श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1363 धावउ दसा अनेक प्रेम प्रभ कारणे ॥ पंच सतावहि दूत कवन बिधि मारणे ॥ तीखण बाण चलाइ नामु प्रभ ध्याईऐ ॥ हरिहां महां बिखादी घात पूरन गुरु पाईऐ ॥१६॥ {पन्ना 1363} पद्अर्थ: धावउ = मैं दौड़ता हूं। दसा = दिशा, तरफ (दशा = हालत)। पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरी। सतावहि = सताते रहते हैं (बहुवचन)। कवन बिधि = किस तरीके से? तीखण = तेज़। चलाइ = चला के। धाईअै = ध्याईऐ, सिमरना चाहिए। महां बिखादी = बड़े झगड़ालू। घात = मौत, मारना। पाईअै = मिल जाता है।16। अर्थ: हे भाई! परमात्मा (के चरणों) का प्रेम हासिल करने के लिए मैं कई दिशाओं में दौड़ता फिरता हूं, (पर यह कामादिक) पाँच वैरी सताते (ही) रहते हैं। (इनको) किस तरीके से मारा जाए? (इनको मारने का तरीका यही है कि) परमात्मा का नाम (सदा) सिमरते रहना चाहिए। जब पूरा गुरू मिलता है (उसकी सहायता से सिमरन के) तेज़ तीर चला के (इन कामादिक) कड़े झगड़ालुओं का नाश (किया जा सकता है)।16। सतिगुर कीनी दाति मूलि न निखुटई ॥ खावहु भुंचहु सभि गुरमुखि छुटई ॥ अम्रितु नामु निधानु दिता तुसि हरि ॥ नानक सदा अराधि कदे न जांहि मरि ॥१७॥ {पन्ना 1363} पद्अर्थ: दाति = नाम की दाति। मूलि = बिल्कुल। निखुटई = खत्म होती। भुंचहु = बरतो, इस्तेमाल करो, खाओ। सभि = सारे। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। छुटई = छूटे, विकारों से बच जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। निधानु = खजाना। तुसि = प्रसन्न हो के, खुश हो के। अराधि = सिमरा कर।17। अर्थ: हे भाई! गुरू की बख्शी हुई हरी-नाम-दाति कभी समाप्त नहीं होती, बेशक तुम सभी इस दाति का इस्तेमाल करो। (बल्कि) गुरू की शरण पड़ कर (इस दाति को बरतने वाला मनुष्य विकारों से) बचा रहता है। आत्मिक जीवन देने वाला (ये) नाम-खजाना परमात्मा (स्वयं ही) खुश हो के देता है। हे नानक! (कह- हे भाई!) सदा इस नाम को सिमरा कर, तुझे कभी आत्मिक मौत नहीं आएगी।17। जिथै जाए भगतु सु थानु सुहावणा ॥ सगले होए सुख हरि नामु धिआवणा ॥ जीअ करनि जैकारु निंदक मुए पचि ॥ साजन मनि आनंदु नानक नामु जपि ॥१८॥ {पन्ना 1363} पद्अर्थ: जिथै = जिस जगह पर। जाऐ = जाता है, जा बैठता है। सु = वह (एकवचन)। सगले = सारे। जीअ = (सारे) जीव। करनि = करते हैं, करने लग जाते हैं। जैकारु = परमात्मा की सिफत सालाह। पचि = जल के, (ईष्या की आग में) जल के। मुऐ = आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। मनि = मन में। जपि = जप के।18। अर्थ: हे भाई! जिस जगह पर (भी कोई परमात्मा का) भगत जा बैठता है, वह जगह (सिफतसालाह के वायु-मण्डल से) सुखदाई बन जाती है, परमात्मा का नाम सिमरने से (वहाँ) सारे सुख हो जाते हैं, (वहाँ आस-पड़ोस रहने वाले सारे) जीव परमात्मा की सिफतसालाह करने लग जाते हैं। (पर सौभाग्य की बात है कि) निंदा करने वाले मनुष्य (संत-जनों की वडिआई देख के ईष्या की आग से) जल-जल के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। हे नानक! परमात्मा का नाम जप-जप के सज्जन जनों के मन में खुशी पैदा होती है।18। पावन पतित पुनीत कतह नही सेवीऐ ॥ झूठै रंगि खुआरु कहां लगु खेवीऐ ॥ हरिचंदउरी पेखि काहे सुखु मानिआ ॥ हरिहां हउ बलिहारी तिंन जि दरगहि जानिआ ॥१९॥ {पन्ना 1363} पद्अर्थ: पावन = पवित्र स्वरूप हरी। पतित पुनीत = विकारियों को पवित्र करने वाला। कतह नहीं = कभी भी नहीं। सेवीअै = सिमरा जा सकता। झूठे रंगि = नाशवंत पदार्थों के प्यार रंग में। खुआरु = खुआर, दुखी। कहां लगु = कब तक? बहुत समय नहीं। खेवीअै = (जिंदगी की) बेड़ी चलाई जा सकती। हरि चंदउरी = हरीचंद नगरी, गंधर्व नगरी, हवाई किले। पेखि = देख के। हउ = मैं। जि = जो। दरगहि = परमात्मा की हजूरी में। अर्थ: हे भाई! मायावी पदार्थों के मोह में (फसे र हके जिंदगी की) बेड़ी ज्यादा (सुख से) नहीं चलाई जा सकती, (आखिर) दुखी ही हुआ जाता है, (इस झूठे रंग में टिके रह के) पवित्र-स्वरूप हरी को, विकारियों को पवित्र करने वाले हरी को कभी भी नहीं सिमरा जा सकता। हे भाई! (मायावी पदार्थों के इन) हवाई किलों को देख-देख के तू क्यों सुख प्रतीत कर रहा है? (ना ये सदा कायम रहने, और ना ही इनके मोह में फस के प्रभू-दर पर आदर मिलना)। हे भाई! मैं (तो) उनके सदके जाता हूँ जो (परमात्मा का नाम जप-जप के) परमात्मा की हजूरी में सत्कारे जाते हैं।19। कीने करम अनेक गवार बिकार घन ॥ महा द्रुगंधत वासु सठ का छारु तन ॥ फिरतउ गरब गुबारि मरणु नह जानई ॥ हरिहां हरिचंदउरी पेखि काहे सचु मानई ॥२०॥ {पन्ना 1363} पद्अर्थ: गवार = मूर्ख। घन = बहुत। करम बिकार = विकारों भरे कर्म। द्रुगंधत = विकारों की गंदगी। वासु = निवास। सठ = मूर्ख। छारु = राख (के बराबर)। छारु तन = मिट्टी में मिला शरीर। फिरतउ = फिरता है। गरब गुबारि = अहंकार के अंधेरे में। मरणु = मौत। जानई = जानै, जानता। हरिचंउरी = हरिचंद नगरी, गंर्धव नगरी, हवाई किले। पेखि = देख के। काहे = क्यों? सचु = सा स्थिर। मानई = मानै, मानता है। अर्थ: हे भाई! मूर्ख मनुष्य अनेकों ही कुकर्म करता रहता है। बड़े कुकर्मों की गंदगी में इसका निवास हुआ रहता है जिसके कारण मूर्ख का शरीर मिट्टी में मिल जाता है (अमूल्य मानस-शरीर कौड़ी के बराबर का नहीं रह जाता)। (ऐसा मनुष्य) अहंकार के अंधेरे में चलता फिरता है, इसको मौत (भी) नहीं सूझती। इस हवाई किले को देख-देख के पता नहीं, यह क्यों इसको सदा कायम रहना माने बैठा है।20। जिस की पूजै अउध तिसै कउणु राखई ॥ बैदक अनिक उपाव कहां लउ भाखई ॥ एको चेति गवार काजि तेरै आवई ॥ हरिहां बिनु नावै तनु छारु ब्रिथा सभु जावई ॥२१॥ {पन्ना 1363} पद्अर्थ: पूजै = आखिर में पहुँच जाती है, खत्म हो जाती है, समाप्त हो जाती है। अउध = (उम्र की) मियाद, आखिरी हद। राखई = रख सकता है, मौत से बचा सकता है। बैदक = हिकमत विद्या। उपाव = उपाय, ढंग। कहां लउ = कहां तक? भाखई = बता सकती है। ऐको = एक (परमात्मा) को ही। चेति = सिमरा कर। गवार = हे मूर्ख! काजि तेरै = तेरे काम में। आवई = आए, आता है। छारु = राख (के समान)। ब्रिथा = व्यर्थ। जिस की: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्य) की (उम्र की) आखिरी हद पहुँच जाती है, उसको कोई मनुष्य (मौत के मुँह से) बचा नहीं सकता। हिकमत विद्या के अनेकों ही ढंग (नुस्खे) कहां तक (कोई) बता सकता है? हे मूर्ख! एक परमात्मा को ही याद किया कर, (वह ही हर वक्त) तेरे काम आता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना यह शरीर मिट्टी (के समान) है, सारा व्यर्थ चला जाता है।21। अउखधु नामु अपारु अमोलकु पीजई ॥ मिलि मिलि खावहि संत सगल कउ दीजई ॥ जिसै परापति होइ तिसै ही पावणे ॥ हरिहां हउ बलिहारी तिंन्ह जि हरि रंगु रावणे ॥२२॥ {पन्ना 1363} पद्अर्थ: अउखधु = दवाई। अपारु = बेअंत। अमोलकु = जिसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। पीजई = पीया जा सकता। मिलि = मिल के। मिलि मिलि = सदा मिल के। खावहि = खाते हैं (बहुवचन)। दीजई = बाँटा जाता है। परापति होइ = भाग्यों के मुताबिक मिलना हो। तिसै ही = उसी को ही। रंगु = आनंद। रावणे = माणते हैं। अर्थ: हे भाई! (आत्मिक रोगों को दूर करने के लिए परमात्मा का) नाम (ही) दवाई है, बहुत ही कीमती दवाई है। (यह दवाई साध-संगति में मिल के) की जा सकती है। (साध-संगति में) संत-जन सदा मिल के (यह हरी-नाम दवाई) बाँटी जाती है। पर उसी मनुष्य को यह नाम-दवाई मिलती है, जिसके भाग्यों में इस का मिलना लिखा होता है। हे भाई! मैं सदके जाता हूं उन पर से जो (हरी-नाम जप के) प्रभू-मिलाप का आनंद लेते हैं। वैदा संदा संगु इकठा होइआ ॥ अउखद आए रासि विचि आपि खलोइआ ॥ जो जो ओना करम सुकरम होइ पसरिआ ॥ हरिहां दूख रोग सभि पाप तन ते खिसरिआ ॥२३॥ {पन्ना 1363} पद्अर्थ: संदा = का। वैदा संदा संगु = वैदां संदा संगु, हकीमों का साथ, हकीमों का टोला, (आत्मिक मौत से बचाने वाले) संत जनों की संगति। अउखद = दवाई, नाम दारू। आऐ रासि = पूरा असर करती है, कारगर हो जाती है। आपि = परमात्मा स्वयं। ओना = उन (वैद्यों) के, उन संतजनों के। करम = नित्य के कर्तव्य। सुकरम = श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ पद्चिन्ह। सुकरम होइ = बढ़िया पद्चिन्ह बन के। पसारिआ = बिखरते हैं, आम लोगों के सामने आते हैं। सभि = सारे। ते = से। खिसरिआ = दूर हो जाते हैं।23। अर्थ: हे भाई! (साध-संगति में आत्मिक मौत से बचाने वाले) हकीमों (संत जनों) की संगति इकट्ठी होती है (उनकी बरती हुई बताई हुई हरी-नाम सिमरन की) दवाई (साध-संगति में) अपना पूरा असर करती है (क्योंकि उस समूह में परमात्मा स्वयं हाजिर रहता है)। (आत्मिक रोगों के वह वैद्य संत-जन) जो-जो नित्य के कर्तव्य करते हें (वह साध-संगति में आए आम लोगों के सामने) बढ़िया पद्चिन्ह प्रकट होते हैं, (इसीलिए साध-संगति में आए भाग्यशालियों के) शरीर से सारे रोग सारे पापा दूर हो जाते हैं।23। चउबोले महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ समन जउ इस प्रेम की दम क्यिहु होती साट ॥ रावन हुते सु रंक नहि जिनि सिर दीने काटि ॥१॥ प्रीति प्रेम तनु खचि रहिआ बीचु न राई होत ॥ चरन कमल मनु बेधिओ बूझनु सुरति संजोग ॥२॥ {पन्ना 1363} नोट: चउबोला एक छंद का नाम है। यहाँ 'चउबोला छंत के 11 बंद हैं। पद्अर्थ: संमन = हे संमन! हे मन वाले बंदे! हे दिल वाले व्यक्ति! हे दिल खोल के दान करने वाले बंदे! हे दानी मनुष्य! जउ = अगर। दम = दमड़े, धन। क्यिहु = से। साट = अदला बदली। होती = हो सकती। हुते = जैसे। रंक = कंगाल। जिनि = जिस (रावण) ने। सु = वह (रावण)। सिर = (शिव जी को प्रसन्न करने के लिए 11 वार अपना) सिर। काटि = काट के।1। तनु = शरीर। खचि रहिआ = मगन हुआ रहता है। बीचु = अंतर, दूरी। राई = रक्ती भर। चरन कमल = कमल फूल जैसे चरणों में। बेधिओ = भेदा गया (जैसे भौरा कमल फूल में)। बूझनु = समझ, मन की समझने की ताकत। सुरति संजोग = सुरति के साथ मिल गई है (भाव, मन लगन में ही लीन हो गया है)।2। अर्थ: हे दानी मनुष्य! (धन के बदले हरी-नाम का प्रेम नहीं मिल सकता) अगर इस प्रेम की अदला-बदली धन से हो सकती, तो वह (रावण जिसने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए ग्यारह बार अपने) सिर काट के दिए थे (सिर देने की जगह बेअंत धन दे देता, क्योंकि) रावण जैसे कंगाल तो थे नहीं।1। (हे दानी मनुष्य! देख, जिस मनुष्य का) हृदय (अपने प्रीतम के) प्रेम-प्यार में मगन हुआ रहता है (उसके अंदर से अपने प्रीतम से) रक्ती भर भी दूरी नहीं होती, (जैसे भौरा कमल-फूल में भेदा जाता है, वैसे ही उस मनुष्य का) मन (परमात्मा के) सुंदर चरणों में भेदा रहता है, उसकी समझने वाली मानसिक ताकत लगन में ही लीन रहती है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |