श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा इती आस कि आस पुराईऐ ॥ सतिगुर भए दइआल त पूरा पाईऐ ॥ मै तनि अवगण बहुतु कि अवगण छाइआ ॥ हरिहां सतिगुर भए दइआल त मनु ठहराइआ ॥५॥ {पन्ना 1362}

पद्अर्थ: इती आस = इतनी कु आस। पुराईअै = पूरी हो गई। दइआल = दयावान। त = तो। पूरा = सर्व गुण सम्पन्न। पाईअै = मिलता है। मै तनि = मेरे शरीर में। छाइआ = ढका रहता है। ठहराइआ = ठहर जाता है, विकारों की ओर डोलने से हट जाता है।5।

अर्थ: हे सहेलिए! (मेरे अंदर) इतनी सी तमन्ना बनी रहती है कि (प्रभू-मिलाप की मेरी) आशा पूरी हो जाए। पर सर्व-गुण-भरपूर प्रभू तब ही मिलता है जब गुरू दयावान हो। हे सहेलिए! मेरे शरीर में (इतने) ज्यादा अवगुण हैं कि (मेरा स्वै) अवगुणों से ढका रहता है। पर जब गुरू दयावान होता है तब मन (विकारों की ओर) डोलने से हट जाता है।5।

कहु नानक बेअंतु बेअंतु धिआइआ ॥ दुतरु इहु संसारु सतिगुरू तराइआ ॥ मिटिआ आवा गउणु जां पूरा पाइआ ॥ हरिहां अम्रितु हरि का नामु सतिगुर ते पाइआ ॥६॥

पद्अर्थ: दुतरु = (दुस्तर) जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। तराइआ = पार लंघा दिया। आवागउणु = पैदा होने मरने का चक्कर। जां = जब। पाइआ = पा लिया, मिलाप हासिल कर लिया। ते = से।6।

अर्थ: हे नानक! कह- (हे सहेलिए!) इस संसार-समुंद्र से पार लांघना बहुत मुश्किल है, पर जिस मनुष्य ने बेअंत परमात्मा का नाम सिमरना शुरू कर दिया, गुरू ने उसको पार लंघा दिया (गुरू ने उसको पूरन प्रभू से जोड़ दिया, और) जब उसने पूरन प्रभू का मिलाप हासिल कर लिया, उसका जनम मरन का चक्कर (भी) समाप्त हो गया। हे सहेलिए! परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम गुरू से ही मिलता है।6।

मेरै हाथि पदमु आगनि सुख बासना ॥ सखी मोरै कंठि रतंनु पेखि दुखु नासना ॥ बासउ संगि गुपाल सगल सुख रासि हरि ॥ हरिहां रिधि सिधि नव निधि बसहि जिसु सदा करि ॥७॥

पद्अर्थ: हाथि = हाथ में। मेरै हाथि = मेरे हाथ में। पदमु = कमल फूल (कमल फूल की रेखा)। आगनि = आँगन में (हृदय के अँगने में)। बासना = सुगंधि। सुख बासना = आत्मिक आनंद की सुगंधी। सखी = हे सहेलिए! मोरै कंठि = मेरे गले में। पेखि = देख के। बसाउ = मैं बसती हूँ। संगि गुपाल = सृष्टि के पालनहार प्रभू के साथ। सगल = सारे। सुख रासि = सुखों का सोमा। रिधि सिधि = आत्मिक ताकतें। नव निधि = (धरती के सारे) नौ खजाने। बसहि = बसते हैं। जिस करि = जिस (परमात्मा) के हाथ में। करि = हाथ में।7।

अर्थ: हे सहेलिए! जिस (परमात्मा) के हाथ में सारी ताकतें और (धरती के सारे) नौ खजाने सदा टिके रहते हैं, जो परमात्मा सारे सुखों का श्रोत है (गुरू की मेहर के सदका) मैं उस सृष्टि के पालनहार के साथ (सदा) बसती हूँ। (अब) मेरे हाथ में कमल-फूल (की रेखा बन गई) है (मेरे भाग्य जाग उठे हैं) मेरे (हृदय के) आँगन में आत्मिक आनंद की सुगंधी (बिखरी रहती) है। (जैसे बच्चों के गले में नज़र-पट्टू डाला होता है) हे सहेलिए! मेरे गले में रतन लटक रहा है (मेरे गले में नाम-रतन परोया गया है) जिसको देख के (हरेक) दुख दूर हो गया है।7।

पर त्रिअ रावणि जाहि सेई ता लाजीअहि ॥ नितप्रति हिरहि पर दरबु छिद्र कत ढाकीअहि ॥ हरि गुण रमत पवित्र सगल कुल तारई ॥ हरिहां सुनते भए पुनीत पारब्रहमु बीचारई ॥८॥

पद्अर्थ: पर त्रिअ = पराई स्त्री। रावणि जाहि = भोगने जाते हैं। सेई = वह लोग ही। लाजीअहि = (प्रभू की हजूरी में) लॅजावान होते हैं, शर्मशार होते हैं। नित प्रति = सदा ही। हिरहि = चुराते हैं (बहुवचन)। दरबु = धन। छिद्र = एैब, विकार। कत = कहाँ? ढाकीअहि = ढके जा सकते हैं। रमत = सिमरते हुए। तारई = तैरा लेता है (एकवचन)। पुनीत = पवित्र। बीचारई = विचारता है (एकवचन)।8।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पराई स्त्री भोगने जाते हैं, वे (प्रभू की हजूरी में) अवश्य शर्मशार होते हैं। जो मनुष्य सदा पराया धन चुराते रहते हैं (हे भाई! उनके यह) कुकर्म कहीं छुपे रह सकते हैं? (परमात्मा सब कुछ देख रहा है)। हे भाई! परमात्मा के गुण याद करते हुए मनुष्य (स्वयं) पवित्र जीवन वाला बन जाता है (और अपनी) सारी कुलों को (भी संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है। (जो मनुष्य परमात्मा की सिफतसालाह) सुनते हैं, वे सारे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।8।

ऊपरि बनै अकासु तलै धर सोहती ॥ दह दिस चमकै बीजुलि मुख कउ जोहती ॥ खोजत फिरउ बिदेसि पीउ कत पाईऐ ॥ हरिहां जे मसतकि होवै भागु त दरसि समाईऐ ॥९॥

पद्अर्थ: ऊपरि = ऊपर। बनै = फब रहा है। तलै = नीचे, पैरों की तरफ। धर = धरती। सोहती = (हरियाली आदि से) सजी हुई है। दह = दस। दिस = दिशा। दह दिस = दसों तरफ। बीजुलि = बिजली। जोहती = ताकती है, लिश्कारे मारती है। फिरउ = मैं फिरती हूँ। बिदेसि = परदेस में। पीउ = प्रीतम प्रभू। कत = कहाँ? पाईअै = मिल सकता है। मसतकि = माथे पर। दरसि = दर्शन में। समाईअै = लीन हो सकता है।9।

अर्थ: हे सहेलिए! ऊपर (तारों आदि से) आकाश फब रहा है, नीचे पैरों की तरफ (हरियाली आदि से) धरती सज रही है। दसों दिशाओं में बिजली चमक रही है, मुँह पर लिश्कारे मार रही है (ईश्वरीय ज्योति का कैसा सुंदर साकार सरूप है!) पर मैं (उसके इस सरगुण स्वरूप की कद्र ना समझ के) परदेस में (जंगल आदि में) ढूँढती फिरती हूँ कि प्रीतम-प्रभू कहीं मिल जाए। हे सहेलिए! अगर माथे के भाग्य जाग उठे तो (हर जगह उसके) दीदार में लीन हुआ जा सकता है।9।

डिठे सभे थाव नही तुधु जेहिआ ॥ बधोहु पुरखि बिधातै तां तू सोहिआ ॥ वसदी सघन अपार अनूप रामदास पुर ॥ हरिहां नानक कसमल जाहि नाइऐ रामदास सर ॥१०॥

पद्अर्थ: थाव = (शब्द 'थाउ' का बहुवचन) जगह। सभे थाव = सारी जगहें। तुधु जेहिआ = तेरे बराबर का। बधोहु = तुझे बाँधा हुआ है, तुझे बनाया है। पुरखि = (अकाल-) पुरख ने। बिधातै = सृजनहार ने। सोहिआ = सोहाना दिखता है। वसदी = आबादी, (ऊँचे आत्मिक गुणों की) आबादी। सघन = घनी। अपार = बेअंत। अनूप = (अन+ऊप) उपमा रहित, बेमिसाल। रामदास = राम के दास। रामदासपुर = हे राम के दासों के नगर! हे सत्संग! नानक = हे नानक! कसमल = (सारे) पाप। जाहि = दूर हो जाते हैं। रामदास सर = हे राम के दासों के सरोवर! नाइअै = (तेरे में) स्नान करने से।10

अर्थ: हे नानक! (कह-) हे राम के दासों के सरोवर! (हे सत्संग! तेरे में आत्मिक) स्नान करने से! (मनुष्य के सारे) पाप दूर हो जाते हैं। हे राम के दासों के शहर! (हे सत्संग!) (तेरे अंदर उच्च आत्मिक गुणों की) बहुत ही सघन आबादी है, बेअंत है, बेमिसाल है। हे राम के दासों के शहर! (हे सत्संगी!) तेरी नींव अकाल-पुरख सृजनहार ने स्वयं रखी हुई है, इसी लिए तू (उसके आत्मिक गुणों की बरकति से) सुंदर दिखाई दे रहा है।10।

चात्रिक चित सुचित सु साजनु चाहीऐ ॥ जिसु संगि लागे प्राण तिसै कउ आहीऐ ॥ बनु बनु फिरत उदास बूंद जल कारणे ॥ हरिहां तिउ हरि जनु मांगै नामु नानक बलिहारणे ॥११॥ {पन्ना 1362}

पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। चित सुचति = सचेत चिक्त हो के। सु = वह। चाहीअै = प्यार करना चाहिए। संगि = साथ। प्राण = जिंद। तिसै कउ = तिस ही को, उसी को। आहीअै = ढूँढना चाहिए, तलाशना चाहिए। बनु बनु = हरेक जंगल। कारणे = वास्ते। हरि जनु = परमात्मा का भगत। मांगै = माँगता है (एकवचन)।11।

अर्थ: हे भाई! पपीहे की तरह सचेत चिक्त हो के उस सज्जन-प्रभू को प्यार करना चाहिए। जिस सजजन से प्राणों की प्रीति बन जाए, उसको ही (मिलने की) तमन्ना करनी चाहिए। (हे भाई! देख, पपीहा बरखा के) पानी की एक बूँद के लिए (दरियाओं-टोभों के पानी से) उपराम हो के जंगल (ढूँढता) फिरता है। हे नानक! (कह-जो) प्रभू का सेवक (पपीहे की तरह परमात्मा का नाम) माँगता है, मैं उससे कुर्बान जाता हूँ।11।

मित का चितु अनूपु मरमु न जानीऐ ॥ गाहक गुनी अपार सु ततु पछानीऐ ॥ चितहि चितु समाइ त होवै रंगु घना ॥ हरिहां चंचल चोरहि मारि त पावहि सचु धना ॥१२॥ {पन्ना 1362}

पद्अर्थ: मित = (प्रभू) मित्र। अनूपु = (अन+ऊप) बेमिसाल, अति सुंदर। मरंमु = भेद। गाहक गुनी अपार = उस अपार प्रभू के गुणों के गाहकों से। सु ततु = वह मरंमु, वह भेद, वह अस्लियत। पछानीअै = पहचान सकते हैं। चितहि = (प्रभू के) चिक्त में। समाइ = लीन हो गए। रंगु = आत्मिक आनंद। घना = बहुत। चंचल चोरहि = हर वक्त भटक रहे (मन) चोर को। त = तो। पावहि = तू हासिल कर लेगा। सचु = सदा टिके रहने वाला।12।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा-) मित्र का चिक्त बहुत सुंदर है, (उसका) भेद नहीं जाना जा सकता। पर उस बेअंत प्रभू के गुणों के गाहक संत-जनों द्वारा वह भेद समझ लिया जाता है। (वह भेद यह है कि) अगर उस परमात्मा के चिक्त में (मनुष्य का) चिक्त लीन हो जाए, तो (मनुष्य के अंदर) बहुत आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है। सो, हे भाई! अगर तू (प्रभू के चिक्त में लीन करके) इस सदा भटकते (मन-) चोर की (चंचलता) मार ले, तो तू सदा कायम रहने वाला नाम-धन हासिल कर लेगा।12।

सुपनै ऊभी भई गहिओ की न अंचला ॥ सुंदर पुरख बिराजित पेखि मनु बंचला ॥ खोजउ ता के चरण कहहु कत पाईऐ ॥ हरिहां सोई जतंनु बताइ सखी प्रिउ पाईऐ ॥१३॥ {पन्ना 1362}

पद्अर्थ: सुपनै = सपने में (प्रभू पति को देख के)। ऊभी = ऊँची। ऊभी भई = (मैं) उठ खड़ी हुई। की न = क्यों ना? गहिओ = पकड़ा। अंचला = (प्रभू पति का) पल्ला। बिराजित = दग दग कर रहा। पेखि = देख के। बंचला = ठगा गया, मोहा गया। खोजउ = मैं खोज रही हूँ। ता के = उस (प्रभू-पति) के। कत = कहाँ? कैसे? जतंनु = यतन, उद्यम। सखी = हे सहेलिए! प्रिउ = प्यारा।13।

अर्थ: हे सहेलिए! सपने में (प्रभू-पति को देख के) मैं उठ खड़ी हुई (पर, मैं उसका पल्ला ना पकड़ सकी)। मैंने (उसका) पल्ला क्यों ना पकड़ा? (इसलिए नही पकड़ सकी क्योंकि) उस सुंदर दग-दग करते प्रभू-पति को देख के (मेरा) मन मोहित हो गया (मुझे अपने आप की सुधि ही ना रही)। अब मैं उसके कदमों की खोज करती फिरती हूँ। बताओ, हे सखिए! वह कैसे मिले? हे सखी! मुझे वह यतन बता जिससे वह प्यारा मिल जाए।13।

(नोट: अगले 'बंद' में यह यतन बताया गया है)।

नैण न देखहि साध सि नैण बिहालिआ ॥ करन न सुनही नादु करन मुंदि घालिआ ॥ रसना जपै न नामु तिलु तिलु करि कटीऐ ॥ हरिहां जब बिसरै गोबिद राइ दिनो दिनु घटीऐ ॥१४॥ {पन्ना 1362}

पद्अर्थ: नैण = आँखें। न देखहि = नहीं देखती, दर्शन नहीं करती। साध = संत जन, सत्संगी लोग। सि नैण = वह आँखें। बिहालिआ = बेहाल, बुरे हाल वालियां। करन = कान (बहुवचन)। न सुनही = नहीं सुनते। नादु = शबद, सिफतसालाह। मुंदि = (आत्मिक आनंद की ओर से) बंद करके। मुंदि घालिआ = बंद किए हुए हैं। रसना = जीभ। तिलु तिलु करि = रक्ती रक्ती कर के। कटीअै = कटी जा रही है, (दुनिया के झमेलों की बातें और निंदा आदि की कैंची से) कटी जा रही है। बिसरै = भूल जाता है। घटीअै = आत्मिक जीवन की तरफ से कमजोर होते जाता है।14।

अर्थ: हे सहेलिए! जो आँखें सत्संगियों का दर्शन नहीं करतीं, वे आँखें (दुनिया के पदार्थों और रूप को देख-देख के) बेहाल हुई रहती हैं। जो कान परमात्मा की सिफतसालाह नहीं सुनते, वे कान (आत्मिक आनंद की धुनि सुनने से) बंद किए हुए होते हैं। जो जीभ परमात्मा का नाम नहीं जपती, वह जीभ (दुनिया के झमेलों की बातें और आनंदा आदि की कैंची से हर वक्त) कटती जा रही है। हे सहेलिए! जब प्रभू-पातशाह (की याद) भूल जाए, जब दिन-ब-दिन (आत्मिक जीवन) कमजोर होता जाता है। (सो, हे सहेलिए! साध-संगति में प्रभू की सिफत-सालाह सुनते रहना, जीभ से नाम जपते रहना- यही है यतन उसको पा सकने का)।14।

पंकज फाथे पंक महा मद गु्मफिआ ॥ अंग संग उरझाइ बिसरते सु्मफिआ ॥ है कोऊ ऐसा मीतु जि तोरै बिखम गांठि ॥ नानक इकु स्रीधर नाथु जि टूटे लेइ सांठि ॥१५॥ {पन्ना 1362-1363}

पद्अर्थ: पंक = कीचड़। पंकज = (कीचड़ के ऊपर उगे हुए) कमल फूल। पंक = पंख, भौरों के पंख। मद = सुगंधी। महा मद = तीव्र सुगंधी। गुंफिआ = (गुंफ् = to string or weave to gether, गूंदना) गूंदा जा के, फस के, फसने के कारण, मस्त हो जाने के कारण। अंग संग उरझाइ = (कमल फूल की) पंखुड़ियों में उलझ के। सुंफिआ = खिलना, खुशी, एक फूल से उड़ के दूसरे फूल पर जाना, उड़ना। जि = जो। तोरै = तोड़ दे। बिखम = मुश्किल। गांठि = गाँठ। स्रीधर = लक्ष्मी का आसरा। लेइ सांठि = गाँठ लेता है।

अर्थ: हे भाई! (कमल-फूल की) तीव्र सुगंधी में मस्त हो जाने के कारण (भौरे के) पंख कमल-फूल (की पंखड़ियों) में फस जाते हैं, (उन) पंखड़ियों से उलझ के (भौरे को) उड़ानें भरनी भूल जाती हैं (यही हाल है जीव-भौरे का)। कोई विरला ही ऐसा (संत-) मित्र मिलता है जो (इस जीव-भौरे की जिंद को माया के मोह की पड़ी हुई) पक्की गाँठ तोड़ सकता है। हे नानक! लक्ष्मी का आसरा (सारे जगत का) नाथ प्रभू ही समर्थ है जो (अपने से) टूटे हुओं को दोबारा गाँठ लेता है।15।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh