श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1361 मरणं बिसरणं गोबिंदह ॥ जीवणं हरि नाम ध्यावणह ॥ लभणं साध संगेण ॥ नानक हरि पूरबि लिखणह ॥१५॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: मरणं = मौत। बिसरणं गोबिंदह = परमात्मा को विसारना। पूरबि लिखणह = पूर्बले समय में लिखे अनुसार। बिसरणं = (विस्मरणं) भुलाना, बिसारना। पूरबि = (पुर्व) पूर्बले समय में। साध संगेण = (साधु संगेन) गुरू की संगति से। लभणं = लभनं। अर्थ: गोबिंद को बिसारना (आत्मिक) मौत है, और परमात्मा का नाम चेते रखना (आत्मिक) जीवन है पर हे नानक! प्रभू (का सिमरन) साध-संगति में पूर्बले लिखे अनुसार मिलता है।15। भाव: परमात्मा की सिफतसालाह मनुष्य के लिए आत्मिक जीवन है, यह दाति साध-संगति में से मिलती है। दसन बिहून भुयंगं मंत्रं गारुड़ी निवारं ॥ ब्याधि उपाड़ण संतं ॥ नानक लबध करमणह ॥१६॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: दसन = दाँत (दशन = a tooth। दंश् = to bite)। भुयंगं = (भुजंग = a serpent) साँप। ब्याधि = (ailment) रोग। करमणह = सौभाग्य से। गारुड़ी = गरुड़ मंत्र को जानने वाला, साँप का जहर दूर करने वाली दवाई का जानकार (गरुड़ = a charm against snake-poison)। लबध = (लब्ध) मिलता। अर्थ: (जैसे) गरुड़-मंत्र जानने वाला मनुष्य साँप को दंत-हीन कर देता है और (साँप के जहर को) मंत्रों से दूर कर देता है, (वैसे ही) संत-जन (मनुष्य के आत्मिक) रोगों का नाश कर देते हैं। पर, हे नानक! (संतों की संगति) सौभाग्य से मिलती है।16। भाव: साध-संगति में टिकने से मनुष्य के सारे आत्मिक रोग दूर हो जाते हैं। जथ कथ रमणं सरणं सरबत्र जीअणह ॥ तथ लगणं प्रेम नानक ॥ परसादं गुर दरसनह ॥१७॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: जथ कथ = जहाँ कहाँ, हर जगह। तब = उस में। परसादं = कृपा (प्रसाद)। सरण = ओट, आसरा (शरणं)। सरबत्र = (सर्वत्र = in all places) सारे। रमण = व्यापक। अर्थ: जो परमात्मा हर जगह व्यापक है और सारे जीवों का आसरा है, उसमें, हे नानक! गुरू के दीदार बरकति से ही (जीव का) प्यार बनता है।17। भाव: गुरू की संगति करने से ही परमात्मा के साथ प्यार बनता है। चरणारबिंद मन बिध्यं ॥ सिध्यं सरब कुसलणह ॥ गाथा गावंति नानक भब्यं परा पूरबणह ॥१८॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: चरणारबिंद = (चरण+अरविंद) चरण कमल। बिध्यं = (विद्धं) भेदा हुआ। कुसलणह = (कुशल) सुख। गाथा = सिफतसालाह। भब्यं = (भव्य = prosperity) भावी, नसीब। परा पूरबणह = बहुत पूर्ब काल के। अरबिंद = (अरविंद) कमल का फूल। गावंति = (गायन्ति) गाते हैं। अर्थ: (जिस मनुष्य का) मन (परमात्मा के) सुंदर चरणों में भेदित होता है, (उसको) सारे सुख मिल जाते हैं। पर, हे नानक! वही लोग परमात्मा की सिफतसालाह गाते हैं जिनके पूर्बले भाग्य हों।18। भाव: सिफतसालाह की बरकति से मनुष्य का जीवन सुखी हो जाता है। सुभ बचन रमणं गवणं साध संगेण उधरणह ॥ संसार सागरं नानक पुनरपि जनम न लभ्यते ॥१९॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: पुनरपि = पुनह अपि, फिर भी, बार बार (पुनरपि, पुनःअपि)। सुभ बचन = सुंदर बोल, सिफतसालाह की बाणी। रवण = उच्चारण करना। गवण = जाना, पहुँचना (गमनं)। उधरणह = (उध्दरणं) उद्धार। साध संगेण = (साधु संगेन) गुरू की संगति से। अर्थ: (जो मनुष्य) साध-वंगति में जा के परमात्मा की सिफतसालाह की बाणी उच्चारते हैं (उनका) उद्धार हो जाता है। हे नानक! उनको (इस) संसार-समुंद्र में बार-बार जनम नहीं लेना पड़ता।1। भाव: साध-संगति में टिक के सिफतसालाह करने से विकारों से बचा जाता है। बेद पुराण सासत्र बीचारं ॥ एकंकार नाम उर धारं ॥ कुलह समूह सगल उधारं ॥ बडभागी नानक को तारं ॥२०॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: बडभागी को = कोई भाग्यशाली मनुष्य। उर = (उरस = heart) हृदय। ऐकंकार नाम = एक परमात्मा का नाम। कुलह समूह = सारी कुलें। अर्थ: हे नानक! जो कोई भाग्यशाली मनुष्य वेद पुराण शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तकों को) विचार के एक परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाता है, वह (स्वयं) तैर जाता है और अपनी अनेकों सारी कुलों को तैरा लेता है।20। भाव: धर्म पुस्तकों को पढ़ने से असल भाव यही मिलना चाहिए कि मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरे। सिमरणं गोबिंद नामं उधरणं कुल समूहणह ॥ लबधिअं साध संगेण नानक वडभागी भेटंति दरसनह ॥२१॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: भेटंति = मिलते हैं। भेटंति दरसनह = दर्शन करते हैं। लबधिअं = (लब्धय) मिलता है। साध संगेण = (साधु संगेन) गुरू की संगति से। सिमरणं = (स्मरणं)। अर्थ: गोबिंद का नाम सिमरने से सारी कुलों का उद्धार हो जाता है, पर, (गोबिंद का नाम) हे नानक! साध-संगति में मिलता है, (और साध-संगति का) दर्शन बड़े भाग्यशाली (व्यक्ति) करते हैं।21। भाव: परमात्मा के नाम की दाति साध-संगति में से मिलती है। सरब दोख परंतिआगी सरब धरम द्रिड़ंतणः ॥ लबधेणि साध संगेणि नानक मसतकि लिख्यणः ॥२२॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: दोख = (दोष) विकार। परं = पूरे तौर पर, अच्छी तरह। तिआगी = त्यागने वाला (बनना)। द्रिढ़ंतण: = (हृदय में) पक्का करना। मसतकि = (मस्तक = माथा। मस्तके = माथे पर) माथे पर। लिख्यण: = लिखा हुआ लेख। अर्थ: हे नानक! सारे विकार अच्छी तरह त्याग देने और धर्म को पककी तरह (हृदय में) टिकाना- (यह दाति उस बंदे को) साध-संगति में मिलती है (जिसके) माथे पर (अच्छा) लेखा लिखा हो।22। भाव: उस मनुष्य के भाग्य जाग उठे जानो जो साध-संगति में जाने लग जाता है। साध-संगति में नाम सिमरन से सारे विकार दूर हो जाते हैं। होयो है होवंतो हरण भरण स्मपूरणः ॥ साधू सतम जाणो नानक प्रीति कारणं ॥२३॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: होयो = जो पिछले समय में मौजूद था। है = जो अब भी मौजूद है। होवंतो = जो आगे भी मौजूद होगा। हरण = नाश करने वाला। भरण = पालने वाला। संपूरण: = व्यापक। सतम = (सत्यं) निष्चय कर के। जाणो = समझो। अर्थ: जो परमात्मा भूत वर्तमान भविष्य में सदा ही स्थिर रहने वाला है, जो सब जीवों का नाश करने वाला है सबको पालने वाला है और सबमें व्यापक है, हे नानक! उसके साथ प्यार डालने का कारण निष्चय ही संतों को समझो।23। भाव: साध-संगति से ही परमात्मा का प्यार बन सकता है। सुखेण बैण रतनं रचनं कसु्मभ रंगणः ॥ रोग सोग बिओगं नानक सुखु न सुपनह ॥२४॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: सुखेण = सुखदाई। बैण रतनं = (वचन, वअण) बोल रूप रतन। रचनं = मस्त होना। कसुंभ रंगण: = (माया) कसुंभ के रंगों में। बिओग = वियोग, विछोड़ा, दुख। सुपनेह = (स्व्प्ने)। सोग = (शोक) चिंता। अर्थ: हे नानक! (माया-) कसुंभ के रंगों में और (माया संबन्धी) सुखदाई सुंदर बोलों में रहने से रोग चिंता और दुख ही व्यापते हैं। सुख सपने में भी नहीं मिल सकता।24। भाव: माया के रंग-तमाशे कुसंभ के फूल जैसे ही हैं। इनमें फसे रहने से सुख नहीं मिल सकता। (नोट: सहसक्रिती सलोक और गाथा का टीका अगसत 1955 में लिखा और सितंबर 1963 में इस टीके की सुधाई की)। फुनहे महला ५ का भाव हरेक व्यकित का अलग-अलग इस जगत रचना में सृजनहार प्रभू हरेक जीव के अंग-संग मौजूद है। उसकी कुदरति में मर्यादा ही इस प्रकार है कि जीव के किए कर्मों के संस्कार उसके मन में इकट्ठे होते जाते हैं, जैसे उसके माथे पर लेख लिखे जाते हैं। साध-संगति में जिस मनुष्य का उठना-बैठना हो जाता है, वहाँ वह परमात्मा की सिफतसालाह करता है। इसी तरह, उसके माथे के भाग्य जाग उठते हैं, और उसकी सुरति परमात्मा के चरणों में जुड़ने लगती है। दुनिया के मौज मेले, शारीरिक भले ही कितने ही क्यों ना हों; पर जब तक मनुष्य का मन परमात्मा के चरणों में नहीं जुड़ता, इसको आत्मिक आनंद हासिल नहीं होता। जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा आ बसता है, उसका जीवन कामयाब हो जाता है। जो भी मनुष्य ऐसे व्यक्ति की संगति करता है, वह भी परमात्मा की सिफतसालाह करने लग जाता है। माया के योद्धे कामादिक इतने बली हैं कि कोई मनुष्य अपने उद्यम के बल पर इनके हमले से बच नहीं सकता। जिस मनुष्य पर गुरू दयावान होता है उसका मन टिक जाता है, और वह परमात्मा की याद में जुड़ने लग जाता है। विकारों-भरे इस संसार-समुंद्र से पार लांघना बहुत ही मुश्किल खेल है। गुरू ही मनुष्य को परमात्मा की सिफतसालाह में जोड़ के विकारों से बचाता है। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम गुरू से ही मिलता है। बुरी नजर से बचाने के लिए लोग अपने बच्चों के गले में नज़र-पट्टू डालते हैं। गुरू की मेहर से जिस मनुष्य के गले में राम-रतन परोया जाता है, उसके भाग्य जाग उठते हैं, कोई विकार-दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता। उसके अंदर हर वक्त आत्मिक आनंद की सुगन्धि बिखरी रहती है। पर तन, पर धन आदिक विकार मनुष्य को शर्मसार करते है। पर, जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है उसका जीवन पवित्र हो जाता है, वह मनुष्य अपने सारे साथियों संबन्धियों को भी विकारों से बचा लेता है। पर तन, पर धन आदिक विकारों से बचने के लिए गृहस्त छोड़ के जंगलों में जा डेरा लगाना जीवन का सही रास्ता नहीं है। ये सारा जगत परमात्मा का रूप है। गुरू की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है, वह हर वक्त उसके दर्शनों में मस्त रहता है। गुरू की संगति एक सरोवर है जिसमें आत्मिक स्नान करने से मनुष्य के मन के सारे पाप धुल जाते हैं। साध-संगति, मानो, एक शहर है जिसमें आत्मिक गुणों की सघन आबादी है। साध-संगति में टिकने से दुनिया के पाप-विकार अपना जोर नहीं डाल सकते। पपीहा बरखा के पानी की एक बॅूँद के लिए दरियाओं, टोभों के पानी से उपराम हो के जंगल ढूँढता फिरता है। जो मनुष्य पपीहे की तरह परमात्मा का नाम माँगता है वह भाग्यशाली है। साध-संगति में टिक के ये समझ आती है कि अगर मनुष्य परमात्मा की सिफतसालाह में अपने मन को जोड़े, तो ये सदा-भटकता मन माया के पीछे भटकने से हट के परमात्मा के नाम-धन का प्रेमी बन जाता है। परमात्मा की याद है ही ऐसी स्वादिष्ट कि ये मनुष्य में कसक डालने लगती है। फिर वह भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा के मिलाप को ही अपनी जिंदगी का सबसे ऊँचा निशाना समझता है। जब परमात्मा की याद भूल जाए तब हम दिन-ब-दिन आत्मिक जीवन के पक्ष से कमजोर होते जाते हैं, आँखें, पर धन, पर तन को देख-देख के बेहाल हुई रहती हैं, जीभ निंदा आदि करने में और कान निंदा चुगली आदि सुनने में व्यस्त रहते हैं। कमल फूल की तेज सुगन्धि में मस्त हो के भँवरा फूल पर से उड़ना भूल जाता है। यही हाल होता है जीव-भौरे का। परमात्मा की याद भुला के मनुष्य की जिंद को माया के मोह की पक्की गाँठ बँध जाती है। कामादिक पाँचों वैरी मनुष्य को सदा ही सताते रहते हैं। इनको मारने का एक ही तरीका है कि गुरू का आसरा ले के सिमरन के तेज तीर सदा ही चलाते रहें। गुरू की शरण पड़ के हरी-नाम की दाति बरतने वाला मनुष्य विकारों की मार से बचा रहता है। परमात्मा स्वयं ही यह दाति देता है। जिसको मिलती है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। परमात्मा का नाम जप के मनुष्य के मन में आत्मिक आनंद पैदा होता है। जिस जगह पर बैठ के कोई प्रेमी जीव नाम जपता है उस जगह के ज़ॅरे-ज़ॅरे में सिफतसालाह की रौंअ चल पड़ती है। वहाँ का सुहावना वायुमण्डल वहाँ आ के बैठे किसी मनुष्य के अंदर भी सिमरन के हिल्लौरे पैदा कर देता है। मायावी पदार्थों के हवाई किलों को देख-देख के खुश होते रहना जीवन का गलत रास्ता है। इनके मोह में फसे रहके जिंदगी की बेड़ी बहुत समय तक सुख से नहीं चलाई जा सकती। यह मोह तो मनुष्य को परमात्मा की याद से दूर परे ले जाता है। इन हवाई किलों के आसरे कुकर्मों की गंदगी में फस के मनुष्य अपने अमूल्य जन्म को कौड़ी से भी हल्का कर लेता है, अहंकार के अंधेरे में भटकता फिरता है। मनुष्य को मौत भी नहीं सूझती। आखिर उम्र की मियाद पूरी हो जाने पर मौत आ पकड़ती है, और, यह मायावी पदार्थ यहीं धरे रह जाते हैं। सिर्फ मायावी पदार्थों के लिए ही की हुई मेहनत व्यर्थ चली जाती है। दुनिया के पदार्थों का मोह तो मनुष्य को विकारों की तरफ प्रेरित करता है; पर परमात्मा का नाम दवाई है जो विकारों में गलने से बचाती है। जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको यह दवाई साध-संगति में से मिलती है। वह मनुष्य परमात्मा के मिलाप का आनंद पाता है। संत-जन विकारी लोगों को विकार-रोगों से बचाने के लिए, मानो, हकीम हैं। उन संत-जनों के नित्य के कर्तव्य साध-संगति में आए आम लोगों के लिए बढ़िया पद्-चिन्ह बन जाते हैं। इस वास्ते साध-संगति में आए भाग्यशालियों के शरीर से सारे दुख सारे रोग सारे पाप दूर हो जाते हैं। लड़ी-वार भाव: (1 से 4) सृजनहार प्रभू की बनाई मर्यादा के अनुसार मनुष्य के किए हुए कर्मों के संस्कार उसके मन में इकट्ठे होते रहते हैं, और, आगे उसी तरह के कर्म करने की प्रेरणा करते रहते हैं। जो मनुष्य साध-संगति में आता है उसके अंदरूनी भले संस्कार जाग उठते हैं, वह परमात्मा के सिमरन की तरफ पलटता है, उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है। (5 से 10) कोई मनुष्य उपने उद्यम के आसरे कामादिक विकारों के हमलों से बच नहीं सकता। विकारों भरे इस संसार-समुंद्र में से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघानी एक बड़ी मुश्किल खेल है। परमात्मा का नाम ही है आत्मिक जीवन देने वाला, और, यह मिलता है, गुरू से साध-संगति में। साध-संगति एक सरोवर है, इसमें आत्मिक स्नान करने से मनुष्य के मन के सारे पाप धुल जाते हैं। (11 से 13) भाग्यशाली है वह मनुष्य जो पपीहे की तरह नाम-जल सदा माँगता है। इसकी बरकति से मन माया के पीछे भटकने से हट जाता है, क्योंकि परमात्मा की याद है ही ऐसी स्वादिष्ट कि ये मनुष्य के मन को सदा अपनी ओर खींचती रहती है। (14 से 18) परमात्मा की याद भुलाने से मनुष्य का मन आत्मिक जीवन के पक्ष से कमजोर हो जाता है, मनुष्य की जिंद माया के मोह में बँध जाती है, कामादिक वैरी सदा सताने लग जाते हैं। अगर इनकी मार से बचना है तो गुरू का आसरा ले के सिमरन के तेज़ तीर चलाते रहो। जिस जगह कोई भाग्यशाली मनुष्य नाम सिमरता है उस जगह का वायु-मण्डल ऐसा बन जाता है कि वहाँ आ के बैठे मनुष्य के अंदर भी सिमरन का हुलारा पैदा कर देता है। (19 से 23) मायावी पदार्थों का आसरा हवाई किलों की तरह ही है, मनुष्य कुकर्मों की गंदगी में फस जाता है, मौत आने पर ये पदार्थ यहीं धरे रह जाते हैं। परमात्मा का नाम ही एक-मात्र दवाई है जो विकारों में गलने से बचाती है, यह मिलती है साध-संगति में। साध-संगति क्या है? विकारी लोगों को विकार-रोगों से बचाने वाले संत-जन-हकीमों का समूह। इस समूह में वह व्यक्ति आता है जिस पर परमात्मा की मेहर होती है। मुख्य भाव: मनुष्य के किए कर्मों के संस्कार उसके मन में इकट्ठे होते रह के उसी दिशा में ही उसको प्रेरित करते रहते हैं। इन पहले संस्कारों के कारण ही मनुष्य अपने उद्यम से विकारों हमलों से बच नहीं सकता। एक ही तरीका है बचने का। गुरू का आसरा लो। जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है वह गुरू की संगति में आ के सिमरन की आदत बनाता है। सिमरन ही दवाई है विकारों से बचाने वाली, यह मिलती है संत-जन-हकीमों से जो साध-संगति में इकट्ठे हो के बाँटते हैं। फुनहे महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हाथि कलम अगम मसतकि लेखावती ॥ उरझि रहिओ सभ संगि अनूप रूपावती ॥ उसतति कहनु न जाइ मुखहु तुहारीआ ॥ मोही देखि दरसु नानक बलिहारीआ ॥१॥ {पन्ना 1361} फुनहे- (पुनः पुनह, बार बार, फिर। इसका प्राक्रित रूप बाणी में 'फुनि' आया है) वह 'छंत' जिसके हरेक 'बंद' में कोई एक शब्द 'फनि' (बार-बार) आया है। इस छंत के बंदों में शब्द 'हरिहां' बार-बार आता है। पद्अर्थ: हाथि = (तेरे) हाथ में। अगंम = हे अपहुँच हरी! मसतकि = (जीवों के) माथे पर। उरझि रहिओ = (तू) मिला हुआ है। संगि = साथ। अनूप रूपावती = हे अनूप रूप वाले! उसतति = वडिआई। मुखहु = मुँह से। मोही = मैं मोही गई हूँ, मेरा मन मोहा गया है। देखि = देख के। अर्थ: हे नानक! (कह-) हे अपहुँच प्रभू! (तेरे) हाथ में कलम है (जो सब जीवों के) माथे पर (लेख) लिखती जा रही है। हे अति सुंदर रूप वाले! तू सब जीवों के साथ मिला हुआ है। (किसी भी जीव द्वारा अपने) मुँह से तेरी उपमा बयान नहीं की जा सकती। मैं तुझसे सदके हूँ, तेरे दर्शन करके मेरा मन मोहा गया है।1। संत सभा महि बैसि कि कीरति मै कहां ॥ अरपी सभु सीगारु एहु जीउ सभु दिवा ॥ आस पिआसी सेज सु कंति विछाईऐ ॥ हरिहां मसतकि होवै भागु त साजनु पाईऐ ॥२॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: बैस = बैठक, उठना बैठना। कि = ता कि। कीरति = सिफतसालाह। कहा = कहूँ। अरपी = मैं भेट कर दॅूँ। जीउ = जिंद। दिवा = मैं दे दूँ। आस पिआसी सेज = (दर्शन की) आस की तमन्ना वाली हृदय सेज। कंति = कंत ने। हरिहां = हे हरी! मसतकि = माथे पर। पाईअै = मिलता है।2। अर्थ: (हे सहेली! मेरी ये तमन्ना है कि) साध-संगति में उठना-बैठना हो जाए ताकि मैं (परमात्मा की) सिफतसालाह करती रहूँ। (उस पति-प्रभू के मिलाप के बदले में) मैं (अपना) सारा श्रृंगार भेट कर दूँ, मैं अपनी जिंद भी हवाले कर दॅूँ। (दर्शन की) आस की तमन्ना वाली की मेरी हृदय-सेज कंत-प्रभू ने (स्वयं) बिछाई है। हे सहेलिए! अगर माथे के भाग्य जाग उठें तब ही सज्जन-प्रभू मिलता है।2। सखी काजल हार त्मबोल सभै किछु साजिआ ॥ सोलह कीए सीगार कि अंजनु पाजिआ ॥ जे घरि आवै कंतु त सभु किछु पाईऐ ॥ हरिहां कंतै बाझु सीगारु सभु बिरथा जाईऐ ॥३॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: सखी = हे सहेलिए! काजल = सुरमा। तंबोल = पान। साजिआ = तैयार कर लिया। सोलह = सोलह। अंजनु = सुरमा। पाजिआ = पा लिया। घरि = घर में। कंतु = पति। पाईअै = प्राप्त कर लेते हैं। बाझु = बिना। बिरथा = व्यर्थ। अर्थ: हे सहेलिए! (यदि) काजल, हार, पान - ये सब कुछ तैयार भी कर लिया जाए, (यदि) सोलह श्रृंगार भी कर लिए जाएं, और (आँखों में) सुरमा भी लगा लिया जाए, तो भी अगर पति ही घर आए, तब ही सब कुछ प्राप्त होता है। पति (के मिलाप) के बिना सारा श्रृंगार व्यर्थ चला जाता है (यही हाल है जीव-स्त्री का)।3। जिसु घरि वसिआ कंतु सा वडभागणे ॥ तिसु बणिआ हभु सीगारु साई सोहागणे ॥ हउ सुती होइ अचिंत मनि आस पुराईआ ॥ हरिहां जा घरि आइआ कंतु त सभु किछु पाईआ ॥४॥ {पन्ना 1361} पद्अर्थ: जिसु घरि = जिस (जीव स्त्री) के (हृदय-) घर में। सा = वह (जीव स्त्री)। बणिआ = फबा। हभु = सारा। साई = वह ही। हउ = मैं। अचिंत = बेफिक्र, चिंता रहित। सुती = (प्रभू पति के चरनों में) लीन हो गई हूँ। मनि = मन में (टिकी हुई)। पुराईआ = पूरी हो गई। घरि = (हृदय) घर में।4। अर्थ: हे सहेलिए! जिस (जीव-सत्री) के (हृदय-) घर में प्रभू-पति बस जाता है, वह भाग्यशाली हो जाती है। (आत्मिक जीवन ऊँचा करने के लिए उसका सारा उद्यम) उसका सारा श्रंृगार उसको फब जाता है, वह (जीव-स्त्री) ही पति वाली (कहलवा सकती है)। (इस प्रकार की सोहागन की संगति में रह के) मैं ( भी अब) चिंता-रहित हो के (प्रभू-चरणों में) लीन हो गई हूँ, मेरे मन में (मिलाप की पुरानी) आशा पूरी हो गई। हे सहेलिए! जब (हृदय-) घर में पति (प्रभू) आ जाता है तब हरेक मांग पूरी हो जाती है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |