेक ‘धर्म’ मनुष्य को पाप कर्म से वर्जित करता आ रहा है। पर मनुष्य कभी अपने उद्यम से विकारों से हट नहीं सकता, क्योंकि उसके मन में एकत्र हुए विकार–संस्कार उसको विकारों की तरफ ही प्रेरेंगे। कभी कोई मनुष्य दरिया के किनारे अगर कहीं दल–दल में फस जाए, उसमें से निकलने के लिए ज्यों-ज्यों वह हाथ–पैर मारेगा, त्यों-त्यों उसमें और भी ज्यादा धँसता जाएगा।

इसका यह भाव यह नहीं कि निरा उद्यम छोड़ देने से बुराई के पँजे से बचा जा सकता है। नहीं, उद्यम नहीं छोड़ना, उद्यम का रुख बदलाना है। विकारों की ओर से सहज–स्वभाव बचने का ढंग नामदेव जी इस तरह बताते हैं;

नामे प्रीति नाराइणि लागी। सहज सुभाइ भइओ बैरागी।

विकारों का सीधा मुकाबला करने की बजाए विकारों से बचने के लिए सदा परमात्मा के दर पे अरदास करते रहना है।

भाव:

हे बली बाहों वाले सूरमे प्रभु! संसार-समुंदर के विकारों की खाई में गिरते की मेरी उंगली पकड़ ले।

हे प्रभु! मेरे कानों में तेरी महिमा सुनने की समझ नहीं, मेरी आँखें इतनी सुंदर नहीं कि हर जगह तेरा दीदार कर सकें। मैं तेरी साधु-संगत में जाने के लायक नहीं। मैं पिंगला हो चुका हूँ, और, दुखी हो के तेरे दर पर पुकार करता हूं मुझे विकारों की खाई से बचा ले।

हे प्रभु! तेरे संत तेरे सुंदर चरण अपने हृदय में रख के संसार-समुंदर से पार लांघते हैं। मेहर कर, मुझे भी अपने चरणों का प्यार बख्श और मुझे भी पार लंघा ले।

हे प्रभु! मैं बड़ा विकारी हूँ, मूर्ख हूँ, लालची हूँ। पाप करता-करता अब थक गया हूँ। आत्मिक मौत सदा मेरे सिर पर सवार रहती है, कामादिक विकार हर वक्त मेरे ऊपर अपना जोर डाले रखते हैं। मेरा जीवन बड़ा हास्यास्पद हो रहा है। मेहर कर, मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी इज्जत बचा ले।

हे सुंदर लंबे केसों वाले प्रभु! मेरे अंदर लोभ की लहरें बड़े जोर से उठ रही हैं, मैं इन लहरों में डूब रहा हूँ। हे बीठल पिता! मेरी जिंदगी की बेड़ी विकारों के भँवर में फस गई है, मैं इसको अपने प्रयासों से सही-सलामत पार नहीं लंघा सकता। हे पातिशाह! मैं तैरना नहीं जानता, मेरी बाँह पकड़ ले, मुझे गुरु के चरणों में जोड़, और, इस संसार-समुंदर में डूबने से बचा ले।

हे मेरे राम! हे मेरे प्राणों के आसरे! मुझे ना बिसारना, मैं तेरा दास हूँ। दिन-रात मुझे ये सोच रहती है कि मेरा क्या बनेगा। बुरे लोगों के साथ उठना-बैठना है, खोट मेरा नित्य का कर्म है।

हे प्रभु! मेरी यह बिपता काट। मैं तेरे चरण ना छोड़ू। मेहर कर, मैं तेरी शरण पड़ा रहूँ।

जैसे कोई कूआँ मेंढकों से भरा हुआ हो, उन मेंढकों को कोई पता नहीं होता कि इस कूएं के बाहर कोई और देश-परदेस भी है, वैसे ही मेरा मन माया के मोह के कूएं में इतना फसा हुआ है कि इस कूएं में से निकलने के लिए कोई उरला-परला किनारा नहीं सूझता। हे सारे जगत के सरदार प्रभु! मुझे तू स्वयं इस कूएं में से निकाल। मेरी बुद्धि विकारों से मैली हुई पड़ी है, इसलिए मुझे समझ नहीं आती कि तू किस तरह का है? हे प्रभु! मेहर कर, मुझे सदाचारी मति दे ताकि मेरी भटकना खत्म हो जाए।

हे प्रभु! मैं अपना मन माया के हाथ बेच चुका हूँ, मेरी इसके आगे कोई पेश नहीं चलती। तू जगत का पति कहलवाता है, हम विषयी जीव हैं, मेरी सहायता कर।

कामादिक पाँचों ने ही मेरा मन इतना बिगाड़ दिया है कि ये अब हर वक्त मेरी तुझसे दूरियां बना रहे हैं। यह देख के भी विकारों का नतीजा है दुख, मेरा मन मानता नहीं। इन चंदरों ने मेरे मूर्ख मन को बुरी तरह से मार डाला है, पर मन बड़ा बेशर्म है अभी भी विकारों से लिपटा हुआ है; विकारों से वापस नहीं मुड़ता। और कहाँ जाऊ? और क्या करूँ? तेरा ही आसरा है।

हे प्रभु! संसार-समुंदर में विकारों की अनेक लहरें उठ रही हैं। मैं अपनी हिम्मत से अपने कमजोर प्राणों की छोटी सी बेड़ी को इनमें डूबने से बचा नहीं सकता। मनुष्य-जीवन का समय समाप्त होता जा रहा है, और, विकार बार-बार हमले कर रहे हैं। जल्दी आ, मुझे इनके हमलों से बचा ले।

हे प्रभु! यदि मैं पिछले किए बुरे कामों के संस्कारों के अनुसार अब भी बुरे काम ही किए गया, तो तेरी शरण में आने का क्या गुण होगा? शेर की शरण पड़ने का क्या लाभ, अगर फिर भी गीदड़ ही खा जाए?

हे प्रभु अगर मैं विकारों के समुंदर में डूब ही गया, और, बाद में तेरी बेड़ी मिली, तो बता, उस बेड़ी में मैं किसको चढ़ाऊँगा?

हे प्रभु! मेरी कोई पायां नहीं, मेरा कोई और आसरा नहीं। ये मानव-जन्म ही मेरी इज्जत रखने का समय है। मैं तेरा दास हूँ, मेरी इज्जत रख।

13. (अ) सेवक का जीवन

गउड़ी सुखमनी म: ५–जिस कै मनि पारब्रहम का निवासु–पन्ना 274–75

आसा म: ५ –आठ पहर निकटि करि जानै –पन्ना 392

देवगंधारी म: ५ –तेरा जनु राम रसाइणि माता –पन्ना 532

मारू म: ५ –मान मोह अरु लोभ विकारा –पन्ना 1000

मारू म: ५ –ससत्रि तीखणि काटि डारिओ –पन्ना 1017

सारंग म: ५ (सूरदास) –हरि के संग बसे हरि लोक –पन्ना 1253

सेवक का जीवन

भाव:

वही मनुष्य असल में परमात्मा का दास परमात्मा का भक्त कहलवा सकता है जिसके हृदय में हर वक्त परमात्मा की याद टिकी रहती है। उस मनुष्य को हर जगह परमात्मा ही बसता दिखता है। फिर वह किसी कमजोर को देख के मान क्यों करेगा? परमात्मा की मेहर से उस मनुष्य को सही जीवन की विधि आ जाती है। सबके साथ वह प्यार वाला सलूक रखता है, पर उसकी तवज्जो सदा परमात्मा की याद में टिकी रहती है।

बड़ी ऊँची और निर्मल होती है सेवक की जीवन-जुगति। सुख आए, दुख आए सेवक परमात्मा की रजा के आगे खिले-माथे सिर झुकाता है। आठों पहर हर वक्त सेवक परमात्मा को अपने अंग-संग बसता समझता है। कोई उससे वैर करे कोई उसके साथ प्यार करे, सेवक से वह भेदभाव नहीं रखता, सेवक को मित्र में भी और वैरी में भी परमात्मा ही बसता दिखता है। किसी भी ढंग से माया सेवक पर अपना जोर नहीं डाल सकती।

देखो लोगों की जीवन! अनेक ही चस्के हैं जो मनुष्य को दबाए फिरते हैं। पर, जिस मनुष्य को परमात्मा के स्मरण का स्वाद आ जाता है, वह इस स्वाद को छोड़ के दुनिया के स्वादों के पीछे नहीं दौड़ता। जागते-सोते हर वक्त परमात्मा की याद उसकी आत्मिक जिंदगी की खुराक बन जाती है।

दुनिया के लोग तीर्थों के स्नान की खातिर दौड़े-फिरते हैं। पर, भक्त के लिए परमात्मा का नाम-जपना ही है आत्मिक स्नान, संत जनों की संगति ही है उसके वास्ते अढ़सठ तीर्थ जहाँ उसको नाम-जल में स्नान का मौका मिलता है।

मुबारक है जिंदगी नाम-जपने वाले मनुष्य की। वही है असल पुत्र, परमात्मा पिता का।

कोई जवानी के मान में मस्त हुआ है, किसी को लोभ ने हल्काया है। अनेक ही ढंग जो चोरटी माया मनुष्य को ठगने के लिए बरतती रहती है। जो कोई इनके पँजे में निकलने का प्रयत्न करता भी है, तो भी माया उसको रास्ते में ही पटखनी दे देती है।

जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, वह परमात्मा की रजा में चलता है, परमात्मा की याद का पल्ला पकड़े रखता है, ऐसा कस के पकड़ता है कि परमात्मा के साथ उसकी प्रीति आखिरी दम तक निभ जाती है। सुख आए, दुख घटित हो, कहीं भी वह परमात्मा की याद से डोलता नहीं।

तेज़ कुहाड़ा आरी ले के मनुष्य वृक्ष की टहनी काटता है, पेड़ कोई रोस नहीं करता, बल्कि उसके काम सवार देता है। राही मुसाफिर बेड़ी में आ बैठता है, बेड़ी उसके पैरों में रहती है। इस निरादरी की परवाह करने की बजाय बेड़ी उस राही को नदी से पार लंघा देती है। धरती पर कोई चंदन का लेप करे तो क्या, और अगर कोई उस पर मल विसर्जन करे तो क्या? धरती किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करती। कोई प्यार भावना से आए चाहे वैर-भावना से, परमात्मा की बंदगी करने वाला मनुष्य हरेक का भला देखता है।

ये मन बहुत दुखी करता है मनुष्य को। जोक जहाँ भी रख दो लहू ही चूसेगी, गंदा लहू खास शौक से चूसेगी। मन मनुष्य को हमेशा गंदी तरफ प्रेरित करता है।

पर, जिस मनुष्य के मन को परमात्मा अपने हाथ में ले लेता है उसका लोक-परलोक सुघर जाता है। परमात्मा की याद की इनायत से वह मनुष्य विषौ-विकारों की मार से ऊँचा हो जाता है। परमात्मा के सोहाने दर्शन करके उस मनुष्य कोमोहनी माया के रंग-तमाशों की चाह ही नहीं रह जाती।

सेवक की मेहनत-कमाई (कार्य)

(अ) हक की कमाई (नेक कमाई)

सलोक म: १ (माझ की वार) –जे रतु लगै कपड़ै –पन्ना 140

सलोक म: १ (वार माझ) –हकु पराइआ नानका –पन्ना 140

सलोक म: १ (सारंग की वार) –गिआन विहूणा गावै –पन्ना 1254

सलोक म: ५ छंत–दिनु राति कमाइअड़ो –पन्ना 461

सलोक म: ५ छंत–वलवंच करि उदरु –पन्ना 461

सोरठि कबीर जी –बहु परपंच करि –पन्ना 656

भाव:

अगर किसी निमाजी मनुष्य के जामे को लहू लग जाए तो वह जामा पलीत हो जाता है और निमाज़ नहीं हो सकती। पर जो लोग मनुष्यों का लहू पीते हैं, धक्का करके हराम की कमाई खाते हैं उनका मन पाक-साफ नहीं रह सकता। और, पलीत मन से निमाज़ पढ़ी कैसे स्वीकार हो सकती है?

अगर ईश्वर का नाम लेना है तो यह जरूरी है कि दिल भी साफ हो। अगर दिल साफ नहीं तो वह काम दुनिया वाले दिखावे ही हैं।

पराया हक मुसलमान वास्ते सूअर और हिन्दू के लिए गाय है। गुरु पैग़ंबर तब ही सिफारिश कर सकता है यदि मनुष्य पराया हक ना इस्तेमाल करे। अगर मनुष्य रिश्वत खाता है पर बातें धर्म की करता है तो इस तरह वह बहिश्त स्वर्ग नहीं जा सकता।

रिश्वतें ले के पराया हराम का माल जोड़ा हो, और, उसमें से ईश्वर के राह पर भी खैरात कर दे, तो इस तरह हराम का माल हलाल नहीं बन जाता।

आत्मिक जीवन की सूझ ना हो, पर मुँह से भजन आदि गाता रहे, उसके ये गाए भजन किस काम?

मस्जिद आदि धर्म-स्थान को वहाँ का पुजारी निरी अपनी रोजी का साधन बनाए रखे उसकी नमाज़, उसका पूजा-पाठ आत्मिक लाभ नहीं दे सकता।

उस फकीर के पैरों पर ना लगते फिरो जो मखटू हो के कान फड़वा के फकीर बन जाता है, और घर-घर से टुकड़े माँगता फिरता है। वह त्यागी नहीं है।

जिंदगी का सही रास्ता उस मनुष्य को मिलता है जो खुद मेहनत करके हक की कमाई बरतता है, और, उस कमाई में से किसी जरूरतमंद की भी सेवा करता है।

मनुष्य दिन-रात जो भी अच्छा काम करता है वह संस्कार-रूप बन के उसके मन में उकरा जाता है। मनुष्य अपने किए कामों को छुपाने का प्रयत्न करता है, पर परमात्मा मनुष्य के अंदर बैठा सब कुछ देखता है। साधु-संगत में टिक के परमात्मा का भजन करना चाहिए, इसकी इनायत से पिछले किए हुए विकार मिट जाते हैं।

जिस परमात्मा ने प्राण दिए हैं शरीर दिया है वह ही जीव की रोजी का प्रबंध करता है। पर मनुष्य यह बात भुला के रोजी की खातिर नित्य ठगी-फरेब करता है। ये मूर्खों वाला काम है।

राज़क दातार परमात्मा को सदा याद रखना चाहिए, और हक की कमाई करनी चाहिए। पर इस रास्ते मनुष्य तब ही चल सकता है जो नित्य साधु-संगत करता रहे।

कार-व्यवहार में ठगी आदि करनी भारी मूर्खता है। जिस पुत्र-स्त्री आदि संबन्धियों की खातिर मनुष्य ठगी-चोरी करता है, अंत में साथ निभाना तो कहां रहा, बुढ़ापा आते ही वे खुश हो के पानी का घूट भी नहीं देते।

इ–सेवक की सहायता करने वाला

आसा म: ५ –अपुने सेवक की आपे राखै –पन्ना 403

सोरठि म: ५ –हमरी गणत न गणीआ काई –पन्ना 619

धनासरी म: ५ –चतुर दिसा कीनो बलु अपना –पन्ना 681

सूही म: ५ –जिस के सिर ऊपरि तूं सुआमी –पन्ना 749

सारंग नामदेव जी–दास अनिंन मेरो निज रूप –पन्ना 1252

भाव:

♦ लोक-परलोक में परमात्मा अपने भक्त की इज्जत रखता है, सेवक की हरेक आवश्यक्ता पूरी करता है। सेवक को यह यकीन होता है कि परमात्मा सदा मेरे अंग-संग है। भक्त परमात्मा को प्यारा लगता है। जो मनुष्य परमात्मा के सेवक की शोभा सुनता है उसके अंदर भी आत्मिक जीवन चमक उठता है।

♦ परमात्मा सदा दया करने वाला है। उसकी मेहर से ही गुरु सेवक की जिंदगी के रास्ते में से विकारों को रोक देता है। परमात्मा का यह आदि-कदीमी स्वभाव है कि वह अपने सेवक को खास ध्यान से विकारों के हमलों से बचाता है, और, इस तरह उसकी इज्जत बचाता है।

♦ परमात्मा अपने सेवक को अपने गले से लगा के रखता है, सेवक के सिर पर अपना मेहर भरा हाथ रखता है। मेहर की निगाह करके परमात्मा अपने सेवक का हरेक दुख आप दूर करता है। प्रभु के सेवक जो कुछ परमात्मा से मांगते हैं वही कुछ उनको देता है।

♦ दुनिया के लोग माया में फस के बिलकते ही जिंदगी के दिन गुजार जाते हैं। पर, देखो जीवन किसी भक्त का! मोह उसके पास नहीं फटकता, इसलिए आत्मिक मौत भी उसके नजदीक नहीं आती। परमात्मा अपने सेवक को अपने नाम की ऐसी बख्शिश करता है कि यह दाति ये नाम-धन उससे कोई छीन नहीं सकता। सेवक पर उसकी ऐसी मेहर हुई रहती है कि सेवक कामादिक पाँचों वैरियों का जोर अपने ऊपर पड़ने नहीं देता।

♦ स्वै भाव त्याग के सेवक परमात्मा के चरणों को ऐसा कस के पकड़े रखता है कि परमात्मा उस सेवक के प्रेम-वश हो जाता है। वह परमात्मा जो सारे जीवों की जिंदगी का आसरा है भगतों के प्यार-वलवले को अपना आसरा बना लेता है।

ई– सेवक और संसारी मेल नहीं

● पउड़ी म: १ –भगता तै सैसारीआ –पन्ना 145

● गूजरी कबीर जी –मुसि मुसि रोवै कबीर की माई –पन्ना 524

● बिलावल कबीर जी –नित उठि कोरी, गागरि आनै –पन्ना 856

● गौंड कबीर जी –तूटे तागे, निखुटी पानि –पन्ना 871

भाव:

♦ हम जगत में नित्य देखते हें कि भगतों और दुनियादारों का कभी मेल नहीं बनता, पर जगत रचना में परमात्मा की ओर से ये कोई कमी नहीं है। वह गलती करने वाला नहीं है, ना ही किसी के बहकावे से बहकने वाला है। यह उसकी अपनी रज़ा हैकि उसने स्वयं ही भक्त अपने चरणों में जोड़े हुए हैं। दुनियादार भी उसने स्वयं भटकाए हुए हैं वे झूठ बोल बोल के आत्मिक मोत सहेड़ते रहते हैं, उनको ये समझ नहीं आती कि यहाँ से चले भी जाना है; सो, वे काम क्रोध आदि का जहर जगत में बढ़ा रहे हैं। परमात्मा की अपनी रजा में ही भक्त उस परमात्मा की बंदगी कर रहे हैं, हर वक्त नाम स्मरण कर रहे हैं।

♦ भक्त और दुनियादार की जिंदगी का निशाना अलग-अलग होता है। दुनियादार एक तो हर वक्त माया कमाने में लगे रहना चाहता है, दूसरा, कमाई को सिर्फ अपने लिए ही खर्चना ठीक समझता है। भक्त अपनी उम्र गुजारने के लिए कमाता तो है, पर माया जोड़नी ही उसके जीवन का निशाना नहीं होता, उसका असल निशाना है ‘परमात्मा की याद’। फिर उस अपनी कमाई में से दूसरों की सेवा भी करता है। कबीर भक्त का यह रवईया उसकी माँ उस की पत्नी के और संबन्धियों को अच्छा नहीं लगता, इसलिए काम करता-कमाता भी वह इनको वेहला खाली लगता है, परमात्मा के राह पर उसकी ओर की हरेक हरकत उनको चुभती है।

कबीर जी गूजरी राग के शब्द में अपनी माँ के गिले-शिकवों का बयान करते हैं।

♦ कबीर जी की माँ को कबीर जी का भजन-बंदगी वाला जीवन पसंद नहीं था। किसी की जो बात अच्छी ना लगे उसका गिला करते वक्त आम तौर पर बात बढ़ा-चढ़ा के की जाती है। जगत की चाल यही है। सत्संग किसी विरले को अच्छा लगता है। लगने वालों की विरोधता होती ही आई है और होती ही रहेगी।

कबीर जी की ‘माला’ कबीर जी की अपनी जुबानी इस तरह है: ‘कबीर मेरी सिमरनी रसना उपरि रामु’। पर कबीर जी की माँ नित्य पड़ोसनों से यही गिले करती है कि इस औतरे ने जब से ‘माला’ पकड़ी है तब से घर में सुख नहीं रहा।

कबीर जी ना गले में ‘माला’ डाले फिरते थे और ना ही सदा सवेरे पोचा फेरना अपना धर्म माने बैठे थे। पर हाँ, वे उद्यमी थे? और अमृत बेला में उठने वाले थे। आलस के मारे दुनियादार तो दिन चढ़े तक बिस्तरे पर पड़े रहते हैं, पर बंदगी वाला नित्य सवेरे उठने का आदी हुआ करता है। उस वक्त स्नान करना भी स्वभाविक बात है। अब भी गाँवों में जा के देखो। लोग कूएं पर नहाने जाते हैं, वापस आते हुए घर में प्रयोग के लिए घड़ा अथवा गागर भर लाते हैं। जब शहरों में कमेटियों के नलके नहीं थे, और घरों में ही अलग-अलग नलके नहीं लगे हुए थे, तब गलियों–बाजारों के सांझे कूओं से ही लोग खुद पानी भर के लाते थे।

कबीर जी, उद्यमी कबीर जी घर वालों के सोए हुए ही स्नान कर आते ओर पानी का घड़ा भर लाते थे। माँ को कबीर जी का भजन पसंद ना होने के कारण ये सुबह–सुबह पानी ले के आना भी अच्छा नहीं लगता था। और, इसको भी वह बढ़ा–चढ़ा के कहती थी कि कबीर नित्य पोचा फेरता रहता है।

बिलावल राग के शब्द द्वारा कबीर जी अपनी माँ का रवईया और गिले बयान कर के फिर खुद ही अपना नित्य का कर्तव्य बताते हैं।

बंदगी करने वाले और दुनियादार का जिंदगी का निशाना अलग-अलग होने के कारण दोनों का मेल बहुत मुश्किल है। ये बात गलत है कि कबीर जी काम करना छोड़ बैठे थे। आखिर, परिवार के निर्वाह के लिए और कौन कमाई करता था? घर में सत्संगी भी आए रहते थे, परिवार भी था, इन सबके लिए कबीर जी ही मेहनत करते थे। पर कबीर जी की पत्नी को इन सत्संगियों का नित्य आना पसंद नहीं था। इसलिए मानवी–स्वभाव अनुसार गिला बहुत बढ़ा के करती है।

कबीर जी गौंड राग के शब्द में अपनी पत्नी का गिला बयान करते हैं। पत्नी कहती है कि मेरा ये पति सारा कमाया हुआ धन गवाए जाता है, इसके सत्संगियों की आवा–जाही से मेरी जान नाक में आई हुई है, इसको घर के काम–काज का कोई फिक्र नहीं है, कपड़ा बुनने को इसको कोई ख्याल नहीं। घर में बच्चों के खाने के लिए कुछ भी नहीं रहता, पर इसके सत्संगी हर रोज पेट भर के जाते है।

14.अमृत बेला

● जपु म: १ –साचा साहिबु साचु नाइ –पन्ना 2

● सलोकु म: १ (वार माझ) –सबाही सालाह –पन्ना 145

● सलोकु म: २ (माझ की वार) –अठी पहिंरी अठ खंड –पन्ना 146

● सलोक म: ३ (वार मलार) –बाबीहा अंम्रित वेलै बोलिआ –पन्ना 1285

● सलोक म: ४ (गउड़ी की वार) –गुर सतिगुर का जो सिखु अखाए–पन्ना 205–06

● सलोक म: ५ (गउड़ी बावन अखरी) –झालाघे उठि नामु जपि –पन्ना 255

● सलोक म: ५ (वार गउड़ी) –चिड़ी चुहकी पहु फुटी –पन्ना 319

● आसा म: ५ छंत–भिंनी रैनड़ीऐ चामकनि तारे –पन्ना 459

● सलोक फरीद जी –फरीदा पिछल राति न जागिओहि –पन्ना 1383

भाव:

♦ ज्यों-ज्यों मनुष्य का मन माया के मोह में फसता है, परमात्मा से इसकी दूरी बनती जाती है। यह दूरी दान-पुण्य करने से अथवा कोई मायावी भेटा पेश करने से मिट नहीं सकती, क्योंकि ये दातें तो सारी उस परमात्मा की ही दी हुई हैं। उस परमात्मा के साथ बातें उसकी अपनी ही बोली में हो सकती हैं, और वह बोली है ‘प्रेम’। याद और प्रेम का आपस में बहुत गहरा संबंध है, जिसको नित्य याद करते रहें, उसके साथ प्यार बन जाना कुदरती बात है। सो, जो मनुष्य अमृत बेला में उठ के परमात्मा की याद में जुड़ता है, उसको प्रेम-पटोला मिलता है जिसकी इनायत से हर जगह परमात्मा ही दिखने लग जाता है।

♦ दिन चढ़ने पर मनुष्य के मन की वासनाएं बिखर जाती हैं, मन कई दिशाओं में दौड़ना शुरू कर देता है, मनुष्य दुनिया के धंधों के गहरे समुंदर में पड़ जाता है उसमें ऐसा फसता है कि निकल नहीं सकता।

भूख-प्यास तो लगनी हुई, खाने-पीने की व्यस्तता भी कुदरती बात है। फिर सारे दिन के काम-काज में थक के मनुष्य घूक नींद में रात गुजार देता है।

सो, अमृत बेला ही है जब मनुष्य का मन एकाग्र हो के परमात्मा की याद में जुड़ सकता है। पर अमृत वेला का ये अभ्यास ऐसा बनना चाहिए कि आठों पहर का डर-अदब मन में टिका रहे। तवज्जो का परमात्मा की याद में जुड़े रहना ही मनुष्य के लिए आत्मिक स्नान है।

♦ मनुष्य का हाल देखो! आठों पहर उसका मन धरती के पदार्थों में ही लगा रहता है। कोई विरले भाग्यशाली होते हैं जो अंदर बसते परमात्मा की तलाश भी करते हैं। ऐसे मनुष्य अमृत वेला में उठ कर सत्संगियों के साथ सांझ बनाते हैं, सत्संग में नाम-अमृत बाँटा जाता है, परमात्मा की मेहर से वहाँ नाम की दाति मिलती है।

अमृत वेला प्रभु के चरणों में लगा के बाकी के वक्त भी मेहनत-कमाई करते हुए यह ध्यान रखने की आवश्क्ता है कि आचरण ऊँचा रहे। और, आचरण अच्छा बनता है अच्छों की संगति में ही।

♦ झुके हुए बरसने वाले बादल देख के पपीहा सवेरे ही कूकता है।

नाम-अमृत के प्यासे अमृत बेला में उठ के प्रभु की याद में मगन होते हैं, जिसकी इनायत से उनका हृदय खिल उठता है।

♦ सिख का कर्तव्य ये होना चाहिए कि सवेरे अमृत वेला में उठ के स्नान से शारीरिक आलस दूर करके परमात्मा की याद में मन जोड़े, नाम-अमृत के सरोवर में डुबकी लगाए। फिर सतिगुरु की वाणी पढ़े सुने।

दिन के वक्त मेहनत-कमाई करते हुए भी परमात्मा की याद ना भुलाए, इस तरह मेहनत-कमाई हक की होगी, किसी के साथ ठगी-फरेब करने वाला मन प्रेरित ही नहीं होगा।

♦ सारी सृष्टि का सरदार है मनुष्य। पर, देखो इसकी दुर्दशा! परमात्मा से विछुड़ के मनुष्य चिन्ता-फिक्र में ही आत्मिक मौत मरता रहता है, परमात्मा को बिसारने के कारण इसके मन में माया के मोह का ही जोर पड़ा रहता है, कामादिक वैरियों का प्रभाव इस पर हावी होता है।

जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं मेहर करे, उसको सत्संग नसीब होती है जहाँ वह आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी सुनता है। मनुष्य को समझ आ जाती है कि अमृत वेला में उठ के परमात्मा के चरणों में जुड़ने का अभ्यास करने से सारा दिन काम-काज के वक्त भी परमात्मा की याद हृदय में बनी रह सकती है।

♦ भोर के वक्त चिड़ियां आदि पंछी बोलने लग जाते हैं। उस एकांत के समय में चिड़ियों की चड़-पड़ बड़ी सुहावनी लगती है। कुदरती तौर पर इन पंछियों से ही मनुष्य को प्रेरणा मिलती है कि पहु-फुटाले का वक्त सोए रहने का नहीं है।

अमृत वेला में उठ के प्रभु की याद में जुड़ो। वही वक्त है जब रूहानी प्यार की तरंग मनुष्य के दिल में उठ सकती है।

♦ जैसे ओस से भीगी रात में आकाश में तारे झिलमिलाते हैं, वैसे ही परमात्मा के प्रेम में भीगे हुए हृदय वाले मनुष्यों के चिक्त आकाश में सोहाने आत्मिक गुण चमकते हैं। अमृत वेला में उठ के स्मरण का अभ्यास करने वाले संत-जन माया के हमलों की ओर से सचेत रहते हैं।

♦ परमात्मा ही मनुष्य के आत्मिक जीवन का श्रोत है। आत्मिक जीवन के बिना मनुष्य देखने को तो जीता है, पर असल में आत्मिक मौत सहेड़ी रखता है। आत्मिक मौत तब दूर हो जब मनुष्य आत्मिक जीवन के श्रोत परमात्मा में स्वै को लीन करे, और, इस उद्यम के लिए असल वक्त है अमृत बेला। जिस मनुष्य ने अमृत वेला सो के गुजार दी उसने आत्मिक मौत सहेड़ रखी।

मिलाप अवस्था

● सलोकु म: १ (माझ की वार) –अखी बाझहु वेखणा –पन्ना 138

● गउड़ी म: ५–सखी नालि वसा अपुने नाह पिआरे –पन्ना 249

● आसा म: ५–ससू ते पिरि कीनी वाखि –पन्ना370

● आसा म: ५–नसि वंञहु किलविखहु करता घरि आइआ –पन्ना460

● सोरठि म: ५–सुखीए कउ पेखै सभ सुखीआ –पन्ना510

● धनासरी म: ५–लवै न लागन कउ है –पन्ना672

● मारू म: ५–खुलिआ करमु क्रिपा भई ठाकुर–पन्ना 1000

● सारग म: ५–माई री चरनह ओट गही –पन्ना1225

● सोरठि म: ९–जो नरु दुख महि दुखु नही मानै –पन्ना 633

● बसंतु म: ९–माई मै धनु पाइओ हरि नाम –पन्ना1186

● आसा कबीर जी–जउ मै रूप कीए बहुतेरे –पन्ना483

● सोरठि कबीर जी–दुइ दुइ लोचन पेखा –पन्ना655

● सोरठि नामदेव जी–अणमणिआ मंदलु बाजै –पन्ना657

● गउड़ी रविदास जी–बेगमपुरा सहर को नाउ –पन्ना345

भाव:

♦ जिस मनुष्य का पति-प्रभु से मिलाप हो जाता है उसके रोजाना जीवन में एक अजीब सुंदर पलटा आ जाता है। वह मनुष्य पराए रूप को देखने की आदत से अपनी आँखों को हटा लेता है, उसके कान पराई निंदा सुनने से हट जाते हैं, उसके पैर बुरी तरफ नहीं जाते, उसके हाथ पराया नुकसान करने से रुके रहते हैं, उसकी जीभ किसी की निंदा नहीं करती।

♦ साधु-संगत की इनायत से जिस मनुष्य का प्यार परमात्मा से बन जाता है उसका मन हर वक्त परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है, सोते हुए जागते हुए हर वक्त उसकी तवज्जो परमात्मा में टिकी रहती है, उसका मन दुनिया के पदार्थों की ओर नहीं भटकता, उसके अंदर शांति बनी रहती है, उसकी तवज्जो आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है, जैसे सूरज की किरणों से कमल-फूल खिल उठता है वैसे ही परमात्मा की ज्योति के प्रकाश से उसका हृदय खिला रहता है।

♦ गुरु की कृपा से जिस मनुअय को परमात्मा के नाम की दाति मिल जाती है कामादिक विकार उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते। उस मनुष्य को आत्मिक जीवन जीने की समझ आ जाती है। आसा, तृष्णा, अहंकार लोकाचरी रस्में - इनके असर से उस मनुष्य का जीवन बहुत ऊँचा हो जाता है। उसके अंदर आत्मिक अडोलता बनी रहती है, दुनियां में कोई मनुष्य उसको अपना वैरी नहीं लगता।

♦ जिस मनुष्य के हृदय में कर्तार आ बसता है, वहाँ पाप टिके नहीं रह सकते। वहाँ विकार-वैरियों का नाश हो जाता है। उसके मन में शांति बनी रहती है, उसके अंदर सदा चढ़दी-कला बनी रहती है।

♦ आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा जिस मनुष्य की आँखों में पड़ जाता है उसको आत्मिक जीवन की सारी समझ पड़ जाती है। साधु-संगत में टिक के उस मनुष्य का मन विकारों से शांत हो जाता है, उसको हरेक मनुष्य आत्मिक सुख पाता दिखता है। अपने अंदर से मेर-तेर गवा चुके मनुष्य को यह निष्चय हो जाता है कि मालिक-प्रभु ही सब कुछ कर सकनें की सामर्थ्य वाला है जीवों से करवाने की ताकत वाला है।

♦ जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का स्वाद आ जाता है, कोई और चस्का उस पर असर नहीं डाल सकता। देखो हाल मनुष्य का! मायावी पदार्थों के लिए दिन-रात भटकता फिरता है, पर जिस मनुष्य को गुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल दे दिया, दुनिया के और सारे पदार्थ उसको इस दाति के मुकाबले में तुच्छ लगते हैं। जिस मनुष्य को इस नाम-जल की एक ही बूँद मिल जाती है उसका तन-मन सदा खिला रहता है।

♦ जिस मनुष्य पर मालिक प्रभु की मेहर होती है, वह सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है, उसके भाग्य जाग उठते हैं, उसकी दौड़-भाग खत्म हो जाती है उसकी सारी भटकना समाप्त हो जाती है। उसके अंदर से काम क्रोध लोभ मोह आदि सारे विकार दूर हो जाते हैं, उसको परमात्मा हर वक्त अंग-संग दिखता है, उसके अंदर हर वक्त ठंड और आनंद बना रहता है।

♦ साधु-संगत में बैठ के जिस मनुष्य ने परमात्मा के चरणों का आसरा लिया, उसको परमात्मा जल में थल में हर जगह व्यापक दिखने लग जाता है। सब जीवों में परमात्मा का दीदार कर के उसका मन हर वक्त खिला रहता है। खिले भी क्यों ना? उसको फिर कोई बेगाना नहीं दिखता।

♦ गुरु की कृपा से जिस मनुष्य की ज्योति परमात्मा की ज्योति से एक-मेक हो जाती है वह दुखों से घबराता नहीं, वह किसी की चुगली नहीं करता, किसी का बुरा नहीं चितवता, किसी की खुशामद नहीं करता। उसके अंदर ना लोभ ना मोह ना अहंकार, खुशी ग़मी से वह निर्लिप रहता है, जगत से निर्लिप रह के जीवन व्यतीत करता है।

♦ परमात्मा की मेहर से जिस मनुष्य को उसका नाम-खजाना मिल जाता है उसके अंदर से माया की खातिर भटकना दूर हो जाती है। उसको सही जीवन की विधि आ जाती है। माया की ममता लोभ, माया का मोह, माया की तृष्णा -ये उसको छू नहीं सकते। वह सदा आत्मिक आनंद में लीन रहता है।

♦ जिस मनुष्य को परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं, वह माया के हाथ में नाचने से हट जाता है। उसका मन माया के मोह की ढोलकी नहीं बजाता। उसके मन के मोह का धागा मोह की तार मोह के सारे आडंबर समाप्त हो जाते हैं। वह मनुष्य अपने अंदर से काम क्रोध और माया के मोह का प्रभाव जला देता है, उसके अंदर से तृष्णा की मटकी टूट जाती है। सिरे की बात ये कि उसके अंदर से माया की सारी खेल समाप्त हो जाती है।

♦ जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं गुरु के माध्यम से सुमति देता है, उसका तन मन सब परमात्मा में लीन हो जाता है; उसको हर जगह परमात्मा ही बसता दिखता है, वह जिधर देखता है उसको कोई बेगाना नहीं दिखता। उस मनुष्य को यह यकीन बन जाता है कि जब प्रभु-बाजीगर डुग-डुगी बजाता है तो सारे लोग जगत-तमाशा देखने जाते हैं, जब वह बाज़ीगर खेल समेटता है तब अकेला खुद ही खुद अपनी मौज में रहता है।

♦ जैसे कहीं ढोल बजने से छोटी-मोटी और आवाजें सुनाई नहीं देतीं, वैसे ही जिस मनुष्य के अंदर राम-नाम का ढोल बजता है नाम का प्रभाव पड़ता है, वहाँ मायावी विकारों का शोर नहीं सुना जा सकता, वहाँ हर वक्त नाम के बादल गरजते हैं और मनुष्य का मन-मोर नाच उठता है वहाँ नाम की बरखा से हर वक्त शीतलता बनी रहती है।

♦ सतिगुरु की शिक्षा की इनायत से मनुष्य का मन इस तरह स्वच्छ हो जाता है, जैसे पारस से छू के लोहा सोना बन जाता है। जैसे समुंदर के पानी में घड़े का पानी मिल के अपनी अलग हस्ती मिटा लेता है वैसे मनुष्य के अंदर अपना स्वै रह ही नहीं जाता।

♦ जिस मनुष्य की तवज्जो परमात्मा के चरणों में जुड़ी रहती है वह एक ऐसी आत्मिक अवस्था पर पहुँच जाता है जहाँ कोई ग़म छू नहीं सकता। वहाँ कोई चिन्ता नहीं घटित होती वहाँ कोई घबराहट नहीं होती। उस आत्मिक अवस्था में कोई पाप कर्म बुरी तरफ की प्रेरणा नहीं कर सकता। उस आत्मिक अवस्था पर जो-जो पहुँचते हैं उनके अंदर कोई भेद-भाव नहीं रहता और उनको दुनिया की भूख नहीं रहती।

16: प्रीति

(अ) मछली और पानी

● सिरी रागु म: १–रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि –पन्ना 59

● गउड़ी म: १ –हरणी होवा बनि बसा –पन्ना 157

● माझ म: ४ –हरि गुण पढ़ीऐ –पन्ना 95

● सोरठि म: ४ –हरि सिउ प्रीति अंतरु मनु बेधिआ –पन्ना 607

● माझ म: ५ –तूं जलनिधि हम मीन तुमारे –पन्ना 100

● आसा म: ५ –तूं मेरा तरंगु हम मीन तुमारे –पन्ना 389

● आसा म: ५ छंत–जल दुध निआई रीति –पन्ना 454

● आसा म: ५ छंत–हरि चरन कमल मनु बेधिआ –पन्ना 453

● धनासरी म: ५ –बिनु जल प्रान तजे है मीना –पन्ना 670

● पउड़ी म: ५ (वार जैतसरी) –जिउ मछुली बिनु पाणीऐ –पन्ना 708

● बिलावलु म: ५ छंत–सखी आउ सखी–पन्ना 847

● तुखारी म: ५ छंत–घोलि घुमाई लालना –पन्ना 1117

भाव:

♦ कमल फूल पानी की लहरों में धक्के खाता है, फिर भी फूल खिलता ही है, धककों का गुस्सा नहीं करता।

पानी जितना ज्यादा होता है, मछली को उतना ही अधिक सुख-आनंद प्राप्त होता है। पानी के बिना मछली एक घड़ी के लिए भी जी नहीं सकती।

पानी से सरोवर भरे होते हैं, पर अगर पपीहे को बरखा की बूँद ना मिले, तो उसको इस सारे पानी से कोई सरोकार नहीं।

कोई विरले भाग्यशाली होते हैं, जो गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के साथ ऐसी प्रीति बनाते हैं।

मछली पानी के बिना जी नहीं सकती। गहरे पानियों में मछली अपने बाजू पसार के तारियां लगाती है।

♦ हिरनी जंगल में घास-फूस खा के मौज करती है।

कोयल की आम से प्रीति है। आम के पेड़ पर बैठ के कोयल मीठी मस्त सुर में कूकती है।

सर्पनी बीन पर मस्त होती है। बीन के आगे मस्त हो के सर्पनी को वैरी की सुध-बुध भूल जाती है।

कोई विरले भाग्यशाली होते हैं जो परमात्मा के साथ ऐसी प्रीति करते हैं।

♦ जैसे मछली के लिए पानी है, जैसे पपीहे के लिए बरखा की बूँद है, वैसे ही नाम-रसिए के आत्मिक जीवन के लिए प्रभु-चरणों की याद है।

♦ मछली को पानी में से बाहर निकाल दो, तड़फ-तड़फ के मर जाएगी। कितने ही सरोवर तालाब के पानी से भरे हुए हों, पपीहा बरखा की बूँद के लिए ही आस लगाए रहेगा। सरोवरों के पानी उसके किसी काम के नहीं।

नाम के रसिए के प्राण प्रभु की याद के बिना तड़फ उठते हैं। दुनिया के रंग-तमाशे उसको आसरा नहीं दे सकते।

♦ खुले गहरे पानियों में मछली मौज से तैरती है। पपीहा बरखा की बूँद से तृप्त होता है।

प्रभु-चरणों के प्यारे को प्रभु की याद हिलोरे में लाती है।

♦ मछली पानी को प्राणों का आसरा बना के पानी की लहरों में मौज से तैरती है। कमल का फूल सूरज का दीदार करके खिलता है।

प्रभु-चरणों के रसिए हर जगह प्रभु का दीदार कर के हुलारे में आते हैं।

♦ मछली पानी की आशिक है। पानी दूध से प्रीति कर के आग के ऊपर रखे दूध को सेक नहीं लगने देता और खुद तपस सहता है। भौरा कमल के फूल पर मस्त होता है। पपीहा बरखा की बूँद का प्यासा है। चकवी का सूरज से प्यार है। कोयल आम से प्रीति कर के मीठे बिरहों के बोल बोलती है। हिरन नाद पर प्राण न्यौछावर कर देता है।

भाग्यशाली नाम-रसिया प्रभु-प्रीति पर से स्वै कुर्बान करता है।

♦ मछली पानी का विछोड़ा नहीं सहती। पपीहा बरखा-बूँद के लिए बिलकता है।

नाम-रसिए को प्रभु की प्रीति के बिना और कुछ नहीं भाता।

♦ मछली ने पानी की प्रीति लगाई, पानी से विछुड़ने पर उसके प्राण चले गए। भौरे ने कमल-फूल से प्यार किया, वह फूल में ही खुद को गवा गया।

हाथी काम-वासना से प्यार के कारण सदा के लिए कैदी बना। हिरन ने नाद से प्यार किया और अपनी जान गवाई। मनुष्य ने कुटंब से मोह किया, और वह माया के जाल में जकड़ा गया।

जिस भाग्यशाली ने प्रभु-चरणों में प्रीति बनाई, उसको आत्मिक जीवन की दाति मिली। प्रभु-प्रीति ही सही मायने की प्रीति है।

♦ मछली पानी के बिना नहीं जी सकती; पपीहा बरखा की बूँद के बिना नहीं तृप्त हो सकता; हिरन नाद में मस्त हो के अपने आप को बँधा लेता है; भौरा कमल-फूल में मस्त होता है।

वैसे ही प्रभु का प्यारा प्रभु की याद में खुश होता है।

♦ मछली को पानी का सहारा। पपीहे को बरखा की बूँद की चाहत।

नाम-रसिए को प्रभु की याद की टेक है।

♦ मछली पानी से विछुड़ के नहीं जीती। प्रभु का प्यार प्रभु की याद के बिना नहीं रह सकता।

प्रीति

(आ) भौरा और कमल फूल

● आसावरी म: ४–माई मेरो प्रीतमु रामु बतावहु री माई–पन्ना 369

● आसा म: ५ छंत–कमला भ्रम भीति, कमला भ्रम भीति हे–पन्ना461

● गूजरी म: ५–जिसु सिमरत सभि किलविख नासहि –पन्ना 496

● कलिआनु म: ५–हमारै इह किरपा कीजै –पन्ना 1321

● फुनहे म: ५–पंकज फाथे पंक –पन्ना 1362

● चउबोले म: ५–मूसन मसकर प्रेम की –पन्ना 1364

भाव:

भौरा खिले हुए कमल–फूल तक पहुँचने से नहीं रह सकता।

सच्चा आशिक प्रभु-प्रीति से कैसे हटे?

कमल के फूल के मकरंद पर गुंजार डालता–डालता भौरा अपना आप फूल में बँधा लेता है।

दिन के वक्त कमल का फूल खिलता है। भौरा इस फूल का प्र्रेमी है। फूल के ऊपर आ बैठता है, सुगंधि में इतना मस्त हो जाता है कि उसको स्वै भूल जाता है। दिन डूबने पर फूल बंद होता जाता है, भौरा सुगंधि की मस्ती में बेसुध हुआ फूल पर ही बैठा रह जाता है और बँद हो रही फूल की पंखुड़ियों में बँद हो के जान गवा बैठता है।

जिस मनुष्य का मन प्रभु के चरण–कमलों पर भौरे की तरह मस्त रहे, वहाँ विषौ-विकारों को जगह कहाँ? वहाँ तो स्वै ही नहीं रह जाता।

भौरा कमल का फूल छोड़ के किसी और फूल पर नहीं जाता। कमल के फूल पर ही स्वै कुर्बान कर देता है।

कोई विरला है भाग्यशाली जिसका मन प्रभु-चरणों में ही जुड़ा रहता है।

सुगन्धि में मस्त होने के कारण भौरे के पंख कमल के फूल में फस जाते हैं। भौरा एक फूल से दूसरे पर जाना भूल जाता है।

भाग्यशाली है वह मनुष्य जिसकी प्रभु-चरणों में भौरे जैसी अनन्य प्रीति बन गई है।

कमल के फूल की सुगन्धी में मस्त हो के भौरा अंदर ही बंद हो जाता है।

प्राति की चाल अनोखी!

प्रीति

(इ) मोर, बछड़ा, चकवी, पतंगा, हँस, पपीहा, छोटा बच्चा

● बसंतु म: ५–हटवाणी धन माल हाटु कीतु –पन्ना 1180

● सोरठि रविदास जी–जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा –पन्ना 648

● गउड़ी गुआरेरी म: ४–माता प्रीति करे पुतु खाइ –पन्ना 164

● गौंड नामदेव जी–मोहि लागती तालाबेली –पन्ना 874

● रामकली नामदेव जी–आनीले कागदु, काटीले गूडी –पन्ना 972

● गउड़ी गुआरेरी म: ४–भीखक प्रीति भीख प्रभ पाइ –पन्ना 164

● रामकली म: ५–दावा अगनि रहे हरि बूट –पन्ना 914

● चउबोले म: ५–मगनु भइओ प्रिअ प्रेम सिउ –पन्ना 1364

● मलार म: ४– जिन् कै हीअरै बसिओ मेरा सतिगुरु–पन्ना1264

● गूजरी म: ४–गोविंदु गोविंदु प्रीतमु मनि प्रीतमु–पन्ना 493

● जैतसरी म: ५–चात्रिक चितवत बरसत मेंह –पन्ना 702

● फुनहे म: ५–चात्रिक चित सुचित –पन्ना 1363

● बसंत हिंडोल म: ४–मेरा इकु खिनु मनूआ रहि न सकै–पन्ना1178

भाव:

सावन की काली घटाएं चढ़ती देख के मोर नाचते हैं और कुहकते हैं। चँद्रमा की कोमल रौशनी देख के कमल की कलियां खिलती हैं। माँ अपने पुत्र को देख के उल् लास में आती है।

प्रभु-चरणों का भौरा प्रभु की याद में जुड़ के खुश होता है।

मोर को काले–बादल छाए पहाड़ प्यारे। चकोर को चाँद प्यारा।

सच्चे आशिकों को प्रभु की याद प्यारी।

पपीहा बरखा होती देख के खुश होता है। मछली पानी में ही तैरती प्रसन्न रहती है। गाय अपने बछड़े को मिल के प्रसन्न होती है। माँ का दिल अपने पुत्र को भोजन खिला के तृप्त होता है।

सिख अपने गुरु के चरणों में लग के खुश होता है। गुरु से ही आत्मिक जीवन की दाति मिलती है।

गाय और उसका बछड़ा दिन–रात अलग-अलग खूटों से बँधे रहते हैं। बेचारे बे–बस हैं। उनके दिलों की पीड़ा वही जानते होंगे। दूध दूहने के वक्त जब घर के मालिक बछड़ा खोल के गाय के नीचे छोड़ते हैं, उस वक्त माँ–पुत्र के हिलोरे का दृश्य देखने वाला होता है। बछड़ा दौड़ के थनों से जा लगता है, पूँछ हिलाता है। गाय बछड़े को चाटती है, और प्यार–भरी आँखों से देखती है।

प्रभु-प्रीति के भूखे भी इसी तरह तड़पते हैं।

गाय सारा दिन झुंड के साथ जूह में घास चुगती है, पर उसकी तवज्जो अपने बछड़े में ही रहती है। शाम के वक्त ग्वाला गायों को चरा के लाता है; गाय बड़ी तेज़ी से चलती हुई घर आती है। खूँटे के साथ बँधने से पहले–पहले सीधी अपने बछड़े के पास पहुँचती है, उसको चाटती है और प्यार–भरी निगाहों से देखती है।

प्रभु-चरणों के रसिए काम–काज करते हुए भी तवज्जो प्रभु-चरणों में ही रखते हैं, और कार्य से खाली हो के दौड़ के उस के दर पर पहुँचते हैं।

कुदरत की कुछ ऐसी खेल है कि चकवी और चकवा पंछीसूरज के डूबते ही विछुड़ जाते हैं। सारी रात बिछुड़े रहते हैं। सूरज ही उनके मिलाप का कारण नित्य बनता है। चकवी की प्रीति सूरज से है, उसके प्यारे चकवे से मिलाप का कारण सूरज जो हुआ।

बछड़ा, अपनी माँ गाय को मिल के खुश होता है, माँ से दूध जो मिलना हुआ।

सिख अपने गुरु पातशाह से प्रीति करता है। गुरु ही जीवन के श्रोत प्रभु के मिलाप का साधन है।

चकवी सूरज के चढ़ने की तमन्ना में रात गुजारती है। पपीहा बरखा की बूँद को तरसता है। हिरन के कानों में घंडे–हेड़े की आवाज़ पड़ती है, तब वह उस मीठी धुनि के श्रोत की तरफ उठ दौड़ता है।

नाम का रसिया सदा प्रभु की याद के लिए तड़पता है। प्रभु की याद ही उसको माया–अग्नि से बचाती है जो सारे संसार–बन को जला रही है।

पतंगा, एक छोटा सा कीड़ा! इतनी बेअंत कुदरति में क्या है इसकी हस्ती? पर, पतंगे ने दीए की लाट की प्रीति पर से स्वै न्यौछावर कर दिया, तो यह छोटा सा कीड़ा प्रीति की खेल में बाज़ी जीत गया, और जगत में शोभा कमा गया।

प्रभु-प्रीति के रसिए जगत में सदा ही जीते हैं।

हँस की खुराक मोती है। कुदरति द्वारा इसको ये शक्ति मिली हुई मानी जाती है कि ये अपनी चोंच से दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है।

जिस भाग्यशालियों ने प्रभु की याद को अपनी आत्मा की खुराक बनाया है, वे अपने अंदर से अहंकार ईश्या आदि को निकाल देते हैं।

कौए की मनभाती खुराक विष्टा आदि है। हँस मोती चुनता है।

विकारी व्यक्ति विकारों में ही रीझते हैं। अगर उन्हें गुरु की संगति हो जाए तो वे भी सुधर सकते हैं।

पपीहा बरखा की बूँद को तरसता है। चकवी सूरज के दर्शन को तड़पती है। मछली पानी से विछुड़ के जी नहीं सकती।

प्रभु-चरणों का भौरा प्रभु की याद के बिना नहीं रह सकता।

पपीहे की प्रीति बरखा की बूँद के साथ है, वह इसी की खातिर बन–बन में कूकता फिरता है। प्रीति की रीति यही है कि जिसको दिल दिया गया, उसी की याद में मगन।

प्रभु का भक्त प्रभु के नाम से बलिहार जाता है।

छोटे बालक को भूख लगती है, वह रोता है। माँ दूध पिलाने के लिए अपना थन निकालती है। बालक विहवल हो के थनों को हाथ में पकड़ के मुँह में डाल लेता है। कोई और खेल उस वक्त उसे नहीं भाती। कमल का फूल पानी के बिना नहीं जी सकता। प्रेमी जीउड़ा प्रीतम प्रभु की याद के बिना एक पल नहीं रह सकता।

प्रीति

(ई) स्वै की भेट

● सलोक म: २ (वार सिरी राग) –जिसु पिआरे सिउ नेहु–पन्ना 83

● सलोकु म: ५ (वारां ते वधीक) –खंभ विकांदड़े जे लहां–पन्ना1426

● सोरठि नामदेव जी–पाड़ पड़ोसणि पूछि ले नामा–पन्ना 657

● गूजरी रविदास जी–दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ–पन्ना 525

● धनासरी रविदास जी–चित सिमरनु करउ–पन्ना 694

भाव:

जिससे सच्चा प्यार हो, स्वै भाव उसके आगे भेट करना पड़ता है, उसकी मर्जी में अपनी मर्जी लीन करनी पड़ती है।

पंछी अपने पंखों की मदद से आकाश में जिस तरफ चाहे सैंकड़ों मील उड़ के चला जाता है। परदेस गए पति के विछोड़े में घर बैठी नारी के दिल में ‘आह’ उठती है कि मुझसे अच्छे तो ये पंछी ही हैं।

कहते हैं हुमा पंछी ऊँचे आकाशों में रहता है। अगर किसी को उसके पंख मिल जाए, तो वह पंख उसको उड़ा के हुमा तक ले जाता है।

प्रभु की महिमा की वाणी प्रभु के देश से आई हैं जो मनुष्य इसको अपने हृदय के साथ जोड़ता है, वाणी उसको दुनिया के माया–मोह में से ऊँचा कर के प्रभु-चरणों में जोड़ती है।

नामदेव का घर किसी सत्संगी ने बड़ी मेहनत से बना दिया। नामदेव की कोई पड़ोसनि उसकी दुगनी मजदूरी देने को तैयार हो गई। पर, जहाँ प्रीत हो, वहाँ तन–मन से काम करते हैं, माया की प्रेरणा उसका मुकाबला नहीं कर सकती।

प्रभु-चरणों से बिके हुए भगतों के कारज प्रभु आप सँवारता है।

पुजारी अपने ईष्ट को दूध फूल पानी धूप आदि भेटा करके प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है, और उसका प्यार लेना चाहता है।

पर, दिल दिल का साक्षी होता है। दिल जीतने के लिए अपना दिल देना पड़ता है। प्रीति स्वै न्यौछावर की भेटा माँगती है।

प्रीत की मंडी में पैसों से वजन नहीं हो सकता। स्वै देना पड़ता है। चिक्त प्रीतम की याद में रहे, आँखें उस प्रीतम की ही तलाश में रहें, कान भी उसी की बातें सुनें, जीभ भी उसी की बातें करके खुश हो।

प्रीति

(उ) प्यारे से सम्बन्धित चीजें

● सलोक म: ४ (वार गउड़ी म: ४) –सा धरती भई हरीआवली–पन्ना310

● मालीगउड़ा नामदेव जी–धनि धंनि ओ राम बेनु बाजै–पन्ना 988

भाव:

प्यार की यह कीर्ति है कि जिस से प्यार हो उसके साथ संबंध रखने वाली जगहें भी प्यारी लगने लग जाती है। प्यार में भीगे हुए गुरु रामदास जी ये वलवला यूँ बयान करते हैं: जिस धरती पर प्यारा सतिगुरु आ के बैठता है, सिख को वह धरती सुंदर लग जाती है। वह पिता भाग्यशाली और वह कुल भाग्यवान है जिस कुल में सतिगुरु ने जनम लिया, वे मनुष्य सौभाग्यशाली हैं जिन्होंने गुरु का दर्शन किया। भाई गुरदास जी लिखते हैं;

‘लेला की दरगाह का कुक्ता देखि मजनूं लोभाणा॥
कुत्ते दी पैरीं पवै, हसि हसि हँसे लोकु विडाणा॥’

गोकुल के ग्वाले और ग्वालनें श्री कृष्ण जी को प्यार करते थे। उनको सिर्फ उसी बँसरी की सुर मीठी लगती थी जो कृष्ण जी बजाते थे। कृष्ण जी की ही काली कंबली उसके मन को आकर्षित करती थी। उसको बिंद्राबन की जूह ही प्यारी लगती थी जहाँ कृष्ण जी गाईयां चराया करते थे।

प्रीत की ये खासीयत है कि जिससे सच्चा प्यार हो उसके साथ संबन्ध रखने वाली हरेक चीज़ प्यारी लगती है।

प्रीति

(ऊ) पति-पत्नी का प्यार

● सलोक म: २ (वार सूही) –नानक तिना बसंतु है–पन्ना 791

● भैरउ म: ३–मै कामणि मेरा कंतु करतारु–पन्ना 1128

● सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –जिउ पुरखै घरि भगती नारि है–पन्ना1413

● सलोक म: ४ (वार गउड़ी) –सुणि साजन प्रेम संदेसरा–पन्ना 301

● आसा म: ४ छंत–मेरे मन परदेसी वे पिआरे–पन्ना 451

● सलोकु म: ४ (वारां ते वधीक) –हउ खड़ी निहाली पंधु–पन्ना1421

● आसा म: ५–ससू ते पिरि कीनी वाखि–पन्ना 370

● आसा म: ५–मीठी आगिआ पिर की लागी–पन्ना 394

● सलोकु म: ५ (वार गूजरी) –प्रेम पटोला तै सहि दिता–पन्ना 520

● सुही म: ५–उमकिओ हीउ मिलन प्रभ ताई–पन्ना 737

● सलोक म: ५ (वार रामकली) –सोइ सुणंदड़ी मेरा तनु मनु मउला–पन्ना964

● डखणे म: ५ (वार मारू) –उठी झालू कंतड़े–पन्ना 1094

● सलोक म: ५ (मारू की वार) –मू थीआऊ सेज–पन्ना 1098

● फुनहे म: ५–सखी कालज हार तंबोल–पन्ना 1361

● गउड़ी कबीर जी–पंथु निहारै कामनी–पन्ना 337

● गउड़ी कबीर जी–मन रे छाडउ भरमु–पन्ना 338

भाव:

बसंत की ऋतु में चारों तरफ ही अनेक किस्मों के फूल खिल उठते हैं, धरती हरी-भरी हो जाती है। पशु पक्षी मनुष्य सब के अंदर नयी रुहानगी रुमकती है। नव–ब्याहे जोड़े खिली गुलज़ार की मौज लेने के लिए घर के काम–काज छोड़ के बसंत के मेलों में जाते हैं।

पर जिस स्त्री का पति परदेस में हैं, उसके मन की कली को उसके मन को कुदरति की यह बसंत खिला नहीं सकती, उसकी कली मुरझाई ही रहती है।

पति–प्रभु से विछुड़ी प्राण–पत्नी को उल्लास कहाँ?

पति की प्रेमिका स्त्री सदा अपने पति को प्रसन्न करने के लिए शारीरिक श्रृंगार करती रहती है। किसी जिठाणी–दिरानी आदि की इस बारे में किसी नोक–झोक की परवाह नहीं करती।

जो मनुष्य प्रभु-चरणों का आशिक है, उसकी चाहे कोई निंदा करे अथवा तारीफ करे, उसे थोड़ी सी भी परवाह नहीं होती।

स्त्री अपने पति की सेवा के लिए नित्य कई किस्मों के सुंदर–सुंदर भोजन तैयार करती है।

भक्त–जन प्रभु–पति की प्रसन्नता के लिए गुरबाणी के द्वारा उसके अनेक गुण सलाहते हैं।

परदेस गए पति का घर आने का संदेशा सुन के स्त्री की आँखें उसकी राह ताकने लग जाती हैं। इन्तजार में आँखें झपकना भी भूल जाती हैं।

पति के परदेस जाने के बाद पीछे से स्वाभाविक रूप से ही स्त्री अपने हार–श्रृंगारों की ओर से बे–परवाह हो जाती है। घर के आँगन की सफाई भी स्वच्छता की खातिर रस्मी ही रह जाती है।

पर, जब पति के घर आने की चिट्ठी आती है, तो उस घर की कायां ही बदल जाती है। उमंग–भरे मन से सोहागनि घर के कोने–कोने को साफ करती है। मन खुद-ब-खुद बिसरे हुए हार–श्रृंगारों की ओर फिर परचने लग जाता है।

चिरों से बिछुड़े पुत्र को देख के, कहते हैं, माँ के थनों में दूध टपकने लग जाता है।

प्रीति के हिलौरे अनोखे!

किसी विरली भाग्यशाली जीवात्मा को प्रभु-चरणों की ऐसी प्रीति नसीब होती है।

परदेस से पति की चिट्ठी आए, चिट्ठी लाने पर स्त्री सदके होती जाती है, उसका रोम–रोम से धन्यवाद कर उठता है। इन्तजार की राह देखती है कि कहीं आज ही आ जाए।

प्राण–दाते प्रभु के साथ मिलाने वाले गुरु से सिख स्वै वारता है।

सांझे बड़े परिवार में नई ब्याही आई युवती को सदा यह सहम रहता है कि सास ससुर जेठानियां आदि से डाँट–डपट ना पड़े, इनके द्वारा कान भरना और कहीं पति गुस्सा ना हो जाए। ऐसी जगह युवती को अपने पति की सदीवी प्रसन्नता के लिए खास ध्यान रखना पड़ता है। पर अगर पति को अपने काम–काज या नौकरी के कारण अपनी स्त्री समेत सांझे परिवार से अलग रहना पड़ जाए, तो स्त्री के सिर से वे सारे सहम दूर हो जाते हैं।

जिस जीवात्मा का प्रभु–पति से मेल हो जाए, अहंकार लोक–दिखावा कामादिक विकार कोई उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।

सुंदर–सुघड़, सुशील और आज्ञाकारी स्त्री को ये डर नहीं होता कि पति किसी और के ऊपर रीझेगा और उसके सिर पर कोई सौकण ला बैठाएगा जिसके कारण पति की उससे दूरी बन जाएगी।

माया सदा इस जीवात्मा–स्त्री को प्रभु–पति से विछोड़े रखती है, यह मानो, जीवात्मा की सौतन बनी रहती है। जिसको गुरु विचोला मिल जाए, माया उसके साथ सौतनपना नहीं कर सकती।

पुरातन काल से कई देशों में घूँघट का रिवाज चला आ रहा है। स्त्री अपने ससुर जेठ आदि बड़ों से, अपने आस–पड़ोस के अपने पति से बड़ों से पर्दा करती है। उसका शर्मीला स्वभाव उसको औरों के सामने आँख करने से वरजता है।

जिस सौभाग्यवती जीवात्मा को प्रभु-प्रीति का कपड़ा मिल जाए, यह कपड़ा कामादिक दुष्टों से उसकी इज्जत बचाता है।

परदेस गए पति की घर वापस आने की खबर आती है, स्त्री का दिल मिलन की आस में तड़प उठता है। आगे से राह ताकने लगती है। प्यारे का संदेशा सुन के घर में उसके वास्ते पलंघ सजा सँवार के बिछाती है। अब एक-एक घड़ी उसे सालों जैसी लगती है।

प्रभु-चरणों का आशिक प्रभु की याद के बिना नहीं रह सकता।

वह प्रीत कैसी जहाँ प्रीत के बारे में खबर सुन के रोम–रोम ना खिल उठे? अपने सज्जन का नाम मुँह में लेने से चेहरा चमक उठता है। चिर–विछुड़ी नारी जब मायके से ससुराल की तरफ चलती है, ज्यों-ज्यों उसका रास्ता खत्म होता जाता है उसका विछोड़ा भी समाप्त होता प्रतीत होता है औार उसके दिल में ठंड सी पड़ती है।

प्रभु-चरणों के भौरों को प्रभु की याद में ही आनंद आता है।

पति–प्रेमिका स्त्री अमृत बेला में उठके काजल आदि लगा के सबसे पहले अपने पति के दीदार करना लोचती है। पर जब पति परदेस चला जाए, तब वह काजल हार–श्रृंगार सब बिसर जाते हैं।

प्रभु-चरणों के भौरे मनुष्य को अमृत बेला में सबसे पहला आहर प्रभु की याद में जुड़ने का ही होता है।

परदेस से आ रहे पति के इन्तजार में उतावली हुई स्त्री वैराग में बोल उठती है –सदके उन राहों के जिनके द्वारा तू आ रहा है! आ, मैं तुझे अपनी आँखों पर बैठाऊँ। कई जुग ही बीत गए तेरे विछोड़े में। तेरे दर्शन की झलक ही मेरे लिए अकह सुख है।

प्रभु-चरणों के भौरे सदा प्रभु–दीदार की चाहत में मस्त रहते हैं।

स्त्री पति की प्रसन्नता के लिए कई तरह के हार–श्रृंगार करती है, पति की निकटता के कारण ऐसे उद्यम उसके अपने मन को अच्छे लगने लगते हैं। पर अगर पति परदेस गया हो, तो ये हार–श्रंृगार अच्छे लगने की जगह दुखदाई प्रतीत होते हैं। प्रीत की रीति ही ऐसी है। अपने प्रीत के विछोड़े में दुनिया का कोई सुहज–स्वाद नहीं भाता। ‘इक घड़ी न मिलते त कलिजुगु होता’।

परदेस गए पति के इन्तजार में स्त्री अपने कोठ्र पर चढ़ के राह देखती है, आँखें वैराग से भर जाती हैं, राह देख–देख के दिल भरता नहीं, चिर की खड़ी के पैर डग–मगाते नहीं, बनेरे पर आ के बैठे कौए को उड़ के पूछती है कि बता क्या मेरा प्रीतम आ रहा है।

बिरह की कितनी दिल–हिलाने वाली तस्वीर है।

आत्मिक जीवन के चाहवान लोग प्रभु–दीदार की तमन्ना इसी विहवलता से करते हैं।

पुरातन काल में हमारे देश में ये कोई रीति चल पड़ी कि पति के मरन पर कोई कोई स्त्री अपनी पति की चिखा पर जीवित ही जल मरती थी। उसको सती कहते थे। जब साक–संबन्धी मृतक–शरीर को अंतिम संस्कार के लिए शमशान भूमि की ओर ले जाते थे, तब सती होने वाली स्त्री अपने हाथ में नारीयल पकड़ लेती थी। लोग समझ लेते थे कि ये सती होने जा रही है। उसको समझाना–बुझाना वयर्थ हो जाता था।

प्रभु–प्रीत के रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति को कोई मायावी–पदार्थ डुला नहीं सकते।

प्रीति

(ए) विछोड़ा असहनीय

● सलोक म: ३ (वारां ते वधीक) –वडड़ै झालि झलुंभलै –पन्ना1420

● गौंड म: ४ –हरि दरसन कउ मेरा मनु बहु तपतै –पन्ना861

● माझ म: ५ –मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई –पन्ना 96

● आसा म: ५ –इक घड़ी दिनसु मो कउ बहुतु दिहारे –पन्ना 378

● सलोक म: ५ (वार गूजरी) –विछोहे जंबूर –पन्ना 520

● वडहंस म: ५ छंत–मेरै अंतरि लोचा मिलण की –पन्ना 564

● सोरठि म: ५ –दह दिस छत्र मेघ घटा घट –पन्ना 624

● सारग म: ५ –मोहन घरि आवहु, करउ जोदरीआ –पन्ना 1209

● फुनहे म: ५ –ऊपरि बनै अकासु –पन्ना 1362

● सलोक म: ५ (वारां ते वधीक) –सुतड़े सुखी सवंनि् –पन्ना1425

● सलोक फरीद जी– तनु तपै तनूर जिउ– पन्ना1384

● गउड़ी कबीर जी–आस पास घन तुरसी का बिरवा –पन्ना 338

भाव:

प्रीत की ये खासियत है कि प्रेमी को अपना प्रीतम कभी नहीं भूलता।

अमृत बेला में सवेरे उठते ही प्रभु-चरणों का प्रेमी प्रभु की याद में जुड़ता है।

प्यासे मनुष्य को पानी पीते ही शांति आ सकती है। जिनके मन को प्रीत के तीर ने भेद लिया है, वे अपने प्रीतम के दीदार के बिना तृप्त नहीं होते।

रब के आशिक रूहानी दीदार के बिना नहीं रह सकते।

पपीहा स्वाति नक्षत्र की बरखा की बूँद के लिए बिलकता है। और टोए–तालाब पानी से बेशक भरे पड़े हों, उस पपीहे को वह आकर्षित नहीं कर सकते। जिस मनुष्य का मन गुरु की संगति में रीझ जाता है, उसको दुनिया के और रंग–तमाशे अपनी ओर प्रेरित नहीं कर सकते। अगर कभी गुरु की संगति से गुरु से उसे कभी विछोड़ा हो जाए, तो उसको और किसी जगह धैर्य नहीं आता।

प्रेमी को अपने प्रीतम से चार पहर का विछोड़ा चार जुगों के समान लगता है।

कामादिक विकार जीवात्मा को प्रभु से विछोड़ते हैं, और जीवात्मा इस विछोड़े से बड़ी व्याकुल रहती है।

मनुष्य को धरती का सरदार तो कहा जाता है, पर इसकी निर्दयता की करतूतें सुन के दिल काँप उठता है।

दोशियों को, विशष तौर पर, राजनैतिक विरोधियों को, बड़े–बड़े दुखद दण्ड दिए जाते रहे हैं। एक दण्ड ये था कि जंबूर से जीते हुए व्यक्ति का मास खींच–खींच के नोचा जाता था। बड़ा भयानक दण्ड है, और बड़ी असह है इसकी पीड़ा।

सच्चा आशिक अपने प्रीतम से विछुड़े को जंबूर के दण्ड सा अनुभव करता है।

कितना खिलौनों से बालक को परचाने का प्रयत्न करो, वह दूध के बिना कैसे माने।

सौभाग्यवान बालक–जीवात्मा को दुनिया के रंग–तमाशे नहीं मोह सकते, वह नाम-अमृत से ही पतीजता है।

जेठ–हाड़ की तपती लौओं के बाद सावन के महीने काली घटाएं चढ़ती हैं, और तपे मनों को ठंड देती हैं। उन सुंदर काली घटाओं में चमकती हुई बिजली मन को खींचती है। सोहागने झूला झूलती हैं, खुशी मनाती और खुशी के गीत गाती हैं।

पर, पूछो उन्हें जिनके पति परदेस गए हुए हैं। वह सुहावनी काली घटा, और लहलहाती बिजली की चमक उनके अंदर और भी विरह की छुरियां चला देती हैं।

कितने अभागे हैं वे जिनको पति–प्रभु के विछोड़े के तीर की चुभन का अहिसास कभी नहीं हुआ।

प्रेमी को अपने प्रीतम से एक पल का विछोड़ा कई युगों जैसा लगता है।

सावन की काली घटाएं? हरियाली धरती, चारों तरफ चमकती बिजली, पति–व्रता सोहागनि स्त्री को परदेस गए अपने पति की याद बार-बार करवाती हैं।

कितनी अभागन है वह जीवात्मा जिसको ये सारी सुंदर कुदरति देख के कभी भी इसके रचयता प्रभु–पति की याद का हिलौरा नहीं आता!

सच्चा आशिक सोया हुआ भी, अपनी तवज्जो प्रभु की याद में टिकाए रखता है। आठों पहर किसी वक्त भी वह विछोड़ा नहीं पड़ने देता।

सच्चे प्रेमियों को प्रभु से विछोड़ा एक असह कष्ट लगता है। इस विछोड़े से बचने के लिए अगर उनको धूणियां आदि तपाने के अनेक शारीरिक कष्ट भी सहने पड़ें तो भी वे इसको सस्ता सौदा समझते हैं।

पर, प्रभु-मिलाप के लिए शारीरिक कष्टों की आवश्यक्ता नहीं होती। वह तो हरेक मनुष्य के अंदर ही बसता है। बस! मन को बाहरी दौड़ से हटा कर अंदर की ओर मोड़ना है।

गोकुल के ग्वालों और गोपियों के साथ मिल के कृष्ण जी बिन्द्रावन में गउएं चराया करते थे। कभी-कभी प्रेम में आ के मस्त सुर में बाँसुरी भी बजाते थे। गोकुल के सब ग्वाले ग्वालनें कृष्ण जी के चरण– भौरे बन चुके हुए थे। कंस को दण्ड देने के लिए कृष्ण जी गोकुल से मथुरा जाने के लिए तैयार हुए। गोकुल–वासी इस आ रहे सदीवी विछोड़े को सुन के तड़प उठे। ग्वालनें रोनें लगीं और मिन्नतें करने लगीं कि हमें छोड़ के ना जाओ।

जिस भाग्यशाली का मन प्रभु-चरणों में पतीजता है, वह प्रभु की याद एक पल भी नहीं भुला सकता। प्रेमी के लिए विछोड़ा असह है।

17: करम काण्ड

मृतक संस्कार

♥ आसा म: १–दीवा मेरा ऐकु नामु –पन्ना 358

♥ सलोक म: १ (वार आसा) –मिटी मुसलमान की –पन्ना 466

♥ सलोक म: ३ (वार सोरठि) –इक दझहि इक दबीअहि –पन्ना 648

♥ रामकली सदु–अंते सतिगुरु बोलिआ –पन्ना923

श्राद्ध:

♥ सलोक म: १ (आसा दी वार) –जे मोहाका घरु मुहै –पन्ना 472

♥ गउड़ी कबीर जी–जीवत पितर न मानै कोऊ –पन्ना 332

सूतक:

♥ सलोक म: १ (वार आसा) –जेकरि सूतकु मंनीअै –पन्ना 472

♥ गउड़ी कबीर जी–जलि है सूतकु –पन्ना 331

माला तिलक:

♥ भैरउ म: ४–सुक्रितु, करणी सारु जपमाली –पन्ना 1134

♥ आसा म: ५–हरि हरि अखरु दुइ इह माला–पन्ना 388

♥ भैरउ कबीर जी–माथे तिलकु हथि माला बानां–पन्ना 1158

व्रत:

♥ सलोक म: १ (वार सारंग) –सचु वरतु, संतोखु तीरथु–पन्ना1245

♥ धनासरी म: ५–पूजा वरत तिलक –पन्ना 674

♥ भैरउ म: ५–वरत न रहउ –पन्ना 1136

जनेऊ:

♥ सलोक म: १ (आसा दी वार) –दइआ कपाह, संतोख सूतु–पन्ना471

पवित्र चौका:

♥ सलोक म: १ (वार सिरी राग) –कुबुधि डूमणी –पन्ना 90

♥ बसंत म: १ –सुइने का चउका–पन्ना 1168

दीए तैराने:

♥ रामकली म: १–सुरती सुरति रलाईअै ऐतु –पन्ना 878

निहित हुए धार्मिक करम:

♥ गउड़ी म: ५–हरि बिनु अवर क्रिआ बिरथे –पन्ना 216

♥ गउड़ी बावनअखरी म: ५–अति सुंदर कुलीन चतुर –पन्ना253

♥ सोरठि म: ५ असटपदीआ–पाठु पढ़िओ अरु बेदु बीचारिओ–पन्ना641

♥ सूही म: ५–करम धरम पाखंड जो दीसहि –पन्ना 787

♥ गउड़ी कबीर जी–संधिआ प्रात इसनानु कराही –पन्ना 324

♥ टोडी नामदेव जी–कउन को कलंकु रहिओ–पन्ना 718;पाँचवीं पोथी

♥ रामकली नामदेव जी–बानारसी तपु करै –पन्ना 973; सातवीं पोथी

भाव:

मृतक संस्कार

♥ हिन्दू मर्यादा अनुसार, जब, कोई प्राणी मरने लगता है तो उसे चारपाई से नीचे उतार देते हैं। उसके हाथ की तली पर आटे का दीया रख के जला देते हैं, ताकि जिस अनदेखे अंधेरे राह पर उसकी आत्मा ने जाना है, ये दीया रास्ते में रौशनी करे। उसके मरने के बाद जौ अथवा चावलों के आटे के पेड़े (पिंड) पक्तलों की थाली (पक्तल) ऊपर रख के शमशान जाते हैं। ये प्राणी के लिए रास्ते की खुराक होती है। मौत के 13 दिन बाद ‘किरिया’ की जाती है। आचार्य (किरिया कराने वाला ब्राहमण) वेद–मंत्र आदि पढ़ता है। मरे हुए प्राणी के नमिक्त एक लंबी मर्यादा की जाती है। 360 दीए और इतनी ही बक्तियां और तेल रखा जाता है। वह बक्तियां एक साथ ही तेल में भिगों के जला दी जाती हैं। श्रद्धा ये होती है कि मरे हुए प्राणी ने एक साल में पितर लोक में पहुँचना है, ये 360 दीए (एक दीया हर रोज का) एक साल रास्ते में रौशनी करेंगे। किसी मन्दिर में एक साल हर रोज हर वक्त दीया जलाने के लिए तेल भी भेजा जाता है।

संस्कार के चौथे दिन मढ़ी फरोल के जलने से बची हुई हड्डियां (फूल) चुन के लाई जाती हैं। ये फूल हरिद्वार जा के ‘गंगा’ में प्रवाहित किए जाते हैं। आम तौर पर ‘किरिया’ से पहले ही ‘फूल’ गंगा–प्रवाह किए जाते हैं।

(शबद का भाव): परमात्मा का नाम ही दीया है जो मनुष्य की जिंदगी के रास्ते में आत्मिक रौशनी करता है, इस आत्मिक रौशनी से मनुष्य के वे सारे दुख खत्म होते जाते हैं जो इसे घटित होते रहते हैं।

जैसे थोड़ी सी आग लकड़ियों के ढेर को जला के राख कर देती है इसी तरह परमात्मा के नाम का स्मरण मनुष्य के जन्मों–जन्मांतरों के पापों के संस्कार इसके अंदर से समाप्त कर देता है। परमात्मा का नाम ही मनुष्य के लिए इस लोक और परलोक में सहारा है।

पिंड भरवाने, किरिआ करवानी, फूल गंगा–प्रवाह कराने –परमात्मा का नाम स्मरण में ही ये सब कुछ आ गया समझो। असल साथी है ही हरि-नाम।

♥ मुसलमानों का मानना है कि मरने के बाद जिनका शरीर जलाया जाता है वे दोज़क की आग में जलते हैं। पर, जहाँ मुसलमान मुर्दे दबाते हैं उसकी जगह की मिट्टी चिकनी हो जाने के कारण कुम्हार लोग वह मिट्टी कई बार बर्तन बनाने के लिए ले आते हैं। कुम्हार उस मिट्टी को घड़ के बर्तन और ईटें बनाता है, और आखिर में वह मिट्टी भी भट्ठी की आग में पड़ती है। पर, निज़ात व दोज़क का संबन्ध मुर्दा शरीर के जलाने व दबाने से नहीं है। जब जीवात्मा शरीर चोला छोड़ जाए, तो उस शरीर को दबाने अथवा जलाने आदि किसी भी क्रिया का असर जीवात्मा पर नहीं पड़ सकता। जब तक जीवात्मा शरीर में थी, तब तक किए कर्मों के अनुसार ही उसका फैसला होता है। वह फैसला क्या है? परमात्मा खुद ही जानता है कि जीव अपनी कमाई के अनुसार उसके हुक्म में कहाँ जा पहुँचा है। सो, यह झगड़ा व्यर्थ है। हरेक जीव के लिए सबसे बढ़िया विचार यही है कि जिस मनुष्य ने परमात्मा के चरणों में अपना चिक्त जोड़ के रखा उसी को उसका मिलाप नसीब हुआ।

♥ मरने पर किसी का शरीर जलाया जाता है, किसी का दबाया जाता है, किसी के शरीर को कुत्ते खा जाते हैं और किसी का शरीर गिद्धों के आगे डाल दिया जाता है।

पर शरीर के इस जलाने व दबाने आदि से यह पता नहीं चल सकता कि जीवात्मा कहाँ बसती है।

♥ हिन्दू–घरों में अगर कोई प्राणी बहुत ज्यादा उम्र का हो के मरे, पौत्रों–पड़पौत्रों वाला हो जाए, तो उसका संस्कार करने के वक्त उसको ‘वडा’ करते हैं। जिस फट्टे पर मृतक–शरीर उठा के ले जाया जाता है उस फट्टे को सुंदर कपड़ों और फूलों से सजाते हैं। मुर्दा ले जाने के वक्त उसके ऊपर से उसके पौत्र–पड़पौत्र आदि छुहारे–मखाणे पैसे आदि फेंकते हैं। इस रस्म को ‘बबाण’ निकालना कहा जाता है।

संस्कार करने के बाद किरिया वाले दिन तक गरुड़ पुराण की कथा कराई जाती है। गुरुड़ पुराण में विष्णु अपने वाहन गरुड़ को जम–मार्ग का हाल सुनाता है और कहता है कि मरने के बाद जीव प्रेत जून प्राप्त करता है, प्रेत–कर्म करने से प्राणी दस दिनों में ही पापों से छुटकारा पा लेता है, गरुड़–पुराण को सुनने और सुनाने वाला पापों से मुक्त हो जाते हैं।

ज्योति से ज्योति समाने के वक्त गुरु अमरदास जी की उम्र 95 साल थी। उन्होंने अपने सारे परिवार को इकट्ठा करके हिदायत की कि दीए जलाना, पिंड भरने, बबाण निकालने, फूल हरिद्वार ले के जाना, किरिया कराने आदि कोई भी रस्म उनके पीछे ना की जाए। गुरु को सिर्फ परमात्मा की महिमा ही प्यारी लगती है। उनकी ये हिदायत उनके पड़पौत्र बाबा सुंदर जी ने रामकली राग की वाणी ‘सदु’ में विस्तार से बयान की हुई है।

श्राद्ध

♥ हिन्दू घरों में किसी प्राणी के मरने के एक साल बाद मरने वाली तिथि पर ही ‘वरीणा’ किया जाता है। खुराक के अलावा विछुड़े हुए प्राणी के लिए बर्तन–वस्त्र वगैरा भेजे जाते हैं। सारा सामान आचार्य को दान किया जाता है। इसके बाद हर साल श्राद्धों के दिनों में उस तिथि पर ब्राहमणों को भोजन करवाया जाता है। ये भी विछुड़े हुए प्राणी तक पहुँचाने के लिए होता है।

श्राद्ध हर साल भाद्रों की पूरनमासी को शुरू होते हैं और असू की मसिया तक रहते हैं। मसिया का श्राद्ध आखिरी होता है।

गुरु नानक देव जी फरमाते हैं कि किसी भी प्राणी को उसके मरने के बाद उसके संबन्ण्धी कोई धन पदार्थ खुराक आदि कुछ भी पहुँचा नहीं सकते। यहाँ जीते–जी मनुष्य हक की कमाई करता है और उसी में जरूरतमंदों की सेवा करता है इस नेक कर्म के भले संस्कार वह अपने साथ ले कर जाता है।

बाद में पहुँचने–पहुँचाने वाली मान्यता तो मरे प्राणी के लिए बल्कि खतरनाक हो जाती है। अगर सचमुच पीछे रह गयों का दिया हुआ पहुँचता ही हो, तो जो कोई मनुष्य पराया माल ठग के उसमें से पित्रों को दान कर दे, आगे परलोक में वह पदार्थ पहचान लिया जाएगा क्योंकि जिस घर का माल ठगा जाता है उसके पित्र भी परलोक में ही बसते हैं। इस तरह वह मनुष्य अपने पित्रों को भी चोर बनाता है क्योंकि उनके पास से चोरी का माल निकल आता है। चोरी का माल पहुँचाने वाले दलाल को भी सजा मिलनी हुई।

♥ घर में हर तरह का सुख–आनंद बने–रहने की खातिर लोग पित्रों नमित श्राद्ध करते हैं, मिट्टी के देवते बना के उनके आगे कुर्बानी देते हैं, ब्याह–शादियों के समय ‘वडे अडते हैं’। पर फिर भी सहम बना ही रहता है। सुख–आनंद का श्रोत है परमात्मा, उसकी याद में जुड़ो।

लोग जीवित माता-पिता का तो आदर–मान नहीं करते, पर मर गए पित्रों के नमित्त भोजन खिलाते हैं। यह भोजन नहीं पहुँचते। जीवित माता-पिता की सेवा करनी सीखो।

सूतक

♥ जिस घर में कोई बालक जनम ले ले, उस घर को अपवित्र जान के ब्राहमण उस घर का अन्न–जल 13 दिन नहीं बरतते।

पर, अगर ये मान लें कि सूतक का भ्रम रखना चाहिए, तो ये भी याद रखें कि इस तरह तो सूतक हर जगह ही है, गोबर और लकड़ी के अंदर भी कीड़े पैदा होते रहते हैं। अन्न के जितने भी दाने हैं, उनमें से कोई भी दाना जीव के बिना नहीं है। पानी सवयं भी जीव ही है क्योंकि इससे हरेक जीव को जीवन मिलता है। सूतक का भ्रम पूरे तौर पर मानना बहुत कठिन है क्योंकि इस तरह तो हर वक्त ही रसोई में सूतक पड़ा ही रहता है, रसोई में जो पानी उपयोग किया जाता है गोबर और लकड़ियां प्रयोग की जाती हैं।

पैदा होना और मरना– यह तो परमात्मा की रजा में सदा होते ही रहने हैं। इनके भ्रम में पड़ने की बजाय मनुष्य को चाहिए कि अपने अंदर से लोभ, झूठ, निंदा, पराई स्त्री की ओर बुरी निगाह वाले विकार दूर करे। मनुष्य के हृदय–घर को ये हर वक्त मैला और गंदा करे रखते हैं।

♥ अगर जीवों के पैदा होने–मरने से भिट होती है तो जगत में कोई भी जगह स्वच्छ नहीं हो सकती क्योंकि हर वक्त हर जगह जनम–मरन का सिलसिला जारी रहता है। पानी में सूतक है, धरती पर सूतक है, हर जगह दूषित हुई है। सोचिए तो सही कि जब हर जगह सूतक पड़ रहा है तो सुच्चा कौन हो सकता है?

छोड़ो ये भ्रम और, हर जगह बसते परमात्मा का भजन किया करो।

माला, तिलक

♥ भाग्यशाली हैं वे मनुष्य जो दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए प्रभु की याद को भी हृदय में बसाए रखते हैं। पर ये काम है बहुत मुश्किल। मेहनत-कमाई में से मन किसी वक्त निकलता ही नहीं। चेता ही भूल जाता है परमात्मा की याद का। इस हर वक्त की व्यस्तता में से चेता कराने के लिए किसी सयाने ने ‘माला’ की खोज की।

पर, माया बहुत ठगनी है। पलक झपकते ही यह ‘माला’ मनुष्य को दिखावे की ओर ले चलती है। जिसने हाथ में माला पकड़ ली, लोग उसको भक्त समझने लग पड़े। और, भक्ति की ओर पलटने वाला मनुष्य जल्दी ही ‘माला’ में उलझ गया, धार्मिक दिखावे में फस गया। आचरण के स्तर से नीचे आ गया।

आचरण को ऊँचा बनाओ, यही है बढ़िया माला। ये आचरण बढ़ता है स्मरण से, और, नाम-जपना ही है मनुष्य का असल सदा साथ निभने वाला साथी।

♥ चलते–फिरते, मेहनत-कमाई करते हर वक्त परमात्मा की याद अपने हृदय में टिकाए रखनी– यही है असल माला।

जो मनुष्य हरि-नाम को अपने हृदय में संभाल के रखता है, और मुँह से परमात्मा का नाम उचारता रहता है वह मनुष्य ना इस लोक में ना परलोक में कहीं भी किसी बात पर नहीं डोलता। हरि-नाम की माला मनुष्य के साथ परलोक में भी साथ बनाए रखती है।

♥ माथे पर तिलक लगा के, हाथ में माला पकड़ के, दुनिया को तो भुलेखे में डाला जा सकता है कि इनको धारण करने वाला मनुष्य भक्त है। पर, परमात्मा को ठगा नहीं जा सकता। यह तो खिलौने हैं खिलौने। परमात्मा इनसे नहीं पतीजता, वह हमारे अंदर बैठा हमारे आत्मिक जीवन को हर वक्त देखता और समझता है।

व्रत

♥ मनुष्य दिन रात माया की खातिर दौड़–भाग करता रहता है, और, अंत के समय यह माया यहीं धरी–धराई रह जाती है। भाग्यशाली हैं वे जो धर्म भी कमाते हैं। पर, दुनिया के और पदार्थ परख के मूल्य से खरीदे जाते है, यह धर्म–पदार्थ की खरीद भी परख के ही करनी चाहिए। लोग व्रत रखते हैं, तीर्थ–स्नान करते हैं, देवताओं की पूजा करते हैं, माला फेरते हैं, धोती पहनते हैं, रसोई की शुचिता का बहुत ध्यान रखते हैं, माथे पर तिलक लगाते हैं –ये सारे कर्म करते हुए समझते हैं कि हम धर्म कमा रहे हैं। पर, कर्म तो ये भी यहीं रह जाने हैं। क्या इनसे आत्मिक जीवन ऊँचा बन रहा है? देखना तो सिर्फ यही है। ऊँचे आत्मिक जीवन के संस्कार ही सदा निभने वाले साथी हैं। क्या मन संतोषी हो रहा है? क्या परमात्मा के साथ नाम-जपने की सांझ बन रही है? क्या दुखिओं–जरूरतमंदों के लिए दिल में दया पैदा हो रही है? क्या दूसरों का धक्का सहने की सहनशीलता बढ़ रही है? क्या मेहनत-कमाई करते हुए तवज्जो परमात्मा की याद में जुड़ी रहती है? क्या परमात्मा और उसकी रची सृष्टि से प्यार बन रहा है?

ऐसा आत्मिक जीवन तब ही बनेगा, अगर उच्च गुणों के श्रोत परमात्मा में डूबकी लगाए रखें, परमात्मा का स्मरण करते रहें। व्रत रख के कभी-कभी रोटी खाने से परहेज़ करने से शारीरिक आरोगता को तो मदद मिलती है, पर आत्मिक आरोग्यता प्राप्त करने का यह तरीका नहीं। नाम-जपना ही है आत्मिक आरोग्यता की प्राप्ति का ढंग, नाम-जपना ही है असल व्रत।

♥ परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, यह दाति परमात्मा की मेहर से मिलती है; यही मनुष्य के साथ सदा निभती है।

लोक देव–पूजा करते हैं, व्रत रखते हैं, माथे पर तिलक लगाते हैं। तीर्थों पर स्नान करते हैं, बड़े दान–पुन्न करते हैं और शोभा कमाते हैं। पर ऐसी किसी भी जुगति से परमात्मा खुश नहीं होता।

जप–तप करके, सारी धरती के ऊपर चक्कर लगा के, सिर–भार तप करके, प्राण दसवें–द्वार में चढ़ा के –इन तरीकों से भी परमात्मा नहीं पतीजता।

परमात्मा का नाम जपने से ही मन को शांति मिलती है। स्मरण के बिना कोई और तरीका नहीं है जिससे परमात्मा मिल सके।

♥ गुरु की शरण पड़ कर, गुरु के बताए हुए जीवन-राह पर चल कर परमात्मा का स्मरण करने से परमात्मा के साथ सांझ बनती है। परमात्मा के साथ सांझ बनने से ही ऊँचे आत्मिक जीवन वाले गुण मनुष्य के अंदर पैदा होते हैं, और मनुष्य को विकारों के हमलों से बचाते हैं।

व्रत, रोज़ा, तीर्थ–स्नान, हज, देव–पूजा, दिखावे की नमाज़ –कोई
भी ऐसा दिखावे वाले कर्म से परमात्मा के साथ मनुष्य सांझ नहीं बना सकता।

जनेऊ

♥ मनुष्य दिन–रात चोरी–यारी झूठ आदि अनेक विकार करता रहता है। यह है इसके अंतरात्मे का हाल। पर बाहर देखो, लोकाचारी निहित हुए धार्मिक–कर्म भी करता है। सूत का बना हुआ जनेऊ पहन के ये मान लेता है कि वह धर्म के रास्ते पर चल रहा है।

कपास से कते हुए सूत्र का जनेऊ पहन के परमात्मा के दर पर सही स्वीकार होने की आस रखनी व्यर्थ है। परमात्मा की हजूरी में तब ही आदर मिल सकता है अगर दिल में उसका नाम टिकाए रखें। हरि-नाम ही है असल पवित्र जनेऊ जो मनुष्य को विकारों से बचाए रखता है, और अंत परमात्मा की हजूरी में आदर भी दिलवाता है।

शरीर को पहनाया हुआ जनेऊ तो मौत आने पर शरीर के साथ यहीं रह गया। आत्मा के काम आने वाला जनेऊ और है। अगर आत्मिक जीवन ऊँचा करना है तो हृदय में दया, संतोख, आदि गुण बसाओ। ये गुण नाम-जपने की इनायत से पैदा होते हैं।

निर्मल चौका

♥ बुरी मति मनुष्य के अंदर ही मरासणि है, बे–तरसी, निर्दयता मनुष्य के अंदर कसाइण है, दूसरों की निंदा करते रहना मनुष्य के हृदय–चौके में चूहड़ी बैठी हुई है, क्रोध चण्डालणी है जो कभी मनुष्य के मन में शांति नहीं बनने देती। यदि ये चारों सदा मनुष्य के हृदय–रसोई में टिकी रहें, तो बाहर के चौके को लकीरें खींच–खींच के निर्मल स्वच्छ रखने का कोई लाभ नहीं होता।

परमात्मा का नाम सदा स्मरण करो यही है तीर्थ स्नान इसकी सहायता से अपने आचरण को ऊँचा करो, ताकि हृदय के चौके को कामादिक विकार आ के अशुद्ध ना कर सके, दूषित ना कर सकें।

♥ जो लोग शुचिता–दूषित के भ्रम–भुलेखों में पड़े हुए हैं, वे सोने और चाँदी को पवित्र धातुएं मानते हैं। पीतल कांसे आदि के बर्तनों को मांजना जरूरी समझते हैं, पर चाँदी के ग्लास आदि को सिर्फ धो लेना ही काफी समझते हैं, और, उनके ख्याल के अनुसार सोने के बर्तन को सिर्फ हवा ही पवित्र कर देती है।

हिन्दू–सज्जनों के लिए गंगा का पानी अन्य सभी पानियों से ज्यादा पवित्र है। जिस आग को एक बार बरत लिया, वह जूठी हो गई। स्वच्छ आग वही होगी जो नए सिरे से पत्थरों को रगड़ के तैयार की जाए।

सोने का चौका, सोने के बर्तन, चौके के चारों तरफ चाँदी की लकीरें, गंगा का पानी, पत्थरों को रगड़ के तैयार की गई स्वच्छ आग– अगर बाहरी स्वच्छता के ये सारे बाहरी उद्यम करके चावलों की खीर तैयार की जाए, तो इस तरह की बाहरी स्वच्छता से मनुष्य का हृदय पवित्र नहीं हो सकता। हृदय पवित्र होता है परमात्मा की याद से।

दीऐ तैराने

♥ कार्तिक पूरनमासी की रात्रि को हिन्दू सि्त्रयाँ आटे के दीए बना के और जला के तुलहे पर रख के पानी पर तैराती हैं।

मनुष्य–जीवन के सफर में कई ठोकरें हैं, विकारों के कई अंधेरे हैं। हर वक्त खतरा रहता है कि संसार–समुंद्र में इन्सानी जिंदगी की बेड़ी ना डूब जाए। इस खतरे से आटे के ऐसे दीए बचा नहीं सकते। यहाँ चाहिए वह दीया जो आत्मिक–जीवन को रौशनी दे, जो सही आत्मिक जीवन की समझ दे।

सो, परमात्मा के चरणों में सदा तवज्जो जोड़ने का अभ्यास करते रहना चाहिए जिसकी इनायत से शरीर विकारों के भार से बच के हल्का–फूल सा टिका रहे। ऐसा शरीर है असली तुलहा, ये नहीं डूबता संसार–समुंद्र में। नाम-जपने की सहायता से अपने अंदर ईश्वरीय ज्योति जगाए रखो, इस तरह सही आत्मिक जीवन की सूझ का दीया हर वक्त अंदर प्रज्वलित रह सकता है।

कितने ही विकारों के तूफान झूलें, आत्मिक जीवन का रौशनी देने वाला यह दीपक डोलता नहीं, यह आत्मिक दीया बुझता नहीं। इस दीए की रौशनी से हृदय–तख़्त पर बैठा हुआ परमात्मा प्रत्यक्ष दिख जाता है। किसी भी जाति का किसी भी वर्ण का मनुष्य हो, जो भी मनुष्य इस तरह की आत्मिक–रौशनी देने वाला दीया जलाता है, उसकी आत्मिक अवस्था ऐसी बन जाती है कि संसार–समंद्र की विकारों की लहरों में से सही सलामत पार लांघ जाता है।

निहित हुए धार्मिक कर्म

♥ परमात्मा के स्मरण के बिना और सारे निहित हुए धार्मिक कर्म मनुष्य के आत्मिक जीवन को ऊँचा नहीं कर सकते। जप, तप, संजम, व्रत, तीर्थ–स्नान, धरती का रटन – ऐसे कोई भी कर्म मनुष्य को निंदा ईष्या, काम, क्रोध आदि विकारों की मार से बचा नहीं सकता। और, अगर मनुष्य का मन शिकार हुआ रहा, तो मौत आने पर भी इन विकारों के संस्कार मन के अंदर टिके रहे। ऐसा गंदा मन मनुष्य के साथ गवाह होते हुए भी परमात्मा की हजूरी में मनुष्य के किए हुए तथाकथित धार्मिक कर्मों का मूल्य एक कौड़ी भी नहीं पड़ सकता। पड़े भी कैसे? असल साथी है ऊँचा आत्मिक जीवन, और, ये बनता है नाम-जपने की इनायत से ही।

♥ कोई मनुष्य छह शास्त्रों को जानने वाला हो, प्राणायाम के अभ्यास में साँसें ऊपर चढ़ाने, रोके रखने और नीचे उतारने के काम करता हो, धार्मिक चर्चाएं करता हो, समाधियां लगाता हो, सुच्चता की खातिर अपने हाथों से रोटी पकाता हो, जंगलों में रहता हो, पर अगर उसके मन में परमात्मा के नाम से प्यार नहीं तो उसकी ये सारी मेहनत व्यर्थ गई जानो।

सुंदर नैन-नक्श, ऊँची कुल, विद्वता, धन –ये सब आत्मिक जीवन को ऊँचा करने में मदद नहीं कर सकते। परमात्मा के नाम का नाम-जपना ही आत्मा को ऊँचा करता है और विकारों की मार से बचाता है।

♥ धर्म–पुस्तकों के निरे पाठ, निवली कर्म प्राणायाम का अभ्यास –ऐसे साधनों से कामादिक पाँचों के साथ साथ खत्म नहीं हो सकता।

समाधियां, रोटी खाने के लिए बर्तनों की जगह अपने हाथ ही उपयोग करने, जंगलों में नंगे फिरना, तीर्थों की यात्रा –इनसे भी मन की डावाँडोल हालत खत्म नहीं होती।

तीर्थों पर रिहायश, अपने आप को शिव जी वाले आरे से चिरवा लेना –ऐसे लाखों जतनों से भी मन की विकारों की मैल दूर नहीं हो सकती।

सोना, स्त्री, घोड़े, हाथी, अन्न आदि का दान –इस तरह भी आत्मिक जीवन ऊँचा नहीं होता, परमात्मा के चरणों तक पहुँच नहीं हो सकती।

अनेक निहित हुए इन धार्मिक कर्मों के द्वारा परमात्मा के चरणों में जुड़ा नहीं जा सकता। इन कर्मों का आसरा छोड़ के सदा परमात्मा के दर पर अरदास करा करो।

♥ तीर्थ–स्नान आदि निहित हुए धार्मिक कर्म निरे दिखावे ही हैं, इनसे मन में से विकारों की मैल दूर नहीं हो सकती। किसी शहर में कोई माल–असबाब ले के जाएं, तो शहर की सीमा पर बैठे मसूलिए मसूल लिए बिना उस माल को लंघाने नहीं देते। इसी तरह समझ लो कि परमात्मा के नगर में दाखिल होनें से पहले ही इन दिखावे के किए कर्मों को तो जम–मसूलिया ही छीन लेता है। सिर्फ इन कर्मों का सौदा ले के जाने वाला मनुष्य आगे रह गया खाली हाथ।

कोई भी कर्म हो, धर्म हो, उसकी धर्म–पुस्तकों को निरा पढ़ने से मन विकारों की मार से नहीं बच सकता। परमात्मा का नाम-जपना ही जीवन को पवित्र करता है। फिर यहाँ किसी उच्च व नीच जाति की कोई बंदिश नहीं। जो भी मनुष्य नाम जपता है वह संसार–समुंद्र की लहरों में से अपनी जिंदगी की बेड़ी सही–सलामत पार लंघा लेता है।

♥ तीर्थों के स्नान, कई तरह के भेस, धर्म–पुस्तकों के निरे पाठ –ऐसा कोई भी कर्म आत्मिक आनंद नहीं दे सकता। जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के नाम का प्यार नहीं, उसने जमों के ही वश पड़े रहना है। उद्यमों में उत्तम यही है कि माया का मोह त्याग के परमात्मा के नाम का स्मरण करें।

♥ परमात्मा के नाम का स्मरण करने की इनायत से विकारी मनुष्य भी भले बन जाते हैं। तीर्थ व्रत आदि आत्मिक जीवन की उच्चता के लिए कोई मदद नहीं करते।

♥ काशी आदि तीर्थों पर उलटे लटक के तप करने, तीर्थों पर शरीर का त्याग, धूणियां तपानी, जोग अभ्यास, अश्वमेध आदि यज्ञ, फलों में छुपा के सोने–चाँदी का दान, सारे तीर्थों के स्नान, घोड़े–हाथी सरबंस दान, मूर्तियों की पूजा –ऐसा कोई भी कर्म मनुष्य को विकारों की मार से नहीं बचा सकता। ऐसे कर्म करते हुए भी आत्मिक जीवन निम्न–स्तर पर ही रहता है।

परमात्मा के नाम का नाम-जपना ही मनुष्य को उच्च आत्मिक जीवन देता है।

(18.) तीर्थ–स्नान

♥ सोरठि म: १–जिसु जलनिधि कारिण तुम जगि आऐ –पन्ना598

♥ धनासरी म: १ छंत–तीरथि नावण जाउ, तीरथु नामु है–पन्ना687

♥ तुखारी म: १ बारहमाहा–माघि पुनीत भई –पन्ना 1109

♥ प्रभाती म: १–अंम्रितु नीरु, गिआनि मन मजनु –पन्ना1328

♥ गूजरी म: ३–ना कासी मति ऊपजै –पन्ना 491

♥ तुखारी म: ४–नावणु पुरबु अभीचु –पन्ना 1116

♥ मलार म: ४–गंगा जमुना गोदावरी सरसुती –पन्ना 1263

♥ माझ म: ५ (बारहमाहा) –माघि मजनु संगि साधूआ –पन्ना 135

♥ गउड़ी सुखमनी म: ५–मन कामना तीरथ देह छुटै –पन्ना 265

♥ बिहागड़ा म: ५ छंत–हरि चरण सरोवर –पन्ना 544

♥ भैरउ म: ५–नामु लैत मनु परगटु भइआ –पन्ना 1142

♥ गउड़ी कबीर जी–जिउ जलु छोडि, बाहरि भइओ मीना–पन्ना 326

♥ आसा कबीर जी–हज हमारी गोमती तीर–पन्ना 478

♥ आसा कबीर जी–अंतरि मैलु जो तीरथ नावै –पन्ना 484

♥ धनासरी कबीर जी–जो जन भाउ भगति कछु जानै –पन्ना 692

भाव:

♥ आत्मिक जीवन देने वाले नाम–जल की खातिर ये मानव जनम मिला है। इस नाम–जल का खजाना गुरु से मिलता है। धार्मिक भेस छोड़ो। बाहर से शकल धर्मियों वाली, और अंदर से दुनिया को ठगने वाली चालाकी– ये दो–रुखी चाल में पड़ने से यह अमृत नहीं मिल सकता।

अगर अंदर मन में लोभ की मैल है, तो लोभ अधीन हो के कई मनुष्य कई ठगी के काम करता रहता है तो बाहर तीर्थ आदिकों के स्नान करने का कोई लाभ नहीं हो सकता। अंदरूनी ऊँची आत्मिक अवस्था तब ही बनती है अगर गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के सदा परमात्मा का पवित्र नाम जपता रहता है।

♥ परमात्मा का नाम ही असल तीर्थ है, गुरु के शबद को मन में बसाना ही तीर्थ–स्नान है क्योंकि इसकी इनायत से मनुष्य के अंदर परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन जाती है और मन से विकारों की मैल धुल जाती है।

गुरु से मिली आत्मिक जीवन की सूझ ही सदा कायम रहने वाला तीर्थ–स्नान है, दस पवित्र दिहाड़े हैं। जगत विकारों में रोगी होया हुआ है, परमात्मा का नाम ही इन रोगों का इलाज है।

साधु-संगत में मित्र–प्रभु का मिलाप हो जाना –यही है असल तीर्थ–स्नान। महिमा की इनायत से मनुष्य परमात्मा के चरणों में जुड़ा रह के आत्मिक अडोलता में आत्मिक–स्नान करता रहता है। यही है सच्चे से सच्चा त्रिवेणी संगम का स्नान।

♥ माघी वाले दिन लोग प्रयाग आदि तीर्थ पर स्नान करने में पवित्रता मानते हैं। पर, जिस मनुष्य ने अपने हृदय में ही तीर्थ पहचान लिया उसकी जिंद पवित्र हो जाती है। जो मनुष्य परमात्मा के गुण अपने दिल में बसाता है वह विकारों के हमलों से सदा अडोल रहता है। परमात्मा की महिमा हृदय में बसानी ही अढ़सठ तीर्थों का स्नान है।

♥ गुरु के बराबर का और कोई तीर्थ नहीं। गुरु ही दरिया है, गुरु की वाणी ही पवित्र जल है। जो मनुष्य इस वाणी को अपने हृदय में बसाता है उसके अंदर से विकारों की मैल धुल जाती है। जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है जिस मनुष्य का मन गुरु की वाणी में पतीज जाता है वह सबसे बढ़िया तीर्थ–स्नान कर लेता है। गुरु पशू–स्वभाव मनुष्य को देवते बना देता है। गुरु मनुष्य को आत्मिक जीवन की सूझ बख्शता है, यह सूझ अमृत–जल है। जिस मनुष्य का मन गुरु के बख्शे ज्ञान–जल में डुबकी लगाता है वह अढ़सठ तीर्थों का स्नान कर लेता है।

♥ ना ही काशी आदि तीर्थों पर जाने से मनुष्य के अंदर सदाचारी बुद्धि पैदा होती है, ना ही इन तीर्थों पर ना जाने से सद्–बुद्धि दूर हो जाती है। देखें आम हालत मनुष्य की! मनुष्य का मन पाँचादिक पाँचों के ढहे चढ़ा रहता है। जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करता है, उसका मन कामादिक विकारों में डोलने से बच जाता है। वह, समझो, तीर्थों पर ही निवास कर रहा है।

जिस मनुष्य को गुरु आत्मिक जीवन की सूझ बख्शता है, उसके वास्ते ये मन ही काशी है, ये मन ही सारे तीर्थ है उस मनुष्य के साथ ही अढ़सठ तीर्थ बसते हैं।

♥ गुरु अंगद देव जी के ज्योति से ज्योति समाने पर गुरु अमरदास जी संन् 1552 में गुरु बने। संन् 1558 में आप कुरुक्षेत्र और हरिद्वार गए। सिख–संगतें भी काफी गिनती में उनके साथ थीं। भाई जेठा जी भी (जो आगे चलकर 1578 में चौथे गुरु, गुरु रामदास बने) साथ थे। कुछ अंजान लोगों को ये भुलेखा लगने लगा कि गुरु अमरदास जी श्रद्धालुओं की तरह तीर्थ–स्नान करने गए थे।

इस भुलेखे को दूर करने के लिए गुरु रामदास जी ने तुखारी राग के एक छंद में उस यात्रा का वर्णन किया, और, यह भुलेखा दूर किया। उन्होंने बताया कि जिस मनुष्य को गुरु के दर्शन हो जाते हैं, ये गुरु–दर्शन ही उसके लिए तीर्थ–स्नान है, यही उसके वास्ते अभीच नक्षत्र का पवित्र दिन है। गुरु के दर्शन से उस मनुष्य के अंदर से आत्मिक जीवन की बेसमझी का अंधेरा दूर हो जाता है।

फिर गुरु अमरदास जी तीर्थों पर क्यों गए थे? इस बारे में गुरु रामदास जी लिखते हैं कि अभीच पर्व के समय तीर्थों पर इकट्ठी हुई सारी लुकाई को जीवन के गलत रास्ते से बचाने के लिए सतिगुरु जी ने तीर्थों पर जाने का उद्यम किया था।

♥ परमात्मा की महिमा ही अढ़सठ तीर्थों का स्नान है। महिमा की यह दाति गुरु–दर और साधु-संगत में से मिलती है।

गुरु के चरणों की धूल, साधु-संगत की चरण–धूल जिस मनुष्य के माथे पर लगती है उसके भाग्य जाग उठते हैं, जिस मनुष्य की आँखों में पड़ती है उसकी आँखें माया के मोह की नींद में से जाग उठती हैं उसके अंदर से विकारों की मैल धुल जाती है।

गंगा, केदार, काशी, विंद्राबन आदि जितने भी प्रसिद्ध तीर्थ हैं इन सभी को प्रसिद्धता मिली संत जनों के चरणों के धूल की इनायत से।

जिस मनुष्य के माथे के भाग्य जागने को आते हैं उसको परमात्मा अपने संत जनों के चरणों की धूल बख्श के संसार–समुंद्र से पार लंघा लेता है।

♥ जो मनुष्य गुरु की संगति में टिक के परमात्मा की महिमा करता है उसका जीवन पवित्र हो जाता है। समझो कि उसने अढ़सठ तीर्थों का स्नान कर लिया है। काम क्रोध लोभ आदि किसी भी विकार का वह दबा हुआ नहीं रहता। जिंदगी के इस राह पर चल के वह जगत में शोभा कमा लेता है।

♥ कई मनुष्य यह चाहते रहते हैं कि किसी तीर्थ पर जा के शारीरिक चोला छोड़ा जाए। पर इस तरह हउमैं अहंकार मन में से कम नहीं होता।

मनुष्य दिन–रात सदा तीर्थों पर स्नान करता रहे, पर शरीर के धोने पर मन की विकारों की मैल धुल नहीं सकती। यह मैल तो परमात्मा का नाम स्मरण करने से ही दूर होती है।

♥ परमात्मा के चरण ही एक सुंदर सरोवर हैं। परमात्मा की महिमा के सरोवर में ही सदा स्नान करना चाहिए। यह स्नान ही मन में से सारे विकार दूर करता है। जो मनुष्य यह स्नान करता है परमात्मा उसके सारे दुख नाश कर देता है उसके मोह का अंधेरा दूर कर देता है। उसकी आत्मिक मौत लाने वाले फंदे काट देता है।

♥ जिस मनुष्य को गुरु आत्मिक जीवन की सूझ बख्शता है उसको समझ आ जाती है कि परमात्मा का नाम स्मरणा ही असल तीर्थ स्नान है। जो मनुष्य नाम–स्मरण करता है, उसके लिए यह नाम-जपना ही सारे पर्व है। उसके सारे रोग कट जाते हैं, यही है अढ़सठ तीर्थों का स्नान। इस स्नान से मनुष्य के अंदर सही आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश हो जाता है, माया के मोह के फंदे काटे जाते हैं।

♥ आम लोगों में यह वहम फैलाया गया है कि बनारस आदि तीर्थ पर शरीर त्यागने से जीव को मुक्ति मिल जाती है। कबीर जी लोगों के इस भ्रम को दूर करने के लिए आखिरी उम्र में बनारस छोड़ के मगहर जा बसे। मगहर के बारे में यह वहम है कि ये धरती श्रापी हुई है, जो वहाँ मरता है वह गधे की जूनि में पड़ता है।

कबीर जी लिखते हैं कि किसी खास देश व नगरी में मुक्ति नहीं मिल सकती। मुक्त वही है जो परमात्मा का भजन करे अपने अंदर से ‘मैं–मेरी; मिटा चुका है।

♥ यह मन ही हज–स्थान है यह मन ही गोमती नदी का किनारा है। मनुष्य के मन में ही परमात्मा का निवास है। इस मन को ही पवित्र करो, ता कि इसमें परमात्मा के दर्शन हो सकें।

हर वक्त अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जपते रहो। यही है असली माला।

♥ अगर मन में विकारों की मैल हो, और मनुष्य तीर्थों पर स्नान करता फिरे तो इस तरह वह स्वर्ग नहीं पहुँच सकता। तीर्थों पर स्नान करने से लोग तो कहने लगेंगे कि ये भक्त है, पर लोगों के पतीजने से क्या बनेगा? परमात्मा तो हरेक के दिल को जानता है।

पानी में डुबकी लगाने से यदि मुक्ति मिल सकती होती तो मेंढक सदा ही नहाते हैं। अगर कोई मनुष्य काशी में शरीर त्यागे, पर मन का कठोर ही रहे, तो इस तरह उसका नरक–भरा जीवन खत्म नहीं हो सकता।

♥ परमात्मा से मिलाप का साधन परमात्मा के नाम का जपना ही है। किसी खास तीर्थ–यात्रा से इसका कोई संबन्ध नहीं है। कोई काशी में बसे तो क्या, कोई मगहर में बसे तो क्या? परमात्मा की याद में मन को परोए रखो।

(19.) मूर्ति-पूजा

♥ गूजरी म: १– तेरा नामु करी चनणाठीआ –पन्ना489

♥ बसंत म: १–सालग्राम बिप पूजि मनावहु –पन्ना 1170

♥ आसा म: ५–आठ पहर उदक इसनानी –पन्ना393

♥ सूही म: ५–घर महि ठाकुरु नदरि न आवै –पन्ना738

♥ भैरउ म: ५ कबीर जी–जो पाथर कउ कहते देव –पन्ना1160

♥ आसा कबीर जी–पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ –पन्ना479

♥ आसा नामदेव जी–आनीले कुंभ भराईले ऊदक –पन्ना485

♥ गौंड नामदेव जी– भैरउ भुत सीतला धावै –पन्ना874

♥ गूजरी रविदास जी– दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ –पन्ना525

♥ धनासरी त्रिलोचन जी–नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी –पन्ना695

भाव:

♥ हमारी और परमात्मा की बहुत ही नजदीक की सांझ है। उसको अपने से दूर ना समझो, वह सदा हमारी सार लेता है। उस परमात्मा का ही नाम स्मरणा चाहिए। यह नाम-जपना ही मनुष्य के आत्मिक जीवन को ऊँचा करता है।

चँदन केसर आदि से किसी मूर्ति की पूजा करने की जगह परमात्मा के नाम को चंदन बनाओ। मूर्ति का पुजारी चंदन को सिला पर घिसाता है। परमात्मा के नाम के चंदन को सदा अपने मन की शिला पर घिसाते रहो। अपना आत्मिक जीवन ऊँचा बनाओ। यही है केसर की सुगन्धि।

जैसे बाहर देव–मूर्तियों को स्नान कराया जाता है, वैसे ही यदि कोई मनुष्य अपने मन को आत्मिक जीवन देने वाले नाम–जल से धोता रहे तो उसके मन की विकारों की मैल धुल जाती है, उसका जीवन–सफर विकारों से आजाद हो जाता है।

♥ मूर्ति का पुजारी मनुष्य सालिग्राम की पूजा करता है और अपने गले में तुलसी की माला डालता है। इस बाहरी धार्मिक क्रिया को ही वह जिंदगी का ठीक रास्ता समझता रहता है। इस तरह धीरे-धीरे उसका जीवन दिखावे वाला जीवन बन जाता है। ये ऐसे ही है जैसे कोई मनुष्य कच्ची दीवार बना के उस पर चूने आदि का पलस्तर करता रहे, अथवा, पथरीली ज़मीन को सींचता रहे।

करना है आत्मिक जीवन को ऊँचा, और, वह होगा उच्चता के श्रोत परमात्मा के साथ जुड़ने से। तुलसी की माला क्या सँवारेगी? अपने जीवन को ऊँचा करने का प्रयत्न करो।

जमीदार खेत की सिंचाई के लिए कूएं का माल्ह तैयार करता है उस के साथ रहट बाँधता है और फिर बैल जोह के पानी खेत को देता है। हृदय की खेती को आत्मिक–जीवन देने वाले नाम–जल से सींचना है, अपने मन को बैल बनाओ।

उगी हुई खेती को गोड़ाई की आवश्यक्ता होती है, नहीं तो घास–नदीन आदि असली फसल को दबा देंगे। जमींदार बड़े ध्यान से पौधों को खुर्पे की मार से बचाता है, और नदीन को खुर्पे से उखाड़ता जाता है। हृदय–खेत में उग रहे कामादिक विकारों को ध्यान से जड़ से उखाड़ते चलो, और, भले गुणों को प्यार से अपने अंदर बढ़ने–फूलने दो।

इस सारे उद्यम में सफलता तब ही होगी यदि भले गुणों के श्रोत परमात्मा के दर पर सदा अरदास करते रहेगे।

♥ नेपाल के दक्षिण में बहती नदी गण्डका में गाँव सालग्राम के नजदीक धारीदार और गोल छोटे–छोटे पत्थर निकलते हैं। उनको विष्णू की मूर्ति माना जा रहा है। उस गाँव के नाम पर उसका नाम भी सालग्राम रखा गया है।

परमात्मा–देव की सेवा–भक्ति ही श्रेष्ठ उद्यम है, असली सेवा–पूजा है सालग्राम की। मूर्ति का पुजारी सालग्राम की मूर्ति को सवेरे स्नान कराता है और भोग लगाता है। पर जलों–थलों पर हर जगह बसने वाला हरि–सालग्राम आठों पहर ही स्नान करने वाला है और सब जीवों के अंदर बैठ के सदा ही भोग लगाता रहता है। सिर्फ मन्दिर में सुने जाने की जगह उस हरि–सालग्राम की रज़ा का घंटा सारे जगत में सुना जा रहा है।

वह हरि–सालग्राम हरेक शरीर में बस रहा है, हरेक का हृदय ही उसका ठाकरों वाला डिब्बा है।

♥ परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य भटकना में पड़ कर कुमार्ग पर चलता–फिरता है। मूर्ति पूजा करके पानी ही मथता है, यह व्यर्थ मेहनत करके आत्मिक मौत सहेड़ता रहता है। परमात्मा तो हरेक मनुष्य के हृदय–घर में बसता है, पर आत्मिक–जीवन से टूटा हुआ पत्थर की मूर्ति ले कर अपने गले में लटकाए फिरता है। पत्थर की बेड़ी नदी से पार नहीं लंघा सकती। पत्थर की मूर्ति की पूजा संसार समुंद्र से पार नहीं लंघा सकती।

जो मनुष्य गुरु को मिल के परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, उसको वह विधाता करतार पानी में धरती में, आकाश में हर जगह बसता दिखता है।

♥ कबीर जी के भैरउ राग के एक शबद के प्रथाय गुरु अरजन साहिब ने एक शबद लिख के कबीर जी के शबदों के संग्रह में ही दर्ज किया है। उसमें नाम भी कबीर जी का ही दिया है। सिर्फ शीर्षक ‘महला ५’ से पता चलता है कि ये शबद गूरु अरजन साहिब जी का है। इस शबद में आप लिखते हैं: परमात्मा सब जीवों में व्यापक हो के सबके अंदर बोलता है सबको प्राण देने वाला है। पर पत्थर निरजिंद है। पत्थर की मूर्ति बना के उसको परमात्मा की मूर्ति कहना गलत रास्ता है। उस मूर्ति के आगे मत्थे टेकने व्यर्थ का उद्यम है। पत्थर की मूर्ति बोल नहीं सकती, कुछ दे नहीं सकती।

परमात्मा हरेक के अंदर बसता है। पत्थर की मूर्ति को परमात्मा समझने की बजाय अपने अंदर बसते परमात्मा के साथ स्मरण के द्वारा गहरी सांझ बनाओे।

♥ फूलों और पत्रों के मुकाबले पत्यार आदि निर्जीव है। निर्जीव की पूजा के लिए उसके आगे सजीव फूल और पक्तियां ला के रखने जीवन का सही रास्ता नहीं है।

मूर्ति घड़ने वाले ने पत्थर घड़ के और घड़ने के वक्त मूर्ति पर पैर रख के मूर्ति तैयार की। अगर ये मूर्ति असली देवता है तो इस निरादरी के लिए घड़ने वाले को क्यों दण्ड नहीं देती।

भात, लपी, पंजीरी आदि जो भी पदार्थ मूर्ति के आगे भेटा रखे जाते हैं उनको मूर्ति नहीं खा सकती, उसको पुजारी ही खाता है।

असल जीता–जागता देवता परमात्मा स्वयं ही है वह सब जीवों के अंदर बसता है।

नोट: कुछ सज्जन आजकल नई रीति चला रहे हैं कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की हजूरी में रोटी का थाल ला के रखते हैं और भोग लगवाते हैं। क्या इस तरह श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को मूर्ति का दर्जा दे के निरादरी नहीं की जा रही? पंथ को सचेत रहने की आवश्यक्ता है।

● मूर्ति का पुजारी पानी का घड़ा ला के मूर्ति को स्नान कराता है। पर, सोच के देखो! पानी में बयालिस लाख जूनियों के जीव बसते हैं; वे हर वक्त पानी को ही जूठा कर रहे हैं। फिर, उन जीवों में भी परमात्मा स्वयं ही बसता है और इस तरह हर वक्त स्नान कर रहा है। उसे किसी विषोश स्नान की क्या जरूरत?

पुजारी फूलों की माला ला के मूर्ति के आगे भेट करता है, पर इन फूलों को तो भौरों ने पहले ही जूठा कर दिया होता है। फिर, उन भौरों में बसता परमात्मा तो पहले ही फूलों से सुगन्धि ले रहा है। मूर्ति के आगे इस विशेष भेट का क्या लाभ?

पुजारी दूध की खीर पका के मूर्ति के आगे भेट करता है भोग लगाने के लिए। पर, जिस दूध की ये खीर बनी, गाय का बछड़ा उसको पहलें ही चूँघ के जूठा कर चुका होता है। भेटा की हुई खीर भी झूठी। वैसे परमात्मा तो उस बछड़े में बैठा पहले ही दूध चुँघ लेता है, इस विशेष खीर की उसको क्या आवश्यक्ता?

परमात्मा सब जीवों में व्यापक हो के सारे पदार्थ भोग रहा है; उसे किसी विशेष भेटा की जरूरत नहीं।

पूजा करके मनुष्य ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा सकता है और वह यह है कि पुजारी अपने पूज्य का रूप बन जाए। संसार–समुंदर में विकारों की अनेक लहरें पड़ रही हैं जिनमें मनुष्य की जीवन–नईया हर वक्त डोलती रहती है। इन विकारों से बचाना किसी देवी–देवते के वश की बात नहीं। मनुष्य के आत्मिक जीवन को परमात्मा का नाम-जपना ही ऊँचा कर सकता है क्योंकि परमात्मा ही सारे गुणों का खजाना है।

मूर्तियों के पुजारी लोग देवी-देवताओं की मूर्तियों को अपनी ओर से स्वच्छ जल–फूल–दूध आदि की भेटा से प्रसन्न करने का यत्न करते हैं, पर ये चीजें मूर्ति तक पहुँचने से पहले ही जूठी हो जाती है।

दूध को थनों पर ही बछड़े ने झूठा कर दिया हुआ है; फूल को भौरा सूँघ के जूठा कर जाता है, पानी को मछली झूठा करती रहती है, चंदन के पौधे के इर्द–गिर्द साँप चिपके रहते हैं।

पर परमात्मा भेट माँगता है स्वच्छ मन की और स्वच्छ तन की। गुरु की शरण पड़ के मिला हुआ ऊँचा आचरण ही प्रभु-मिलाप के रास्ते पर ले जाता है। ऊँचा आचरण मिलता है उच्चता के श्रोत परमात्मा की याद से।

● मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा में जो भी अच्छे या बुरे कर्म करता है उनके संस्कार उसके मन में उकरते रहते हैं। फिर वे संस्कार आगे मौका मिलने पर वैसे ही कर्म करने की ओर प्रेरित करते जाते हैं। इस तरह मनुष्य अपने किए कर्मों के चक्करों में फसा रहता है।

जो मनुष्य परमात्मा के स्मरण में लगता है उसके अंदर ये संस्कार बनने शुरू हो जाते हैं। ज्यों‘ज्यों ये संस्कार प्रबल होते हैं त्यों-त्यों पहले किए कर्मों के संस्कार कमजोर हो के मिटते जाते हैं। आखिर, इस तरह मनुष्य कर्मों के चक्करों में से बच निकलता है।

पर, किसी बड़े से बड़े देवते की पूजा पिछले किए कर्मों के संस्कार मिटा नहीं सकती। पुराणों की साखियों की भी तरफ ध्यान मार के देख लो:

● शिव जी के माथे पर बसने वाले और नित्य गंगा में स्नान करने वाले चँद्रमा का कलंक दूर नहीं हुआ आज तक।

● सूर्य का रथवाह और गरुड़ का भाई अरुण पिंगला ही है अब तक।

● जिस शिव जी को औरों के पाप दूर कर सकने वाला माना जा रहा है जब उसने ब्रहमा का एक सिर काटा तो वह खोपरी ब्रहम–हत्या के पाप के कारण उसके हाथ से ही चिपकी रही।

● समुंदर में से चौदह रत्न निकले माने जा रहे हैं। सारी नदियों का नाथ माना जा रहा है। पर पढ़ के देखो टिटहरी के अंडों की कहानी। समुंदर आज भी खारा है।

● हनुमान ने श्री रामचंद्र जी की बेअंत सेवा करके दिखाई, पर उसको उनसे कमर का कच्छा ही नसीब हुआ। पिछले कर्मों की खेल ना मिट सकी।

परमात्मा का नाम-जपना ही कर्मों के चक्करों से बचाता है।

(20.) गृहस्थ–त्याग

♥ सूही म: १–जोगु न खिंथा, जोगु न डंडै –पन्ना730

♥ रामकली सिध गोसटि म: १–हाटी बाटी रहहि निराले–पन्ना938

♥ पउड़ी म: १ (मलार की वार) –इकि वणखंडि बैसहि जाइ–पन्ना1284

♥ पउड़ी म: ४ (सोरठि की वार) –तिन का खाधा पैधा माइआ सभु पवितु है–पन्ना648

♥ भैरउ म: ५–प्रथमे छोडी पराई निंदा –पन्ना1147

♥ धनासरी म: ९–काहे रे बन खोजन जाई –पन्ना684

♥ गउड़ी कबीर जी–नगन फिरत जौ पाईअै जोगु –पन्ना324

♥ बिलावलु कबीर जी–ग्रिहि तजि बन खंड जाईअै –पन्ना855

♥ गूजरी त्रिलोचन जी–अंतरु मलि, निरमलु नही कीना–पन्ना525

भाव:

♥ गोदड़ी पहन लेना, डंडा हाथ में पकड़ लेना, शरीर पर राख मल लेनी, कानों में मुंद्राएं पहन लेनी, और सिर मुन लेना –परमात्मा से मिलाप के ये साधन नहीं हैं।

घर से बाहर मढ़ियों में मसाणों में रहना, समाधियां लगानी, देश–परदेस में भटकते फिरना, तीर्थों पर स्नान करने – ये उपाय परमात्मा के साथ मनुष्य का मेल नहीं करवा सकते।

परमात्मा से मिलाप का अभ्यास यूँ करना चाहिए कि दुनिया के कार्य–व्यवहार करते हुए ही मनुष्य विकारों से परे हटा रहे। मेहनत-कमाई भी करे ओर परमात्मा की याद में भी जुड़े। जब माया के मोह की कालिख में रहते हुए ही माया से निर्लिप प्रभु से जुड़ सकें, तब प्रभु के मिलाप का सलीका आ जाता है।

♥ जब अचल–बटाले के मेले पर गुरु नानक देव जी जोगियों को जा के मिले तो जोगियों ने फख़र से कहा कि हम दुनिया के झमेलों से अलग जंगल में किसी पेड़–वृक्ष के नीचे गाजर–मूली खा के गुजारा करते हें, तीर्थों पर स्नान करते हें। इस तरह हमारे मन को माया की मैल नहीं लगती।

गुरु नानक देव जी ने कहा कि गृहस्थ को छोड़ के जंगलों में बसना माया और मोह से बचने का सही रास्ता नहीं है। चाहिए तो यह कि दुनिया के काम–काज करते हुए मनुष्य धंधों में ही गर्क ना हो जाए, पर घर की ओर अपने मन को डोलने ना दे। पर, यह तब ही हो सकता है जब मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता हुआ सदा परमात्मा की याद में सदा अपने मन को जोड़े रखे।

♥ कई मनुष्य ऐसे हैं जो घर छोड़ के जंगल में जा टिकते हैं और मौन धार के रखते हैं। कई मनुष्य किसी तीर्थ के ठंडे–ठार पानी में खड़े हो के अपने शरीर को ठारते हैं, कई ऐसे हैं जो शरीर पर राख मल के रखते हैं, कभी शरीर को साफ नहीं करते। कई मनुष्यों ने लंबी–लंबी बालों की जटा सिर पर बढ़ा ली होती हैं। कई मनुष्य दिन–रात नंगे फिरते रहते हैं, और, कई ऐसे हैं जो धूणियां तपा के अपने शरीर को सेकते रहते हैं।

परमात्मा के दर पे वही मनुष्य स्वीकार हैं जो गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के सदा परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं।

♥ घर छोड़ के जंगल में नहीं जा के बसना, जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, उनके द्वारा माया का प्रयोग, खाना–पहनना सब कुछ पवित्र है। उनके घर मन्दिर महल आदि सब पवित्र हैं, क्योंकि उन घरों में आ के सिख–सेवक अभ्यागत सुख लेते हैं। जो मनुष्य परमात्मा की याद नहीं भुलाते, उनके सारे काम–काज पवित्र होते हैं।

♥ घर छोड़ के फकीर बनने से कोई त्यागी नहीं बन सकता। असल त्यागी वह है जो घर में रहते हुए ही परमात्मा का नाम स्मरण करता है। ऐसा कोई विरला ही होता है।

ऐसा मनुष्य नाम-जपने की इनायत से पराई निंदा का त्याग करता है, लोभ, मोह आदि विकारों को अपने नजदीक नहीं आने देता। वह मनुष्य अहंकार को छोड़ता है, कामादिक विकार उस पर वार नहीं कर सकते। किसी अच्छे-बुरे सलूक की परवाह ना कर के वह सबके साथ मित्रों वाला सलूक करता है।

♥ परमात्मा को ढूँढने के लिए जंगलों में जाने की आवश्यक्ता नहीं, वह हरेक जीव के अंदर बसता है। जैसे फूल में सुगन्धी बसती है, जैसे शीशे में शीशा देखने वाले का अक्स बसता है, वैसे ही परमात्मा हरेक जीव के अंदर बसता है, और, रहता भी है निर्लिप।

पर, देखिए मनुष्य के भाग्य! बरखा ऋतु में किसी जगह बहुत देर तक पानी खड़ा रहे तो वहाँ धरती पर हरे रंग का जाला बन जाता है काई जम जाती है। उस जाले के कारण पानी धरती में जज़्ब नहीं सकता। जिस मनुष्य की अक्ल पर भटकना का जाला आ जमे, उसको इस बात का असर नहीं होता कि परमात्मा उसके अपने अंदर बस रहा है। वह अपना आत्मिक जीवन परखने की ओर देखता ही नहीं। अपने आप परख के ही यह समझ आती है कि परमात्मा हमारे हरेक के अंदर है, उसको ढूँढने के लिए जंगलों में जाने की आवश्यक्ता नहीं।

♥ नंगे रह के जंगलों में भटकना, सिर मुना के फकीर बन जाना, बाल–ब्रहमचारी बने रहना –इस तरह का कोई भी साधन मनुष्य के आत्मिक जीवन को ऊँचा नहीं करता, मनुष्य को संसार–समुंद्र की विकार लहरों में से डूबने से बचा नहीं सकता। सिर्फ परमात्मा का नाम ही बेड़ा पार करता है।

♥ हरेक अच्छे-बुरे किए हुए कर्मों के संस्कार मनुष्य के मन में साथ-साथ उकरते जाते हैं। इस तरह अनेक किस्मों के चस्के मनुष्य द्वारा छोड़े नहीं जा सकते। भले ही इन्हे रोकता रहे मनुष्य, पर मन बार-बार विषियों की वासनाओं में जा चिपकता है। घर छोड़ के जंगल–वास करने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि विकारों के संस्कार तो मनुष्य के अंदर टिके रहते हैं।

जवानी की उम्र गुजर जाती है, बुढ़ापा आ जाता है; पर मन फिर भी बुरी वासनाओं का शिकार हुआ रहता है, और इस तरह मनुष्य अपने कीमती जनम को व्यर्थ गवा लेता है।

परमात्मा के दर पर पड़ कर उसकी याद में जुड़ने से ही विकारों से निजात मिलती है।

♥ निरा फकीरी भेस धारण करने से परमात्मा से मिलाप नहीं हो सकता।

मनुष्य अपने शरीर पर साधुओं वाला पहरावा पहन लेता है, पर अगर उसने अपने मन को कभी नहीं परखा तो सन्यास धारण करने का कोई आत्मिक लाभ नहीं हो सकता।

घर–घर से मांग के टुकड़े खा लेना, गोदड़ी पहन लेनी, मुंद्राएं पहन लेनी, मसाणों की धरती की राख शरीर पर मल लेनी –अगर मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर नहीं चलता, आत्मिक जीवन नहीं जीता, तो ये सारा उद्यम व्यर्थ है।

नियत जप करने, तप साधने– अगर मन की वासनाएं खत्म नहीं हुई तो वासना–रहत परमात्मा के साथ मिलाप नहीं हो सकता।

हाथ में खप्पर पकड़ लेने का कोई आत्मिक लाभ नहीं, अढ़सठ तीर्थों पर स्नान का लाभ नहीं। ये सारे उद्यम यूँ ही हैं जैसे भरियों (अनाज के भण्डार वाले बिन) में अन्न के दाने तो चाहे ना हों पर मनुष्य उसमें गाह डालता फिरे।

परमात्मा का नाम स्मरण करो नाम। यही है विकारों से बचाने वाला।

(21.) धर्म–पाखण्ड, दिखावा

♥ सलोक म: १ (आसा दी वार) – पढ़ि पुसतक संधिआ बादं–पन्ना 470

♥ सलोक म: १ (वार आसा) – माणस खाणे करहि निवाज–पन्ना 471

♥ धनासरी म: १– कालु नाही जोगु नाही–पन्ना 662

♥ सूही म: १– उजलु कैहा चिलकणा, घोटिम कालड़ी मसु–पन्ना 729

♥ आसा म: ३– निरति करे बहु वाजे वजाऐ–पन्ना 364

♥ सलोक म: ३ (वार वडहंस) – भेखी अगनि न बुझई–पन्ना 588

♥ सलोक म: ३ (फरीद जी) – हंसा देखि तरंदिआ–पन्ना 1384

♥ आसा म: ४– गुरमुखि हरि हरि वेलि वधाई–पन्ना 367

♥ रामकली म: ४– जे वडभाग होवहि वड मेरे–पन्ना 880

♥ सलोक म: ४ (वार कानड़ा) – हरि कीरति उतमु नामु है–पन्ना 1314

♥ गउड़ी म: ५– जीअ रे ओला नाम का–पन्ना 211

♥ गउड़ी सुखमनी म: ५– मन कामना तीरथ देह छुटै–पन्ना 265

♥ गउड़ी सुखमनी म: ५– करतुति पसू की मानस जाति–पन्ना 267

♥ आसा म: ५– बारहु धोइ, अंतरु मनु मैला–पन्ना 381

♥ सलोक म: ५ (वार रामकली) – अंदरहु अंना बाहरहु अंना–पन्ना 960

♥ सलोक म: ५ (वार रामकली) –पंडितु आखाऐ बहुती राही–पन्ना 960

♥ भैरउ म: ५– वरत न रहउ न मह रमदाना–पन्ना 1136

♥ सारग म: ५– अवरि सभि भूले भ्रमत न जानिआ–पन्ना 1205

♥ सवऐ श्री मुखवाक् म: ५– उदमु करि लागे बहु भाती–पन्ना 1389

♥ आसा कबीर जी– गज साढे तै तै धोतीआ–पन्ना 476

♥ आसा कबीर जी –हम घरि सूतु तनहि नित ताना –पन्ना 482

♥ आसा कबीर जी –अंतरि मैलु जे तीरथ नावै –पन्ना 484

♥ सोरठि कबीर जी –ह्रिदै कपट मुख गिआनी –पन्ना 656

♥ आसा नामदेव जी– सापु कुंच छोडै, बिखु नही छाडै –पन्ना 485

♥ सलोक फरीद जी– तती तोइ न पलवै–पन्ना 1381

भाव:

♥ धर्म–पुस्तकें पढ़ के औरों से चर्चा छेड़ते रहना, मूर्ति की पूजा और दिखावे की समाधि, गले में माला और माथे पर तिलक –परमात्मा के महिमा के मुकाबले पर सारे कर्म फोके हैं।

♥ रिश्वतें खानीं, लेकिन पढ़नी नमाजें; गरीबों पर जुल्म करना, पर गले में जनेऊ; –ये नमाजें और ये जनेऊ आत्मिक जीवन का कुछ नहीं सँवारते। ऐसी रिश्वतखोर जनेऊ–धारियों के घर श्राद्ध आदि का भोजन खा के बल्कि ब्राहमण भी अपना जीवन मलीन कर लेते हैं।

♥ ये मानव जन्म का समय इस वास्ते नहीं है कि लोगों में धर्मी कहलवाने की खातिर लोगों को ठगने की खातिर आँखें बंद करके नाक पकड़ के समाधि की शक्ल में बैठो, और श्रद्धालुओं को कहते रहो कि हमें इस तरह तीनों ही लोक दिख रहे हैं। इन दंभों से परमात्मा से मेल नहीं हो सकता, ना ही ये उच्च–आचरण का तरीका है।

♥ काँसे का बर्तन देखने को साफ और चमकदार होता है, पर इससे हाथ घसाओ हाथ काला हो जाएगा। बाहरी चमक किस अर्थ, अगर अंदर से काला है?

दोनों तरफ से चित्रित पक्के सुंदर घरों का क्या लाभ अगर उनमें कोई बस ही ना रहा हो?

सफेद पंखों वाले बगुले तीर्थों पर बसते हों। तो भी क्या हुआ? खानी तो उन्होंने मेंढकियां और मछलियां ही हैं।

ऊँचे–लंबे सिंबल के फल तोतों के किस मतलब के? उनके अंदर तो रेशा ही होता है।

पहाड़ी रास्ते की तरह जीवन–पथ बहुत ही मुश्किल है। लोक–दिखावे और चालाकियां मदद नहीं करतीं।

♥ जेठ–आसाढ के महीने की ऋतु में बड़ी भयानक अंधेरियां आती हैं। आम तौर पर अंधेरी शाम के वक्त के करीब आती है। गाँव के घरों में मिट्टी के दीए, कपास की बक्तियां, और सरसों का तेल। दरवाजे बंद करके लोग रौशनी के लिए दीए जलाते हैं। पर अगर थोड़ा सा भी दरवाजा खुल जाए, अंधेरी का एक ही बुल्ला और दीया गुल।

जिस मनुष्य के हृदय में लोभ की अंधेरी हर वक्त झूल रही हो, वहा हक–बेहक परखने के लिए ज्ञान का दीया कहाँ जले?

♥ साँप बहुत ही जहरीला जानवर है, मनुष्य को इससे हर वक्त खतरा होता है। बरखा ऋतु में ये खुडों से बिलों में से निकलते हैं। धरती के हजारों मनुष्य हर साल साँप के डंक मारने से सदा की नींद सो जाते हैं। मनुष्य भी अपने इस वैरी को जहाँ देखता है जान से मारने का प्रयत्न करता है।

पर अगर कोई अंजान मनुष्य साँप को मारने की बजाय उसके बिल को बंद कर दे, तो इस तरह वैरी की ओर से खतरा खत्म नहीं हो सकता। इसी तरह बिगड़े हुए मन को सही करने की जगह शरीर को धार्मिक पहरावे पहनाने से कोई लाभ नहीं होता।

♥ हँस मानसरोवर के गहरे पानियों में तैरते हें। हंसों की खुराक मोती। पानी और दूध को अलग-अलग कर सकने की कुदरती शक्ति उनकी चोंच के पास। बगुला बेचारा छोटे पानियों में खड़े होने वाला। पड़ा खड़ा हो एक टांग के भार, पर उसकी खुराक मछलियां। हंसों की रीस में अगर कहीं बगुला भी गहरे पानी में तैरने का प्रयत्न करे, तो डूबेगा ही।

पाखण्डी भेखी सच्चे आशिकों की बराबरी नहीं कर सकते।

♥ हाथी जब किसी नदी–नाले पर पानी पीने जाता है तो अपनी सूंड से पानी उछाल–उछाल के बड़े आनंद से नहाता भी है। कितना–कितना समय इस मौज में गुजार देता है।

पर नदी में से बाहर निकल के सूंड से घट्टा–मिट्टी इकट्ठा करके अपने शरीर पर डाले जाता है। उसका सारा स्नान मिट्टी में मिल जाता है।

प्रभु का स्मरण मनुष्य के मन के लिए जल है, पर किए हुए धार्मिक कर्मों का अहंकार वह कीचड़ है जो मन को गंदा करता जाता है।

♥ बगुला मान–सरोवर में जा बैठे, वहाँ भी मेंढकियों–मछलियों की ही तलाश करेगा। कौआ हमेशा कंकाल व विष्टा पर ही रीझेगा।

हरि–जनों की संगति अमृत का सरोवर है। स्वार्थी लोगों को ऐसे पवित्र स्थान से भी कुछ प्राप्त नहीं होता। सत्संग में बैठ के भी उनकी तवज्जो स्वार्थ और विकारों की तरफ ही रहती है।

♥ हाथी को कितना ही मल–मल के स्नान करवाओ, वह फिर मिट्टी–धूल अपने ऊपर डाल लेता है। परमात्मा की याद को छोड़ के अपनी तरफ से कितने ही पुण्य-कर्म करते जाओ, मन को अहंकार की मैल और ज्यादा लगती जाएगी।

♥ नदी–किनारे बसे हुए गाँवों के लड़के पशुओं को चराने के लिए दरिया के तट के चरागाहों में जाते हैं। जानवर चरागाहों में चरते हैं। लड़के दरिया के किनारे पर खेलते रहते हैं। कई बार रेत में अपने पैर रख के रेत को दबा के रेत के घर भी बनाते हैं। पर रेत के घर उधर बनते हैं, उधर ढहते जाते हैं। अगर दरिया के पानी की लहर आ जाए, तो उन घरों का कहीं नामो-निशान नहीं रह जाता।

अपने बड़प्पन की खातिर किए हुए दान–पुण्य आदि के कामों से ये आस नहीं होनी चाहिए कि इस दान–पुण्य से मन में दया घर कर लेगी। अहंकार की छल साथ ही साथ मन में से दया आदि शुभ गुणों का सफाया करती जाती है।

♥ स्नान के बाहरी साधन मन की विकारों की मैल दूर नहीं कर सकते।

♥ हल्काया कुक्ता हर किसी को काटता फिरता है, और इस तरह और लोगों को भी हलकाया करता जाता है। हल्के कुत्ते के मुँह की झाग भी इतनी खतरनाक होती है कि जिसको लग जाए, उस पर हलक का असर हो जाता है।

माया का मोह मनुष्य के मन के लिए हलक के समान है। लोभ–वश मनुष्य हक–बे–हक की परवाह नहीं करता। लोभी का साथ भी बुरा। औरों के अंदर भी लोभ–हलक पैदा करता है।

जिस मनुष्य के मन में लोभ–हलक हो, उसके बाहरी धार्मिक भेख किसी काम के नहीं।

♥ मनुष्य जाति के साँप का सिर्फ बिल बंद कर देने से साँप का खतरा टल नहीं जाता। बिगड़ा हुआ मन साँप के समान है। शारीरिक स्नान मन की मैल दूर नहीं कर सकते।

♥ हंसों की खुराक है मोती, और बगुलों की मेंढकी–मछलियां। हंसो के बीच में कभी सिर्फ बैठने भर से बगुले हँस नहीं बन जाते, वे सदा मेंढकियां–मछलियां खाते ही रहेंगे। स्वार्थी और माया–ग्रसित मनुष्य भले आँखें बंद कर–कर के भजन गाता रहे, माया की पकड़ बनी ही रहेगी। मन को विकारों की ओर से रोकने की आवश्यक्ता है।

♥ साबत मोठ पकाने के लिए रख दो। मोठ तो गल जाएंगे, पर कोरडू पत्थर ही रहेंगे। देखने को वे भी मोठ ही हैं, पर उन पर उबलते पानी का असर नहीं होता। जिस मनुष्य का मन अंदर से मोह के कारण कठोर मोठ बन गया है, उसके बाहरी धर्म–कर्म व्यर्थ जाते हैं।

♥ हिन्दू हो चाहे मुसलमान, बाहरी भेस के कोई अर्थ नहीं। एक परमात्मा प्यार ही स्वीकार है।

♥ खेत में नित्य हल चलाए जाओ, जब तक बीज नहीं बीजोगे, फसल की कभी आस नहीं रखी जा सकती। दूध मथने पर ही मक्खन निकल सकेगा, पर पानी को मथने से, सारी उम्र मथते रहो, मक्खन नहीं निकल सकता।

गुणों का श्रोत है परमात्मा। जब तक मनुष्य इस श्रोत से बिछुड़ा हुआ है, बेशक और-और पुण्य कर्म करता जाए, असली उच्च आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता।

♥ मकड़ा कहुत सुंदर बारीक जाला तानता है। अनेक मक्खियां और मच्छर हर रोज उसके जाले में फंसते हैं। मकड़ा उनके लहू पर पलता रहता है। पर आखिर में वही जाला उसकी अपनी मौत का कारण बन जाता है। उसके अपने ही बच्चे उसको उस जाले में घेर लेते हैं, और उसका लहू पी जाते हैं।

पाखण्डी मनुष्य अपने इर्द–गिर्द धार्मिक दिखावे का जाला ताने रखता है। खुश होता रहता है अनेक श्रद्धालुओं को ठग–ठग के। पर यह जाला उसको आत्मिक मौत मार देता है।

♥ बाहर से संत वाला भेस हो, चौके की बहुत सुचि भी रखी हो, पर अगर मन में खोट है, तो वह संत नहीं, बहुत बड़ा ठग है।

♥ गउओं के रखवाले ग्वाले का ये फर्ज होता है कि जहाँ वह उन्हें जूह में चराता–फिरता है वहीं उन्हें हर किस्म के खतरे से बचाए रखने के लिए भी सावधान रहे, बरखा ऋतु में नदियों की बाढ़ों में से सही–सलामत घर पहुँचाने की भी जिम्मेवारी समझे।

जनता अपने धार्मिक नेताओं की सेवा आदि करके उनसे ये आस भी रखती है कि वे जनता को सदा सही जीवन अगवाई दें। सिर्फ अपनी पूजा–प्रतिष्ठा का ख्याल रखने वाला मनुष्य नेता कहलवाने का हकदार नहीं होता।

♥ मेंढक सदा पानी में रहते हैं। पर ये नित्य–स्नानी मेंढक मुकत नहीं हो जाते। निरे शारीरिक स्नान मनुष्य के मन की मैल दूर नहीं कर सकते। मलीन–मति किसी पवित्र धरती पर सदा टिके रहने से महात्मा कहलवाने का हकदार नहीं हो जाता।

♥ तुमीं का कड़वापन अढ़सठ तीर्थों पर स्नान कराने से भी नहीं जाता।

अगर दिल में ठगी है, तो मुँह से ज्ञान की बातें करना सिर्फ पानी मथना है।

♥ सर्दियों की ऋतु गुजर जाने पर साँप अपनी कुँज उतार देता है, पर इस तरह उसका जहर दूर नहीं हो जाता; बगुला पानी में एक लात पर खड़ा रहता है, पर उसकी ताक हमेशा मछली पर रहती है।

मनुष्य अपने मन को शुद्ध करने का प्रयत्न ना करे, और सिर्फ समाधियां ही लगाता रहे; वे समाधियां व्यर्थ हैं।

♥ पानी बनस्पति की जिंद–जान है। पाले–ओले की मारी हुई फसल दोबार बरखा से हरी-भरी हो जाती है। पर बरखा की ऋतु में निचले तल के खेतों में जो फसल पानी में कुछ दिन डूबी रहती है, वह ऐसी जलती है कि कितना भी उनको पानी दो, फिर नहीं पलरती।

जो लोग नित्य धर्म–स्थानों पर भी टिके रहते हैं, और विकारों का भी शिकार बने रहते हैं, उनके अन्दर ऊँचा आत्मिक जीवन बनना असंभव हो जाता है। जिस चाव और उत्साह से वे पहले–पहल धार्मिक स्थान में आए थे, वह उत्साह हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है।

(22.) चोंच–ज्ञानता

♥ सलोक म: १ (आसा दी वार) –पढ़ि पढ़ि गडी लदीअहि –पन्ना 467

♥ सलोक म: १ (सूही की वार) – दीवा बलै अंधेरा जाइ –पन्ना 791

♥ सलोक म: १ (वार मलार) – हरणां बाजां तै सिकदारां –पन्ना 1288

♥ सलोक म: ३ (वार सोरठि) –पढ़णा गुढ़णा संसार की कार है–पन्ना650

♥ सलोक म: ५ (गूजरी की वार) – कड़छीआं फिरंनि् –पन्ना 521

♥ भैरउ म: ५ – निकटि बुझै सो बुरा किउ करै –पन्ना 1138

♥ टोडी नामदेव जी – कोई बोलै निरवा –पन्ना 718

भाव:

♥ अगर इतनी पुस्तकें पढ़ लें जिनसे कई गाड़ियां भरी जा सकें जिनके ढेरों के ढेर लगाए जा सके। अगर इतनी पुस्तकें पढ़ ली जाएं कि एक नाव भरी जा सके; अगर पढ़–पढ़ के जिंदगी के सालों के साल गुजार लिए जाएं, तो भी परमात्मा की हजूरी में इसमें से कुछ भी स्वीकार नहीं होता।

माया धन की तरह विद्या–धन भी अहंकार ही बढ़ाएगा।

♥ वेद आदि धर्म–पुस्तकों के निरे पाठ तो दुनियावी व्यवहार ही समझो। विद्वान लोग इनको पढ़–पढ़ के इनके सिर्फ अर्थ ही विचारते हैं। जब तक मति नहीं बदलती, निरे पाठ और अर्थ–विचार आत्मिक जीवन की सूझ नहीं सँवारते।

जैसे–जैसे दीया जलता है तो अंधेरा दूर हो जाता है, इसी तरह वेद आदि धर्म–पुस्तकों की वाणी अनुसार ढली हुई मति पापों का नाश करती है।

वह मनुष्य ही पापों के अंधेरे से बाहर निकलता है जिसने अपनी मति गुरु के हवाले कर दी है।

♥ लोग हिरणों बाजों को पाल के सिखा के उनसे और हिरणों और पंछियों को पकड़ते हैं। विद्या आदि पढ़ के लोग कचहरियों आदि दफतरों में नौकरी करते हैं, और लोगों से जी भर के रिश्वतें लेते हैं।

ये कैसी विद्या है? ये तो फंदा है फंदा। हिरण पढ़ के ट्रेन हो के सीख के अपने जाति भाईयों को मनुष्य के फंदे में ला फसाते हैं, बाज़ और पंछियों की मौत का कारण बनते हैं। पढ़े हुए चुस्त–चालाक लोग भी अपने भाईयों के लिए फंदे बिछाते हैं।

उसे असल विद्या ना कहो जिसकी मदद से मनुष्य मनुष्यों का लहू पीने में चुस्त हो जाएं।

♥ पुस्तकें पढ़नी और उनको विचारना और कार्य–व्यवहारों की तरह एक व्यवहार ही है। मनुष्य की बुद्धि इससे तेज हो जाती है। पर अगर इस विद्या का मनुष्य के जीवन में कोई असर नहीं पड़ता, अगर मनुष्य के अंदर माया की तृष्णा और विकार टिके ही रहते हैं, तो विद्या के अहंकार और माया के मोह में मनुष्य अंतरात्मा में दुखी ही होता रहता है।

उस मनुष्य को ही पढ़ा हुआ और समझदार समझो जो गुरु के शबद से अपने मन को खोजता है, और, तृष्णा से बचने के लिए रास्ता तलाश लेता है, आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुणों में तवज्जो जोड़नी सीखता है।

♥ दाल–भाजी के बर्तन में कड़छी फेरी जाती है, पर उस कड़छी को उस भाजी उस दाल का कोई स्वाद नहीं आता।

धार्मिक पुस्तकें पढ़ के निरी बातें करने वाले के मुँह कड़छियों की तरह ही हैं। सुंदर मुँह वे हैं जो परमात्मा के प्यार के स्वाद में रंगे जाते हैं।

♥ हर कोई कहता है कि परमात्मा सबके नजदीक है सबके अंदर है। पर, इस चोंच–ज्ञानता का क्या लाभ, अगर अमली जीवन इस कथन के मुताबिक नहीं है?

जो मनुष्य दूसरों का नुकसान करता है, जो मनुष्य पराया धन चुराने के प्रयत्न करता रहता है, जो मनुष्य कार्य–व्यवहार में सदा झूठ बोलता है, उसका जबानी–जबानी ये कहने का क्या लाभ कि परमात्मा हरेक के अंदर बसता है?

विद्या वह जो मनुष्य के आत्मिक जीवन के किवाड़ खोल दे, जो मनुष्य का रोजाना जीवन सुंदर बना दे।

♥ कोई मनुष्य कहता है परमात्मा हमारे नजदीक बसता है कोई कहता है के हमसे किसी दूर जगह पर है। पर, निरी बहस से निर्णय कर लेना ऐसे ही असंभव है जैसे पानी में रहने वाली मछली खजूर पर चढ़ने का प्रयत्न करे। परमात्मा नजदीक है या दूर, इस बारे में अपनी विद्या का दिखावा करने के लिए बहस करना एक व्यर्थ का प्रयत्न है।

विद्या के बल पर परमात्मा की हस्ती के बारे में बहस करनी व्यर्थ का उद्यम है। उसकी भक्ति करना ही जिंदगी का सही रास्ता है।

(23.) मन

♥ मारू म: १ –सूर सरु सोसि लै –पन्ना 991

♥ सलोक म: १ (सारग की वार) –न भीजै रागी नादी बेदि –पन्ना 1237

♥ पउड़ी म: ३ –जो जन लूझहि मनै सिउ –पन्ना 1088

♥ सलोक म: ३ (वार मारू) –मारू मारण जो गऐ –पन्ना 1089

♥ सूही छंत म: ४–वसि आणिहु वे जन इसु मन कउ –पन्ना 776

♥ पउड़ी म: ४ (वार सारग) –हरि का नामु निधानु है –पन्ना 1239

♥ बिलावलु म: ५ –कवनु कवनु नही पतरिआ –पन्ना 815

♥ भैरउ कबीर जी –किउ लीजै गढु बंका भाई –पन्ना 1161

♥ मारू जैदेव जी –चंद सत भेदिआ –पन्ना 1106

♥ सलोक म: ३ (गूजरी की वार) –मनु कुंचरु, पीलकु गुरु–पन्ना576

भाव:

♥ मनुष्य जो भी अच्छे-बुरे कर्म करता है उनके संस्कार उसके अंदर इकट्ठे होते रहते हैं। उन संस्कारों का प्रेरा हुआ मनुष्य का मन हर वक्त भटकना में पड़ा रहता है, किसी भी वक्त नहीं टिकता।

प्राणायाम इस चंचल मन को भटकने से बचा नहीं सकता। लाख प्राणायाम करते रहो, अंदर के संस्कार अंदर ही टिके रहेंगे। अगर परमात्मा के साथ एक–रूप होना है तो यह जरूरी है कि मनुष्य का आत्मिक जीवन ऊँचा हो के परमात्मा के जीवन जैसा ऊँचा बन जाए। और, ये तब ही हो सकेगा अगर मनुष्य परमात्मा की याद को सदा हर वक्त मन में बसाए रखे।

जब तक मन में पिछले किए कर्मों के संस्कार मौजूद हैं तब तक मन चंचल है, मनुष्य को भटकना में डाले ही रखेगा।

♥ कोई मनुष्य राग में सुंदर सुरों में भजन गाता है, कोई मनुष्य समाधियां लगाता है, कोई मनुष्य सदा सोगी स्वभाव बनाए रखता है, कोई नगन साधु बन के तीर्थों पर स्नान करता–फिरता है, कोई मनुष्य अनेक दान–पुण्य करता है, कोई मनुष्य मौन धार के बैठा रहता है, कोई मनुष्य रणभूमि में शूरवीरों की तरह मौत का मुकाबला करता है –देखने को। ये सारे कर्म चाहे धार्मिक लगें, पर परमात्मा हरेक मनुष्य के अंदर बसता यह देखता है कि इसके मन की अवस्था कैसी है। अगर मन बाहर भटकता फिरता है, तो परमात्मा के चरणों से मिलाप किसका हो?

और, मन ने तब ही भटकने से हटना है जब मनुष्य इसको परमात्मा की याद में जोड़ता है।

♥ शूरवीर वे नहीं, जो रण–भूमि में वैरियों के साथ लड़ते हैं। सूरमे वह हैं जो अपने मन के साथ लड़ाई करते रहते हैं, वही मनुष्य जगत में आदर–मान हासिल करते हैं। जो मनुष्य सदा अपने मन की खोज–पड़ताल करते रहते हैं, वे परमात्मा के साथ मिले रहते हैं। ज्ञानवान लोगों की महानता ही इसी बात में है कि वे माया के पीछे भटकने की जगह सदा अंदर की ओर परते रहते हैं।

जिन्होंने गुरु की मेहर से अपने मन को जीत लिया, उन्होंने जगत को जीत लिया।

♥ जो मनुष्य ये ख्याल करता है कि मन को वश में लाने के लिए गृहस्थ छोड़ के जंगल में जाना जरूरी है, वह गलत राह पड़ जाता है। इस मन को चंचलता से हटाने का एक–मात्र तरीका है, वह है इस मन को गुरु के शबद की विचार में जोड़ा जाए। गुरु की सहायता से अंतर मुख होने से अंदर की ओर पलटने से मन वश में आ जाता है।

♥ अपने इस मन को सदा अपने वश में रखना चाहिए। मनुष्य का यह मन सदा शिकारी पंछी बाशे की तरह भटकता रहता है। सदा आशाएं ही आशाएं बनाते हुए मनुष्य की सारी जिंदगी दुख में ही बीतती है।

जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है वह परमात्मा का नाम जपने लग जाता है, और नाम जपते हुए उसके मन में उठी हरि-नाम जपने की आस पूरी हो जाती है। सदा परमात्मा के दर पर अरदास करते रहना चाहिए कि हे प्रभु! मुझे अपना नाम जपने की सूझ बख्श।

♥ परमात्मा का नाम ही सुखों का खजाना है। जो मनुष्य नाम जपता है वह परमात्मा की हजूरी में भी यहाँ से इज्जत से ही जाता है।

जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है परमात्मा का नाम उसके हृदय में आ बसता है। इस नाम की इनायत से मन काबू में आया रहता है, वरना ये सदा भटकता रहता है।

पर है ये सदा दाति ही। जिस पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है उसी को ही नाम की दाति मिलती है और उसी के मन की भटकना खत्म होती है।

♥ गधे का ये आम स्वभाव है कि उसका दाँव लगे तो वह दुलक्तियां बहुत मारता है, तभी शब्द ‘खर–मस्ती’ आम बोलचाल में आया है। भाव, खर वाली मस्ती, गधे वाली मस्ती। गधे की इस मस्ती को काबू में रखने के लिए ही कुम्हार गधे के पिछले पैरों को तभी खोलता है जब उसको पहले लाद लेता है।

मनुष्य का मन भी पिछले किए कर्मों के संस्कारों के कारण बहुत चंचल है, इसको खर–मस्ती करने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए। जो भी मनुष्य अपने मन पर ऐतबार करता है मन की अगवाई में चलता है वह सदा माया में फसा रहता है।

बड़े–बड़े जपी–तपी और संजमी भी मन के पीछे लग के अपनी सारी की हुई कमाई के सिर पर पानी डाल लेते हैं, कामादिक पाँचों लुटेरे उनको जीवन सफर के गलत राह पर डाल देते हैं।

वही मनुष्य अपने मन पर काबू पाते हैं जिनको परमात्मा अपने नाम की दाति बख्शता है।

♥ पुराने समय में राजे–महाराजे अपने राज की हिफाजत के लिए किले बनवाया करते थे। किलो चारों तरफ ऊँची–ऊँची फसीलें और फसीलों के बाहर गहरी खाईयां हुआ करती थीं, जो सदा पानी से भरी रहती थीं। किले का बड़ा सारा फाटक होता था जिसके सामने पहरेदार और दरबान सदा खड़े रहते थे। जब कोई राजा अपने से बड़े किसी पड़ोसी राजे से आकी होता था तो अपनी सारी फौजी ताकत किले में इकट्ठी कर लेता था। बाहर से आए राजे को उस आकी किले के सर करने के लिए कई महीने किले के चारों तरफ घेरा डालना पड़ता था।

मनुष्य का शरीर भी एक किला है। मनुष्य इस किले का राजा है, आत्मिक जीवन के मालिक परमात्मा से ये मन राजा आकी हो के बैठता है। इस किले के इर्द–गिर्द मेर-तेर की भारी फसील है, त्रैगुणी माया का प्रभाव इस किले की फसील के चारों तरफ बड़ी गहरी खाई है। काम क्रोध आदिक इस किले की रक्षा करने वाले हैं। कमजोर जीवात्मा शरीर–किले में आकी हो के बैठे मन राजे को जीत नहीं सकती।

परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर साधु-संगत का आसरा लेता है उसके अंदर प्रभु-चरणों के लिए प्रेम पैदा होता है उसकी तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ती है उसको सही जीवन की विधि आ जाती है। यह, मानो, वह तोप का गोला चलाता है। सेवा संतोख आदि के हथियार बरत के वह मनुष्य शरीर–किले में आकी हुए मन को अपने वश में कर लेता है।

♥ घरों में देखो छोटी उम्र के बच्चों को। साल-साल दो-दो सालों के बच्चे अपने खिलौनों के लिए लड़–लड़ मरते हैं। घर में कोई बेगाना नया बच्चा आ जाए। चाहे उनका नजदीक का रिश्तेदार ही क्यों ना हो। पर क्या मजाल कि उनके खिलौनों को हाथ भी लगा सके!

माया बहुत बलवान! छोटी उम्र से ही मेर-तेर बच्चे के जीवन की कोई घाड़त घड़ने लग जाती है। फिर ज्यों-ज्यों बालक समझदार होता जाएगा, त्यों-त्यों उसके अंदर मेर-तेर प्रबल होती जाती है। यह मेर-तेर ही जगत में उपाधियों–झगड़ों का मूल है।

जो घर छोड़ के जंगल में जा बैठे हैं और मन को इस अनुचित तरफ से हटाने के लिए प्राणायाम आदि करते हैं, खलासी उनकी भी नहीं होती। साधू लोग अपनी–अपनी शिला की मल्कियत पर ही आपस में भिड़ जाते हैं कई बार।

सिर्फ एक ही तरीका है इस मेर-तेर को खत्म करने का। परमात्मा की महिमा करते रहो। विकारों में पड़ने के कारण ढीठ हो चुके मन की मेर-तेर का बल महिमा की इनायत से टूट जाता है, बेकाबू हो चुके मन का चंचल स्वभाव रुक जाता है। मन की नई सुंदर घाड़त बनती जाती है।

आखिर में क्या होता है? जैसे पानी में पानी मिल के एक–रूप हो जाता है वैसे ही महिमा की मदद से जीवात्मा परमात्मा के साथ अभेद हो जाती है, मन वश में आ जाता है।

♥ हाथी चलाने वाला महावत अपने हाथ में एक तेज, पक्की, लंबी लोहे की सीख रखता है; और जरूरत अनुसार हाथी की गर्दन पर मारता रहता है। महावत इस सीख की सहायता से हाथी को गलत राह पर जाने से रोके रखता है।

मनुष्य का मान मस्त हुआ मन हाथी की तरह ही अवैड़ा हो जाता है। वही मन विकारों के औझड़ राह से रुका रह सकता है, जिस पर गुरु के ज्ञान का कुंढा हो। वरना– ‘सिर ते नहीं कुंडा, ते हाथी फिरदा लुंडा’।

(24.) निंदा

♥ गउड़ी सुखमनी म: ५ –संत का दोखी इउ बिललाइ –पन्ना 280

♥ आसा म: ५ –जनम जनम की मलु धोवै पराई –पन्ना 380

♥ आसा म: ५ –अरड़ावै बिललावै निंदक –पन्ना 373

♥ बिलावलु म: ५ –निंदकु अैसे ही झरि परीअै –पन्ना 823

♥ भैरउ म: ५ –निंदक कउ फिटके संसारु –पन्ना 1151

♥ गौंड रविदास जी–जे ओहु अठसठि तीरथ नावै –पन्ना 875

भाव:

♥ मछली को पानी में से बाहर निकाल दो तो तड़प–तड़प के मर जाती है। जलती आग में लकड़ियां डालते जाओ, डालते जाओ, उसने कभी तृप्त नहीं होना। और ज्यादा और भी ज्यादा शोले भड़कते जाएंगे।

निंदा भी बहुत बुरी आदत। निंदा करने वाला और आगे से निंदा सुनने वाला घंटों इस शुगल में गुजार देंगे। फिर भी तृप्त नहीं होंगे। पर निंदक का अपना क्या हाल होता है? ईष्या की आग में यूँ तड़पता है जैसे मछली पानी से विछुड़ी हुई।

♥ भले मनुष्यों की निंदा करके निंदक मनुष्य ये आस बनाता है कि उनको दुनिया की नजरों में गिरा के वे खुद उनकी जगह आदर–सत्कार हासिल कर लेगा, पर गुणों के बिना इज्जत कहाँ? निंदक अपनी ही उम्र व्यथ्र गवाता है।

जिसके अवगुणों का बखान करें, उसको अपने अवगुणों का बार-बार पता लगने से ये मौका मिलता जाता है कि वह अपने आप को सुधार ले; पर निंदा करने वाले के अपने अंदर बुरे संस्कार इकट्ठे होते जाते हैं जो उसके आत्मिक जीवन को दिन–ब–दिन गिराते जाते हैं।

निंदक भी क्या करे? पिछले किए कर्मों के संस्कारों के असर तले वह निंदा करने से हट नहीं सकता और इस चक्कर में पड़ा रहता है, इस गिरी हुई आत्मिक दशा में वह सदा खुआर होता रहता है।

♥ ईष्या का मारा हुआ ही मनुष्य किसी और की निंदा करता है। जितना वक्त मनुष्य निंदा करने में गुजारता है उतना समय ईष्या की आग में जलता रहता है, दुखी होता रहता है।

फिर ये आदत इतनी बुरी है कि जो कोई मनुष्य उस निंदक का साथी बनता है निंदक से किसी की निंदा सुनता रहता है उसको भी निंदा करने की आदत पड़ जाती है। कुदरति का यह नियम ही ऐसा है कि कोई इसको पलट नहीं सकता।

भला मनुष्य तो अपनी निंदा सुन के अपने अंदर से अवगुण दूर करने के प्रयत्न करता है और अपने आचरण को सुधारता है, पर निंदक के अंदर निंदा करने के संस्कार इकट्ठे हो–हो के उसका आत्मिक जीवन गला देते हैं।

♥ जैसे कल्लर की दीवार किर–किर के गिर जाती है, यही हाल होता निंदक के आत्मिक जीवन का, निंदक भी इसी तरह आत्मिक जीवन से गिर जाता है। निंदा उसके आत्मिक जीवन को, मानो, कल्लर लगा हुआ है।

जब कोई निंदक किसी मनुष्य का कोई नुक्स देखता है तब खुश होता है पर किसी के गुण देख के निंदक दुखी होता है। आठों पहर निंदक किसी की बुराई करने की सोचें सोचता रहता है; बुराई कर सकने तक पहुँच तो सकता नहीं, बुराई की योजना सोचते–सोचते खुद ही आत्मिक मौत सहेड़ता जाता है। ज्यों-ज्यों निंदा करने वाले गलत रास्ते पर मनुष्य पड़ता है त्यों-त्यों उसकी आत्मिक मौत नजदीक आती जाती है।

♥ मनुष्य किसी और की निंदा तो करता इसलिए है कि लोगों की नजरों में उसको गिरा के अपनी इजजत बनाए; पर इसका असर होता है उल्टा। लोग उस निंदक को फिटकारते हैं, उसकी किसी बात पर भी लोग ऐतबार नहीं करते। निंदा के कारण उसका अपना आचरण भी दिन–ब–दिन गिरता जाता है।

जो कोई और मनुष्य उस निंदक का साथी बनता है, उसकी निंदा भरी बातें खुश हो–हो के सुनता है, वह भी उसके साथ ही बह जाता है। उसका आत्मिक जीवन भी गिरता जाता है।

निंदक कितना ही अपने आप को अच्छा प्रकट करने का प्रयत्न करे, उसके उद्यम व्यर्थ ही जाते हैं।

♥ भले मनुष्यों की निंदा करने वाला मनुष्य जगत की कमियों में से पार नहीं लांघ सकता, वह सदा इन कमियों के नर्क में ही पड़ा रहता है।

अगर कोई मनुष्य अढ़सठ तीर्थों के स्नान कर आए, लोगों के भले के लिए कूएं लगवाए तालाब बनवाए; पर अगर वह भलों की निंदा करता रहता है तो उसकी सारी मेहनत व्यर्थ जाती है।

अगर कोई मनुष्य बहुत दान करता रहे, धर्म–पुस्तकें भी ध्यान से सुनता रहे; पर अगर वह सदा भले मनुष्यों की निंदा करता है तो इस सारे कामों से भी उसको कोई आत्मिक लाभ नहीं होता।

अगर कोई मनुष्य ठाकुरों को भोग लगवाता रहे, दान आदि करके जगत में शोभा कमा ले; अपना नुकसान कर के भी दूसरों का काम सँवारता रहे; पर अगर वह भले लोगों की निंदा भी करता रहता है तो उसका जीवन सुखी नहीं हो सकता।


(25.) जाति–अभिमान

♥ सलोक म: १ (सिरी राग की वार) –फकड़ जाती, फकड़ु नाउ–पन्ना83

♥ पउड़ी म: १ (माझ की वार) –जाती दै किआ हथि–पन्ना 142

♥ भैरउ म: ३ –जाति का गरबु न करीअहु कोई –पन्ना 1127

♥ गउड़ी कबीर जी –गरभ वास महि कुलु नही जाती –पन्ना 324

♥ प्रभाती कबीर जी –अवलि अलह नूरु उपाइआ –पन्ना 1349

भाव:

♥ ऊँची जाति का मान दुनिया में बड़प्पन का अहंकार व्यर्थ हैं। आत्मा सब जीवों में एक ही है। ऊँची जाति अथवा महानता के आसरे अगर कोई मनुष्य अपने आप को अच्छा कहलवाए तो इस तरह वह अच्छा नहीं बन जाता।

मनुष्य को तब ही अच्छा समझो अगर वह यहाँ अपने आत्मिक जीवन को ऊँचा करके परमात्मा की हजूरी में आदर हासिल करने के लायक हो जाता है।

♥ जगत में जीव–व्यापारी परमात्मा का नाम विहाजने के लिए आता है। परलोक में मनुष्य के इसी वणज–व्यवहार की परख होती है। किसी जाति का किसी वर्ण का वहाँ कोई लिहाज नहीं होता।

ऊँची जाति का अहंकार करना जहर समान है। यह जहर मनुष्य के जीवन को मार डालता है। अगर किसी के पास जहर हो वह चाहे किसी भी जाति का हो, अगर वह जहर खाएगा तो मरेगा ही। किसी भी युग में यह नियम कभी नहीं बदला कभी किसी का लिहाज नहीं हुआ चाहे वह कितनी ऊँची जाति में पैदा हुआ हो।

परमात्मा के दर पर उसको आदर मिलता है जो यहाँ उसका नाम स्मरण करता है उसकी रजा में जीवन व्यतीत करता है।

♥ परमात्मा की ज्योति से ही सारी सृष्टि बनी है। ऊँची जाति का मान कैसा? इससे तो बल्कि भाईचारिक जीवन में कई बिगाड़ पड़ जाते हैं। जाति के आसरे ‘ब्राहमण’ नहीं बना जा सकता, ब्राहमण वह जो ब्रहम परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है।

जैसे कोई कुम्हार एक मिट्टी से कई तरह के बर्तन घड़ लेता है वैसे ही सारा संसार है, एक परमात्मा की ही ज्योति से बना हुआ।

पाँच तत्व मिल के शरीर की शक्ल बनती है। कोई नहीं कह सकता कि किसी वर्ण वाले में बहुत तत्व हैं, और किसी वर्ण वाले में थोड़े।

चाहे कोई ब्राहमण है चाहे कोई शूद्र है, हरेक प्राणी अपने-अपने किए हुए कर्मों के संस्कारों का बंधा हुआ है। गुरु की शरण पड़े बिना किए हुए कर्मों के संस्कारों के बंधनों से खलासी नहीं होती।

♥ माँ के पेट में तो किसी को यह समझ नहीं होती कि मैं किस कुल का हूँ। सारे जीवों की पैदायश परमात्मा से ही होती है।

जो मनुष्य ऊँची जाति का माण करते हैं, वे इसी अहंकार में अपना मनुष्य जन्म व्यर्थ गवा जाते हैं।

देखो मानव–शरीर की संरचना! शूद्र के शरीर में निरा लहू नहीं है, और ब्राहमण के शरीर में लहू की जगह दूध नहीं है।

ऊँचा वही मनुष्य है जो परमात्मा की भक्ति करके अपना आत्मिक जीवन ऊँचा करता है।

♥ सारे ही जीव परमात्मा के नूर से पैदा हाते हैं। फिर ऊँचा कौन और नीचा कौन? ज्योति तो सभी में एक ही है। सारी ही खलकति में पैदा करने वाला परमात्मा बस रहा है

सब शरीर–बर्तनों की मिट्टी एक ही है, विधाता करतार ने उस एक मिट्टी से अनेक किस्मों के जीव–बर्तन बना दिए हैं।

ऊँचा उस मनुष्य को समझो जो परमात्मा की रजा में चलता है।

जिस मनुष्य के भाग्य जागते हैं उसको परमात्मा की मेहर से गुरु मिलता है वह परमात्मा का नाम स्मरण करता है, और, उसको सब जीवों में, परमात्मा ही बसता दिखता है।

(26.) सती

♥ सलोक म: ३ (वार सूही) –सतीआ ऐहि न आखीअनि –पन्ना 787

♥ सलोक म: ३ (वार सूही) –भी सो सतीआ जाणीअनि –पन्ना 787

♥ सलोक म: ३ (सूही की वार) –कंता नाल महेलीआ –पन्ना 787

♥ गउड़ी म: ५ –कलिजुग महि मिलि आऐ संजोग –पन्ना 185

♥ गउड़ी कबीर जी –बिनु सत सती होइ कैसे नारि –पन्ना 327

भाव:

♥ वह स्त्रीयां सती हो गई नहीं कहलाएंगी जो पति की लाश के साथ जल मरी। हाँ, जो पति की मौत के विछोड़े की ही चोट से मर जाएं, उनको सती हो गई समझना चाहिए।

♥ उन औरतों को भी सती ही समझो जो पतिव्रता धर्म में रहती हें जो अपने पति की सेवा करती हैं, और इस धर्म को हमेशा याद रखती हैं।

♥ सती स्त्रीयां वे हैं जो अपने पति के जीते जी उसकी सेवा करती हैं, पति को ‘अपना’ समझती हें तभी उसकी सेवा में तत्पर रह के अपने शरीर पर दुख सहती हैं।

पर, जिन्होंने पति को नहीं समझा, वे दुख क्यों सहें? पति चाहे दुखी हो चाहे सुखी वे मुश्किल हालात में नजदीक नहीं फटकतीं।

♥ पतिव्रता धर्म की उच्चता को बढ़ाते–बढ़ाते आखिर यहाँ तक पहुँचा दिया गया, कि कहीं कहीं कोई कोई स्त्री अपने पति के मरने पर उसकी मृतक देह के साथ ही उसकी चिखा पर जीते–जी जल–मरने को तैयार हो गई। ज्रगत ने उसको ‘सती’ कहना शुरू कर दिया, भाव, इस स्त्री का आचरण बहुत ऊँचा था।

प्रीति की रंग–भूमि में स्त्री ने कमाल दर्जे की कुर्बानी कर दिखाई। पर, है ये आत्मघात। समाज में इसकी कभी भी आज्ञा नहीं होनी चाहिए।

असल सती वह स्त्री है जो सुशील होनी चाहिए जो संयम में रहती है जो पति की आज्ञाकारी है, और जैसे परमात्मा केवल एक है वैसे ही उस स्त्री ने पति–भावना भी सिर्फ एक ही अपने पति में ही रखी हुई है।

♥ मन में बिचार के देख लो! जिस स्त्री का आचरण ऊँचा नहीं है वह मरे पति की लाश पर जल के भी सती नहीं कहलवा सकती।

♥ इस तरह दिल में प्यार के बिना पति–प्रभु के साथ जीव-स्त्री का मिलाप नहीं हो सकता। जब तक मन में माया का चस्का है तब तक जीव-स्त्री का स्वै प्रभु-चरणों में जुड़ नहीं सकता। जो मनुष्य माया को जिंदगी का उद्देश्य समझे रखता है वह परमात्मा को सपने में भी नहीं मिल सकता। माया का मोह त्याग के ही परमात्मा के चरणों में प्यार बन सकता है। दोनों इकट्ठे नहीं टिक सकते।

(27.) मास

♥ सिरी राग म: १ –लबु कुता, कूड़ु चुहड़ा –पन्ना 174.15

♥ सिरी राग म: १ –बाबा होरु खाणा खुसी खुआरु –पन्ना 16

♥ सलोक म: १ (वार माझ) –सिरु खोहाइ पीअहि मलवाणी –पन्ना 149

♥ सलोक म: १ (मलार की वार) –पहिलां मासहु निंमिआ –पन्ना 1289

♥ सलोक म: १ (वार मलार) –मासु मासु करि मूरखु झगड़े–पन्ना1289

♥ प्रभाती कबीर जी –बेद कतेब कहहु मत झूठे –पन्ना 1350

♥ सलोक कबीर जी –कबीर खूबु खाना खीचरी –पन्ना 1374

♥ सलोक कबीर जी –कबीर जीअ जु मारहि जोरु करि –पन्ना 1375

♥ सलोक कबीर जी – कबीर भांग माछुली सुरा पानि –पन्ना1376.77

भाई गुरदास जी की वारें:

(अ) चंगा रुख वढाइ – वार 14, पउड़ी 15

(आ) हसति अखाजु गुमानु करि – वार 33, पउड़ी 13

(इ) सीह पजूती बकरी– वार 25, पउड़ी 17

(ई) जे करि उधरी पूतना– वार 31, पउड़ी 9

(उ) कुहै कसाई बकरी– वार 37, पउड़ी 21

भाव:

♥ जिस मनुष्य के मन में दुनिया के चस्कों व विकारों का जोर हो, वह परमात्मा के नाम में नहीं जुड़ सकता। चस्के–विकार और भक्ति एक ही हृदय में एक साथ नहीं रह सकते। ऐसा मनुष्य चाहे कितना ही बुद्धिमान जाना–माना और धनी हो, उसका जीवन खेह–खुआरी में ही गुजरता है।

सोना–चाँदी इकट्ठा करने का चस्का, काम का चस्का, सुगन्धियों की लगन, घोड़ों की सवारी का शौक, नर्म सेजों और सुंदर महल-माढ़ियों की लालसा, स्वादिष्ट मीठे पदार्थ और मास खाने का चस्का –अगर मनुष्य के शरीर को इतने चस्के लगे हुए हों, तो परमात्मा के नाम का ठिकाना उसमें नहीं हो सकता।

चस्का कोई भी हो बुरा है। अगर मास भी जीव का चस्का बन गया है तो ये चस्का भी बुरा है।

♥ खुराक इन्सानी सेहत के लिए आवश्यक है। अन्न त्यागना नहीं, पर ये सदा याद रखना चाहिए कि जो पदार्थों के खाने से शरीर रोगी हो जाता है, और मन में भी कई तरह के बुरे ख्याल चल पड़ते हैं उन पदार्थों के खाने से दुखी ही होना होता है।

♥ जैनियों के गुरु ‘सरेवड़े’ अहिंसा के पुजारी हैं। ताजा साफ पानी नहीं पीते कि जीव हिंसा ना हो जाए, इसी कारण, ताजी रोटी भी नहीं पकाते–खाते। पाखाने को फरोलते हैं कि उसमें जीव ना पैदा हो जाएं। जीव–हिंसा से डरते ही स्नान भी नहीं करते। जीव–हिंसा को उन्होंने इतना वहम बना लिया है कि बड़े ही गंदे रहते हैं। हरेक के हाथ में एक चौरी होती है, नंगे पैर एक कतार में चलते हैं कि कहीं कोई कीड़ी कीड़ा पैर के नीचे आ के मर ना जाए, सबसे आगे का आदमी उस चौरी से राह में आए कीड़े को परे हटा देता है। अपने हाथ से कोई काम–काज नहीं करते, माँग के खाते हैं। जहाँ बैठते हैं सिर गिरा के बैठते हैं, नित्य उदास। अंदर कोई चाव कोई खुशी नहीं, जैसे फुहड़ी डाले बैठते हैं। सो, दुनिया गवाई इन्होंने इस तरह।

पर दीन भी नहीं सँवारते। सिर्फ एक जीव–हिंसा का वहम लगाए रखते हैं। ना कोई हिन्दू–मत की मर्यादा, ना कोई मुसलमानी जीवन–जुगति, ना पुन्न ना दान, ना कोई पूजा–पाठ ना बँदगी। ईश्वर से गए गवाचे।

ये बेचारे ये नहीं समझते कि जीवों को मारने–जीवालने वाला परमात्मा खुद ही है, परमात्मा के बिना कोई और इनको जीवित नहीं रख सकता।

गुरु समुंद्र है, उसका उपदेश मानो, सारी नदियां हैं। इस समुंद्र में इन नदियों में डुबकियां लगाया करो। गुरु के शबद में तवज्जो जोड़ा करो। सिर्फ यही तरीका है आत्मिक जीवन ऊँचा करने का। जीव–हिंसा के वहम को छोड़ो। भादों के महीने लोग घरों में गेहूँ सुखाते हैं करोड़ों–अरबों की गिनती में सुसरी और खपरा आदि मर जाते हैं। क्या फिर इस जीव–हिंसा से डर के सारा गेहूँ सुसरी खपरे के हवाले कर देनी चाहिए?

♥ माँस का उपयोग पुराने समय से ही होता चला आ रहा है। राजे–महाराजे यज्ञ करते थे, हवन करते थे। उन यज्ञों–हवनों के समय, गैंडा, घोड़ा आदि पशुओं की कुर्बानी दी जाती थी। कई पिछड़े देशों में अभी तक बकरे आदि की भेटा देवी-देवताओं के मन्दिरों में की जा रही है, खास तौर पर दशहरे वाले दिन। इन यज्ञों–हवनों के समय ब्राहमण ही अगवाई करते आए हैं।

♥ सारे ही पदार्थ जो मनुष्य खाता–उपयोग करता है पानी से ही पैदा होते हैं, पानी से बढ़ते–फूलते हैं। पशु–पक्षी जिनका मास मनुष्य बरतता है पानी के आसरे ही पलते हैं। पर मनुष्य पानी छोड़ नहीं सकता, और, मास छोड़ने का कच्चा पक्ष ले बैठता है।

आत्मिक–जीवन को नीचे ले जाने वाले हैं कुकर्म। कुकर्म छोड़ो, ताकि उच्च आत्मिक जीवन बने, और लोक–परलोक में जीवन सुखी हो सके। चस्के छोड़ो, चस्कों में फस के मानव–जीवन पूरा पशू–जीवन ही बना रहता है। असल सन्यासी, असल त्यागी, असल वैश्णव वही है, जो चस्के छोड़ता है। चस्का किसी भी चीज़ का हो वह बुरा है।

भाग्यशाली है वह मनुष्य, जो गुरु की शरण पड़ कर सही जीवन की विधि सीखता है। मास खाने अथवा ना खाने में पाप अथवा पुण्य नहीं है। हाँ, मास चस्का ना बने, मास विकारों की खातिर ना बरता जाए।

♥ 6. मुसलमान किसी पशू आदि का मास खाने के वास्ते उसको जबह करता है (मारता है) तो मुँह से कहता है ‘बिसमिल्लाह’ (बइस्मि+अल्लाह, अल्ला के नाम पर)। ये कह के मुसलमान ये मिथ लेता है कि मैंने अल्लाह के आगे भेट किया है, और, इस तरह उस अल्लाह को खुश किया है।

पर अगर अल्लाह सारी खलकत में बसता है, तो ज़बह किए जा रहे पशू में बसते खुदा को मार के खुदा के आगे ही भेट धर के खुदा खुश नहीं हो सकता। हाँ खुदा खुश होता है उस मनुष्य पर, जो अपने आप को भेट करता है, जो अपने आप को विकारों का शिकार नहीं बनने देता।

जिस मनुष्य का आपा, स्वै, विकारों से नापाक हुआ रहे गंदा हुआ रहे वह उम्मीद ना रखे कि मुर्गी बकरे व गाय आदि के मास की कुर्बानी से वह पाक–पवित्र हो गया है। पाक और नापाक का मेल नहीं हो सकता।

♥ कोई भी मज़हब हो, धर्म हो, इन्सान के लिए वह तब तक ही लाभदायक है जब तक उसके बताए हुए पद–चिन्हों पर चल के मनुष्य अपने दिल में भलाई पैदा करने की कोशिश करता है, ख़ालक–ख़लकति के लिए अपने दिल में मुहब्बत बनाता है।

पठानों–मुग़लों के राज दौरान हमारे देश में इस्लामी शरह का कानून चलता था। इस तरह राजसी ताकत काज़ियों–मौलवियों के हाथ में आ गई, क्योंकि यही लोग कुरान शरीफ के अर्थ करने में ऐतबार–योग माने जाते थे। एक तरफ ये लोग राजसी ताकत के मालिक; दूसरी तरफ यही लोग धार्मिक नेता, आम लोगों को जीवन का सही रास्ता बताने वाले। दो विरोधी बातें इकट्ठी हो गई। राज–प्रबंध चलाने के वक्त गुलाम हिन्दू कौम पर कठोरता बरतनी इनके लिए कुदरती बात थी। पर इस कठोरता को अपनी ओर से वे इस्लामी शरह समझते थे। सो, मज़हब में से उनको स्वभाविक ही दिल की कठोरता ही मिलती गई।

कबीर जी अपने वक्त के काज़ियों की ये हालत देख के कह रहे हैं कि मज़हबने, मज़हब के रीति–रिवाजों ने, बांग निवाज़ हज आदि ने दिल की सफाई सिखानी थी। पर, अगर रिश्वत, कठोरता, तअसुब के कारण दिल निर्दयी हो चुका है तो बल्कि यही हज आदिक कर्म दिल को और कठोर बनाए जा रहे हैं।

कबीर जी कहते हैं कि जो मुल्लां बांग दे के सिर्फ लोगों को ही बुला रहा है पर उसके अपने दिल में शांति नहीं, तो वह इस बांग आदि से रब को धोखा नहीं दे सकता। ऐसा मनुष्य अगर हज भी कर आए तो उसको उसका कोई लाभ नहीं होता।

फिर, किसी जानवर को ‘बिस्मिल्लाह’ कह के ये लोग ज़बह करते हैं और समझते हैं कि ज़बह किया जानवर रब के नाम कुर्बानी देने के काबिल हो गया है और खुदा ने खुश हो के कुर्बानी देने वाले बंदे के गुनाह बख्श दिए हैं; ये बात मानी नहीं जा सकती। जानवर का मास तो ये लोग मिल–जुल के खुद ही खा लेते हैं। कबीर जी कहते हैं कि कुर्बानी के बहाने मास खाने से तो खिचड़ी खा लेनी बेहतर है।

♥ आम मुसलमान काबे को खुदा का घर मानता है। कबीर जी भी वही ख्याल बता के कहते हैं कि खुदा इस हज पर खुश नहीं होता। अनेक बार हज करने पर खुश हो के क्यों हाजी को दीदार नहीं देता, और, वह हाजी अभी भी खुदा की निगाहों में क्यों गुनाहगार बना रहता है? – इस भेद का जिक्र इन शलोकों में किया गया है कि खुदा के नाम पर गाय आदि की कुर्बानी देनी मिल–जुल के खा–पी जाना सब कुछ खुद ही, औरफिर ये समझ लेना कि इस ‘कुर्बानी के इव्ज़ हमारे गुनाह बख्श दिए गए हैं; ये बहुत बड़ा भुलेखा है। ये खुदा को खुश करने का तरीका नहीं। खुदा खुश होता है दिल की पाकीज़गी पवित्रता से।

ठगी–फरेब की कमाई करके, सूद–खोरी से गरीब लोगों का लहू पी के, आम लोगों की बे–बसी से फायदा उठाते हुए सौदा इतने महंगे भाव बेच के कि गरीब लोग पिस जाएं, रिश्वत आदि के द्वारा; सिरे की बात, और ऐसे तरीके बरत के जिनसे गरीब लोग बहुत दुखी हों, अगर कोई मनुष्य (चाहे वह किसी भी देश व कौम का है) पैसा कमाता है और उसमें से मन्दिर व गुरद्वारे बनाने के लिए दान करता है, तीर्थ–यात्रा करता है, गुरद्वारों के दर्शन करने के लिए माया खर्चता है, गुरु–दर पर कड़ाह–प्रसादि भेटा करवाता है, इस तरह के चाहे अनेक ही पुण्य–कर्म करे, गुरु परमात्मा उस पर खुश नहीं हो सकता।

इन शलोकों में इन्सानी जीवन की वही तस्वीर है जिसका कुछ अंग मलिक भागो वाली साखी में मिलता है।

♥ इस शलोक के असल भाव को तब ही समझा जा सकेगा जब इसको इसके साथी–शलोकों के साथ मिला के पढ़ेंगे।

सलोक नं: 228 से एक नया ख्याल चला है। जगत में ‘वाद–विवाद’ की तपश पड़ रही है, जीव तड़प रहे हैं। परमात्मा का नाम यहाँ एक सुंदर वृक्ष है। जिस विरले भाग्यशाली मनुष्यों गुरमुखों ने दुनिया का ये ‘वाद–विवाद’ त्यागा है, वे इस वृक्ष की ठंडी छाया हैं। इस छाया का आसरा लेने से, साधू–गुरमुखों की संगति करने से, इस ‘वाद–विवाद’ की तपश में जलने से बच जाया जाता है, इस ‘वाद–विवाद’ से ‘वैराग’ प्राप्त हो जाता है।

पर दुनिया में एक अजीब खेल हो रही है। लोग सवेरे के वक्त धार्मिक स्थान पर भी हो आते हें, व्रत आदि भी रखते हें, और कई किस्मों के नियम भी निभाते हें, पर इनके साथ-साथ विकार भी करते जाते हैं। कबीर जी यहाँ कहते हैं कि ‘साधू’ की संगति करने का भाव यह नहीं कि जितना समय सत्संग में बैठो उतना समय ‘राम राम’ किए जाओ, वहाँ से आ के विकारों में भी हिस्सा ले लिया करो। ये तीर्थ–यात्रा, व्रत–नेम सारे ही निष्फल जाते हैं अगर मनुष्य विकारी जीवन से नहीं मुड़ता।

पिछले सलोक में वर्णन है कि ‘भगतन सेती गोसटे, जो कीनो सो लाभ’। अगले शलोक में कहते हैं कि अगर मनुष्य ‘भगतन सेती गोसटे’ से आ के शराब–मास आदि विकारों में लगा रहे तो वह किया हुआ सत्संग और वहाँ हुए प्रण (व्रत) सब व्यर्थ जाते हैं।

शब्द ‘भांग माछुली सुरा’ से यह भाव नहीं लेना कि कबीर जी सिर्फ भांग और शराब को रोकते हें, और पोस्त अफीम आदि की मनाही नहीं करते। इसी तरह ये बात भी नहीं कि यहाँ मछली का मास खाने से रोक रहे हें। सारे प्रसंग को मिला के पढ़ो। सत्संग भी करना और विकार भी करते जाना– कबीर जी इस काम से वरजते हैं। कामी लोग आम तौर पर शराब–मास बरत के कामवासना व्यभचार में प्रवृति होते हैं, और मछली का मास चुँकि काम–रुचि ज्यादा पैदा करने में प्रसिद्व है इसलिए कबीर जी ने शराब भांग और मछली शब्द का प्रयोग किया है।

भाई गुरदास जी और मास:

‘गुरमति अंग संग्रहि’ में सिर्फ श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी में से ‘गुरमति’ के अलग-अलग अंग ले के विचार की जा रही है। पर, ‘मास’ बारे भाई गुरदास जी की ‘वारों’ में पाँच जगहों पर वर्णन है। उन पौड़ियों को आम तौर पर ग़लत तरीकों से विचारा और समझा जा रहा है। इसलिए जरूरी बनता है कि उन पौड़ियों को इसी लेख में पेश किया जाए।

‘वार’ की विषय-वस्तु:

हमारे देश में कवि लोग योद्धाओं की ‘वारें’ लिखा करते थे, और, ढाढी वह ‘वारें’ गा के लोगों को सुनाया करते थे। हरेक ‘वार’ का सिर्फ एक ही बँधा हुआ मज़मून विषयवस्तु हुआ करता था।

भाई गुरदास जी की वारें कब लिखी गई?

(अ) वार नं: 2 पौड़ी नं: 19 –इस पउड़ी में गुरु नानक देव जी की लिखी वाणी ‘जपु’ के आखिरी शलोक की व्याख्या है।

(आ) वार नं: 6 पउड़ी नं: 3 और 5 इस पौड़ी की आठवीं तुक में शब्द ‘सोहिला’ बरता गया है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ तैयार होने से पहले किसी वाणी–संग्रह का नाम ‘सोहिला’ नहीं था। यहां ऐसा प्रतीत होता है कि भाई गुरदास जी ने यह ‘वारें’ तब लिखीं जब श्री गुरु अरजन देव जी की आज्ञा के अनुसार सारी ‘बीड़’ लिख चुके थे।

(इ) सारी ही ‘वारें’ श्री गुरु हरि गोबिंद साहिब के समय लिखीं गई थीं। देखें वार1 पउड़ी 48; वार 3 पउड़ी 12; वार 26 पउड़ी 24 और 25।

मास का जिक्र

निम्न-लिखित पाँच पौड़ियों में है;

♥ चंगा रुखु वढाइ – वार 14, पउड़ी 15

♥ हसति अखाजु गुमान करि– वार 23, पउड़ी 13

♥ सींहु पजूती बकरी– वार 25, पउड़ी 17

♥ जेकरि उधरी पूतना– वार 31, पउड़ी 9

♥ कुहै कसाई बकरी– वार 37, पउड़ी 21

इन ‘वारों’ के मुख्य–विषय-वस्तु:

♥ ‘वार’ नं: 14 में गुरमुखों के लक्षण दिए गए हैं कि गुरमुख नित्य सवेरे साधु-संगत में जा के कीर्तन करते–सुनते हें जरूरतमंद साज़ भी बजाते हैं। उन साजों में एक है ‘रबाब’। कैसे बनाया जाता है? अच्दी लकड़ी से ‘रबाब’ बनी, बकरी को मार के उसका ‘मास’ तो बाँट के खाया पिया गया, उसकी खाल से ‘रबाब’ मढ़ी गई, बकरी की आँतों से ‘रबाब’ के लिए तंदी ‘तार’ बनाई गई।

♥ ‘वार’ नं: 23 में साधु-संगत की चरण–धूल की बड़ाई का वर्णन है, सत्संग में मनुष्य ‘गरीबी’ सीखता है। अहंकारी हाथी के शरीर की कोई चीज़ साधु-संगत में काम नहीं आती; पर गरीबी स्वभाव वाली बकरी को वहाँ आदर मिला।

♥ ‘वार’ नं: 25 में गुरमुखों के ‘गरीबी मारग’ का वर्णन है। ऊँचे लोगों में बुरे और नीचों में अच्छे पैदा हो जाते हैं। मरना तो सबने है, पर अहंकारियों से गरीबड़े बेहतर हैं जो जीते हुए और मर कर भी दस काम सँवारते हैं।

♥ ‘वार’ नं: 31 में भले मनुष्य और बुरे मनुष्य के जीवन के अंतर को दर्शाया गया है। इस वार में 20 पउड़ियां है।, प्रसंग अनुसार ‘वार’ के तीन हिस्से हैं।

♥ ‘वार’ नं: 37 में मनुष्य का जनम से आखिर तक अलग-अलग हालातों का जिक्र है;

1 से 5; 6 से 7; 8 से 10; 11 से 13; 14 से 28।

पउड़ी नं: 20, 21 में वर्णन है कि मनमुख उस दो जीभे साँप से भी बुरा है जो दूध पी के विष उगलता है। मनमुख बढ़िया पदार्थ उपयोग करके पर–तन, पर–धन, पर–निंदा के पाप करता है। दोनों पउड़ियों में निगुरे मनुष्य का ही जिक्र चल रहा है। मास खाने व ना खाने का विचार नहीं है। सिर्फ मनुष्य की अलग-अलग आत्मिक हालातों का वर्णन किया गया है।

नोट: जब भी किसी बँधे हुए विषय की लड़ी में से कोई एक-दो तुकों अथवा कोई एक पौड़ी ले के उसको असल विषय से अलग कर के विचारा जाएगा, तो असल विचार से टूटने की संभावना बन जाती है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh